शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

आई एम ओके, यू आर ओके

 


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                 (I am OK, you are OK)  मेरे अनुभव  

किसी समय पॉण्डिचेरी के नाम से विख्यात स्थान का नाम अब पुडुचेरी हो गया है। लोग संक्षिप्त में इसे पौंडी भी कहते हैं। हम इस पचड़े में न पड़ कर इसे पुडुचेरी ही कहेंगे। इस स्थान को विश्व के मान चित्र में स्थान दिलाने का श्रेय श्रीअरविंद, श्रीमाँ और इनकी ही प्रेरेणा से बने और बसे औरोविल को जाता है।

          श्री अरविंद आश्रम, पुडुचेरी  एक चाहरदीवारी में समाया हुआ नहीं है। इसके अलग-अलग विभाग शहर के कई हिस्सों में फैले हैं। औरोविल तो लगभग 14 कि.मी. की दूरी पर है। इन विभागों में एक है सब्दा’, जी हाँ ‘SABDA’। इसे सब्द या शब्द  कहने या समझने की भूल मत कीजियेगा। SABDA यानी Shree Arvind Book Distribution Agency। शायद किसी समय इस विभाग से सिर्फ श्री अरविंद एवं श्री माँ से संबन्धित पुस्तकों का ही विक्रय / वितरण हुआ करता होगा लेकिन आज यहाँ से इसके अलावा आश्रम तथा आश्रम से जुड़े हुए कुटीर तथा हस्त शिल्प उद्योग की वस्तुओं का भी विक्रय होता है। ऐसे स्टोर पुडुचेरी के अलावा आश्रम की शाखाओं तथा अनेक केन्द्रों में भी हैं। इनके अनेक उत्पादों में एक है सुगंधित तेल (एसन्स ऑइल)। इस स्टोर में यह तेल अलग-अलग अनेक  खुशबू में उपलब्ध है।  

          एक दिन एक महिला सब्दा के किसी स्टोर में आईं, उन्हें यही सुगंधित तेल लेना था। महिला, जहां इसकी शीशियाँ सजी थीं, वहाँ पहुंची, एक सरसरी नगाह से उन्हें देखा और फिर अपने पसंद की खुशबू का तेल खोजना शुरू किया। सब शीशियाँ पैकिंग में सील की हुई थीं। उन्हीं शीशियों के सामने बिना सील की हुई शीशियाँ भी रखी थीं। उन पर रौलर लगे थे ताकि तेल को अपने हाथ पर लगा कर खुशबू की परख की जा सके। महिला ने कई शीशियों की खुशबू को परखा, उन्हें एक खुशबू पसंद आई। महिला उस शीशी को लेकर स्टोर के एक कर्मचारी, प्रशांत के पास पहुंची और हाथ की शीशी दिखा कर कहा, मुझे इसकी एक शीशी चाहिये, लेकिन ये रोलर वाली नहीं चाहि‎‎ये सपाट मुंह वाली चाहि‎‎ये जिससे बूंदे टपकाई जा सकें।

          प्रशांत इस स्टोर में एक स्वयंसेवक के रूप से कई वर्षों से अपनी सेवा प्रदान कर रहे थे, एक प्रसन्नचित, कर्तव्यनिष्ठ, हंसमुख सेवक। कभी कोई तकरार होती मुसकुराते हुए, अपने खास अंदाज में कहते आई एएम ओके, यू आर ओके’, और तकरार समाप्त हो जाती। प्रशांत ने मेज की दराज से एक शीशी निकाली जिसका मुंह सपाट था और उस महिला को दिखा कर पूछा, क्या आपको ऐसी शीशी चाहिये?’

हाँ, हाँ ऐसी ही चाहिये।

आपने जहां से यह रोलर वाली शीशी उठाई है वहीं उसके पीछे रखी सीलबंद शीशी ले लीजिये’, प्रशांत ने सलाह दी।

महिला असमंजस में पड़ गई, नहीं, मुझे वे रोलर वाली नहीं सपाट मुंह वाली शीशी चाहि‎‎ये।

जी हाँ, वहाँ वैसी ही शीशियाँ हैं, यह तो केवल नमूने (सैम्पेल) के लि‎‎ये है।

महिला खिन्न होने लगी, आप भी अजीब हैं, मैं कह रही हूँ कि मुझे यह नमूने वाली नहीं चाहिये और आप मुझे बार-बार वहीं से लेने कह रहे हैं।

बहनजी मैं आप को कह रहा हूँ कि आपके हाथ की शीशी रोलर वाली नमूने की हैं लेकिन दूसरी सील की हुई शीशियाँ में रोलर लगे हुए नहीं हैं।

अभी तो आप ने कहा कि ये नमूने की शीशियाँ हैं, मुझे ये नमूने वाली नहीं चाहिये’, महिल ने फिर से दोहराया।

          “@#$%^ ......”

          “...... _&%#.....”

