शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

जन्मदिन – क्यों और कैसे?

 आज से दुर्गापूजा या नव-रात्री प्रारम्भ है। पाठ शुरू हो रहा है। बड़ा त्यौहार है, अनेक कार्य करने हैं।

आज से सावन का सोमवार है, या शिवरात्रि है – शिव आराधना, रुद्राभिषेक या शिवजी को जल –दूध चढ़ाना है।

आज राम नवमी है।

आज सरस्वती पूजा है।

आज स्वाधीनता दिवस है।

अगर मैं इसकी सूचि बनाने बैठूँ तो न जाने कितने पन्ने लग जाएंगे। और अगर इसमें आकाश के नीचे समस्त प्रदेशों का समावेश करना चाहूँ तो?

यानि ऐसा कोई प्रदेश नहीं, संस्कृति नहीं, सभ्यता नहीं, धर्म नहीं जिसमें कई तिथि विशेष की अपनी कोई विशेषता न हो। और हम उसे उसी की विशेषता के अनुरूप उसी अंदाज़ में मनाते हैं। किसी दूसरे दिन भी मना सकते हैं, लेकिन फिर भी उसी दिन क्यों? राम नवमी पर सरस्वती की आराधना, दीवाली पर शिव रुद्राभिषेक, 15 अगस्त को गांधी का जन्मदिन वगैरह क्यों नहीं मनाते?  इसका उत्तर आपके पास है, आप जानते हैं। समयानुसार मनाने से उत्साह भी बनता है और समयानुकूल लगता है। लेकिन क्या केवल यही कारण है? नहीं, उस दिन हमारे और उनके बीच निकटता ज्यादा होती है, वे हमारे दुःख-दर्द को सुनने-समझने के लिए हमारे ज्यादा नजदीक होते हैं। उस दिन वार्तालाप ज्यादा सहज होता है। यह ठीक वैसे ही है जिसे, राजा से कभी भी मिलने का प्रयत्न किया जा सकता है लेकिन जब वे दरबार में हाजिर हों, सभासद मौजूद हों, मंत्रिमंडल उपस्थित हो, प्रशासन अधिकारी हाजिर हों, तो बात ज्यादा आसानी से बन जाती है। इन धार्मिक तिथियों के अलावा भी अनेक ऐसे दिन होते हैं जिन्हें हम ज्यादा उत्साह से मानते हैं, इतिहास को याद करते हैं।  

          इन विशेष तिथियों में एक दिन है हमारा अपना जन्मदिन। यह हमारा अपना भी हो सकता है, अपने परिवार के किसी सदस्य का, परिचित का, मित्र का, किसी महान  आत्मा का ........। आत्मा का? यह जन्मदिन होता क्या है? अगर इस पर जरा भी गहराई से विचार करें, तो बात तुरंत समझ आती है, जन्म आत्मा का। लेकिन आत्मा तो अमर है, अजन्मा है? फिर? हम जिसे अपना जन्म कहते हैं वह वास्तव में यह वह दिन है जिस दिन हमारी आत्मा को नया स्वरूप, नया प्रदेश, नए लोग, नया परिवेश, नया परिवार मिला। क्या इसका चुनाव हमने किया? आत्मा के लिए यह चयन परमात्मा ने किया। उसने यह चयन किस आधार पर किया? हमारे अपने कर्मों के आधार पर। बिना किसी पक्षपात के, बिना किसी भूल के। यानि यह वह दिन था जब हम परमात्मा के सम्मुख खड़े थे। यह वह दिन था जिस दिन हमने परमात्मा के  दर्शन किए। यह वह दिन था जिस दिन हमें परमात्मा से बातचीत करने का अवसर मिला। यह वह दिन है जिस दिन परमात्मा हमारे और दिनों की अपेक्षा ज्यादा नजदीक होते हैं। हम अपनी बात उन तक पहुंचा सकते हैं, उनकी बात सुन सकते हैं। यह दिन परमात्मा द्वारा हमें दिया जाता है, वर्ष में एक बार। जन्मदिन, वही दिन होता है जब हम फिर से, एक वर्ष बाद, मिलते हैं। इसके लिए हमें कुछ करना भी नहीं होता है, बस थोड़ा सा सजग। उन्हें सुनने के लिए उनसे मुखातिब होना और उनकी सुनने के लिए उनकी आवाज पर ध्यान देना। अगर चूक गए तो फिर वर्ष भर इंतजार।

