शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जीवन के दर्द

 (जीवन में अनेक दुख हैं, दर्द है, कष्ट हैं।  हम उनसे बच नहीं सकते। हाँ, अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार इसे हम कम या ज्यादा महसूस कर सकते हैं। लेकिन इसके पहले, ये दर्द क्या हैं? क्या ये हमारे दुष्कर्मों का फल है? क्या यह नर्क की यातना है? क्या यह ईश्वर का दंड विधान है? या उन सब से परे ईश्ववरीय अनुकम्पा है, प्रसाद है, वरदान है?)



एक बुजुर्ग दम्पति दुर्लभ वस्तुओं की दुकानों की खोज में रहता और जहां कहीं ऐसी दुकान का पता चलता वहाँ पहुँच जाता। इसी खोज में एक बार वे इंग्लैंड पहुँच गए। उन दोनों को प्राचीन वस्तुएँ, मिट्टी के बर्तन और विशेष रूप से चाय के अनोखे कप बेहद पसंद थे। देश-विदेश से अनेक अनमोल, विशिष्ट, अद्भुत चाय के कपों का एक विशाल संग्रह उन्होंने तैयार किया था।

 

एक दिन इस ख्याति प्राप्त दुकान में उन्हें एक खूबसूरती से तराशा हुआ कप दिखाई दिया। वे उसे देखते रह गए। उनके मुंह से निकल पड़ा, "अद्भुत, अति-सुंदर! हमने कभी इतना सुंदर कप नहीं देखा। क्या हम इसे हाथ में उठा कर देख सकते हैं?"

जैसे ही दुकान की महिला ने वह कप उन्हें थमाया,  कप अचानक बोल उठा, "आप नहीं समझते, मैं हमेशा से चाय का प्याला नहीं रहा हूं। एक समय था जब मेरा रंग लाल था और मैं मिट्टी का एक लोंदा भर था। मेरे मालिक ने एक दिन मुझे उठा लिया और पूरी ताकत से मसला, मुझ में पानी डाला, मुझे बार-बार थपथपाया। मुझे अच्छा नहीं लगा, पीड़ा हुई और मैंने अनुरोध किया, मुझे छोड़ दो, जैसा हूँ वैसा ही रहने दो, मुझे अकेला रहने दो। लेकिन वह नहीं माना, केवल मुस्कुराया और बोला 'ठहरो, जरा ठहरो, अभी नहीं।”

          कप ने आगे कहा, "फिर उसने मुझे एक गोल घुमावदार चक्की पर बैठा दिया और अचानक मुझे गोल-गोल तेजी से घुमाने लगा। धीरे-धीरे उसकी गति तेज हो गई, मुझे असहनीय हो गई, मुझे लगा मेरे अंग-प्रत्यंग उखड़ जायेंगे, मैं टूट कर बिखर जाऊंगा।  मैं चीख पड़ा, चीखने चिल्लाने लगा – मुझे चक्कर आ रहा है, इसे रोको, मुझे निकालो।” लेकिन मालिक ने केवल सिर हिलाया, मुस्कुराया और कहा, “ठहरो, अभी नहीं'।"

          फिर कुछ देर बाद उसने उसे रोका, मेरी सांस-में-सांस आई। लेकिन यह क्षणिक ही था क्योंकि इसके तुरंत बाद उसने मुझे उठा कर गरमा-गरम भट्टी में डाल दिया। मेरा तन-बदन जल गया, मुझे लगा आज तो मैं जल कर राख़ ही हो जाऊँगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वह मुझे क्यों जलाना चाहता था।  मेरी त्वचा का रंग-ढंग ही बदल गया था, मेरी मुलायम त्वचा एकदम कठोर हो गई थी। मैं पूरे ज़ोर चिल्लाया, हाथ-पैर दीवारों पर मारे। मैं उसे देख सकता था उसने अपना सिर हिलाया और फिर वही बात दोहरा दी ठहरो, अभी नहीं।