          दोनों एक दूसरे के समझाते रहे। दोनों समझाने में लगे थे, समझने का प्रयत्न नहीं कर रहे थे।  नतीजा, उनके बीच तकरार बढ़ गई। प्रशांत थक हार कर  महिला की उपेक्षा करता हुआ अन्य कागजों के पन्ने पलटने लगा। महिला को यह अपना अपमान महसूस हुआ। अब तक दोनों खीज और झुंझलाहट से भर चुके थे। आखिर प्रशांत ने कहा, देखिये मैडम, मैं आपको हर तरह से समझा कर हार चुका हूँ, मेरे पास अब कहने को कुछ नहीं है, आप अगर नहीं समझना चाहती हैं तो आप की जैसी इच्छा हो कीजिये। लेकिन महिला तुनक गई, आप समझ ही नहीं रहे हैं उल्टे मुझे दोष दे रहे हैं कि मैं नहीं  समझ रही हूँ, और तो और मेरा अपमान कर रहे हैं।

यह तो आश्रम की शांति और नीरवता थी जिस कारण दोनों ने अपनी आवाज को भरसक धीमा ही रखा, लेकिन  एक अन्य कर्मचारी, सुबीर, परिस्थिति की  नाजुकता को समझ कर वहाँ आ पहुंचा।  धीरे से मैडम से कहा, आप मेरे साथ आइये मैं आपको देता हूँ। सुबीर महिला को उसी तेल के सेल्फ के सामने ले गया। सामने लगी शीशी को उठाते हुए बताया कि इन रोलर वाली  शीशियों में तेल के सैम्प्ल्स रखे हैं ताकि ग्राहक इनकी महक का परीक्षण कर सकें, ये बेचने के लिये नहीं हैं और इनके पीछे जो ये जो पैक और सील कि‎‎ये हुए हैं इनमें यही तेल हैं लेकिन इनकी शीशी का मुंह सपाट है, इनमें रोल्लेर्स नहीं लगे हुए हैं, इनसे बूंद टपकाई जा सकती है।

ओह, अच्छा, बस इतनी सी बात है। समझाना तो आता नहीं और बहस करते हैं’, महिला ने प्रशांत को घूरते हुए कहा और आगे बढ़ गई।  

प्रशांत कुछ कहने को उद्यत हुआ तभी सुबीर उन दोनों के बीच आ कर प्रशांत की ओर मुसकुराते हुए कहा, आई एएम ओके, यू आर ओके। प्रशांत के ओठों पर भी मुस्कुराहट आ गई, महिला बिलिंग सेक्शन की तरफ चली गई।

          बात सामान्य सी ही थी बस समझ का फेर था। कहने के पहले ध्यान से सुनिये कि दूसरा क्या कहा रहा है, तब प्रश्न कीजिये। अगर सामने वाला  समझ नहीं रहा है तो फिर से समझाने के पहले यह समझि‎‎ये कि उसके समझने में कहाँ भूल हो रही है। अनेक मनमुटाव, कलह, झगड़े और-तो-और युद्ध का कारण भी यही समझ का फेर होता है। इससे बचिये।

          अगर, आई एएम ओके यू आर ओके पसंद नहीं है तो दिल को हलकी सी थपकी देते हुए ऑल इज़ वेल भी कह सकते हैं।

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शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

नालायक

 


           

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प्रायः यह देखने में आता है कि हमें बड़ी जल्दी रहती है किसी के बारे में भी अपनी एक धारणा बनाने की।, एक अनुमान लगाने की, बिना सोचे-समझे और विचार किये। विशेष कर जब बच्चे छोटे ही रहते हैं और स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे होते हैं। पढ़ने में कैसा है? प्रायः यही होता है उसके नापने का मापदंड। परीक्षा में कैसा कर रहा है, कक्षा में  तथा अध्यापकों के साथ उसका कैसा व्यवहार है? हम यह भूल जाते हैं कि जब वे विद्यालय और घर की सुरक्षा के कवच से निकल बाहर की दुनिया में प्रवेश करते हैं तब यथार्थ से उनका साक्षात्कार होता है। और यह मिलन उसके मानस को घड़ने में एक अहम भूमिक निभाता है।   प्रस्तुत घटना इसी पर रोशनी डालती है।

          अरे मास्टरजी, रेट तो डबल है, पर आधे में काम करवा दूंगा आपका’, वह धीमे से फुसफुसाया। क्या करूँ, बहुत दिक्कत है, ऊपर तक चढ़ावा देना पड़ता है - एकाएक उसके लहजे में बेशर्मी उतर आई और फिर आज तो 5 सितम्बर है, डिस्काउंट समझ लो आप ये मेरी तरफ से।

          सरकारी दफ्तर में अपने ही होनहार छात्र को कुर्सी पर बैठा देख मास्टरजी की बाँछें खिल उठीं थी काम आसानी से हो जायेगा लेकिन..... । मास्टर जी तनिक खिन्न हुए, फिर पसीना पोंछते हुए कुर्सी से उठ खड़े हुए। सरकारी दफ्तर के उस कमरे से बाहर निकले ही थे कि पीछे से उसी की फुसफुसाहट सुनाई दी ट्यूशन पढ़ा-पढ़ा कर बहुत माया जोड़ रखी है बुड्ढे ने, पेंशन मिलती है सो अलग, पर देने के नाम पर जेब फटी जा रही है

