शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

संस्कृति से प्यार


यह बात आजादी के पहले की है। अँग्रेजों के शासन के समय एक प्रख्यात विद्यालय था। इसमें प्राय:  विद्यार्थी अमीर घरों से आते थे। उनमें ज़्यादातर विद्यार्थी फैशन परस्त एवं अंग्रेजों का ही लिबास पहने दिखते थे। उस विद्यालय में एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया।  प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती-कुर्ता व साधारण जैकेट थी। विद्यालय के छात्रों ने उस नवांगतुक छात्र को देख कर उसका खूब मज़ाक उड़ाया। उस पर कटाक्ष भी किया। इसे सुन छात्र अप्रभावित रहा और बोला, “यदि पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो कोट पेंट पहनने वाला हर अंग्रेज़ ऋषितुल्य होता। मुझे तो उनमें ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। इस गरम प्रदेश में आने वाले अंग्रेज़ अपनी संस्कृति की प्रतीक पोशाक को यहाँ के अनुरूप नहीं बदल सकते तो मैं ही उनकी देखा देखी अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ?  मुझे अपने इस झूठे सम्मान से अधिक अपनी संस्कृति प्यारी है। जिसे जो कहना है कहे, पर मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक त्यागना मेरे लिए मरणतुल्य है

वह विद्यार्थी और कोई नहीं, वरन प्रसिद्ध विचारक व क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी  थे, जिन्हे अपनी संस्कृति से गहरा लगाव रहा।
 
गणेश शंकर विद्यार्थी
पढ़ और सुन कर तो हम नहीं समझते लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि हम यह देख कर भी नहीं समझ सके कि ठंडे प्रदेश से गरम प्रदेश में  आने पर भी गोरों ने अपनी पोशाक नहीं छोड़ी और हम गरम प्रदेश में  रहते हुए भी अपने प्रदेश की पोशाक छोड़ कर उनकी नकल में ठंडे प्रदेश की पोशाक को अपना लिया।  अब तो हमें  आजाद हुए सात से ज्यादा दशक हो चुके हैं, हम कब नकल करना छोड़ अकल से काम लेना सीखेंगे।


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

ब्रेकिंग न्यूज़


निशाना साधा (बंदूक से नहीं)
वार किया (चाकू से नहीं)
पलट वार (लाठी से नहीं)
आक्रमण (अस्त्र-शस्त्र से नहीं)
धमाका (बम का नहीं)

यह कोई युद्ध या आक्रमण या लड़ाई के समाचार के शब्द नहीं हैं। ये वे हिंसात्मक शब्द हैं जिनका  प्रयोग आजकल मीडिया रोजमर्रा के जीवन में किए जाने वाले शब्दों की तरह करती है – खेल, राजनीति, धर्म, व्यापार या किसी भी जगत के समाचार को देने के लिए। खिलाड़ी से खिलाड़ी पर, खेल के एक टीम से  दूसरे टीम पर, राजनीतिक दलों - मंत्रियों - पक्ष विपक्ष के बयानों पर इन शब्दों के लिए जगह बनाई जाती है। साधारण से साधारण खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज़ की संज्ञा देना, चिल्ला चिल्ला कर और उत्तेजित होकर उसे सुनाना, जैसे कि उनका उद्देश्य समाचार पढ़ना नहीं बल्कि श्रोता को उत्तेजित करना ही है।

एक खबर पर दूसरी खबर को चिपकाना या दिन भर सब चैनलों पर बार बार एक ही खबर और एक ही विडियो को दिखाना खबरों की अहिमीयत, उसका अर्थ और संवेदनशीलता को बुरी तरह प्रभावित करती है। इसका असर यह हुआ है कि हम किसी भी खबर को गंभीरता से नहीं लेते और उसके सत्यापन पर संदेह करते हैं। आतंकवादी को मारने की खबर हो या जवान के मौत की। सीमा पर जवानों की कार्यवाही की हो या आतंकी हमले की। आरोपी सही या गुनहगार।  सरकारी हो या विपक्ष के आंकड़े हों, कौन सही कौन गलत – कुछ पता नहीं। हमने पढ़ा है – सत्य मौन रहता है झूठ गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाता है। लेकिन अब हर कुछ संदेहों के कटघरे में खड़े हैं। सत्य आदतन मौन है या वही दोषी है? समझ पाना मुश्किल हो गया है। सबों को हम एक ही नजर से देखते हैं, एक ही कान से सुनते हैं, एक ही दिमाग से समझते हैं। या इसका उलट भी कह सकते हैं – न देखते हैं, न सुनते हैं, न समझते हैं। ये सब हमें एक ही बॉलीवुड की फिल्म सी लगती है और उस पर टिप्पणी भी ठीक उसी प्रकार करते हैं। यथा, निर्माता (चैनल) कौन है, नायक-नायिका (पक्ष-विपक्ष) कौन है, फिल्मांकन (धुंधली) कैसा है, आवाज (स्पष्टता) कैसी है वगैरह वगैरह। क्या कहा  या क्या दिखाया गौण हो गया, हम पूछते हैं – किसने कहा, कब कहा, कौनसी पार्टी ने कहा, किस चैनल ने दिखाया, किस पेपर में छपा और पूरा विश्लेषण का आधार भी यही हो गया है। सही-गलत नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी अपनी पसंद – नापसंद के नायक-नायिका-निर्माता-गायक-संगीतकार के अनुसार हम अपना मत बनाते हैं – अच्छा है या खराब  है। यही कारण है कि अपराध होते देख जनता उसे रोकने के बजाय उसका विडियो लेने में और फिर उसे हाथों हाथ सोशल साइट पर अपलोड करने में और घड़ी घड़ी  लाइक को काउंट करने में मशगूल है ।

