शनिवार, 31 अगस्त 2019

शत्रु से दोस्ती मित्र से बैर?

 बापू के भाष्यकारों में से आचार्य कृपलानी बड़े मार्मिक और विनोदी हैं? उन्होने एक बार कहा कि बापू ने हमें हर तरह से यह बताया कि अरे भाई, अपने दुश्मनों पर प्रेम करो। उन्हे ऐसा लगा कि अपने दोस्तों और पड़ोसियों से प्रेम करने के लिए कहने की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वह तो स्वाभाविक है। लेकिन हम लोगों ने सोचा कि चूंकि बापू लोकोत्तर पुरुष थे, इसलिए उनकी सीख भी लोक-विलक्षण होनी चाहिए। राजनीति में भी असत्य न हो, हिंसा न हो, यही लोक-विलक्षण सिखावन है। चुनांचे धर्म में, व्यापार में और कुटुंब में झूठ और हिंसा होनी चाहिए, ऐसा मतलब आगर बापू की सीख में से निकले तभी वह अद्भुत होगी, असामान्य होगी। अन्यथा बिलकुल मामूली समझी जाएगी। इसी तरह, अपने शत्रु से प्रेम करो यह बापू की शिक्षा लोकोत्तर थी। उसके मुक़ाबले में दूसरी कौन सी शिक्षा लोकोत्तर हो सकती थी? भला, यही न, कि अपने पड़ोसियों और मित्रों से द्वेष करो। यह तो बिलकुल सीधा तर्क है। अगर शत्रुओं पर प्रेम करना हो तो पहले शत्रु पैदा करने चाहिए। उसके लिए पड़ोसियों और मित्रों से दुश्मनी करनी चाहिए। पहले सारी दुनिया से दुश्मनी मोल लो तभी तो प्रेम कर सकोगे! इस प्रकार बैर द्वारा प्रेम करने की यह अपूर्व प्रक्रिया है। कृपलानीजी ने आगे कहा, बापू ने हमसे शत्रुओं से प्रेम करने को कहा, और हमने उनके आदेश का अक्षरश: पालन किया। हमने केवल शत्रुओं से प्रेम किया – मित्रों से प्रेम करना या तो भूल गए, या फिर उसे इरादतन टालते रहे, क्योंकि अगर वैसा न करते तो बापू की आज्ञा की खिलाफवर्जी  जो होती
कृपलानीजी की इस आलोचना में केवल सस्ता मज़ाक नहीं था।
  चंद्र शेखर धर्माधिकारी, समग्र सर्वोदय दर्शन, दादा धर्माधिकारी, पृ २५

आज बुद्धिजीवी और पीएचडी का एक वर्ग इसी प्रकार से बाल की खाल निकालने और अर्थ का अनर्थ बनाने में व्यस्त है। यह वर्ग ऐसे ही आधुनिक लेकिन गलत विचारों के कारण मीडिया के कृपा पात्र हैं। इन्हे आधुनिक विचार धारा का और एक नए दृष्टिकोण (new angel) से पूरे घटनाक्रम को देखने का खिताब मिलता है। ये हमारी जड़ें खोद रहे हैं, इनसे बचें। 

शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

महात्मा गांधी महामूर्ख थे?

न्यायमूर्ति श्री चंद्रशेखर धर्माधिकारी ने समग्र सर्वोदय दर्शन में अपने पिता दादा धर्माधिकारी के संस्मरण को लिपिबद्ध करते हुए लिखा कि एक बार वे कॉलेज यूनियन के अध्यक्ष पद के लिए उम्मीदवार के नाते खड़े थे। दादा (दादा धर्माधिकारी) से आशीर्वाद मांगने गए, तो दादा ने उनसे पूछा कि इस फंदे में तुम क्यों पड़े?
मैंने जवाब दिया, “आप जैसे लोग कहते हैं कि अच्छे लोगों को चुनाव लड़ने के लिए सामने आना चाहिए। अत: मैं इस फंदे में पड़ा”।  
दादा ने पूछा, “तुम अच्छे हो, यह किसने तय किया”?
“अपने देश में दूसरा कोई तो ऐसा कहता नहीं, इसलिए मैंने ही तय किया”, मैंने संभल कर  जवाब दिया।
दादा ने बाद में सवाल  किया, “इस देश में राष्ट्रपति से लेकर गाँव के सरपंच तक सत्ता के कितने पद होंगे”?
“यही कोई दस-पंद्रह लाख तो होंगे ही!” मैंने कहा।
दादा ने पुन: पूछा, “इस देश का काम सुचारु रूप से चले इसलिए पदनिरपेक्ष कार्य करने वाले कितने लोग चाहिए”?
 मैंने कहा, “कम से कम पचास लाख लोग तो चाहिए ही”।
तब दादा ने गंभीर होकर कहा,जो किसी पद पर नहीं है और न पद की आकांक्षा रखता है ऐसे मूरखों की सूची में अपना नाम होना चाहिए। ऐसा महान या महामूर्ख व्यक्ति था महात्मा गांधी”।