          मास्टरजी वहीं ठिठक गये। उन्होंने आगे सुना 'अंग्रेजी पढ़ाते थे यह हमें उन्हीं लड़कों को नंबर देते थे जो इनके यहां ट्यूशन पढ़ते थे। हमने भी पढ़ी ट्यूशन तब पास हुए। पर अब क्या करें, गुरुजी हैं, इसलिये लिहाज कर रहा हूँ। मास्टरजी बेहद थके-थके से बाहर आये। निर्णय लिया कि अपने इस विद्यार्थी का अहसान नहीं लेंगे, जितनी रिश्वत मांगता है, देकर अपना काम करवा लेंगे।

          बैंक से रकम निकलवा कर पासबुक समेत थैले में रखी और थैले को बड़ी एहतियात से स्कूटर की डिक्की में रखने जा ही रहे थे, कि मानो किसी चील ने झपट्टा मारा हो। मोटर साइकिल पर सवार वह शख्स, जो मुंह पर कपड़ा बांधे था पल-भर में उड़न-छू हो गया। मास्टरजी, पहले तो हतप्रभ से खड़े रह गये, फिर लड़खड़ा कर गिर पड़े।

          थाने में रपट लिखवा दी गई थी। घर में कोहराम मचा था। पर मास्टरजी एकाएक चुप्पी लगा गए थे। बस बिस्तर पर पड़े-पड़े छत को घूरे जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से आंख लगी लेकिन एक डरावना सपना देखा और पसीने से तरबतर हो बिस्तर से उठ खड़े हुए। भोर हो चुकी थी। मन न होते हुए भी सैर को निकल पड़े। अभी नुक्कड़ तक ही पहुंचे थे कि एकाएक चिहुंक उठे। एक तेज गति से आ रही बाइक उन्हें छूती हुई निकल गई। वे फटी-फटी आंखों से देखते रह गए क्योंकि उनका वही थैला अब उनके पैरों के पास पड़ा था।

          धड़कते दिल से उसे खोला रकम, पासबुक सब सही सलामत थे। साथ में एक काग़ज़ का पुर्जा भी था, जिस पर बहुत आड़े-तिरछे तरीके से लिखा था - "सोर्री मास्साब, गलती हो गई। अगर हम भी टूसन पढे होते तो कहीं बाबू-वाबू लग ही जाते।'

          दिमाग पर बहुत ज़ोर लगाने के बाद भी वे यह याद नहीं कर सके कि यह कौन-सा नालायक छात्र था और मास्टरजी सोचते रह गये कौन नालायक निकला!

         क्या आप मास्टरजी की सहायता कर सकते हैं यह बताने में कि उनके इन दो विद्यार्थियों में कौन नालायक है और क्यों? नीचे दिये कोममेंट्स में अपने विचार दें ताकि उसे दूसरे भी पढ़ सकें और अपने-अपने कोममेंट्स दे सकें। 

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शुक्रवार, 22 मार्च 2024

रूपान्तरण


                     

आश्रम में आये अभी कुछ ही दिन हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरा शरीर विशेष कर दोनों पैर और कमर साथ नहीं दे रहे थे, पूरे बदन में दिन भर दर्द रहता था। चलना-फिरना, उठना-बैठना दूभर हो रखा था। किसी भी कार्य में एकाग्रता नहीं हो रही थी। पीड़ा के कारण आत्म-विश्वास की भी कमी हो गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्या करूँ? केवल बिस्तर पर पड़े रहने से ही आराम मिल रहा था। आश्रम का कोई भी कार्य दिया जा रहा था तो बिना सोचे और लज्जा का अनुभाव किये तुरंत मना कर रहा था। क्या करता शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से लाचार था। कमरे में पड़े-पड़े निबंधों को जाँचने का काम, कुछ नया लिखने- पढ़ने का काम भी नहीं कर पा रहा था। आश्रम में इस प्रकार पड़े रहने में शर्म भी महसूस हो रही थी। अंग-प्रत्यंग ही नहीं बल्कि आवाज में भी पीड़ा की झलक थी, चेहरे पर तो सब लिखा हुआ ही था। ज्योति दीदी ने भाँप लिया था शायद इसीलिये कई बार पूछ चुकी थीं, भैया, आप ठीक तो हैं न। क्या कहता, झिझक में सही बता भी नहीं पा रहा था।  हाँ, हाँ ठीक ही हूँ। यही कहता रहा।

          हर दिन की तरह आज भी मुंह-अंधेरे नींद खुल गई। आज तो बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। आज सुबह की सैर पर नहीं जा सकूँगा, यह निश्चय कर मुंह ढक कर वापस सो गया। लेकिन तभी चेतना उठ खड़ी हुई। कल की कक्षा में क्या पढ़ा-सुना? आवाज आई, उठ, आज अभी इसे आजमा कर देख ले कैसा रहता है।       

