शनिवार, 30 मई 2015

विश्वास जिंदा है

महोदय,
कल, रविवार २४ मई २०१५,  हम आपके मल्टीप्लेक्स में प्रात: १०.४५ के प्रदर्शन में पीकू देखने गए थे। मेरी पत्नी ने दो टिकट खरीदे  और हम स्क्रीन की तरफ बढ़े। लेकिन तभी पत्नी को महसूस हुआ कि उसने गलती से दो के बजाए  १०० के तीन नोट दिये और खिड़की पर बैठी महिला ने भी गलती से दो टिकटों के १४० काट कर ६० रुपये वापस कर दिये।  उसे भी ध्यान नहीं आया कि  उसे दो के बजाय तीन नोट मिले हैं।

हम वापस खिड़की की तरफ मुड़े। मुझे इस बात का विश्वास था कि  १०० रुपये गए। लेकिन पत्नी नहीं मानी, और पत्नी ने खिड़की पर बैठी महिला को अपनी और उसकी भूल  बताई। आशा के विपरीत महिला ने कहा,”उसे ऐसा कुछ ध्यान में नहीं है और न ही उसके लिये अभी नगद मिलाना संभव है। लेकिन क्या आपको पूरा विश्वास है कि  आपने तीन नोट ही दिये थे?” पत्नी ने पूरे विश्वास के साथ हाँ में जवाब दिया। महिला ने मेरी पत्नी की बात का विश्वास कर उसे  १०० का  एक नोट वापस कर दिया। पत्नी ने रुपये लिए तथा अपना नाम और मोबाइल नंबर, बिना मांगे, उसे लिखवा दिया।

मैं आपको धन्यवाद देना चाहता  हूँ, क्योंकि आपने एक ऐसा माहौल तैयार किया है जहां आपके कर्मचारी दूसरों पर विश्वास करते हैं। वे ग्राहक को सही मानते हैं और आज की प्रचलित मान्यता  के विपरीत उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने में  हिचकिचाहट नहीं होती। मैं सलाम करता हूँ उस महिला कर्मचारी को जिसने साबित कर दिखाया कि आज भी  दुनिया में सत्य एवं विश्वास का अस्तित्व है और १०० रुपयों के खोने का जोखिम उठाया।

आपसे निवेदन है कि मेरी इन भावनाओं को उस महिला से भी अवगत कराएं ताकि उसका उत्साह बढ़े।

भवदीय,
महेश

कुछ दिनों के बाद
उपरोक्त पत्र लिखे हुए मुझे कई  दिन हो गए हैं। लेकिन मैं इस पत्र को भिजवाने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। अंतत: मेरे अंदर का  “मैं” जीत गया और मैंने यह पत्र उस मल्टीप्लेक्स के मैनेजर को भेज दिया। मेरा उद्देश्य उस महिला का उत्साहवर्द्धन करना था। और साथ ही मैं यह भी बताना चाहता था कि उसके इस आचरण में मैनेजर / मालिक का भी योगदान है।

वर्तमान में सब कुछ शक की  निगाह और विपरीत दृष्टि से देखा जाता है। उल्टा अर्थ निकालने में लोग माहिर हैं।  इस कारण सरल सपाट हृदय में आए हुवे विचारों को  अभिव्यक्त करने में  डर लगने लगा है। शिक्षा भी यही दी जाती है कि अगर सही हैं तो सही हैं हीं, लेकिन अगर गलत भी हैं तो कभी स्वीकार न करो कि गलत हैं। बल्कि ज़ोरदार शब्दों में, पूरे विश्वास के साथ यह दावा करो की  सही हो। अगर वहाँ के मैनेजर / मालिक भी ऐसे ही  विचारों के होंगे, तो हो सकता है उस महिला को डांट पड़े, और तो और नौकरी तक से निकाल दिया जाए। मैनेजर के विचार से बिना किसी विरोध के १०० रुपये लौटा कर उसने उनकी साख में बट्टा लगा दिया। उसे क्या जरूरत थी अपनी गलती स्वीकार करके जनता को यह बताने की  कि  उसके यहाँ ऐसे लोग काम करते हैं जिनका  गणित कमजोर है और काम में एकाग्रता की  कमी है। अगर और लोग भी इसी प्रकार रुपये मांगने आने लगेंगे तो क्या वह सब को ऐसे ही रुपये लौटाती रहेगी? इस बात का भी क्या भरोसा कि उस महिला ने इसी प्रकार औरों के भी रुपए हड़पे हों। किसी के विरोध या दावा न करने पर चुप रह गई हो?

ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि उसका मैनेजर सरल हृदय और सकारात्मक विचारों का हो और इसका कोई उल्टा अर्थ न निकाले। अगर उसने सही किया तो सही है ही, और अगर गलत भी किया तो आगे से सही करने का मन बने।

और कुछ दिनों के बाद
पत्र भेजने कि कुछ दिनों पश्चात फोन पर एक नए नंबर से घंटी बजी। पता चला कि उसी मल्टीप्लेक्स के मैनेजर का फोन था। पत्र के लिए कृतज्ञता ज्ञापन करने तथा अगली बार वहाँ जाऊँ तो उनसे मिलने का आग्रह। उन्होने बताया कि कहीं कोई गलती-चूक हो जाती है तो खरी खोटी सुनाने, झगड़ने को लोग तुरंत हाजिर हो जाते हैं। लेकिन अच्छे काम के लिए धन्यवाद देने कोई नहीं आता। लोग यह मान कर चल रहे हैं कि भलाई और ईमानदारी का जमाना समाप्त हो चुका है। यह आवश्यक है कि भले और ईमानदार व्यक्तियों की चर्चा की जाए और उनका उत्साहवर्द्धन किया जाए। ऐसा नहीं है कि भलाई मर चुकी है। विश्वास अभी जिंदा है।


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