बापू के भाष्यकारों
में से आचार्य कृपलानी बड़े मार्मिक और विनोदी हैं? उन्होने एक
बार कहा कि बापू ने हमें हर तरह से यह बताया कि ‘अरे भाई, अपने दुश्मनों पर प्रेम करो’। उन्हे ऐसा लगा कि
अपने दोस्तों और पड़ोसियों से प्रेम करने के लिए कहने की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वह तो स्वाभाविक है। लेकिन हम लोगों ने सोचा कि चूंकि बापू
लोकोत्तर पुरुष थे, इसलिए उनकी सीख भी लोक-विलक्षण होनी
चाहिए। राजनीति में भी असत्य न हो, हिंसा न हो, यही लोक-विलक्षण सिखावन है। चुनांचे धर्म में,
व्यापार में और कुटुंब में झूठ और हिंसा होनी चाहिए, ऐसा
मतलब आगर बापू की सीख में से निकले तभी वह अद्भुत होगी, असामान्य
होगी। अन्यथा बिलकुल मामूली समझी जाएगी। इसी तरह, ‘अपने शत्रु से प्रेम करो’ यह बापू की शिक्षा
लोकोत्तर थी। उसके मुक़ाबले में दूसरी कौन सी शिक्षा लोकोत्तर हो सकती थी? भला, यही न, कि ‘अपने पड़ोसियों और मित्रों से द्वेष करो’। यह तो
बिलकुल सीधा तर्क है। अगर शत्रुओं पर प्रेम करना हो तो पहले शत्रु पैदा करने
चाहिए। उसके लिए पड़ोसियों और मित्रों से दुश्मनी करनी चाहिए। पहले सारी दुनिया से
दुश्मनी मोल लो तभी तो प्रेम कर सकोगे! इस प्रकार बैर द्वारा
प्रेम करने की यह अपूर्व प्रक्रिया है। कृपलानीजी ने आगे कहा, ‘बापू ने हमसे शत्रुओं से प्रेम करने को कहा, और हमने उनके आदेश का अक्षरश: पालन किया। हमने केवल शत्रुओं से प्रेम
किया – मित्रों से प्रेम करना या तो भूल गए, या फिर उसे
इरादतन टालते रहे, क्योंकि अगर वैसा न करते तो बापू की आज्ञा
की खिलाफवर्जी जो होती’।
कृपलानीजी की
इस आलोचना में केवल सस्ता मज़ाक नहीं था।
चंद्र
शेखर धर्माधिकारी, समग्र सर्वोदय दर्शन, दादा धर्माधिकारी, पृ २५
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