          कौन-सी कक्षा और क्या पढ़ाई? संकल्प, अभीप्सा और अध्यवसाय। श्री अरविंद और श्री माँ की कृतियों से चयनित अंशों पर आधारित पुस्तक ‘Living Within’ का हिन्दी रूपान्तरण आंतरिक रूप से जीना हमारी मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और प्रगति के लिये सहायक पुस्तक है। इस पुस्तक की चल रही कक्षा में कल का यही विषय था – संकल्प, सच्चाई या अभीप्सा और अध्यवसाय से हम कैसे रूपांतरित हो सकते हैं, कैसे? कल इस अनुच्छेद को हमने पढ़ा था –

“पहला पग है : संकल्प। दूसरा है सच्चाई और अभीप्सा। परन्तु संकल्प और अभीप्सा लगभग एक ही चीज है, एक-दूसरे के अनुगामी हैं। फिर है, अध्यवसाय। हां, किसी भी प्रक्रिया में अध्यवसाय आवश्यक है, और यह प्रक्रिया क्या है?... प्रथम, निरीक्षण और  विवेक करने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, अपने अन्दर प्राण को खोज निकालने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, नहीं तो तुम्हारे लिये यह कहना कठिन हो जायेगा कि, "यह प्राण से आता है, या मन से आता है, यह शरीर से आता है।" प्रत्येक चीज तुम्हें मिली-जुली और अस्पष्ट प्रतीत होगी। बहुत दीर्घकालिक निरीक्षण के बाद, तुम विभिन्न भागों के बीच विभेद करने तथा क्रिया का मूल समझने में समर्थ हो सकोगे। इसमें अत्यंत लंबे समय की आवश्यकता होती है, परंतु मनुष्य तेज भी जा सकता है। ( पृ 92)

          इस पर चर्चा करते हुए ज्योति दीदी ने बताया कि मन केवल चंचल ही नहीं बहुत हठी भी है और समझदार भी, एक छोटे बच्चे की तरह। अपनी जिद नहीं छोड़ता और अपना कार्य करवाने के सब गुर जानता है। उसे डांट कर या मार कर नहीं समझाया जा सकता है। जैसे छोटे बच्चे को समझा-बुझा कर ही मनाया जा सकता है वैसे ही उसे समझाना होता है।

          इसे ही आजमाने का निश्चय किया, और मैंने एक छोटे बच्चे की तरह उसे समझाना शुरू किया – चल उठ खड़ा हो, नीचे चल।

 ऊँह, नहीं जाना, बहुत दर्द है, ठंड भी है और अभी तो दिन भी नहीं हुआ है। उसने तीन-तीन कारण गिना दिये। लगा स्थिति जटिल है, लेकिन आज मैं भी हारने के लिये तैयार नहीं था। धीरे-धीरे प्यार से समझाना शुरू किया, दर्द मिटाना है न, बिस्तर में पड़े रहने से दर्द कम नहीं ज्यादा हो जायेगा। तब चल-फिर और बैठ भी नहीं पाओगे। उठ गरम जैकेट पहन ले ठंड नहीं लगेगी और तैयार होते-होते दिन भी निकल आयेगा।

नहीं, आज नहीं कल’, उसने बहाना बनाया।   

आज नहीं जाओगे तो कल भी नहीं जाने सकोगे। दर्द बढ़ जायेगा, थोड़ा चलोगे तो दर्द कम हो जायेगा।

          लेकिन, शरीर किसी भी तरह उठने को तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन आज मैं भी जिद पर था। तरह-तरह से समझाता रहा, अंत में उसके पसंदीदा रेस्टुरेंट में ले जाने का प्रलोभन दिया, तब शरीर कुछ हिला, तुम बहुत लंबा घुमाते हो, उतना नहीं घूम सकूँगा। इतने चक्कर नहीं लगाऊँगा।

अच्छा ठीक है आधा चक्कर ही लगाएंगे।

पक्का?’

हाँ पक्का’, मैंने वचन दे दिया।

आखिर शरीर मान ही गया। और हम घूमने उतर गये। लेकिन आधी दूरी पूरी हुई ही नहीं थी कि वह फिर से उठ खड़ा हुआ, आधा हो गया, अब वापस चलो।

नहीं’, मैंने अंगुली से दिखाया, वहाँ पहुंचने पर आधा होगा न।

चलो, अब लौटो, आधा हो गया। कुछ ही देर बाद उसने फिर से कहा।

हमलोग गोल-गोल घूम रहे हैं, आधी दूर आ गये, अब वापस जाएँ या आगे चलें बात तो एक ही है, तब आगे ही चलें’, मैंने समझाया।

उसे बात पसंद तो नहीं आई, षड्यंत्र की गंध आई  लेकिन मान गया। पूरा होने पर मैंने जैसे ही कदम आगे बढ़ाया, ये क्या! हो गया अब आगे नहीं।

अरे घूमने नहीं जा रहे हैं सामने श्री अरविंद को प्रणाम करके लौटेंगे। और इस प्रकार समाधि, फूल, तुलसी, मोर और सूर्योदय का लालच देकर मैंने दो चक्कर लगवा ही लिये।