          “हाँ, यह सचमुच व्यक्ति के जीवन में एक विशेष दिन है । यह वर्ष के उन दिनों में से एक है जब परम प्रभु हमारे अन्दर अवतरित होते हैं अथवा जब हम शाश्वत प्रभु के साथ आमने-सामने होते हैं उन दिनों में से एक, जब हमारी आत्मा शाश्वत प्रभु के सम्पर्क में आती है और, यदि हम थोड़ा सचेतन रहें, हम अपने अन्दर उनकी उपस्थिति को अनुभव कर सकते हैं। यदि हम इस दिन थोड़ा-सा प्रयास करें, तब हम अनेक जन्मों का कार्य मानों क्षणों में पूरा कर लेते हैं ... यह दिन सचमुच जीवन में एक अवसर है” – श्रीमाँ

          वे हमसे बातचीत करते हैं लेकिन हमारा ध्यान कहीं और रहता है, हम शोरगुल में डूबे रहते हैं, हमें उनकी आवाज सुनाई ही नहीं देती। यह आवाज बहुत महीन होती है लेकिन एक बार सुनने लगें  तो इससे स्पष्ट दूसरी आवाज नहीं।

          जन्म दिन मनाइए, शौक से मनाइए, जैसे आपका मन हो वैसे मनाइए, लेकिन दिन का प्रारम्भ कीजिये उस परमात्मा से मुखातिब होकर, उसे अपनी बात कहकर और उसकी बात सुनकर।

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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2022

चिन्मय विभूति, कोलवान - मेरी यात्राएं

(मैं चिन्मय मिशन की चिन्मय विभूति में प्रथम बार 2018 जनवरी में  तीन सप्ताह व्यापी “गीता ज्ञान यज्ञ” और फिर 2019 में तीन सप्ताह की “संपूर्ण रामचरित मानस” शिविर में गया था। यह यात्रा विवरण उसी समय लिखा गया था, लेकिन कम्प्युटर की अतल गहराइयों में न जाने कहाँ लुप्त हो गया था। अचानक एक दिन प्रकट हुआ तो मामूली हेर-फेर के साथ आपके सामने है) 

भारत के व्यापारिक एवं औद्योगिक शहरों में एक जाना पहचाना नाम है पूना या पुणे का। पूना से लगभग ४५ कि.मी. पश्चिम की तरफ बढ़ें तो एक छोटा सा गाँव है कोलवान। भारत के अधिकतम गाँवों की ही तरह कोलवान भी एक अनजाना नाम ही है। लेकिन इस गाँव में प्रवेश करने के ठीक पहले है एक विभूति, जी हाँ चिन्मय विभूति। सत्य ही  चिन्मय मिशन का यह मुख्यालय विभूति ही है। चिन्मय मिशन का नाम देख कर अगर आप सोच रहे हैं कि आश्रम होगा, तो आप गलत हैं। यह मुख्यालय भी नहीं है।