आज के न्यूज़ चैनल समाचार नहीं देते, सब अपना अपना मत प्रकट करते हैं और पूरे समाचार को तोड़ मरोड़ कर इस प्रकर रखते हैं कि उनका मत ही सही लगता है। और-तो-और किसी भी प्रकार तोड़ना-मरोड़ना संभव नहीं हुआ और अपने मत के विरोधी हैं तो  उस खबर को एकदम नजर अंदाज कर देना, जैसे की वैसा कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे गायब जैसे गधे के सिर से सींग।  

संवेदनशीलता और विश्वास की इतिश्री करने में जितना हाथ राजनीतिज्ञों का है उससे ज्यादा मीडिया का ही है। अब याद आते हैं वे दिन जब आकाशवाणी – औल इंडिया रेडियो – से समाचार प्रसारित हुआ करते थे। एकदम सपाट, कोई उत्तेजना नहीं, कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, अपना मत नहीं। जस-का-तस। सुन कर यह अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि समाचार पढ़ने वाले या चैनल वाले, या उनके मालिक किस मत के पक्षधर है। आवाज में न कोई कंपन, न उत्तेजना। न किसी भी प्रकार के हिंसात्म्क शब्दों का प्रयोग। समाचार सुन कर आप दुखी हो सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं, विचारमग्न हो सकते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं। अब, वह समाचार भी कोई समाचार है जो दर्शक-पाठक को उत्तेजित न करे?

क्या इसके लिए हम और आप कम दोषी हैं? हम ही मसाले वाले अखबार पढ़ते हैं, अत: वही ज्यादा बिकते हैं। मसाले वाले चैनल देखते हैं अत: उनकी टीआरपी (TRP) बढ़ती है। आप इसे बदल सकते हैं। हाँ, आप अकेले ही काफी हैं। क्योंकि हर कोई यही सोचता है कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? इसके विपरीत अगर यह सोचे कि और कोई करे या नहीं मैं तो करूँ? पता चलेगा कि सबने कर लिया। इंतजार मत कीजिये, शुरुआत कीजिये अपने आप से।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

प्रगति का अर्थ

हिमाचल प्रदेश के कुमायूँ अंचल से हैं हिन्दी लेखिका शिवानी। उन्होने कुमायूँ देखा नहीं, जीया है। उन्नति, प्रगति, आधुनिकीकरण क्या होता है उनसे ज्यादा कौन समझ सकता है। इसकी क्या कीमत चुकनी पड़ती है? इसका अंदाज और उससे ज्यादा अहसास शिवानी की लेखनी में पढ़ा नहीं महसूस किया जा सकता है। उनकी कहानी पुष्पहार के अंश-
“.... ग्राम को डिजनीलैंड ही बनाकर छोड़ेगा, देखते ही देखते कच्ची सड़क ने केंचुली उतार दी। फक-फक करता बुलडोजर, निरीह पहाड़ी-घाटियों का कलेजा रौंदने लगा। पीपे के पीपे कोलतार की मोटी  तहों ने पीली धूप-भरी सड़कों पर शहरी व्याधि की स्याही फेर दी। डाइनामाइट की दिल दहलाने वाली गर्जना से आए दिन त्रस्त गिरि-कन्दरायें गूंजने लगीं। फिर नई बनी क्षीण कलेवर की सड़क पर अफसरों की जीप-गाडियाँ आईं, मंत्री की झण्डा लगी बनी-ठनी वेश्या सी इठलाती चमकती गाड़ी और फिर आईं देश-विदेश से पर्यटकों से  लदी लग्ज़री बसें।

देखते ही देखते वह ग्राम हवाई द्वीप सा ही प्रसिद्ध हो उठा। जहां का शुद्ध पहाड़ी घृत अपनी पावन सुगंध की सुख्याति कभी दूर-दूर तक फैलता आया था, अब चूर की मिलावट से अपने सुनाम पर कालिख पोतने लगा। पास ही में  मिलिटरी की एक बड़ी टुकड़ी भी आ गई थी। सीमा के प्रहरी शराब की हुड़क लगने पर धेले-टके में ट्रांज़िस्टर बेचने लगे और धीरे-धीरे ग्राम के बंदरों ने भी अदरख का स्वाद लेना सीख लिया। जो सुरम्य घाटियां कभी मधुर झोड़े गीतों से गूँजती थी, अब विवशता से फिल्मी गानों से गूंजने लगी। एक लौंडरी खुल गई। जिस ग्राम में मिश्री की डली ही मिठाई मानी जाती थी, वहीं एक व्यापार कुशल हलवाई ने पहाड़ की प्रसिद्ध बाल्सिंघौड़ियों की ऐसी भव्य दुकान खोल दी की लोग शहरियों की भांति मिठाई का स्वाद लेना भूल गए, रंगीन मनमोहक डिन्नों का ही स्वाद लेने लगे।

प्रगति? क्या इसे ही प्रगति कहते हैं? स्थानीय इंसान को रौंद कर शहरी व्यक्ति के लिए जगह बनाना ही क्या प्रगति है? गाँव के सीधे सादे लोगों में भी शहरी (अव)गुणों को भरना, गाँव की मोहक सुगंध को इंपोर्टेड पर्फ्यूम से बदल देना। गाँवों से विस्थापित कर शहर की झुग्गी झोपड़ियों में बिलबिलाने के लिए छोड़ देना?  ......