शुक्रवार, 17 जून 2022

जन्मदिन-सालगिरह के उत्सव


 बड़ी मुश्किल है मेरे साथ। लेकिन अब क्या करूँ, मेरे कुछ समझ नहीं आता। मेरी बुद्धि, दिमाग तो बस ऐसे ही चलता है। जब कोई गाय कहता है तो मेरे आँखों के सामने एक चितकबरी रंग की कूबड़ वाली, दूधारू गाय का चित्र  बन जाता है लेकिन जब काऊ कहता है तब काले धब्बे वाली सफ़ेद रंग की सपाट पीठ वाली काऊ का चित्र आता है। मुझे दोनों में साफ फर्क नज़र आता है। मैं कहता हूँ कि नहीं गाय काऊ नहीं है लेकिन पूरी दुनिया कहती थी गाय माने काऊ, और अब कहती है काऊ माने गाय।  मैं कहता हूँ कि नहीं दोनों अलग-अलग हैं एक नहीं है, लेकिन कोई कान  नहीं देता।

          अरे भाई मैं तो मान ही रहा हूँ कि मैं गलत हूँ, लेकिन जैसे आपको मेरी बात समझ नहीं आ रही है वैसे ही मुझे आपकी बात समझ नहीं आती। लेकिन मैं यही कहता हूँ कि आप ही सही हैं, मुझ में समझ की कमी है, या यह भी कह सकते हैं कि मैं सठिया गया हूँ। न न न न, मुझे कोई आपत्ति नहीं है। मैं सचमुच सठिया गया हूँ। अब जन्मदिन और बर्थडे को ही ले लीजिये। आप फिर कहेंगे, दोनों एक ही है, लेकिन मैं फिर........। जन्मदिन कहते हैं तो मेरे सामने लंबी, नुकीली, रंग-बिरंगी टोपी पहने खेलते-कूदते बच्चे, मंदिर-प्रसाद, जलता दिया, माँ-बाप, परिवार नजर आता है, लेकिन जब बर्थडे कहते हैं तो केक, चक्कू, बुझी मोमबत्ती, दोस्तों का हुजूम नजर आता है। हाँ यह मेरा ही दोष है, मेरी आँखों का, या समझ का,  या कोई बीमारी, मुझे पता नहीं। क्या आपको पता है? क्या आप इसे ठीक कर सकते हैं?

          ठीक ऐसे ही सालगिरह के नाम पर भारतीय लिबास में हाथ जोड़े कोई जोड़ा नज़र आता है, साथ में पूरा घर-परिवार, रिश्तेदार हैं। लेकिन ऐनिवरसरी कहने पर सूटेड-बूटेड पुरुष-महिला नजर आती है। एक में लोगों से, ईश्वर से आशीर्वाद और शुभेच्छा लेता, दीपक जलाता जोड़ा नजर आता है और दूसरे में हाथ में गिलास थामे झूमते-थिरकते  पुरुष-नारी दिखते हैं। दोस्तों और ऑफिस के लोगों से भरा-पूरा है, रिश्तेदार कहीं किसी कोने में बैठे-खड़े दिख जाते हैं। अभी किसी ने मुझे बताया, मेरा दिमाग ठीक है बस चश्मा पुराना हो गया है, उसे बदली करने की जरूरत है। मैं कई बार अपना चश्मा भी बदली करवा चुका हूँ, लेकिन ढाक के वही तीन पात। बड़ा परेशान हूँ, क्या करूँ?

          अभी कुछ समय पहले की बात है। हम कई लोग एक साथ बैठे चर्चा कर रहे थे। अवसर था किसी परिचित के 80 वर्ष की आयु के उत्सव का। बात चीत के दौरान किसी ने सहस्त्रचंद्रदर्शन की चर्चा कर दी। लोगों ने ध्यान नहीं दिया, किसी को शब्द समझ नहीं आया। लेकिन मेरे कान खड़े हो गए, जिस तरह कहीं कोई खुड़का होने से कुत्ते के कान खड़े होते हैं। मैंने महोदय से पूछ लिया, क्या क्या क्या..... क्या कहा अपने’? इस बार उन्होंने धीरे-धीरे कहा सहस्त्र चंद्र दर्शन। शब्द सरल था, शाब्दिक अर्थ तुरंत समझ गया। मैंने पढ़ा है जीवेम शरद: शतम यानि जीवन के एक सौ शरद ऋतु, शरद वर्ष में एक बार आता है यानि एक सौ वर्ष। एक सौ वर्ष की आयु की कामना की प्रार्थना। मुझे लगा कि सहस्त्र चंद्र दर्शन का  भी ऐसा ही कोई अर्थ होना चाहिए। खुजली शुरू हो गई थी, अतः मैंने पूछ लिया। सौभाग्य से बाकी लोग भी उत्सुक थे, अतः बस पूरी चर्चा इसी तरफ मुड़ गई।