          मन बहुत प्रसन्न था। अच्छा भी लग रहा था – शरीर और मन दोनों को। कल की पढ़ाई आज ही काम आ गई। संकल्प लिया मुझे आज ही ठीक होना है, सोच-विचार कर सुबह-सुबह दो-तीन उपचार किया और बात बन गई। सारी पीड़ा रफू-चक्कर हो चुकी थी और पूर्ण स्वस्थ्य महसूस करने लगा। दोपहर में भोजन-कक्ष में दीदी से मुलाक़ात हुई, मैंने चहकते हुए पूछा, दीदी, आज कैसा लग रहा हूँ।

अभी तो आप ठीक लग रहे हैं भैया।

अपने ही तो ठीक किया है

‘…….’ दीदी मुझे देखने लगी, मैंने पूरा वाकिया सुनाया।

मैंने नहीं, माँ ने ठीक किया है।

हाँ, लेकिन वे आईं तो आपके ही रूप में न।

मेरा रूपान्तरण हो चुका था।

         पढ़ने से, सुनने से, सोचने से कुछ नहीं होता। संकल्प लेकर पूरी सच्चाई और अभीप्सा से अध्यवसाय करने से ही फल की प्राप्ति होती है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव था।

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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

‘न’ से ‘स’

 


           ‘न’ से ‘स’ तक की यात्रा बड़ी अहम है। अगर इन्हें जोड़ दिया जाए तो बनता है नस। यानी पूरे शरीर में फैली और दौड़ती नलिकायें, कोशिकाएं जिसका कार्य शरीर के हर छोर पर, हर अवयव तक रक्त पहुँचाने तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा है। जहां ये अच्छे रक्त को प्रवाहित करती हैं वहीं दूषित रक्त को निकालने का काम भी वही करती हैं। (न)कारात्मक से (स)कारात्मक तक की यात्रा भी यही है। बुरे को निकालना और अच्छे को सँजोना।

          श्री अरविंद सोसाइटी के अध्यक्ष श्री प्रदीप नारंग से मुलाक़ात हुई। उनसे बातचीत करते हुए मैंने कहा कभी-कभी जीवन में जड़ता आ जाती है, ठहराव आ जाता है, अंग शिथिल होने लगते  हैं, मानस कमजोर हो जाता है, संगी-साथी बिछड़ जाते हैं, जीने का कोई लक्ष्य नहीं रह जाता है, मृत्यु की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है, लगता है जैसे........।

          उन्होंने बीच में ही टोकते हुआ कहा - क्यों, ऐसे विचार कभी मन में आने ही नहीं चाहिये, जैसे ही ये आयें इन्हें खारिज कर दें, किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार को प्रवेश न करने दें, उसे तुरंत नकार दें। माँ से कहें नहीं माँ मुझे यह नहीं चाहिए इसे हटाएँ। उम्र से जड़ता का क्या लेना-देना है? जड़ता शरीर से नहीं मन से आती है, मन को हर समय तरोताजा, सजग और चुस्त रखें। नकारात्मकता शत्रु है, इसके पहले की वह अपनी जड़ जमाये उसे उखाड़ फेंकिए। अगर एक बार उसने अपनी जड़ें जमा लीं तब उसे उखाड़ना कष्टसाध्य हो जाता है।  माँ से मांगना है तो जीवन मांगें, मृत्यु नहीं। माँ से सकारात्मक रहें, काम मांगे।  यह न  कहें  कि मैं कार्य लायक नहीं रहा, कहें कि मुझे कार्य दें और उसे करने योग्य बनाएँ। वैसे उस कार्य के योग्य बनाने के लिए भी कहने की आवश्यकता नहीं है। माँ खुद उसके योग्य बनायेगी। राम का उदाहरण लें, उन्होंने योग्य लोग नहीं खोजे, जो मिला उसे ही उस कार्य के योग्य बनाया। ईश्वर योग्य लोगों को अपने पास नहीं बुलाते, बल्कि जिन्हें बुलाना होता है उन्हें योग्य बना लेते हैं। हाँ यह कह सकते हैं कि अगर माँ को लगे कि इस जन्म का मेरा काम हो गया है तो इस प्रकार प्रस्थान करूँ कि किसी का सहारा न लेना पड़े, किसी का मोहताज न बनूँ, किसी के आश्रित न रहूँ।

          एक बार शत्रु किले में घुस जाए तो फिर उसे हराना और भगाना आसान नहीं होता। अंग्रेज़ यहाँ आए। धीरे-धीरे वे अपने पैर फैलाने लगे और अपनी सत्ता जमाई। अगर उसी समय उन्हें उखाड़ दिया जाता, जमने नहीं दिया जाता तो उन्हें बाहर निकालने का कार्य सहजता से हो जाता। लेकिन जब एक बार उन्होंने अपनी सत्ता जमा ली, जड़ें जमा लीं, तब फिर उन्हें उखाड़ने में सदियाँ लगीं, लाखों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी, देश के दो टुकड़े हुए तब जा कर उन्हें बाहर निकाल पाये। यह साधारण सी बात एक अनपढ़ किसान भी अच्छी तरह से समझता है। खेतों में जहां अपनी फसल को  सहेजता रहता है वहीं निरंतर स्वयं उगने वाले पौधों, घास-फूस, जंगल को भी निरंतर उखाड़ता रहता है। उसे मालूम है कि अगर एक बार ये फैल गए तो वे उसकी फसल का रस चूस लेंगे और उन्हें काटना कठिन हो जाएगा।

