शनिवार, 30 मई 2015

विश्वास जिंदा है

महोदय,
कल, रविवार २४ मई २०१५,  हम आपके मल्टीप्लेक्स में प्रात: १०.४५ के प्रदर्शन में पीकू देखने गए थे। मेरी पत्नी ने दो टिकट खरीदे  और हम स्क्रीन की तरफ बढ़े। लेकिन तभी पत्नी को महसूस हुआ कि उसने गलती से दो के बजाए  १०० के तीन नोट दिये और खिड़की पर बैठी महिला ने भी गलती से दो टिकटों के १४० काट कर ६० रुपये वापस कर दिये।  उसे भी ध्यान नहीं आया कि  उसे दो के बजाय तीन नोट मिले हैं।

हम वापस खिड़की की तरफ मुड़े। मुझे इस बात का विश्वास था कि  १०० रुपये गए। लेकिन पत्नी नहीं मानी, और पत्नी ने खिड़की पर बैठी महिला को अपनी और उसकी भूल  बताई। आशा के विपरीत महिला ने कहा,”उसे ऐसा कुछ ध्यान में नहीं है और न ही उसके लिये अभी नगद मिलाना संभव है। लेकिन क्या आपको पूरा विश्वास है कि  आपने तीन नोट ही दिये थे?” पत्नी ने पूरे विश्वास के साथ हाँ में जवाब दिया। महिला ने मेरी पत्नी की बात का विश्वास कर उसे  १०० का  एक नोट वापस कर दिया। पत्नी ने रुपये लिए तथा अपना नाम और मोबाइल नंबर, बिना मांगे, उसे लिखवा दिया।

मैं आपको धन्यवाद देना चाहता  हूँ, क्योंकि आपने एक ऐसा माहौल तैयार किया है जहां आपके कर्मचारी दूसरों पर विश्वास करते हैं। वे ग्राहक को सही मानते हैं और आज की प्रचलित मान्यता  के विपरीत उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने में  हिचकिचाहट नहीं होती। मैं सलाम करता हूँ उस महिला कर्मचारी को जिसने साबित कर दिखाया कि आज भी  दुनिया में सत्य एवं विश्वास का अस्तित्व है और १०० रुपयों के खोने का जोखिम उठाया।

आपसे निवेदन है कि मेरी इन भावनाओं को उस महिला से भी अवगत कराएं ताकि उसका उत्साह बढ़े।

भवदीय,
महेश

कुछ दिनों के बाद
उपरोक्त पत्र लिखे हुए मुझे कई  दिन हो गए हैं। लेकिन मैं इस पत्र को भिजवाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। अंतत: मेरे अंदर का  “मैं” जीत गया और मैंने यह पत्र उस मल्टीप्लेक्स के मैनेजर को भेज दिया। मेरा उद्देश्य उस महिला का उत्साहवर्द्धन करना था। और साथ ही मैं यह भी बताना चाहता था कि उसके इस आचरण में मैनेजर / मालिक का भी योगदान है।

वर्तमान में सब कुछ शक की  निगाह और विपरीत दृष्टि से देखा जाता है। उल्टा अर्थ निकालने में लोग माहिर हैं।  इस कारण सरल सपाट हृदय में आए हुवे विचारों को  अभिव्यक्त करने में  डर लगने लगा है। शिक्षा भी यही दी जाती है कि अगर सही हैं तो सही हैं हीं, लेकिन अगर गलत भी हैं तो कभी स्वीकार न करो कि गलत हैं। बल्कि ज़ोरदार शब्दों में, पूरे विश्वास के साथ यह दावा करो की  सही हो। अगर वहाँ के मैनेजर / मालिक भी ऐसे ही  विचारों के होंगे, तो हो सकता है उस महिला को डांट पड़े, और तो और नौकरी तक से निकाल दिया जाए। मैनेजर के विचार से बिना किसी विरोध के १०० रुपये लौटा कर उसने उनकी साख में बट्टा लगा दिया। उसे क्या जरूरत थी अपनी गलती स्वीकार करके जनता को यह बताने की  कि  उसके यहाँ ऐसे लोग काम करते हैं जिनका  गणित कमजोर है और काम में एकाग्रता की  कमी है। अगर और लोग भी इसी प्रकार रुपये मांगने आने लगेंगे तो क्या वह सब को ऐसे ही रुपये लौटाती रहेगी? इस बात का भी क्या भरोसा कि उस महिला ने इसी प्रकार औरों के भी रुपए हड़पे हों। किसी के विरोध या दावा न करने पर चुप रह गई हो?

ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उसका मैनेजर सरल हृदय और सकारात्मक विचारों का हो और इसका कोई उल्टा अर्थ न निकाले। अगर उसने सही किया तो सही है ही, और अगर गलत भी किया तो आगे से सही करने का मन बने।

और कुछ दिनों के बाद
पत्र भेजने कि कुछ दिनों पश्चात फोन पर एक नए नंबर से घंटी बजी। पता चला कि उसी मल्टीप्लेक्स के मैनेजर का फोन था। पत्र के लिए कृतज्ञता ज्ञापन करने तथा अगली बार वहाँ जाऊँ तो उनसे मिलने का आग्रह। उन्होने बताया कि कहीं कोई गलती-चूक हो जाती है तो खरी खोटी सुनाने, झगड़ने को लोग तुरंत हाजिर हो जाते हैं। लेकिन अच्छे काम के लिए धन्यवाद देने कोई नहीं आता। लोग यह मान कर चल रहे हैं कि भलाई और ईमानदारी का जमाना समाप्त हो चुका है। यह आवश्यक है कि भले और ईमानदार व्यक्तियों की चर्चा की जाए और उनका उत्साहवर्द्धन किया जाए। ऐसा नहीं है कि भलाई मर चुकी है। विश्वास अभी जिंदा है।


सोमवार, 25 मई 2015

पत्रकारों का उत्तरदायित्व


पिछले कुछ समय में मीडिया ने इन लुटेरों पर प्रश्न उठाने शुरू किए, हल्ला गुला किया, शोर मचाया, स्टिंग ऑपरेशन किया, पर्दाफाश किया। ऐसा लगने लगा कि इन लुटेरों पर लगाम कसने वालों का भी एक दल आगया है। और यह सही भी है कि इनके चलते बहुत से काले धंधों को रौशनी मिली। लेकिन धीरे धीरे इनकी ताकत बढ़ने लगी। जब लुटेरों को काम करने में थोड़ी कठिनाई होने लगी, तब  इसका  नतीजा यही निकला कि लूटने वालों ने फिर  सूरत बदल कर अपने गिरोह के लोगों को भी इनके बीच छोड़ दिया। गुंडे गुंडागर्दी के खिलाफ, बदमाश बदमाशी के खिलाफ, चोर चोरी के खिलाफ और जुल्मी जुल्म  के खिलाफ ऐसे गला फाड़ फाड़ कर  चिल्लाते हैं  कि इस शोर गुल में पता ही नहीं चलता कि कौन साच्चा है और कौन झूठा। झूठे ने  ज्यादा शोर मचाया और बच कर निकला गया, फंस गया बेचारा फिर वही सच्चा। रामलिंगा राजू और संजय दत्त को बेवकूफ समझा जाता है। सलमान खान, जयललिता को समझदार। सलमान को मिली जमानत पर एक उक्ति मिली “अच्छा हुआ सलमान को जमानत मिल गई नहीं तो रुपये पर से विश्वास उठ जाता”। यह आम आदमी की मनोदशा को दर्शाता है।

जिस मीडिया ने बहुत से घोटालों को उजागर किया, आज वही मीडिया निरंकुश होती जा रही है। उनमे लुटेरे मिल गए हैं। तथ्यों को जोड़-तोड़-मरोड़ कर परोसना, बिना तथ्यों को परखे उसका प्रसार करना, अपने दर्शकों / पाठकों  की  संख्या बढ़ाने के लिए सनसनीखेज खबरों को प्रचारित एवं प्रसारित करना इनका धंधा बन गया है। और तो और साधारण खबर को भी सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत करना आम बात हो गई है। इसमें बहुत से पत्रकार ऐसे भी  हैं जिनकी बागडोर किसी और के हाथ में  है और वे अपना उल्लू सीधा करने के  लिए इनका इस्तमाल करते हैं। ऐसा नहीं है कि साहसी  एवं ईमानदार पत्रकारों कि कमी है, लेकिन संदिग्ध पत्रकारिता कि ऐसी बाढ़ आ गई है कि सही -  गलत का भेद करना दुष्कर हो गया है। किसी को बनाना और बिगाड़ना इन के लिए बड़ा आसान हो गया है। अगर ये नहीं सुधरे तो इन्हे  भी कठघरे में खड़ा होना होगा। यह आवश्यक होता जा रहा है कि ऐसे लोगों की पोल खोली जाए और उन्हे चौराहे पर खड़ा किया जाए।

