नैनीताल
ग्रीष्मावकाश बिताने की जगह नैनीताल। गर्मी से बचने की जगह नैनीताल। नवविवाहित
जोड़ों के लिए मधु मास (हानी मून) की जगह नैनीताल। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए नैनीताल। बर्फ के लिए नैनीताल। सप्ताह-अंत के लिए नैनीताल। और इन सबसे अलग हट कर शांत एवं आध्यात्म
की जगह भी नैनीताल। अगर आप आध्यात्मिक नैनीताल की खोज में हैं तो
नैनीताल, बड़ा बाज़ार से करीब २.५ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ कर बारा
पत्थर के नजदीक वन निवास, श्री अरविंद आश्रम में पधारें।
यहाँ आकर आपको शोर शराबे से अलग, पहाड़ के शिखर पर, साफ सुथरा, शांत और शुद्ध वातावरण मिलेगा। चारों दिशाओं में पहाड़ का निर्मल दृश्य,
पेड़-पत्ती, नीला आसमान और आश्रमवासियों के अलावा और कोई नहीं
दिखेगा। आश्रम के नाम से घबराइये मत। कोई भी गेरुआ, सफ़ेद, लाल या और किसी अन्य आश्रमी परिधान में नजर नहीं आयेगा। स्वाभाविक
कुर्ते-पैजामे, पतलून-कमीज-जीन्स, साड़ी-सूट
में घूमते फिरते पुरुष, नारी और बच्चे नजर आयेंगे। शुद्ध
शाकाहारी भोजन – सुबह की चाय से लेकर रात के भोजन तक – की पूरी व्यवस्था आश्रम की
तरफ से।
वन निवास
सत्रहवीं सदी में स्कॉटलैंड का एक सैलानी
भारत भ्रमण पर आया और घूमते घूमते पहुंचा नैनीताल। बारा पत्थर के पास ऊंचे पहाड़ के
नजदीक उस यात्री को उसकी ऊंचाई नापने की
इच्छा हुई और उस दुर्गम रास्ते पर उसके कदम बढ़ने लगे। चढ़ते चढ़ते, पहाड़ के सर्वोच्च शिखर पर जा पहुँचा। मनोहारी दृश्य, शीतल हवा, अरण्य का वातावरण, शहर
से दूर एकदम शांत और निस्पृह। उसे एकाएक याद आ गई अपनी जन्मभूमि स्कॉटलैंड की सबसे ऊंची चोटी “बेन नेविस” की। स्कॉटलैंड के पहाड़ों की वह सबसे
ऊंची चोटी उसके आँखों के सामने तैरने लगी। सपने को साकार किया, उसी जगह पर एक छोटा सा बंगला बनवाया और नाम दिया “बेन नेविस”। यह बात है १८६०
के आसपास की।
इसके कुछ वर्षों बाद १८९० में नेपाल के राणा यहाँ आए। राणा परिवार नेपाल नरेश
के प्रधान मंत्रियों का परिवार था। इस जगह
को देख कर उन्हें एवरेस्ट की याद आई। उनसे भी नहीं रहा गया और स्कॉटलैंड के उस निवासी
से बेन नेविस को खरीद लिया। लेकिन उसके सम्मान में उस जगह के नाम में परिवर्तन
नहीं किया। ११ वर्षों के बाद मई १९०१ में श्री अरविंद नैनीताल आए। बरोदा के महाराजा
श्री गायकवाड भी उस समय नैनीताल में ही थे और श्री अरविंद उनके अतिथि थे। नैनीताल
में उनका निवास “ब्रूकिल हाउस” में था। यह निवास नैनीताल मुख्य न्यायालय के ठीक
पीछे है और अब यह नैनीताल के मुख्य
न्यायाधीश का निवास स्थान है। उस समय नेपाल के राणा भी यहीं मौजूद थे। यह विश्वास
किया जाता है कि जब एक ही शहर में शाही परिवार की दो हस्तियाँ मौजूद थीं तो नेपाल