तब मेरे ध्यान में आया कि सत्ताकांक्षी या सत्ताधारी लोग समाज या राष्ट्र नहीं बनाते, न सँभालते या सुधारते हैं। उलटा बिगाड़ते हैं। समाज तो सत्ता, संपत्ति निरपेक्ष लोगों ने बनाया है, संवारा है। उम्मीदवारशाही, लोकशाही या लोकनीति नहीं है। जहां हकदार उम्मीदवार नहीं होते, वही तो रामराज्य है और जहां सारे हकदार उम्मीदवार बनना चाहते हैं, वह हरामराज्य है।
दादा धर्माधिकारी एवं चन्द्रशेखर धर्मधकारी 




शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

ज्ञान, प्रेम और घृणा


आज का वर्ग बहुत ज्ञानी है। अत: किसी भी ज्ञान की बात पर उफ़्फ़’, फिर शुरू’, बस बहुत हो गया’, और ज्ञान नहीं ऐसे कुछ जुमले हैं जो तुरंत सुनने को मिलता है। इस वर्ग को और ज्ञान नहीं चाहिए। अगर उन्हे कभी कुछ चाहिए तो बाबा से पूछ लेंगे, अरे अपने वही गूगल बाबा से। लेकिन क्या कभी यह भी सोचा कि उस बाबा को ज्ञान देना भी पड़ता है? यही नहीं, उससे मिला ज्ञान क्या सही है? क्या इस, भले ही अधूरे ज्ञान पर ही सही, कभी विचार किया है? उस ज्ञान पर काम किया है? हमारे पास ज्ञान लेने का समय नहीं है लेकिन व्हाट्सप्प फॉरवर्ड करने के लिए, आस पास रेस्टुरेंट खोजने के लिए, मौल खोजने के लिए, कितने लाइक मिले और यह विश्लेषण करने के लिए कि किसका लाइक मिला और किसका नहीं मिला बहुत समय है। मैं इन्हे छोड़ने नहीं कहता। इन्हे कीजिये, लेकिन सही ज्ञान लेने, समझने और उस पर अमल करने की बात कर रहा हूँ। यही ज्ञान जिंदगी बदलेगी।
   
प्रेम और घृणा पर शोध करने वाले एक विद्वान ने पंद्रह विद्यार्थियों की कक्षा में कहा कि वे वहाँ मौजूद जिन विद्यार्थियों को बिलकुल नापसंद करते हों, उनके नाम एक चिट पर फ़ौरन लिख कर दें।  एक विद्यार्थी को  छोड़ कर, सबने चिट पर नाम लिख दिये। फकत उस एक विद्यार्थी ने किसी का भी नाम नहीं लिखा। कुछ ने कुछ नाम लिखे तो एक ने तो अधिकतम तेरह नाम लिख डाले। इस प्रयोग से जो तथ्य सामने आया, वह बहुत चौंकानेवाला था। जिन विद्यार्थियों ने अधिकतम लोगों को नापसंद किया, उनको स्वयं को भी अधिकतम लोगों ने नापसंद कर डाला। सबसे अद्भुत बात तो यह रही कि जिस युवक ने किसी को भी नापसंद नहीं किया, उसका नाम किसी ने भी अपनी चिट में नहीं लिखा। पसंद और नापसंद, प्रेम और घृणा परस्पर अवलंबित होती है। अच्छे बुरे भाव सापेक्षता का सिद्धांत होते हैं, जैसा हम दूसरों को देखते हैं, दूसरे भी हमें वैसा ही देखते हैं

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

मुश्किल नहीं है जीना


श्रीमतीमहादेवी वर्मा छायावाद युग की प्रतिनिधि कवियित्रि हैं। उनकी कविताओं को बहुत दुरूह बताया जाता है। उनकी लिखी एक भावनात्मक सहज कविता की बानगी आपके लिए:

श्रीमती महादेवी वर्मा


आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ.....
पर तनिक ठहरो...
ड्योड़ी पर पड़े पायदान पर,
अपना अंह झाड़ आना...
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराजगी वहीं उड़ेल आना...
तुलसी की क्यारी में,
मन की चटकन चढ़ा आना...
अपनी व्यस्तताएं,
बाहर खूंटी पर ही टांग आना,
जूतों संग,
हर नकारात्मकता उतार आना...
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत मांग लाना...
वो गुलाब के गमले में, मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना...
प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर,
चाय चढ़ाई है, मैंने
घूंट घूंट पीना,
सुनो,
इतना मुश्किल नहीं है जीना ....


शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

सूतांजली अगस्त २०१९

सूतांजली अगस्त२०१९ में ३ लेख एवं एक गांधी प्रश्नोत्तरी की रिपोर्ट है। अपने विचार एवं टिप्पणी हम तक पहुंचाएं तो हमें अच्छा लगेगा।

इस अंक के तीन  लेख हैं इस प्रकार हैं  -  
१. सर्व धर्म समभाव
हम, भारतवासी, इसकी चर्चा तो करते हैं लेकिन इस पर अमल नहीं करते। इसका जीता जागता उदाहरण मिला स्पेन में।

२. श्री राम की सेना
श्री राम की सेना में वानर थे, अनपढ़ और अशिक्षित तथा हथियार विहीन। गांधी को भी इसी निहत्थे समुदाय का भरपूर सहयोग मिला था। लेकिन दोनों का अंत विपरीत था।

३. गांधी का टाइम मानजमेंट
गांधी मुलाकतियों को भले ही कम समय दे पाते हों लेकिन सबों को समय देते थे और पूरी एकाग्रता से देते थे।

 कौन जनता गांधी कोकी जुलाई की रिपोर्ट
 पढ़ें http://sootanjali.blogspot.com पर