इन पत्रकारों को भी अपनी सीमा समझनी होगी और उसके दायरे में रह कर ही काम करना होगा। घोटालों को उजागर करने से ज्यादा धनात्मक (पॉज़िटिव) पत्रकारिता पर ज्यादा ध्यान देना होगा। देश में खतरा बुरे कि ताकत से नहीं अच्छे की दुर्बलता के कारण है। ईमानदारी एवं सच्चाई की साहसहीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज होने से होती है। देश में,चाहे राजनीति हो या प्रशासन, अच्छे एवं ईमानदार लोगों की कमी नहीं है। कठिनाई यह है की ऐसे लोगों ने अपने रौशनी को समेट  लिया है। इनका  साहस जवाब दे गया है। सारा आकाश  दुराचारियों से घिर गया है।  इस कारण रात का भ्रम होने लगा है।  मीडिया को चाहिए कि  सच्चे, ईमानदार एवं भले  लोगों को हर समय अपने पत्रों एवं टीवी चैनलों में स्थान दे और उनके साथ खड़े रहें। इनके साथ होने वाले अत्याचार एवं अत्याचारियों का भंडाफोड़ करें।  अशोक  खेमका, एम.एन.विजयकुमार, यू. सगयम, पूनम मालाकोण्डिया, मुग्धा सिन्हा, किरण बेदी, अरुण भाटिया, दमयंती सेन ऐसे ही  कुछ नाम हैं। ये वे अधिकारी हैं जिन्होंने  अनेक कष्ट सहे और अभी भी सह रहे हैं। इन्हे अपनी कार्य पद्धति का अंजाम भी मालूम है। बारह महीनों में एक से ज्यादा स्थानान्तर का कष्ट झेल रहे हैं। २४  वर्षों में २६  स्थानान्तर, ऐसे विभाग या स्थान पर नियुक्ति जहां करने के लिए कुछ होता  ही नहीं। इनका पारिवारिक जीवन नष्ट हो गया है। लेकिन फिर भी अपनी जिद पर अड़े हैं। कानून और नियम का पूरी ईमानदारी और  सच्चाई के साथ  पालन कर रहे हैं। संघ लोक सेवा आयोग के एक सर्वेक्षण  के अनुसार इन अत्याचारों के कारण कम से कम ३४ प्रतिशत अधिकारी त्यागपत्र दे देते हैं। अगर मीडिया इनका सही ढंग से साथ थे तो कोई कारण नहीं कि  ऐसे लोगों की फौज खड़ी हो जाये। इन  त्यगपत्रों पर स्वत: रोक लग जाएगी। इनका उत्साह बढ़ेगा। ऐसे और भी लोग जो खुद अपने मुँह पर पट्टी बंध कर निष्क्रिय हो गए हैं, सामने आने लगेंगे। इनपर अत्याचार करने वालों पर लगाम लगेगी, और तब सूरज निकल आयेगा। रात ढल जाएगी।

लेकिन, क्या पत्रकारों और टीवी  के पास इनके साथ खड़े होने कि शक्ति है?


सोमवार, 18 मई 2015

साहसिक यात्रा (Adventure Tour) - मेघाताबुरु

मेघाताबुरु

मेघाताबुरु ओडिशा और झारखंड की सीमा के नजदीक एक पहाड़ी, ४३०० फीट की ऊंचाई पर स्थित  है। कोलकाता से बरबिल जाने वाली जनशताब्दी बरबिल तक जाती है और वहाँ से नजदीक ही है मेघाताबुरु। इस बार होली पर वहीं जाने का कार्यक्रम बनाया और हम बड़ी उमंग के साथ पहुँच गए बरबिल।