          चंद्र दर्शन तो पूर्णिमा के दिन ही हो सकता है, क्योंकि उसी दिन चंद्र अपने पूर्ण स्वरूप में होता है। अतः सबसे पहला प्रश्न तो यही था कि इसकी गणना तो बड़ी कठिन है! पता चला कि गणना उतनी कठिन नहीं है, जितनी प्रतीत होती है। आज ये गणना बड़े वैज्ञानिक-वेधशाला करते हैं, डेटा कम्प्युटर में डालते हैं, और वही बताता है भाई, मोटे रुपये तो लगते ही हैं। अरे, 100 वर्षों की गणना है कोई हंसी मज़ाक थोड़े ही है। एक दम सटीक, विश्वसनीय। हमारे यहाँ तो यह गणना मिनटों में सड़क के किनारे का पंडित भी पंचांग देख कर लेता है – दिन,घंटे, मिनट ही नहीं सेकेंड्स तक की सटीक गणना। कुछ खुचरे पैसों में हो जाती है। लेकिन अब हम उसे अनपढ़-गंवार समझते हैं। उसका क्या भरोसा! और फिर खर्च ज्यादा हो तभी तो विश्वसनीय लगता है, तभी मजा ज्यादा आता है, कहते हैं जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा। बिना गुड़ डाले कहीं मिठास  आती  है?

          किसी समय हमारी औसत आयु 60 वर्ष ही थी। अत: उम्र से संबन्धित समारोहों और अनुष्ठान का आयोजन 50वें वर्ष से प्रारम्भ हो जाता था। इन अनुष्ठानों के आयोजन का उद्देश्य  स्वास्थ्य, सुख, शांति और लंबी आयु की कामना और साथ ही ईश्वर का, बड़ों का आशीर्वाद लेने हेतु होता था। उसके पश्चात हर पाँच वर्ष पर इस प्रकार के आयोजन हुआ करते थे और इन सबों का अलग-अलग विधान था, अलग-अलग अनुष्ठान और अलग-अलग नाम। रजत, स्वर्ण, हीरक और शताब्दी का आगमन तो कई शताब्दियों बाद अंग्रेजों के आगमन के बाद हुआ। देश के अलग-अलग हिस्सों में इनके नाम भी अलग-अलग हैं और अनुष्ठान में भी थोड़ा बदलाव है। 55 वर्ष की आयु पर वरुण, 60 पर उग्ररथ (कई प्रान्तों में इसे षष्ठी पूर्ति भी कहा जाता था), 65 पर मृत्युंजय, 70 पर भौंरथी, 75 पर ऐंद्रि, 80वें पर यह स्वीकार किया जाता था कि सहस्त्र चंद्र  (एक हजार चंद्र) के दर्शन हो गए, 85 पर रौद्री, 80 पर कालस्वरूप, 95 पर त्र्यंबक और 100 पर त्र्यंबक-महामृत्यंजय शांति का अनुष्ठान होता था। परिवार जमा होता था, पूजा-हवन और भोज का आयोजन होता था।

           सहस्त्र चंद्र के साथ और एक अनुष्ठान प्रचलित था – सहस्त्र पूर्ण-चंद्र दर्शन। पुर्णिमा को होने वाले चंद्र-ग्रहण को बाद दे दिया जाता था, क्योंकि उस दिन पूर्ण नहीं होता, और इसकी भी गणना आसानी से कर ली जाती थी।