          दरअसल यह विज़न सेंटर (Vision Centre) है जहाँ भविष्य के निर्माण के लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। ब्रह्मलीन स्वामी चिन्मयानंद  के उद्देश्यों, संकल्पों, सिद्धांतों को समझने और समझाने की शिक्षा दी जाती है, ताकि मिशन के पदाधिकारी, कार्यकर्ता, सेवक, सेविकाएं, साधक को यह पता हो कि उन्हें क्या करना है और कैसे? नए-नए केन्द्रों की स्थापना के साथ-साथ ऐसे स्वयं सेवकों की, कार्यकर्ताओं की माँग बढ़ रही है और प्रशिक्षित लोगों के अभाव में ये केंद्र अपने उत्तरदायित्व का सही निर्वाह नहीं कर पाते हैं। इस केन्द्र की स्थापना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए स्वामी तेजोमयानन्द जी कहते हैं,हम चाहते हैं कि लोग यहाँ आएँ, प्रेरणा प्राप्त करें, दूर-दृष्टि प्राप्त करें, प्रशिक्षण प्राप्त करें, और फिर वापस जाएँ और जहाँ भी जाएँ उस स्थान को इस ज्ञान-ज्योति से प्रज्ज्वलित करें।” प्रशिक्षण के इस कार्य को सुचारु रूप से करने के लिए आवश्यक अत्याधुनिक यंत्रों एवं साधनों से सुसज्जित छोटे-बड़े सभागार भी हैं, भोजनालय, लौंड्री, आवश्यक वस्तुओं की दुकान, डॉक्टर, चिन्मय मिशन की वस्तुओं की दुकान और पुस्तकों के लिए चिन्मय वाणी के नाम से विक्रय केंद्र, स्वामी चिन्मयानन्द पर विशाल औडियो के साथ चित्रों का केंद्र, मंदिर आदि भी हैं। बच्चों, उनके अभिभावकों, आम जनता के लिए भी वर्ष भर अलग-अलग विषयों पर प्रशिक्षण तथा शिविर का आयोजन होता है। इसी परिसर में “चिन्मय नाद बिन्दु”,  एक आवासीय प्रशिक्षण संस्थान है जहां भारतीय संगीत-नृत्य की शिक्षा दी जाती  है।  यहाँ का दृश्य किसी आश्रम का नहीं बल्कि एक रिज़ॉर्ट का सा या खुला विश्व-विद्यालय का ही है।

          सहयाद्रि पर्वत शृंखला ने इस आश्रम को तीन तरफ से घेर रखा है। ऐसे लगता है जैसे सहयाद्रि ने अपनी अंजली में भर रखा हो, या शिव लिंग की चँदेरी के मध्य आश्रम शिव लिंग स्वरूप में गढ़ा गया हो। एक पहाड़ी की चोटियों पर एक साथ दृष्टिपात करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि हनुमान शयन मुद्रा में विश्राम कर रहे हैं। प्रात: और संध्या आश्रम के अंतिम छोर पर बने गणेश मंदिर से सूर्योदय और सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य देख आँखें हरी हो जाती हैं। इन्हीं पहाड़ियों के पीछे से ही रोज सुबह सूर्यदेव आश्रम में प्रवेश करते हैं और प्रत्येक शाम उल्टी दिशा में उसी सहयाद्रि पहाड़ी के पीछे प्रस्थान करते हैं। दूर-दूर तक जहाँ तक नजर जाती है खेत ही खेत और उनके मध्य में कहीं-कहीं छोटे-छोटे गाँव-मकान-झोपड़ी  ऐसे लगते हैं जैसे खेतों में गाँव की ही खेती की गई हो।

          प्रमुख द्वार से अंदर प्रवेश करते ही तुरंत अपने आप ध्यान आकर्षित हो जाता है और रीड़ की  हड्डी एकदम सीधी हो जाती है। तुरंत अनुभव होता है कि किसी विशेष स्थल में प्रवेश कर रहे हैं। कान, आँख और दिमाग अपने आप चौकन्ने हो जाते हैं, सब कुछ भरपूर ग्रहण करने के लिए। मन प्रफुल्लित हो जाता है और एक सात्विक भावना समा जाती है। सामने दूर तक जाती चौड़ी सड़क दीख पड़ती है। दोनों तरफ छोटे-छोटे पौधों की क्यारियाँ जिन पर फूल लहरा रहे हैं। इन्हीं के मध्य दाहिने तरफ है मारुति मंदिर। स्वच्छ एवं बड़ा परिसर। चमकता संगमरमर का फर्श और ठीक सामने वीरासन में, गदा लिए अभय मुद्रा में विराजमान हैं मारुति नन्दन हनुमान। सुबह शाम पूजन, अर्चना और वैदिक आरती। विशेष पूजा, अनुष्ठान, पाठ या होम की भी समुचित व्यवस्था है।