          मुझे ऐसा लगा की बस अब कुछ नहीं हो सकता, मेरे अंतिम दिन आ गए तभी आखिरकार उसने मुझे उस भट्टी में से निकाला और मेज पर रख दिया। मैं ठंडा होने लगा। अब कुछ ठीक है, मैंने सोचा। उसने फिर मुझे झाड़-पोंछ कर साफ किया और मुझ पर रंग करने लगा। अरे ये क्या है! वीभत्स। मुझे लगा की उसकी गंध और गैस से मैं बेहोश हो जाऊँगा। ठहरो-ठहरो – मैं चिल्लाया, लेकिन उसने फिर वही रटी-रटाई बात दोहरा दी – अभी नहीं। 

          "फिर अचानक उसने मुझे वापस एक दूसरी भट्टी में डाल दिया। यह भट्टी पहली भट्टी से दुगनी गर्म थी, मेरा दम घुटा जा रहा था। लगभग एक घंटे बाद उसने मुझे उसमें से निकाला और ठंडा होने रख दिया। कोई घंटे भर बाद उसने मुझे एक दर्पण के सामने रखा और मुझे देखने कहा। मैंने अपने आप को देखा। मैं चीख पड़ा, “नहीं मैं यह नहीं हो सकता। क्या मैं सचमुच इतना सुंदर हूँ, मेरी कल्पना से बाहर।”

          मालिक ने कहा, "मैं चाहता हूं कि तुम याद रखो। मुझे पता है कि मसलने, थपथपाने, जलाने से दर्द होता है, लेकिन अगर मैंने तुम्हें छोड़ दिया होता, तो तुम सूख गई होती। मैं जानता हूं कि तुम्हें पहिये पर घूमने में चक्कर आया होगा, लेकिन अगर मैं रुक जाता, तो तुम टुकड़े-टुकड़े हो गए होते। मैं जानता था कि यह दुखदायी है और भट्टी की गर्मी असहनीय है, लेकिन अगर मैंने तुम्हें वहां नहीं रखा होता, तो तुम टूट गए होते। मैं जानता हूं कि जब मैंने तुम्हें झाड़ा-पोंछा और तुम्हारे पूरे शरीर पर रंग डाला तो गैस बहुत बुरा था, लेकिन अगर मैंने ऐसा नहीं किया होता, तो तुम कभी भी कठोर नहीं होते; तुम्हारे जीवन में कोई रंग न होता। और अगर मैंने तुम्हें उस दूसरे ओवन में वापस नहीं डाला होता, तो तुम बहुत लंबे समय तक बचे नहीं रहते, क्योंकि तब तुममें आवश्यक कठोरता नहीं रहती। अब तुम पूरी तरह तैयार हो और वैसी ही हो जिसकी मैंने कल्पना की थी, जब मैंने तुम्हें गढ़ना शुरु किया था।" इतनी कहानी सुना कर कप चुप हो गया।

          दंपति जैसे नींद से जागी और कप की बातों पर विचार करने लगी!  यह कप की जीवनी है या हमारी, आप की, सबों की जिंदगी का निचोड़ है!  

          वह माटी का लोंदा हम ही तो हैं। ईश्वर हमें पटकता है, मसलता है, पीटता है, जलाता है, रंगता है, झाड़ता है तब जाकर हम वैसे बनते हैं जैसे दिख रहे हैं। हमें उसका शुक्र-गुजार होना चाहिए उन सब कष्टों के लिए जिसके ताप में जल कर हम निखर उठे।

          दर्द-पीड़ा हम सब भोगते हैं, भोगते ही रहते हैं, इससे छुटकारा नहीं है। प्रकृति, जीवन, देवता हमें क्या दर्द देने के लिए दर्द देते हैं, पीड़ित करने के लिए पीड़ा देते हैं? या फिर हमें तैयार करते हैं हमारी पीड़ा और दर्द को कम करने के लिए या  किसी अन्य महान कार्य के लिए?