          विचारणीय है कि केवल चंद्रमा को ही क्यों? सूर्य क्यों नहीं? क्योंकि चंद्रमा हमारी भावनाओं को प्रभावित करता है। 60 के बाद व्यक्ति वंचित, अकेला और दूसरों के लिए अनुपयोगी होने लगता है। वह घबरा जाता है और संदेह करता है कि लोग उससे बच रहे हैं। साथ ही उच्च रक्तचाप और मधुमेह उस पर हमला करते हैं। इसलिए, उसे यह महसूस कराते हैं कि वह अभी भी हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं। फिर 80 साल सहन करने के लिए बहुत अधिक है। यहां तक ​​​​कि उनके बच्चे भी बूढ़े हैं, इसलिए यह सबसे जरूरी बात है कि हमें उन्हें खुश करना चाहिए क्योंकि वे जीने का प्रबंधन कर सकते हैं,  80 वर्ष की आयु लंबी आयु है। इसलिए, यह सहस्त्र चंद्र समारोह महत्वपूर्ण है। हमें उनकी खुशी और भावना के लिए जश्न मनाना चाहिए कि वे अभी भी उपयोगी हैं, हमारे द्वारा वांछित हैं, लांछित नहीं। इस उम्र में उनके साथी भी स्वर्ग-निवास के लिए जा चुके होते हैं। इसलिए, वे वास्तव में अकेलापन महसूस करते हैं। उन्हें प्यार-स्नेह की जरूरत है, जिसे वे हमें देते रहे हैं। हमें तो बस उनका दिया हुआ ही वापस लौटाना है। उनका हाथ माथे पर रखें और देखें कि वे कैसे सुखी और शांत महसूस करते हैं।

          दूसरों की नकल करने के बजाय इस घटना को उनकी भावना के अनुसार करें और देखें कि वे कैसे संघर्ष करते हैं, मुस्कुराते हैं और आपको आशीर्वाद देते हैं। आज हम यह भूल कर रजत, स्वर्ण, हीरक जयंतियाँ मना रहे हैं, मनमाने ढंग से। कम-से-कम दीपक बुझाने के बदले दीपक जलाएं, जीवन में अंधकार न कर उसे रौशन करें  दूसरों की  संस्कृति जानना–उनका आदर करना ही चाहिए, लेकिन अपनी संस्कृति को भूलना, कष्ट दायक है। अपना वजूद बचाएं, अपनी संस्कृति अपनाएं।

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शुक्रवार, 10 जून 2022

जीने का तरीका

 जीने का तरीका                                              खबरें जरा हट के

 

(इस बात से हम अच्छी तरह से परिचित हैं कि हमारी  मीडिया / सोशल मीडिया / प्रिंट मीडिया हमें क्या और कैसी बातें बताती-दिखाती हैं, एक बार, बार-बार, दिन भर। लेकिन इन सब के बीच कभी-कभी अखबारों के भीतरी पृष्ठों पर, टीवी के एक कोने में, अनजान सोशल मीडिया में ऐसी खबरें छप जाती हैं जो पढ़ने, समझने और एक भारतीय नागरिक हेतु हमें जानना चाहिए। ऐसी ही एक और खबर रविवार, 3 अप्रैल, 2022 को टाइम्स ऑफ इंडिया, कोलकाता में छपी)

Why Indian millennials are downsizing their careers

(क्यों भारतीय युवा वर्ग अपने भविष्य का खुद निर्माण कर रहे हैं)

 

इस रिपोर्ट में कई भारतीयों की चर्चा है जिन्होंने अपने सधे-सधाए, सुव्यवस्थित उज्ज्वल भविष्य को तिलांजली दी और एक अलग-नया जीवन प्रारम्भ किया। ये भारत या विदेशों में बसे हुए थे और भविष्य सुरक्षित था। लेकिन इन युवाओं को वह जिंदगी रास नहीं आ रही थी। इन्हें लग रहा था कि हाँ पैसा बहुत कुछ है लेकिन सब कुछ नहीं। ये सब, अपने जीवन में एक बेचैनी महसूस कर रहे थे। यह वह जिंदगी नहीं थी जिसकी उन्होंने कल्पना की थी। कइयों को अपने घर-परिवार से दूर रह कर अकेले आनंद लेना कष्ट दायक लग रहा था, तो कइयों को यह आनंद दायक ही नहीं लग रहा था। वे अपने देश, परिवार, समाज और दायित्व को लेकर बेचैन थे और आखिर उन्होंने उस जीवन का त्याग कर नई शुरुआत की।