          इसके विपरीत बाईं तरफ है कार्यालय का परिसर, नाम है स्वागतम। प्रवेश द्वार के बाहर ही है प्रहरी के रूप में विशालकाय पीपल का वृक्ष, जैसे सब आने जाने वालों को नजर भर देख रहा हो और उन्हें आशीर्वाद भी प्रदान कर रहा हो। जैसे कि कह रहा हो कि मैं जिस प्रकार हर समय हरा-भरा रहता हूँ, वैसे ही यह स्थान भी हंसमुख बना रहता है। जैसे यहाँ पक्षी निरंतर आते रहते हैं वैसे ही यहाँ भक्तों का आवागमन लगा रहता है। जैसे मेरे नीचे बैठने वाले को सुकून मिलता है, ठंडी बयार मिलती है वैसे ही अतिथियों को ज्ञान एवं आराम मिलता है। वहीं  स्वागत के लिए है रंग बिरंगी कुमुदनी और श्वेत जवाकुसुम। स्वागतम के प्रवेश द्वार से ही दिखेगा विशालकाय चिन्मय मिशन का प्रतीक चिन्ह। मैं इस प्रतीक को समझ नहीं पाया। पता लगा यह मलयालम का है तथा ब्रह्मलीन स्वामी चिन्मयानन्दजी के हस्ताक्षर का पहला अक्षर भी। उसके पीछे शीशे के बड़े बड़े बंद दरवाजों से झाँक रहा है स्वानुभूति’, दाहिने हाथ है चिन्मय साहित्य का भंडार “चिन्मय वाणी”, और बाईं तरफ चिन्मय वस्त्रादी, पूजा एवं सजावट की वस्तुएँ। सब वस्तुएँ उत्कृष्ट कोटि की तथा बड़ी सावधानी एवं सुरुचिपूर्ण तरीके से सजाई हुई। इस सब को जोड़ता विशाल स्वच्छ प्रांगण। स्वामीजी के गुरु तपोवन महर्षि की आदमक़द तस्वीर आदि। इस सब  के बाद अंत में है कार्यालय। प्रवेश करने पर कार्यालय का आभास तो देता है लेकिन वहाँ कार्यालय की दुर्गंध नहीं, खुशबू है, स्वच्छ और सुरुचिपूर्ण फ़र्निचर। कर्मचारी मिलनसार, हंसमुख, तत्पर और सहायक। ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम किसी कार्यालय में आए हों, बल्कि प्रवेश किया है सहायता कक्ष में जहाँ सब सहायता को तत्पर।

          वापस आता हूँ स्वानुभूति पर। इसकी व्याख्या और वर्णन करना मेरे बस की बात नहीं। एक के बाद एक अनेक उद्दरण, हिन्दी एवं अँग्रेजी में, साहित्य, चिंतन, अध्यात्म, देश एवं  परदेश हर जगह से अनेक उक्तियाँ। स्वयं पढ़ें और स्व-अनुभूति करें। हरेक के लिए अलग-अलग संदेश, अलग-अलग अर्थ, अलग-अलग अनुभव, अलग-अलग अनुभूति।  अगर पढ़ते हुए, समझते हुए आगे बढ़ना है तब एक दिन में पूरा नहीं कर सकते।  