दर्द प्रकृति का वह हाथ है जो मनुष्य को

महानता के लिए गढ़ता है,

              एक प्रेरित श्रम क्रूरता के साथ छेनी के प्रहार से 

              कठोर पत्थर को एक अनिच्छुक सुंदर साँचे में ढालता है।

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शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

पारिवारिक त्यौहार



 वार्षिक त्यौहार दीवाली ने हमारे घर पर दस्तक दे दी है। दीवाली के आगमन की तैयारी अब अपने अंतिम चरण में है। दीवाली, जो पहले भारत का त्यौहार था अब धीरे-धीरे इसे वैश्विक दर्जा भी मिलने लगा है। अनेक देशों ने इस दिन सार्वजनिक छुट्टी की घोषणा कर दी है, तो कई देशों ने इस दिन आंशिक-धार्मिक-सामुदायिक छुट्टी की घोषणा की है। कई विदेशी शहरों में भी सरकारी भवनों और पर्यटक इमारतों को रोशनी से सजाया जाता है, जिनमें मुस्लिम मुल्क भी शामिल हैं। प्रतिबंधित होने के बावजूद भी गाहे-बगाहे पटाखों की आवाज सुनने लगी है, पटाखों की रोशनी दिख रही है।  आकाश दीप के गुब्बारे और छतों पर जली आकाश दीप भी दिख रही हैं। लेकिन सबसे खास बात यह है कि दीवाली हमारा पारिवारिक त्यौहार है। इसे हम अपने घर-परिवार में एक साथ मानते हैं। पूरा परिवार एक घर में जमा होता है और वहीं इसे सानंद मनाया जाता है। कोई पार्टी नहीं, कोई दोस्तों की जमघट नहीं, कोई केक नहीं। आधुनिकता और कॉर्पोरेट ने इसमें काफी दखल-अंदाजी की है लेकिन इसके बावजूद भी आज भी यह प्रमुखतः पारिवारिक त्यौहार ही है।

          कई परिवारों ने बचत के नाम पर एक साथ जमा होना छोड़ दिया है। बच्चे, भाई-भाई, माँ-बाप अलग-अलग, अपने-अपने शहरों में मनाते हैं। एक दिन के लिए आ कर क्या करेंगे, बहुत खर्च हो जाएगा! नहीं मिलने का रामबाण बहाना है। क्या इतना भी नहीं कमा रहे हो कि एक दिन के लिए नहीं आ सको? पूरा परिवार एक साथ हो सके! नहीं ऐसा नहीं है, बस मानसिकता हो गई है, और इसमें बच्चों का कम माँ-बाप का ही हाथ ज्यादा है। आर्थिक तंगी-दबाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन बचपन से ही हमने उन्हें ऐसी समझ डाल दी है – परिवार बाद में अन्य सब कुछ उसके पहले। जब बच्चे छोटे थे आप को उनकी जरूरत नहीं थी, तब आकर क्या करेंगे। अब वे बड़े हो गए तब जाकर क्या करेंगे?

          लेकिन इन सब विषमताओं के विपरीत  ऐसे परिवार हैं जिनके लिए परिवार ही सबसे पहले है, अन्य सब उसके पीछे। देश के एक छोटे से शहर में पला-बड़ा और बढ़ा यह छोटा सा परिवार समय के साथ-साथ बड़ा होता गया। बच्चों को पढ़ने के लिए देश की राजधानी दिल्ली एवं अन्य बड़े शहरों की तरफ मुंह मोड़ना पड़ा। धीरे-धीरे माँ-बाप को छोड़ एक-एक कर सब बच्चे अपने शहर से निकल गए।  लेकिन प्रारम्भ से ही माँ-बाप ने एक कड़े अनुशासन का पालन किया – साल भर कहीं भी रहें दीवाली के दिन पूरे परिवार को अपने शहर में  आना होगा। सबों को बुलाया जाता था और समय के साथ अब सब आते ही नहीं थे बल्कि इस दिन की प्रतीक्षा भी करते रहते थे। सब दीवाली पर जमा होते हैं, पूरा परिवार आपस में मिलता और मिलकर उत्सव मनाता है। समय बीतता गया बच्चे अब शहर ही नहीं देश तक भी सीमित नहीं रहे। लेकिन आज भी सब बच्चे दीवाली पर अपने उसी पैतृक घर में ही होते हैं, दीवाली एक साथ मनाते हैं। यही एक दिन होता है जब पूरा परिवार – पाँच लड़के, पाँच बहुएँ और बड़े-बड़े पोते-पोतियाँ सब – एक साथ होते हैं। बिना किसी शिकन के ही नहीं बल्कि बड़े चाव से।  यही कारण है कि इतना बड़ा परिवार, सब अलग-अलग शहरों और देशों में रहने के बाद भी एक साथ है, सबों में पांडवों जैसा संबंध है, एक दूसरे के लिए खड़े हैं, साल भर एक दूसरे के पास आते-जाते रहते हैं। वह बीज जो पिता ने बोया था आज घना वट वृक्ष हो गया है। और सब मिलकर इस वृक्ष को खाद-पानी देते हैं इसकी रक्षा करते  हैं, फलस्वरूप फल-फूल रहा है।