          छपी रिपोर्ट बताती है कि आश्लेघ बर्ती, विश्व की चोटी की टैनिस खिलाड़ी और तीन बार ग्रांड स्लैम की विजेता ने अचानक 25 वर्ष की उम्र में खेल से सन्यास लेने की घोषणा की। उस समय वे अपने खेल के शीर्ष पर थीं, उन्हें विज्ञापनों से बड़ी मोटी रकम मिल रही थी। बहुत से युवाओं ने उनके इस फैसले की प्रशंसा की तो कई अचंभित रह गए। बर्ती ने कहा कि बहुत से लोग यह नहीं समझ पायेंगे कि पैसा कमाने के अलावा भी एक खूबसूरत जीवन है। लेकिन कई युवा जो बर्ती के साथ पहचाने जाते हैं, वे भी जीवन में संतुलन, धीमी जीवन शैली और बिना रुके (नॉनस्टॉप) के बजाय पूर्णता की भावना की इच्छा में अपरंपरागत कैरियर और जीवन शैली को अपनाने के लिए स्थायी  नौकरी छोड़ रहे हैं।

          लंदन के आई बी एम में  कार्यरत शुवाजीत पाइन के पास वह सब कुछ था जो एक युवा अपने लिए और एक अभिभाववक अपने बच्चे के लिए सपने देखता है। लेकिन फिर 12 साल पहले बिना किसी योजना के अपनी मोटी वेतन वाली, स्थायी नौकरी छोड़ दी। "मैंने एक पारंपरिक कैरियर से परे शायद ही कभी सोचा था, लेकिन कुछ वर्षों के बाद मुझे एहसास हुआ कि यह वह नहीं था जो मैं वास्तव में करना चाहता था," 39 वर्षीय शुवाजित कहते हैं, वे  कुछ छान-बीन करने के बाद महाराष्ट्र के एक ग्रामीण इलाके में शिक्षाविशारद बन गए। उन्होंने कहा, "काम करने के अपने वर्षों में, जीवन में यह पहली बार था जब मैंने अपना काम करते हुए महसूस किया कि मैं कुछ कर रहा हूँ। मैं अब 11 साल से विकास क्षेत्र में कार्य कर रहा हूं।"

          एक पत्रकार के रूप में लेखिका सोमी दास की अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी थी, लेकिन जब उन्होंने इसके कारण उत्पन्न मानसिक तनाव और गिरते स्वास्थ्य का अनुभव हुआ उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ कर स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता का कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्हें अपनी दिनचर्या में परिवर्तन करने पड़े लेकिन अब वे अनुभव करती हैं कि अब न तो उनका शोषण हो रहा है और न ही अब वे एक रोबोट मात्र बन कर रह गई हैं। जीवन में कई संघर्ष हैं लेकिन वे खुश हैं कि उन्होंने ऐसा करने का साहस जुटाया, बहुत लोग ऐसा करने का साहस नहीं जुटा पाते। कई लोग एक प्रकार के चक्रव्यूह में फंस गए हैं और उनके पास इससे बाहर निकलने का विशेषाधिकार या साधन नहीं है।"

          “व्हाट मिलेनियल्स वांट” के शोधकर्ता और लेखक विवान मारवाह का कहना है कि इस तरह के फैसले देश के छोटे उपखंडों तक सीमित हैं। "जिन लोगों के माता-पिता ने मध्यम वर्ग में आने के लिए कड़ी मेहनत की, वे ही इन विकल्पों पर विचार करने में सक्षम हैं। वे एक ही विचार से प्रभावित महसूस नहीं करते हैं। हमारी सबसे बड़ी मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है, जिसकी हमें चिंता नहीं है। और इसके बाद जो आता है वह है खुशी और तृप्ति, जिस पर वे ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।"