          इसके बाद एक-एक कर चिन्मय दर्शन का कार्यालय, चिन्मय दर्शन’, चिन्मय संगीत विद्यालय तथा आधुनिक विशाल सभागार। अर्ध-गोलाकार सभागार आधुनिक यंत्र, ध्वनि-प्रकाश, विशाल मंच, १००० से ज्यादा दर्शक-श्रोताओं की बैठने की व्यवस्था। कुर्सी में ही लगी मुड़ने वाली टेबल ताकि श्रोता आवश्यकता पड़ने पर कुर्सी के हैंडल से उसे निकाल कर सुविधापूर्वक लिख सकें और वापस उसे यथा स्थान लगा सकें। सभागृह का नाम है सुधर्मा । सभागृह के सम्मुख है बड़ी सी जगह और उसके आगे खुला वातायन। मौसम के अनुसार उस खुली जगह में भी अनुष्ठान / कार्यक्रम किए जा सकते हैं। सभागृह को पार  कर हम पहुँचते हैं मिशन के स्वामी के ठहरने का स्थान। उसके सम्मुख विशाल भोजन कक्ष, नाम है अन्नाश्री, साथ ही रसोई घर। रसोई घर आधुनिक संसाधनों से सम्पन्न तथा स्वच्छ। मन करता है खड़े खड़े देखते रहें। भोजन कक्ष में लगभग ५०० व्यक्ति एक साथ बैठ कर भोजन कर सकते हैं। चरण पादुका अंदर नहीं ले जा सकते। हाथ धोने के लिए स्वच्छ, सुंदर और बड़ी व्यवस्था, ऐसी कि कभी पंक्ति में खड़ा न होना पड़े। पीने के लिए फ़िल्टर किया हुआ पीने का पानी। सर्दी के मौसम में गरम पानी भी टंकी में उपलब्ध, और व्यवस्था ऐसी की कभी खाली नहीं। स्वच्छ धो-पोंछ कर साफ किए स्टील की थाली, कटोरी, चम्मच तथा गिलास। बर्तन सफाई की मशीनें लगी हैं जिसे कर्मचारी संभालते हैं। कार्य इतनी सुविधा एवं द्रुत गति से चलता है कि कभी भी ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ता है। अनुशासित श्रद्धालु, भोजन के बाद टेबल ऐसी छोड़ कर जाते हैं कि उसे फिर से साफ करने की आवश्यकता नहीं। जूठे बर्तन उठा कर ऐसे रखे जाते हैं कि किसी प्रकार की न कोई गंदगी न दुर्गंध। सुकून मिलता है यहाँ बैठ कर भोजन करने से। ईंट-सीमेंट की दीवार न हो कर बड़े-बड़े शीशे लगे होने से दूर तक निगाहें जाती हैं और प्रकृति के दर्शन होते हैं। इसी भोजनालय के नीचे है रसोई का भंडार घर, बाहर से पता ही नहीं चलता, पूरा का पूरा भू-तल में। 

          इस सब के बाद प्रारम्भ होती है आवासीय भवन, जिनके नाम भी हैं कौसल्या, सुजाता आदि। इन्हीं के मध्य है अंजनी, आवासीय प्रबंधन का कार्यालय, डॉक्टर का चैम्बर, नाम है चिन्मय धन्वंन्तरी। आवासीय भवन एक के बाद एक कई हैं। इन सब के बाद है बंगले, जिन में सब सुविधाएं उपलब्ध हैं। इन बंगलों का निर्माण श्रद्धालुओं ने करवाया है। जब वे आते हैं तब ठहरते हैं अन्यथा दूसरे यात्री भी ठहर सकते हैं। आश्रम का अंत होता है एक छोटी सी पहाड़ी से। इसी पहाड़ी पर स्थित हैं विघ्नहर्ता विनायक का मंदिर। यहाँ जलती रहती है अखंड ज्योति। सुबह शाम वैदिक आरती। मंदिर प्रांगण के नीचे ध्यान कक्ष। मंदिर प्रांगण से पूरे आश्रम के साथ-साथ दूर तक फैली प्रकृति का विहंगम दृश्य जी भर कर देखिये।  



          इस केंद्र की स्थापना और गतिविधियों की परिकल्पना स्वामी तेजोमयानंद जी की है। इसका निर्माण भी मिशन के ही कार्यकर्ता, साधकों, भक्तों ने ही की है।

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आपने भी कहीं कोई यादगार यात्रा की है और दूसरों को बताना चाहते हैं तो हमें भेजें। आप चाहें तो उसका औडियो भी बना कर भेज सकते हैं। हम उसे यहाँ, आपके नाम के साथ  प्रकाशित करेंगे।

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शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

क्या हासिल होगा, सरल होने से?

 क्या हासिल होगा,

       सरल होने से?