          रस्किन बॉन्ड का नाम हम सभी ने सुना है, जीवन के 90 वसंत देख चुके हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप फिर से 29 वर्ष के बनने का सपना देखते हैं? उन्होंने छूटते ही कहा – ‘29 का सपना क्यों, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं 29, 19 या 9 का हूँ। हाँ यह सही है कि कुछ एक दांत अब खो गए हैं और गाल थोड़े लटक गए हैं लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! मैं आध्यात्मिक भी नहीं हूँ उस अर्थ में जिसे प्रायः अध्यात्मिक होना कहा या समझा जाता है। लेकिन मैं धार्मिक हूँ इस अर्थ में कि मैं अपने आप को प्रकृति से जुड़ा हुआ पाता हूँ। पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, नदी, तालाब, पहाड़ की पवित्रता मुझे स्पर्श करती है। यह तो प्रकृति ही है  जिसने हमें बनाया है। 

          हाँ, प्रकृति से जुड़ें, प्रकृति से जुड़ना आध्यात्मिकता ही है। बढ़ती उम्र के साथ कुछ-एक बातें ध्यान में रखनी चाहिए, मसलन अकेलापन। यह मत सोचिए कि आपके अनेक दोस्त हैं, परिचित हैं और वे अभी लंबे समय तक आपके साथ रहेंगे।  उनका कोई भरोसा नहीं वे कब आपको अकेला छोड़ कर चल दें। जरा विचार कीजिये जैसे आप सोच रहे हैं वैसे वे भी सोच रहे हैं। भरोसा दोनों में से किसी का भी नहीं है। अकेलापन वैश्विक तौर पर संक्रामक माना गया है। यह हमारी जिंदगी में एकदम अचानक अप्रत्याशित रूप से उस समय आता है जब हमें इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं होती है। अकेलापन और एकांत एक नहीं हैं। एकांत वह अवस्था है जिसे हम कई बार खोजते रहते हैं विशेषकर तब जब इस भाग-दौड़ की जिंदगी से हम कुछ समय के लिए दूर जाना चाहते हैं, उससे बचना चाहते हैं, उससे ऊब होने लगती है। और तब अपनी कर्म स्थली से बाहर जाकर, कुछ समय रह कर पुनः तरो-ताजा होकर वापस आते हैं।  बड़े शहरों में यह अकेलेपन की अनुभूति ज्यादा होती है जहां किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय ही नहीं होता है, सही अर्थों में अपने खुद के लिए भी समय नहीं होता।   एक दूसरे को और अपने आप को जानने की फुर्सत नहीं होती। हर कोई हर दूसरे को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। झुंड में रहने वाले, अनेक दोस्तों और परिचितों से घिरे रहने वाले लोग भी भीड़ में अकेले होते हैं। बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स में रहने वाले भी अकेलापन महसूस करते हैं।

          इसकी तैयारी आपको पहले से करनी है। कोई-न-कोई शौक पाल लें, जिस में आप अपने आप को झोंक सकें – दिन दहाड़े या मध्य रात्रि की नीरवता में भी। अकेले रहने से भी अकेलापन अनुभव होता है। इसका सबसे आसान और बेहतरीन उपाय है – दोस्त, पुस्तकें और  अध्यात्म। दोस्तों का पता नहीं कौन पहले जाएगा, सुबह मिल कर आए शाम को छोड़ कर चला गया। पुस्तकों को अपना साथी बनाएँ। अलग-अलग विषय और भाषा में। इनमें बच्चों के कॉमिक्स,  जासूसी कहानियाँ, हंसी-व्यंग, कविता-गजल, कहानी-उपन्यास, आध्यात्मिक-साहित्य, इतिहास-भूगोल, विज्ञान-वाणिज्य, काल्पनिक-यथार्थ, पत्र-पत्रिकाएँ। कहने का मतलब यह कि कोई भी हो, कैसी भी हो, जैसा मूड हो वैसी ही सही।  पढ़ने के साथ लिखने का मन हो तो लिखिए भी।  आपका समय तो निकल जाएगा लेकिन हो सकता है रहें अकेले ही।

          पढ़ने के अलावा जहां आप अपने को व्यस्त कर सकते हैं वे हैं,  अध्यात्म, सेवा। अगर इनमें अपना मन रमा लें तो ये छोड़ कर भी जाने वाले नहीं। बहुतों से सेवा नहीं होती। धन तो दूर की बात है, एक मुस्कुराहट, दो मीठे शब्द, अपना समय भी नहीं दे पाते। लेकिन सही मायने में अपने को सकारात्मकता के साथ व्यस्त रखने का सबसे अच्छा उपाय सेवा भाव ही है। इसमें आप अकेले भी नहीं होते।  लेकिन इसकी भी अपनी शर्तें हैं – अहम से बचना। धन, मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा से ज्यादा खतरनाक अहम है सेवा भाव का। किसी की सहायता करते समय यह मत सोचिये कि भविष्य में वह आपके काम आएगा। यह भी आशा मत रखिए कि आपने दान दिया है या निष्काम भाव से सेवा की है तो आपको फूलों की माला मिलेगी, काँटों का ताज भी मिल सकता है, इसके लिए निर्विकार रूप से तैयार रहिए। बस सहायता करके, भूल जाइए। क्योंकि यह आशा का भाव ही भविष्य में आपके दुख का कारण बनता है । आप जो भी कर रहे हैं वह परमात्मा देख रहा है.. उससे छिपा नहीं है। दूसरे जो कर रहे हैं उसे भी वह देख रहा है। ना किसी को जताइये, ना ही बताइये। बस इतना विश्वास रखिये कि जब ईश्वर ने उसकी सहायता के लिए आपको भेजा है तो निश्चित है कि जब आपको आवश्यकता होगी वह किसी न किसी को भेजेगा।

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शुक्रवार, 8 मार्च 2024

सूतांजली मार्च 2024

 


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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

श्रद्धा और विश्वास


          

विज्ञान के आविष्कार और खोज वर्षों के सतत प्रयास का फल है। आज वह जिस मुकाम पर है वहाँ तक पहुंचने में उसे शताब्दियाँ लगीं और अभी भी वह बच्चा ही है। एक ऐसा समय भी था जब उष्णता को नापने का न कोई यंत्र था न ही कोई मापदंड। लेकिन फिर विज्ञान को इसका ज्ञान हुआ और ताप को नापने के यंत्र भी बने और उनके यूनिट मसलन सेंटीग्रेड – फ़ौरेनहाइट आदि ईजाद हुए। उसी प्रकार एक समय था जब दिन, समय, वजन, लंबाई, चौड़ाई, कोण, गति, दबाव, ध्वनि आदि किसी को भी नापने के यंत्र नहीं थे लेकिन विज्ञान ने प्रगति की और उसने नये-नये यंत्रों का आविष्कार किया और उनकी यूनिट भी ईज़ाद होती चली गईं। ऐसा नहीं था कि जब तक इनकी खोज नहीं हुई, इनका आविष्कार नहीं हुआ, ये नहीं थीं। ये थीं लेकिन हमें उनका ज्ञान नहीं था। आज भी विज्ञान इतना सक्षम नहीं हुआ कि अच्छाई-बुराई, नीला-हरा, सत्य-झूठ आदि को नाप सके और उनकी गणना कर सके। शायद एक समय ऐसा आयेगा कि विज्ञान इनकी तह तक पहुँच जाएगा और इनके हल भी खोज निकालेगा। श्रद्धा और विश्वास की भी विज्ञान के दृष्टिकोण से यही स्थिति है। अगर विज्ञान अभी वहाँ तक नहीं पहुँच सका है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इनका न कोई महत्व है, न अस्तित्व। और ऐसा भी नहीं है कि ये हमें स्पर्श नहीं करते या हमें प्रभावित नहीं करते। विज्ञान बजाय यह मानने के कि हम अभी नादान हैं इनके प्रभाव और अस्तित्व को कमतर आँकता है या नकार देता है। श्रद्धा और विश्वास हमारे चरित्र के वे विशेष गुण हैं जिनका हमारे जीवन को निखारने में विशेष सहयोग है। 

          प्रसिद्ध व्यवसायी जगदीश एक व्यापारी के साथ सौदा करने, अपने सहायक विजय  के साथ मथुरा की यात्रा पर थे। वे नाव से अपने शहर लौट रहे थे। घाट पर विजय और कूली ने उसका सामान नाव पर रख दिया। वर्मा उसमें चढ़ने ही वाले थे कि उन्हें कुछ याद आया, "मैं कुछ भूल गया। एक मिनट रुको," उसने विजय को निर्देश दिया और नहर की ओर चल दिये। वे कुछ मिनटों के बाद वापस आ गये, उनके हाथ में एक थैली सी कोई चीज़ थी।

          घर पहुंचकर वर्मा ने विजय से कहा, "यह छोटा सा पार्सल चंपावती आंटी के पास ले जाना। बस उन्हें बताना कि मैं यह उनके लिए मथुरा से लाया हूं। वे समझ जाएंगी।" विजय अपने मालिक के प्रति वफादार था। उन्होंने पार्सल चंपावती देवी तक पहुंचाया। उसमें एक रुमाल में मुट्ठी भर रेत थी।

          चंपावती देवी एक विधवा थीं, जो एक कुलीन परिवार से थीं और सभी उनका सम्मान करते थे। वे वर्मा को अपने बेटे की तरह प्यार करती थीं। "मेरा बच्चा जगदीश वापस आ गया है क्या?" छोटा पार्सल प्राप्त करते समय बुढ़िया ने खुश होकर कहा, "वह कितना कर्तव्यनिष्ठ है कि अपने सारे कामकाज के बीच मेरी छोटी सी मांग को याद रखता है! जब मैंने उनकी मथुरा यात्रा के बारे में सुना, तो मैंने उनसे यमुना नदी की एक मुट्ठी मिट्टी लाने के लिए कहा था, पवित्र नदी यमुना से। उन्होंने मेरी बात मानने में कोई कोताही नहीं बरती। मेरे लिए यमुना की मिट्टी से अधिक कीमती और क्या हो सकता है!” महिला ने मिट्टी को एक चांदी के बक्से में रख दिया। खुशी और श्रद्धा में उनके आँखों से आंसू की एक बूंद मिट्टी पर गिरी।

          विजय शर्मिंदगी और अपराध बोध से कांप उठा। वे ही जानते थे कि वर्मा मथुरा से मिट्टी लाना भूल गये हैं। गाड़ी पर चढ़ते समय ही वर्मा जी को इसकी याद आई थी और वे तेजी से वापस जाकर नहर के किनारे से कुछ मिट्टी उठाकर अपने रूमाल में डाल ली थी।

          विजय को पता था कि वर्मा जी  नास्तिक हैं। वे लोगों की ईश्वर में आस्था और उनके द्वारा किये जाने वाले अनुष्ठानों पर हँसते हैं। लेकिन जहां तक ​​एक व्यवसायी के रूप में उनके कैरियर का सवाल है, वह एक ईमानदार और अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने महिला के अनुरोध को बचकाना माना था। वह मिट्टी चंपावती देवी को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। उनका मानना ​​था कि यमुना की मिट्टी में न कुछ खास बात है या न यह सचमुच उस महिला का भला कर सकती है।

          विजय ने यह सोचकर खुद को सांत्वना दी कि आख़िर उसने चंपावती देवी से झूठ नहीं बोला था। उसने केवल एक कार्य किया था। समय बीतता गया। चंपावती देवी की मौत हो गयी। वर्मा ने अपने व्यवसाय से संन्यास ले लिया। विजय भी सेवानिवृत्त हो गए थे, लेकिन वे वर्मा के विश्वासपात्र बने रहे।

          चंपावती देवी के पोते की शादी वर्मा की बेटी से हुई थी। एक बार वर्मा बीमार पड़ गये। उनकी हालत खराब हो गई। उनके दामाद, चंपावती देवी के पोते, एक प्रतिभाशाली चिकित्सक थे। उन्होंने और विजय ने वर्मा को उनकी शारीरिक दुर्दशा से बाहर निकालने की पूरी कोशिश की, लेकिन एक दिन डॉक्टर ने विजय से कहा, "अंकल, मैंने उम्मीद छोड़ दी है। कुछ भी काम नहीं कर रहा है। वर्माजी डूब रहे हैं।"

          अचानक चिकित्सक को कुछ याद आया। "अंकल, कृपया यहीं रहें। मैं जल्द ही वापस आऊंगा।" चिकित्सक एक छोटी बोतल लेकर लौटा और उसने उसकी सारी सामग्री वर्मा जी  के मुंह में डाल दी। वर्मा में सुधार के लक्षण दिखे और कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह ठीक हो गए।

          एक दिन, जब विजय और चिकित्सक एक दोस्त के घर जा रहे थे, चिकित्सक ने कहा, "अंकल! अजीब चीजें होती हैं, आखिरकार! क्या आप जानते हैं कि मेरे ससुर को किसने बचाया? मेरी दादी ने मुझे एक चाँदी का डिब्बा दिया था, इस संदेश के साथ कि इसमें कुछ पवित्र मिट्टी है। उसने एक चुटकी मिलाकर कई बीमार लोगों को ठीक किया था। पानी के साथ मिट्टी का मिश्रण और उन्हें पानी पिलाना! जब मुझे यकीन हो गया कि मेरी दवा मेरे ससुर को नहीं बचा पाएगी, तो मैंने दादी के नुस्खे को आजमाने का फैसला किया - और यह काम कर गया!"

          विजय ने शुरुआत की। वह उस मिट्टी की प्रकृति को जानता था। लेकिन उन्हें यह भी एहसास हुआ कि चंपावती देवी द्वारा इस पर गिराए गए आंसू की बूंद से जल वास्तव में एक पवित्र चीज़ में बदल गई थी, गहरी आस्था, प्रेम, श्रद्धा और कृतज्ञता के आंसू।

          क्या अखंड विश्वास किसी सामान्य चीज़ को विशेष शक्ति से भर सकता है? कहानी बताती है कि बूढ़ी महिला के विश्वास ने, अपने आँसुओं के माध्यम से, एक सामान्य चीज़ को गुणात्मक उन्नति प्रदान की, अंततः - और विडंबना यह है - उस आदमी को भी लाभ पहुँचाया जिसने इसके बारे में न कभी कुछ भी सोचा था और न ही इस पर विश्वास था।

          श्रद्धा और विश्वास का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है न ही यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इसका असर होता है। लेकिन इसे अ-वैज्ञानिक, अंधविश्वास मान कर पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें न कोई धन लगता है न ही समय बस मन में एक दृढ़ता आती है, और यही दृढ़ता अपना असर दिखती है। अंत में  करते तो हम ही हैं लेकिन करवाता कोई और ही है।

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