के राणा ने निश्चित रूप से बरोदा के महाराज को अपने निवास स्थान पर बुलाया होगा।
श्री अरविंद भी तब तक मशहूर हो चुके थे और लोग उन्हें जानने लगे थे। अत: उनके साथ श्री अरविंद भी यहाँ आए होंगे और यह
जगह देखी होगी। १९६८ में श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर ने राणा से “बेन नेविस” को खरीद लिया। श्री
सुरेन्द्र नाथ ने ही श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली की नींव रखी थी । वहीं, दिल्ली में उसी समय
“मदर्स इंटरनेशनल स्कूल” भी प्रारम्भ हुआ। आज इस
विद्यालय का नाम दिल्ली के कुछ एक
अच्छे विद्यालयों मे लिया जाता है। सुरेन्द्र नाथ दिल्ली से प्रायः खुद गाड़ी चला कर नैनीताल आया करते थे। उस समय यहाँ न बिजली थी न ही और
कोई सुख सुविधा। यहाँ के निवासियों की
सहायता से ही पूरी व्यवस्था कर सुरेन्द्र्नाथ १०-१५ दिन यहाँ निवास करते थे। यहाँ
तक आने के लिए सही रास्ता भी नहीं था। इसी दौरान उनके मन में आया कि दिल्ली के विद्यालय से कुछ बच्चों को भी साथ में
लाया जाय। और इस प्रकार यहाँ प्रारम्भ हुआ “युवा-शिविर”। १०-१५ बच्चे सुरेन्द्रनाथ
के साथ आते। सब कार्य अपने हाथों से करते थे। साफ सफाई से लेकर लकड़ी जमा करके आग
में खाना बनाने तक। इस प्रकार उन बच्चों की छुट्टियाँ भी बहुत अच्छी व्यतीत होती और
सीखने को भी मिलता। धीरे धीरे सुरेन्द्रनाथ से
परिचित विद्यालयों ने उनके विद्यालय के छात्रों को भी लाने का अनुरोध किया।
उनके लिए कमरों एवं अन्य व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी। आश्रम का थोड़ा विकास हुआ। आस पास के लोगों को
जोड़ कर पर्वतारोहण (माउंटेनियरिंग) की शिक्षा प्रारम्भ की गई। एक व्यवस्थित “युवा-शिविर” की नींव १९७८ में पड़ी। धीरे धीरे इन बच्चों के साथ
बुजुर्ग भी आने लगे और दिल्ली विभाग के तर्ज़ पर नैनीताल में भी “अध्ययन – शिविर”
को प्रारम्भ करने की मांग उठने लगी। अत: अध्ययन शिविर भी छोटे रूप में प्रारम्भ किया गया। लेकिन जैसे जैसे
प्रतिभागियों की संख्या बढ़ने लगी इस स्थान को
विकसित करने का विचार आया। एक वर्ष के लिए सभी शिविर बंद किए गए। २००४ में
आश्रम का पूर्ण नवीनीकरण किया गया। “फकीर कुटीर” एवं “आरोहण” का भी उसी समय
निर्माण किया गया। आरोहण में लगभग ५०-५०
लड़के और लड़कियां रह सकते हैं, “युवा-शिविर” के लिए। “फकीर कुटीर” तथा प्रमुख भवन
में ५५-६० लोगों के रहने की सुविधा है, अध्ययन
शिविर के प्रतिभागियों के लिए। आज हम
आश्रम का जो स्वरूप्प देखते हैं वह उसी समय बना।
वन निवास श्री अरविंद आश्रम – दिल्ली शाखा
के अंतर्गत आता है। यहाँ की गतिविधियां एवं आरक्षण भी वहीं से होती हैं। वर्ष भर, शीतकाल छोड़ कर, सात दिनों के “अध्ययन शिविर” चलते रहते हैं – हिन्दी, अँग्रेजी, मराठी, मलयालम, गुजराती, ओड़िया एवं अन्य भाषयों में श्री अरविंद एवं माँ के “योग”, स्वाध्याय, आयुर्वेद,