सरल होकर तुम

                    आनंद हो जाओगे...

 जीवन क्या है? एक जटिल पहेली या एक सरल सफर! हम इस प्रश्न से रोज किसी न किसी रूप से जूझते रहते हैं। आज लोग जीवन की आपाधापी में बेचैन दिखते हैं, पर सच तो यह है कि जीवन बहुत ही सरल है। जिसका जीवन जितना सरल उसकी आंतरिक शक्ति उतनी ही बड़ी। एक पौधे में से कलि निकलकर देखते-ही-देखते फूल बन जाती है। यह गुलाब की आंतरिक शक्ति है कि वह कभी साबित नहीं करना चाहता कि वह गेंदे से बेहतर है, और गेंदा कभी नहीं कहता कि उसका रंग गुलाब से सुंदर है। वे जो हैं वही हैं, न कम न ज्यादा, सहज सरल, उन्हें किसी को कुछ साबित नहीं करना। उनकी आंतरिक शक्ति उन्हें पूर्णता का एहसास कराती है।

          कुछ भी करने के पहले हम विचार करते हैं – क्यों करूँ? क्या हासिल होगा यह करने से? जैसे, क्या होगा सत्य कहने से, क्या हासिल होगा ईमानदार होने से, क्या मिलेगा सरल होने से ....... क्या उपयोगिता का केवल एक ही पैमाना है – धन? उस धन की क्या उपयोगिता जो कलह पैदा कर दे! क्या उससे गरीबी की उपयोगिता ज्यादा मूल्यवान नहीं जो सुलह करा दे? क्या आनंद ही अंतिम उपयोगिता नहीं है? तब हम क्यों आनंद को छोड़ धन के पीछे भागते फिरते हैं। इस भ्रम को क्यों पालते हैं कि धन से ही आनंद प्राप्त होगा? हाँ, धन चाहिए, लेकिन क्या केवल धन? क्या सब धनी आनंद में हैं? सरल होने में तो कोई धन भी नहीं लगता। फिर, आनंद के लिए धन क्यों चाहिए? क्या सरल-आनंद को अपने कभी भोगा है? एक बार तो इस आनंद में डुबकी लगा कर देखिये।  

          एक समय की बात है सुकरात और डायोजिनीज की मुलाकात हुई। सुकरात साधारण कपड़े पहनते थे। डायोजिनीज या तो नंगा रहता था या चीथड़े लपेटे रहता। डायोजिनीज ने सुकरात से कहा, 'मैंने तो सुना था कि तुम ज्ञानी और सरल हो, पर देख रहा हूँ कि तुमने बड़े सुंदर कपड़े पहन रखे हैं। सुकरात हंसे और बोले कि 'शायद ऐसा ही हो। डायोजिनीज बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने सुकरात के शिष्य प्लेटो से व्यंग्य में कहा कि स्वयं तुम्हारे गुरु ने स्वीकार किया है कि वे सरल और त्यागी बिल्कुल नहीं हैं। प्लेटो ने उत्तर दिया, उन्होंने ज्ञान और त्याग, सरलता और साधुता का कोई बाना नहीं पहन रखा है, न ही तुम्हारी तरह वे त्याग का प्रदर्शन कर रहे हैं। उन्हें अपने त्याग और ज्ञान पर अहंकार नहीं है, किंतु तुमने तो अपने नंगे शरीर को पोस्टर बना रखा है। इस नंगेपन में कोई सरलता नहीं है। प्रयत्न करके नंगा होना-सरलता कैसे होगी? सरल वह होता है, जो अनायास हो और भान भी न हो। धर्म और तप का प्रदर्शन भी अहंकार है।

          तोलस्तोय कहते हैं, 'जहाँ सरलता और अच्छाई और सत्य के लिए स्थान नहीं है, वहाँ महानता हो ही नहीं सकती।' सरलता हर समय प्रस्तुत रहती है, पर इंसान जीवन को जटिल बनाने में जुट जाता है। संसार का हर जीव कर्म के अनुसार फल के इस नियम में बंधा जीवन जी रहा है। पर इंसान ने इस सरल नियम से किनारा कर लिया है। लोग सोचते हैं कि ऐसी क्या युक्ति निकाली जाए कि आम के पेड़ में कटहल उग आए। वे यह नहीं सोचते कि अगर हम आम खाना चाहते हैं, तो आम लगा लें और कटहल की चाह में कटहल। पर नहीं, यह सरल मार्ग हमें नजर नहीं आता। और जब जटिलता के मार्ग पर चलकर हमें सरलता के दर्शन नहीं होते हैं तो हम कहते हैं, अगर जटिल मार्ग पर चलकर हमें मंजिल नहीं मिली तो सरलता पर चलकर तो हम गर्त में ही चले गए होते। आज यह प्रश्न बहुत ही जरूरी बन गया है कि आखिर क्यों कोई व्यक्ति जटिल हो जाता है?

          न्यूटन का, वर्षों की मेहनत नष्ट करने वाली बिल्ली से यह कहना, ‘तुम्हें पता नहीं प्यारी बिल्ली कि तुमने यह क्या किया। यह न्यूटन की आंतरिक शक्ति से निकली हुई बात है और यह आंतरिक शक्ति उनकी सरलता से निकलती है। ऐसा नहीं हुआ होगा कि उन्हें अपनी वर्षों की मेहनत के नष्ट होने से कोई कष्ट नहीं हुआ हो। पर उन्हें अपने द्वारा किए गए कार्य, उसके महत्व का किसी भी प्रकार से अहंकार नहीं था। यह उनके मन की शक्ति से निकली हुई बात थी। यह उनकी आंतरिक शक्ति ही थी, जिसके चलते वे नए सिरे से उस कार्य को कर सके।


          कुछ ऐसा ही वाकिया है थॉमस एडीसन का। 67 वर्ष की उम्र में एक दिन एक विस्फोट के साथ उनके  कारखाने में आग लग गई। अथक प्रयासों के बावजूद भी, तेजी से फैलते केमिकल के चलते कारखाने को नहीं बचाया जा सका और पूरा कारखाना जल कर राख हो गया। एडिसन के साथ उनका लड़का भी था। उन्होंने उसे कहा जाओ अपनी माँ को बुला कर लाओ, उसने अपनी जंदगी में कभी राख का इतना बड़ा ढेर नहीं देखा होगा। उनकी पत्नी जब अर्धमूर्छित अवस्था में वहाँ पहुंची तो उन्होंने कहा दुःखी मत होओ, अच्छा हुआ मेरी सब गलतियाँ जल कर राख हो गईं। अब मैं फिर नए सिरे से प्रारम्भ करूंगा। उन्हें यह शक्ति कहाँ से मिली? यह उनकी आंतरिक शक्ति ही थी, हर चीज को सरलता से लेने का उनका स्वभाव था जिससे उन्हें इतनी ऊर्जा मिली।  

लाओत्से  भी कहते हैं, "महान उपलब्धियों की नींव में सरलता होती है।"          

    सात्रे को नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई तो उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से उसे लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, 'मैं नोबेल लेकर कोई इंस्टीट्यूशन नहीं बनना चाहता, क्योंकि अगर मैं इंस्टीट्यूशन बन गया तो मैं जो भी कहूंगा लोग सच मानेंगे और कोई भी व्यक्ति हमेशा सच नहीं होता। वे अपने ज्ञान, जीवन की सीमाओं को स्वीकार करते हैं यही है, जो उन्हें आनंद से भर देती है। यह बात स्वीकारना कि मैं भी अपूर्ण हूँ, मुझसे भी गलतियां हो सकती हैं, संसार में मुझसे भी अच्छे भले लोग हैं, सरलता के मार्ग पर रखा पहला और निर्णायक कदम है। जैसे ही हम यह मानना शुरू कर देते हैं कि संसार बहुत बड़ा है, विविध है, मैं इसकी विविधता का एक अंश मात्र हूँ, हम सरल हो उठते हैं। विलियम जेम्स का कहना है, 'बुद्धिमान होने का एक मात्र रास्ता है, सरल हो जाओ

          दूसरों की उन्नति प्रगति को देखकर उनके प्रति ईर्ष्याभाव रखना तुम्हारे जीवन की उन्नति के मार्ग में बाधा है, पर अपनी गलतियों, बुराइयों से बचकर अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए निरंतर संघर्ष करना, आगे बढ़ना उन्नति का सबसे सहज और सरल मार्ग है। यही सरलता तुम्हारी आंतरिक शक्ति को बढ़ाएगी और आंतरिक शक्ति, जीवन को बेहतर मार्ग पर ले जाएगी।

          जीवन एक ही नियम से चलता है, वह है कि जो बोओगे वही पाओगे। गीता में जब श्री कृष्ण कह रहे हैं कि 'तुम कर्म करो फल की चिंता मत करो’, तो वे इस बात को पुष्ट कर रहे होते हैं कि कर्म के बाद फल आपको मिलना तय है - उतना ही निश्चित जितना सूर्य का पूर्व से उदित होना। वे स्पष्ट कह रहे हैं कि फल निश्चित है, पर आजकल लोगों की आंतरिक शक्ति इतनी कमजोर हो गई दिखती है कि वे इस बात को इस तरह से ले रहे हैं, 'फल मिले न मिले तू कर्म करता चल', जो कि एक सरल बात को जटिल कर देता है।


          जब विवेकानंद कहते हैं कि 'आप जैसा सोचते हो वैसे ही बन जाते हो, तो वे भी इसी सिद्धांत की बात कर रहे हैं कि जीवन में जो भी करोगे जीवन वैसा ही हो जाएगा। इसलिए अगर सरलता चाहते हो, तो सरल हो जाओ। और जैसे ही आप सरल हो जाओगे वैसे ही आपकी आंतरिक शक्ति मजबूत हो जाएगी। आप स्वयं आनंद का श्रोत हो जाओगे।



         गौतम बुद्ध ने भी कहा है चलते, खड़े होते, बैठते या सोते हुए जो मन को शांत और सरल रख सकता है वह शांति का सुख प्राप्त कर लेता है।

(अरुण लाल, अहा जिंदगी, नवम्बर, 2017 के लेख पर आधारित)

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शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

सूतांजली फरवरी 2022

 सूतांजली के फरवरी अंक के ब्लॉग और यू ट्यूब का  संपर्क सूत्र नीचे है.



इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की चौदहवीं किश्त है।

१। विकास, प्रगति और सफलता  (मैंने सुना)

आदरणीय स्वामी भक्तवत्सलजी एक प्रखर वक्ता हैं। इन तीन समानार्थी शब्दों की उन्होंने बड़ी सटीक व्याख्या की है। क्या फर्क है तीनों शब्दों में, अर्थ, कर्म और फल की नजर से, यह समझाते हुए उसी अनुसार समझ कर अपना लक्ष्य निर्धारित करने की सलाह दी है।  

२।  श्रीमद्भगवद्गीता   अनेकार्थी क्यों? (मैंने सुना)

चिन्मय मिशन के स्वामी तेजोमयानन्द जी ने स्पष्ट किया है कि इस ग्रंथ के इतने भाष्य और अर्थ क्यों हैं और किस आधार पर यह निर्णय करें कि आम व्यक्ति कौन से अर्थ को सही माने और अपनाए।  

३। उपयोगी  (मेरे विचार) 

क्या है उपयोगी और क्यों? क्या है इसका आधार और क्या होना चाहिए? भ्रामक मापदंड – कसौटी केवल युवाओं का ही नहीं बल्कि अब तो बच्चों का भी नैतिक पतन कर रही है।

४। बस बहुत हुआ (लघु कहानी - जो सिखाती है जीना)

कहीं ऐसा न हो कि इसके पहले कि आप भी कहें बस बहुत हुआ’, संभाल जाएँ और अपनी जिंदगी खुद जीएं, अपने सपनों को साकार करें

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की चौदहवीं किश्त

 

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