          विवेक शाह स्वीकार करते हैं कि वित्तीय स्थिरता ने उन्हें और उनकी पत्नी बृंदा को अलग-अलग निर्णय लेने की अनुमति दी। सिलिकॉन वैली में एक विशिष्ट स्टार्टअप में काम करते हुए, शाह को पता था कि उनके जुनून कहां हैं। "हम इस तरह के काम के बारे में कुछ नहीं जानते थे, लेकिन जानते थे कि हम भारत में इसके बारे में सीखना चाहते हैं। यही वह जगह है जहां हमारा दिल है और हम यहाँ अहमदाबाद के नजदीक इस फार्म पर आ गए। और अब हम इस फार्म पर तथा लैंडस्केप और बगीचे स्थापित करने के प्रोजेक्ट्स पर काम करते हैं। वे आगे कहते हैं कि इस नयी जिंदगी में कई समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन हम एक सरल जीवन व्यतीत करते हैं, कम संसाधनों के साथ।

          छोटे शहरों में जाना और एक गैर परंपरागत कैरियर को चुनने की तरफ अब युवाओं का रुझान बढ़ने  लगा है लेकिन अगर आज से 20 वर्ष पूर्व देखें तो यह मान्य नहीं था। जब जून 2003 में मंसूर खान ने बॉलीवूड में निर्देशक के काम को तिलांजली दे कर कून्नूर के छोटे से चीज हाउस पर कार्य आरंभ किया था मुंबई में लोगों को यह विश्वास ही नहीं हुआ कि मंसूर मुंबई छोड़ कर कून्नूर चले गए हैं। वे कहते हैं कि उनके पास अनेक युवा आते हैं और उनसे जानने चाहते हैं कि उन्होंने यह सब कैसे किया? वे यह बताते हैं कि मुंबई में ब्रीच कैंडी में बैठ कर युवाओं को यह समझाना बहुत कठिन है लेकिन यहाँ मैं उन्हें ऐसी जिंदगी के लिए प्रोत्साहित कर सकता हूँ कि वे बड़े शहरों को छोड़ कर छोटी जगहें चुने।

          बहुत से लोग आज भी यह नहीं समझते हैं कि हमें तो एक ही जीवन मिला है, अपनी मर्जी से जीने के लिए। वे हमें आलसी ही मानते हैं। लेकिन इन नव-जवानों का मानना है कि सफलता की कोई एक निश्चित परिभाषा नहीं है, इसे हमें अपने हिसाब से गढ़नी है। यह हमारी अपनी जिंदगी है, एक, घर पर माँ-बाप के साथ रह कर नौकरी करते हुए रहना पसंद कर सकता है तो दूसरा  बड़ी कंपनी में नौकरी करना या उसका सीईओ बनना। लेकिन ये ही सफलता के मापदंड नहीं हैं, सब की अपनी-अपनी कहानी है, अपनी-अपनी मर्जी है, अपने-अपने मापदंड हैं।   

(अगर आप को भी कोई बेचैनी महसूस हो रही है तो आप भी अपनी कहानी खुद  लिखिए, अपने मापदंड खुद तय कीजिये। उनके केवल सपने मत देखिये, उसे यथार्थ में  परिवर्तित कीजिये। आखिर आपको जीने के लिए एक ही जिंदगी मिली है। सफलता, आनंद, सुख, शांति को खुद परिभाषित कीजिये, दूसरों की परिभाषा मत दोहराइये।)

(अखबार में छपी रिपोर्ट का आंशिक हिन्दी रूपान्तरण, पूरे रिपोर्ट को नीचे दिया गया है।)



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https://youtu.be/InUOgyjcj0c


 

शुक्रवार, 3 जून 2022

सूतांजली जून 2022

 सूतांजली के जून अंक में एक लम्बी लघु कथा, योग दिवस पर मन का योग, लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की अट्ठारहवीं किश्त है।



१। एक लम्बी लघु कथा

एक कहानी और साथ में एक विदेशी महिला का मार्मिक अनुभव

२। मन का योग

योग दिवस पर क्या है योग और उसका महत्व। क्या योग केवल एक शारीरिक व्यायाम मात्र है?

३। संवेदना  - लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

हर किसी के हृदय में एक बचपन भी होता है और सरलता भी, चाहे बड़ा अधिकारी हो या चपरासी।

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी (१८) – धारावाहिक

धारावाहिक की अट्ठारहवीं किश्त

 

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https://sootanjali.blogspot.com/2022/06/2022.html

 

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https://youtu.be/2c-ps5GfQ3Y