आहार-विहार एवं अन्य विषयों पर। रोज
योगाभ्यास, ध्यान, ट्रेकिंग आदि
का भी आयोजन होता है। ट्रेकिंग में
नैनीताल माल रोड, नैनी पीक, टिफिन टॉप, लवर्स पॉइंट, डोरोथी सीट आदि ले जाते हैं। इनमें से
किसी में भी भाग लेना आवश्यक नहीं हैं। इसके साथ साथ बच्चों एवं नव-युवकों के लिए
अलग “युवा-शिविर” चलते हैं उनमें भी अलग अलग विषयों पर यथा – संगीत, कला, नृत्य, चित्रकारी की
शिक्षा दी जाती है और साथ साथ स्वस्थ्य रहने के गुर, योगाभ्यास, ट्रेकिंग, पर्वतारोहण आदि का अभ्यास कराया जाता है।
श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर
श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर का प्रारम्भिक जीवन चुनौतीपूर्ण रहा। स्वतन्त्रता संग्राम
से जुड़े रहने के कारण पिता से उनकी अनबन रही और उन्हे घर त्यागना पड़ा। मित्रों एवं
संबंधियों ने भी विशेष सहयोग नहीं किया। शिक्षा भी समुचित रूप से नहीं हो सकी। इन
सबके बावजूद कड़ी मेहनत, आत्मविश्वास और तीव्र बुद्धि के कारण
सांसारिक जीवन में अभूतपूर्व सफलता अर्ज की। पांडीचेरी में माँ एवं श्री अरविंद से
बहुत प्रभावित हुवे। वापस दिल्ली आने के बाद निर्णय लिया और माँ को लिखा कि वे अपना सर्वस्व माँ एवं श्री
अरविंद को अर्पित कर रह हैं और पांडिचेरी आ रहे हैं। माँ ने उन्हे रोका, और लिखा कि उनके पास दिल्ली में
ही बहुत काम है। अत: वे दिल्ली में ही रुकें और वहीं से आश्रम का कार्य करें। उनके
सुझाव पर उन्होने दिल्ली आश्रम की नींव डाली, जिसका विधिवत
उदघाटन १२ फरवरी १९५६ को हुआ। समय के साथ
आश्रम का विस्तार होता गया और स्वरूप भी सँवरता गया। कहा जाता है कि श्री
सुरेन्द्र जी को कभी अपने लिए भी पहनने के कपड़ों की अवश्यकता होती तो माँ को लिख
कर उनसे आज्ञा लिए बिना नहीं लेते। उन्होने अपना खुद का नाम “फकीर” रख लिया। वन-निवास
नैनीताल में एक भवन का नाम उनही के इस नाम पर “फकीर कुटीर” रखा गया।
शिविर
हमारे शिविर में दो विषय एवं दो वक्ता थे। पहला – योग, साधना और स्वाध्याय। यह विषय डा. सुरेश त्यागी ने लिया। विषय काफी गूढ़ एवं
गंभीर था लेकिन त्यागीजी ने इसे सहज रूप में व्याख्यायित किया। उनका व्याख्यान श्रीमातृवाणी
प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१ पुस्तक पर आधारित था। त्यागी जी के सुझाव के अनुसार यह
पुस्तक पहले ही वितरित कर दी गई थी। पढ़ने की कोशिश भी की लेकिन विशेष कुछ समझ नहीं सका। इनके व्याख्यान
का सबसे बड़ा लाभ यह मिला कि श्री अरविंद के साहित्य को कैसे पढ़ा और समझा जाए, यह ज्ञान हुआ. विषय तो इतना
विशाल है कि कितना ही समय दिया जाय कम है। लेकिन एक ऐसी विधा समझ लेना जिसके आधार पर