          और एक दूसरा परिवार है, मुझे हर समय यही लगता रहा कि परिवार आधुनकिता में लिपा-पुता है। लेकिन फिर एक घटना ने मेरे विचार बदल दिये। एक पारिवारिक आयोजन था। परिवार के सदस्यगण – बेटे, बहुएँ, पोते, पोतियाँ – अलग-अलग शहरों में रह रहे थे। परिवार के सब सदस्यों के पहुंचने की बात थी। उनके अलावा अन्य पारिवारिक सदस्य, मित्र, रिश्ते-नातेदार भी पहुँच रहे थे। पोते-पोतियाँ स्कूल में थे, मैंने सोचा सब लोग तो पहुँच ही नहीं सकते। सिर्फ पता लगाने मैंने एक को फोन किया और पूछा कि कौन-कौन जा रहे हैं?

हमलोग सब कोई जा रहे हैं?’

तो बच्चे किसके साथ रहेंगे?’ मेरा अगला प्रश्न था।

नहीं हम सब जा रहे हैं, बच्चे भी जा रहे हैं,’ फिर से वही जवाब मिला।

मैंने फिर कहा, लेकिन छुट्टी तो है नहीं, स्कूल मिस करवाओगे?’

और उपाय भी क्या है भैया,’ जवाब मिला।

स्कूल से अनुमति मिल गई है?’

नहीं, मैंने मांगी ही नहीं। छुट्टी तो तब मांगनी जब विकल्प हो, जाना तो है ही, तब अनुमति क्या मांगना। परिवार पहले है या स्कूल,’ उसने बिना रुके कहा, ‘छुट्टी तो सिर्फ बहाना होता है नहीं आने का, बच्चा हमारा है, परिवार हमारा है, वे कौन होते हैं हमारे परिवार के बीच में आने वाले?’

          जब ऐसे विचार हों तब परिवार चलते हैं। विघटनकारियों के विरुद्ध ऐसे ही आक्रामक होना पड़ता है, तब अस्मिता बचती है। समर्पण करने से हम अपनी सभ्यता, संस्कृति का नाश करते हैं। प्रायः यह देखने में आता है कि दुष्टों के प्रति हम डर कर दया का भाव रखते हैं और सज्जनों के प्रति आक्रामक हो जाते हैं। श्रीअरविंद तो यहाँ तक कहते हैं कि भेड़िये के द्वारा आक्रांत मेमने की तरह अपनी हत्या होने देने से कोई विकास नहीं होता, कोई प्रगति नहीं होती। भेड़िये पर आक्रमण कर अपनी और मेमने की रक्षा करनी होती है। दूसरों की नकल में विघटित मत होइये, संगठित होइये; दुर्जनों के प्रति समर्पित नहीं आक्रामक होना है। सुविधा भोगी नहीं, संरक्षक बनिये। अपने परिवार से प्रारम्भ कीजिये। अपने तीज त्यौहार अपनी संस्कृति के अनुसार मनाइये। समय के अनुसार बदलाव अवश्यंभावी है, जरूर कीजिये लेकिन उन्नति के लिए अवनति के लिए नहीं। हमारे तीज-त्यौहार जुड़ना सिखाते हैं, टूटना नहीं। आज की नहीं कल की सोचिये। दुनिया को बदलने के लिये अपने को बदलने की जरूरत है। पहले खुद बदलिये, फिर दुनिया को बदलिये। कल हमारा होगा।

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