बरबिल पहुँचने पर पता चला कि हम मेघाताबुरु में नहीं बल्कि बरबिल में ही रहेंगे और मेघाताबुरु तो चार दिनों में केवल आधे दिन के लिए ही जाएंगे तो जबर्दस्त झटका लगा। हमारे साथ धोखा हुआ, अब तो फंस गए। बरबिल एक छोटी सी जगह। निहायत बोर। चारों तरफ केवल लाल मिट्टी की धूल । गेस्ट हाउस, थोड़ा खुला खुला सा लेकिन अंदर कहीं टहलने लायक जगह नहीं। कमरे में लंबे समय तक रह ही नहीं सकते। न  टीवी,
कोई देखने लायक दृश्य।  नलों में गर्म पानी नहीं। गेस्ट हाउस के बाहर तो निकलने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह तो मालूम था की हम छुट्टी आराम से बिताने  के लिए नहीं आए हैं,   एक साहसिक यात्रा (एडवेंचर ट्रिप) पर आये हैं। लेकिन  साथ ही यह विश्वास भी था कि पहाड़ी होने से मौसम खुशनुमा होगा, हरियाली होगी, पेड़ पौधे होंगे, चहलकदमी लायक जगह होगी।  यह तो हमे पहले ही बता दिया गया था कि सरांडा वन्य का भाग होने के बावजूद लोहे के  खदानों की  खुदाई के कारण हाथी तो बहुत दूर की बात है एक भी जानवर  नहीं  दिखेगा।  वैसे हमें कुछ बंदर दिख गए थे -  सड़कों पर, हनुमान / राम मंदिर में नहीं।
 गेस्ट

बहरहाल, इस प्रथम साक्षात्कार के बाद धीरे धीरे जैसे जैसे आगे के चार दिन खुले सब गिले-शिकवे दूर हो गए। जटेश्वर मंदिर एवं झील का नज़ारा, जिकरा जल प्रपात के लिए पानी की धारा में चलना  और वहाँ झरने में नहाना, मेघाताबुरु का सूर्यास्त, पचरी का जल प्रपात, जंगल में भोजन, पुंडुल में गर्म चाय बना कर पीना और पालहाटी के चौड़े बहाव का आनंद। कारो नदी के ही विभिन्न रूप एवं रंग। इतने रूप की सबका नाम नहीं, रास्ते इतने दुरूह कि लोगों के पद चिन्ह नहीं। रास्तों की लुका-छिपी, कारो का इठलाना, जंगल की नीरवता और हर जगह की स्वच्छता ने  हमारा  मन मोह लिया। इन  सब जगहों पर जाने के रास्ते आसान नहीं  हैं। या यह भी कह सकता हूँ कि रास्ते हैं ही नहीं। अगर जाना है तो रास्ते  खोजने  पड़ेंगे। पतझड़ का मौसम होने के कारण पेड़ों पर हरे पत्तों के बदले सड़कों पर पीले पत्तों की भरमार थी। पूरा रास्ता पत्तों से पटा होने के कारण सही रास्ता खोजना और भी कठिन था। पूरे रास्ते वीरान थे। कहीं कोई नजर नहीं आता था। कहीं कहीं वहीं के आदिवासी नज़र आए जो जंगलों में सूखी लकड़ियाँ बिन रहे थे। नंगा तन, भूखा पेट, दिल के साफ, सरल हृदय, जंगल के रखवाले। जंगलों की उपज से ही अपना जीवन यापन करनेवाले। कोई बड़ी ख़्वाहिश नहीं, न कोई बड़े सपने। सरकार इन्हे विस्थापित करना चाहती है। इनके जंगलों को काटती है, और वादा करती है नौकरी देने का, मुआवजा देने का। शहरी दुनिया से जोड़ने का। सोचता हूँ उन्हे शहरी दुनिया  से जोड़ने की जरूरत है या शहर के लोगों को इनसे जोड़ने की।  खैर, मैं भटक गया। हम बात कर रहे थे जंगल की, पेड़ों की, पत्तों के  रास्तों की।  गाइड ने बताया की इन रास्तों  पर इन आदिवासियों के अलावा अन्य बहुत कम लोग आते हैं। सैलानी यात्री  भी इने गिने ही आते हैं। समय समय  पर वे ही रास्तों में उग रहे झाड़-झंझाड़  की  साफ करते रहते हैं ताकि जाने आने का रास्ता बना रहे और रास्तों को खोज सकें।  वर्षा के मौसम में तो आ ही नहीं सकते। पूरे रास्तों  में और पर्यटन बिन्दु (टुरिस्ट पॉइंट्स) पर भी हमे किसी भी प्रकार की कोई गंदगी नहीं मिली – यथा कागज की प्लेटें, चिप्स के ठोंगे, पानी की बोतलें, टेट्रापैक। यह इस बात का प्रमाण था कि  यह इलाका अभी भी  महफूज है। सिर्फ एक जगह पर हमें कूड़ा मिला, और इस लिए हमें वहाँ वक्त भी कुछ ज्यादा लगा। पूरा  कूड़ा  जमा किया, उन्हे जलाया और फिर आग को बुझाने के बाद ही  हम वहाँ से निकले। गाइड के साथ हमारे खाने पीने का सामान था और साथ था कूड़े को बटोरने के लिए थैला, जिसमें हम अपना पूरा कूड़ा समेट कर वापस ले आए।

जटेश्वर मंदिर एवं झील
जैसा की नाम से परलिक्षित होता है शिवजी का छोटा सा मंदिर है। काफी ऊंचाई से, पत्थरों के बीच से, एक एक बूंद पानी टपकता है, छोटे से  शिवलिंग पर। बड़े बड़े पत्थरों को आश्चर्यजनक रूप से  वृक्षों ने ऐसे जकड़ रखा है कि  दोनों ही  हिल नहीं सकते।  वहीं पर है जटेश्वर झील। नीरव एवं शांत। कहीं कोई हलचल नहीं। न कोई मनुष्य, न जानवर और न ही शाम होने के बावजूद कोई पक्षी। कहीं कोई गंदगी भी नहीं। झील के किनारे चलते चलते अचानक एहसास हुआ कि हम निरंतर आगे बढ़ते जा रहे हैं। गाड़ी के आने का कोई रास्ता नहीं है, हमें उतना ही वापस भी जाना होगा। और तब, और थोड़ी देर, कि इच्छा को मन में दबा कर कुछ देर पत्थरों पर विश्राम कर वापस लौट पड़े।

जिकरा
साफ सुथरे निरंतर बहते पानी में रुकते-चलते, चढ़ते-उतरते ही पहुंचा जा सकता है जिकरा जल प्रपात पर। करीब  १०० फीट कि ऊंचाई से गिरती पतली जल धारा को कुछ देर निहारने के बाद आगे बढ़ कर उसके नीचे खड़े हों तभी आनंद है यहाँ आने का। कहते है मानसून में जल का बहाव बढ़ जाता है, धारा मोटी, चौड़ी और तेज  हो जाती है, लेकिन फिर भी उसमें से चलकर आया जा सकता है और स्नान का आनंद उठाया जा सकता है।

मेघाताबुरु
छोटी सी पहाड़ी पर, थोड़ी ठंड भी, आँखों के सामने पसरी  दूर दूर तक पहाड़ियों की चोटियाँ। हम  गिन नहीं सकते कि आँखों की गिरफ्त  में कितनी पहाड़ियाँ और चोटियाँ है। सेल का अतिथि गृह भी वहीं दर्शनीय स्थल (व्यू पॉइंट) पर। सबकी आँखें क्षितिज पर सूर्य के  छिपने की प्रतीक्षा में। और यह लीजिये सूर्य का रथ धीरे धीरे हमारी मनोकामना की पूर्ति करता ले चल सूर्य को क्षितिज के नीचे। मनमोहता दृश्य एवं रंग बदलता सूर्यास्त। सब कुछ मन के अनुकूल, लेकिन सबसे ज्यादा खला न चाय, न पकौड़ा, न मूड़ी, न चनाचोर। वहाँ से निकल कर बस्ती में चाय पी कर हम भी चले अपने घर को।

पचरी एवं पुंडुल जल प्रपात एवं जंगल
आज जंगल में मंगल का दिन था। कारो नदी के और दो अलग अलग रूप। पचरी झरने की दुरूह ऊंचाई तक चढ़ना सब के संभव नहीं। चड़ाई थोड़ी ही है लेकिन सीधी। इन झरनों के लिए जाते हुए रास्तों में प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा था कि हम बीहड़ जंगल में घूम रहे हैं। साल एवं टीक के वृक्षों से पटा, जहां तहां महुआ के पेड़ भी दिखे।  लेकिन, पूरा जंगल  एकदम वीरान। भयानक सन्नाटा। एकदम वैसी ही अनूभूति जैसे चलते फिरते गाँव से रातों रात ग्राम वासियों को हटा दिया गया हो। पूरा गाँव जागता सा दिखे लेकिन जीवन कहीं नहीं। वैसा  ही पूरे जंगल का रूप लेकिन जानवर जैसे  रातों रात छोड़ कर चले गए। कैसा दर्द हुआ होगा उन्हे, पीढ़ियों से रहते जंगल को छोड़ कर जाते हुवे? और कैसे रोये होंगे ये वृक्ष साथ न चल पाने की मजबूरी के कारण।  वहीं स्वपनेश्वर मंदिर के किनारे  सूखे  पत्तों और लकड़ियों को बटोर कर गरमा गरम चाय बनाने  का  मजा  लेना  न भूलें।

पालहाटी
कारो का एक और रूप। एकदम खुली जगह। चौड़ा पाट। कहीं धीरे कहीं तेज धारा। कहीं गहरा कहीं घुटने भर। इच्छानुसार जगह चुन कर बैठ जाइये। मन भर जाए तो  जगह बदल लीजिये। इस प्रकार से अठखेलियाँ करते बहुत समय निकल जाएगा पता ही नहीं चलेगा। जब पेट में दस्तक होगी तब घड़ी दिखेगी और तब होश आएगा कि नाश्ते का समय हो गया है। अत: इसका इंतजाम पहले से रखिए, कुछ साथ में कुछ गरमा गरम। तभी ले पाएंगे पालहाटी का आनंद।

यहाँ से निकलते निकलते पता चला कि, अरे ये क्या? ट्रेन का समय हो चला, वापस लौटने का!
एक दृश्य, गेस्ट हाउस से
जटेश्वर मंदिर, पेड़ों द्वारा जकड़े हुवे चट्टान एवं जंगल

जकिरा

 सूर्यास्त के अलग अलग रूप और रंग, मेघाताबुरु से

पुंडुल

पालहाटी

जंगल, उफनती कारो और शांत कारो को  गाड़ी से पार करते

शनिवार, 2 मई 2015

राजस्थानी भाषा

भाषा की मान्यता के लिए धरना

भाषा की मान्यता की राजनीति नई नहीं है। स्वतन्त्रता के बाद देश की 14 भाषाओं को संविधान की 8वीं सूची में शामिल कर उन्हे मान्यता प्रदान की गई। उसके बाद समय समय पर और भाषाओं को मान्यता मिलती रही, यानि संविधान की 8वीं सूची में शामिल होती रही।  इस प्रकार इनकी संख्या बड़कर 22 हो गई।  लेकिन राजस्थानी को मान्यता नहीं मिली। अत: इसकी मान्यता के लिए विभिन्न रूपों में निरंतर संघर्ष चल रहे हैं। पर अभी तक सफलता नहीं मिली है।

दुख की बात यह है की भाषा को मान्यता देने के लिए किसी भी प्रकार का कोई मापदंड नहीं है। यह निर्णय पूर्णतया सरकार के हाथ में है। इसी कारण भाषा की मान्यता वोटों की राजनीति हो गई है। केंद्रीय सरकार की सबसे बड़ी साहित्यिक संस्था केंद्रीय साहित्य अकादमी ने 24 भाषाओं को मान्यता प्रदान की है। वहीं संविधान की 8वीं सूची में 22 भाषाएँ  शामिल हैं। 23वीं भाषा अंगेरजी है जिसे देश की संपर्क भाषा के रूप में मान्यता है और 24वीं भाषा राजस्थानी है। दुर्भाग्य वश सरकार के पास इसका कोई  जवाब भी नहीं है और न ही मान्यता प्रदान कर रही है। यह राजस्थानियों की अवमानना है।

राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए किए जा रहे अनेक प्रयासों में यह भी एक प्रयास है।