हम आगे पढ़ और समझ सकें, एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। उन्होने बताया कि एक समय के बाद माँ ने God शब्द के बदले Divine शब्द का प्रयोग करना शुरू कर
दिया था। इसके साथ साथ उन्होने श्री
अरविंद, श्री माँ, श्री अरविंद आश्रम पांडिचेरी , श्री अरविंद आश्रम
दिल्ली एवं वन निवास के इतिहास की भी जानकारी दी।
दूसरा विषय था – आयुर्वेद एवं योग। इस विषय पर डा. सुरेन्द्र कटोच ने
व्याख्यान दिये। अदभुत और नवीन जानकारियाँ आत्मसात हुईं। यह सुन कर अच्छा लगा कि आयुर्वेद सिर्फ शारीरिक सुख एवं आयु की व्यवस्था
नहीं है। आयुर्वेद हित आयु, अहित आयु, सुख आयु और
दुख आयु का मापदंड है। सुख का अर्थ सिर्फ शारीरिक और भौतिक सुख नहीं बल्कि उसके
साथ साथ आध्यात्मिक सुख और सामाजिक सुख की चर्चा
है। अष्टांग योग की बात सुनी हुई है। लेकिन शायद जब भी सुना या पढ़ा
मस्तिष्क अन्य सामग्रियों से इतना भरा था कि इसे दिमाग में उतरने की जगह ही नहीं
मिली। अष्टांग योग के आठ अध्याय हैं, क्रमश: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और
समाधि। चर्चा केवल आसन और प्राणायाम की ही होती है। हमारे लिए योग का प्रारम्भ और
अंत यहीं हो जाता है। इसके पहले के अध्यायों में हमारी रुचि नहीं है और बाद के अध्यायों को हमने
योगियों और सन्यासियों के लिए छोड़ दिया है।
सच्चाई यह है कि अगर हम केवल प्रथम दो अध्यायों, यम और नियम
का पालन करें तो दुनिया बदल जाए। ये हैं:
यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य (आजीवन नहीं), अपरिग्रह
नियम = शुचि, संतोष, स्वाध्याय, तप, ईश्वर प्रणिधान
यह दुख का विषय है कि दुनिया प्रारम्भिक जानकारी को छोड़ सीधे ऊँचाइयाँ छूना
चाहती है। फलस्वरूप आदमी इंसान नहीं बन पाता है। प्रात: का योगाभ्यास भी पूर्ण
नवीन था। किसी भी प्रकार का आसन या प्राणायाम न कराकर शरीर के प्रत्येक अंग के लिए
हलके फुलके व्यायाम से परिचित कराया। लोग क्या खाएं की चिंता करते रहते हैं, लेकिन उससे ज्यादा
जरूरी है कब खाएं,
कितना खाएं, कैसे खाएं , खाने के पहले
और बाद में क्या करें। इसकी न हमें जानकारी है न इस पर हमारा ध्यान। भोजन करते समय ध्यान भोजन पर होना चाहिए, न कि बातों एवं टीवी पर। योगाभ्यास के पूर्व “प्रभात फेरी” का आयोजन करती
थीं। डा. कटोच का मानना है कि मंत्रोच्चारण एवं प्रार्थना अकेले नहीं पूरे परिवार या
समूह में करनी चाहिए।
शारीरिक और आध्यात्मिक ज्ञान एवं उन्नति, गर्मी से मुक्ति, अवकाश का सदुपयोग, शांति एवं सुकून, अनुशासित जीवन और इन सबके साथ साथ
सुख एवं सुविधा के लिए वन निवास, श्री अरविंद आश्रम, नैनीताल के हम शुक्रगुज़ार हैं।
प्रमुख भवन
भवन के सम्मुख खुले प्रांगण में योगाभ्यास
भोजनालय
श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर