शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

क्या सरल होना इतना मुश्किल है?

 पिछले कुछ समय से मैं सरल होने की बात कर रहा हूँ। यह जानते हुए भी कि सरल-सहज होने से जिंदगी बहुत आसान हो जाती है, फिर भी हम क्यों सरल नहीं हो पाते? हम जानते हैं कि क्रोध करना ठीक नहीं फिर भी क्रोध आ ही जाता है। किसी ने कहा कि जब क्रोध आता यह बात भूल जाते हैं। एक संत ने कहा – नहीं उलटा कह रहे हो, भूल जाते हैं तब क्रोध आता है। वृद्ध होने पर गिर जाने से हड्डी नहीं टूटती बल्कि वृद्धावस्था में शरीर-हड्डी के कमजोर होने से गिर जाते हैं अतः हड्डी टूट जाती है

आइन्स्टाइन और फ़्रौयड 


          दूसरे विश्व युद्ध से पहले की बात है। अल्बर्ट आइंस्टाइन परेशान थे कि उनके दो आविष्कारों का इस्तेमाल युद्ध के लिए, मानव जाति को ख़त्म करने के लिए हो रहा है। उनके आविष्कारों का उद्देश्य निर्माण था विध्वंस नहीं। अतः उन्होंने मनोवैज्ञानिक सिग्मंड फ्रॉयड को इस बाबत चिट्ठी लिखी। जवाब में फ्रॉयड ने आइंस्टाइन को लिखा, इंसान में दो तरह की प्रवृत्तियाँ होती है, रचनात्मक और विध्वंसात्मक, निर्माण करना और नष्ट करना। यह दोनों मनुष्य की आदतें हैं। हर इंसान में कमोबेश ये दोनों होती हैं। किसी में निर्माण का बाहुल्य होता है किसी में नष्ट का। इसके अलावा समय, परिस्थिति और वातावरण के अनुरूप ये प्रवृत्तियाँ प्रबल, मध्यम और शांत रहती हैं।

          तो क्या इन दोनों आदतों को एक साथ स्वीकार कर लिया जाना चाहिए? बुद्ध ने तो स्वीकार नहीं किया था। बुद्ध इंसान को सरलता की ओर ले जाने का रास्ता खोजते हैं, हम हर बार उस रास्ते से भटक जाते हैं...।

          एक बार एक घुड़सवार बहुत तेजी से सड़क से नीचे कच्चे रास्ते की ओर दौड़ रहा था। सड़क के दूसरी ओर खड़े एक जानकार ने उसे आवाज लगाई और पूछा, अरे भाई इतनी तेजी से कहाँ जा रहे हो। घुड़सवार ने कहा, मुझे नहीं पता भाई। मेरे घोड़े से पूछ लो...। वह जो घोड़ा है न वही हमें और हमारी जिंदगी को मुश्किल बनाए हुए है। वह घोड़ा हमारा मन है। यह मन हमसे सधता नहीं...। इसी कारण इतना मुश्किल है सरल होना। तो फिर क्या करें?

          अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करते हैं-

"चंचलम हि मनः कृश्नः प्रमाथि बलवत दृढम। तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्॥

यह मन बड़ा चञ्चल, प्रमथन स्वभाववाला, बड़ा दृढ़ और बलवान है। इसलिये उसको वश में करना मैं वायु को रोकने की भाँति अत्यन्त दुष्कर मानता हूँ ॥ 6.34॥

          इस पर भगवान इसका एक ही उपाय बताते हुए कहते हैं :

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥

“हे महाबाहो ! निःसन्देह मन चञ्चल और कठिनता  से वश में होनेवाला है; परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है ॥6.35॥

          हाँ, यह कठिन अवश्य है लेकिन असंभव नहीं। हर कार्य जो दुष्कर प्रतीत होता है, अभ्यास से सरल हो जाता है। प्रसिद्ध क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर से जब पूछा गया कि प्रातः उठकर वे सबसे पहले क्या करते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया “500 गेंदों का सामना करने के बाद ही मैं कुछ और करता हूँ।” यानि अभ्यास का कोई विकल्प नहीं है। अभ्यास करें तो संभव है। जब हम पहली बार गाड़ी चलाने बैठे थे तब यह कार्य कितना दुष्कर प्रतीत हुआ था लेकिन शनैः शनैः हम सीख ही नहीं गए बल्कि अब हम गाड़ी चलाते हुए और भी कई कार्य कर लेते हैं। अगर अभ्यास करते रहें तो हम  मन को वश में कर पाएंगे और एकाग्र होकर ध्यान कर सकेंगे।

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शुक्रवार, 21 जनवरी 2022

बच्चों से सीखें .....

 (अगर नहीं जानते कि कैसे सरल बनें, तो बच्चों से सीखें सहज-सरल बनना)

शिप्रा जल्दी-जल्दी दफ्तर से बाहर निकली। उफ़्फ़, ये मुम्बई की बारिश बड़बड़ाते हुए उसने स्कूटी को चालू किया। शिप्रा 7 बजे तक घर पर पहुँच जाती थी। जब बेटी स्माइली पाँच साल की थी तभी पति से तलाक हो गया था। आज बेटी 11 साल की है। स्कूल से 3 बजे जाती है। मासी (काम वाली)  खाना खिलाकर उसे पढ़ने भेज देती है। उसके बाद डांस क्लास जाती है। ट्यूशन और डांस क्लास बगल वाले मकान में ही है, तो शिप्रा लौटते हुए स्माइली को वहाँ से ले लेती है। मासी स्माइली को पढ़ने के लिए भेज पर चली जाती है।


          

बारिश ने सड़कें जाम कर रखी थी। शिप्रा भी स्कूटी लेकर जाम में फंसी थी। कहीं से थोड़ी जगह मिले तो निकलूं, इसी में समय निकल रहा था। शिप्रा ने समय देखा 6 बज चुके थे। क्या करूं, अभी एक घंटे में स्माइली की डांस क्लास खत्म हो जाएगी। मैं तब तक पहुँच नहीं पाऊंगी। शिप्रा ने जाम से निकलने की कोशिश की। अरे मैडम, कहाँ स्कूटी घुसा रही हैं? जगह है क्या, आगे की गाड़ी वाले ने आँखें तरेरते हुए कहा। शिप्रा ने जरा सी जगह से स्कूटी निकालने की कोशिश की तो आगे खड़ी गाड़ी से रगड़ खाते हुए स्कूटी और फंस गई।

          डांस टीचर को फोन करती हूँ। कुछ देर स्माइली को अपने पास रोक ले, यह सोचकर शिप्रा ने फ़ोन निकालने के लिए बैग खोला। पाखी, सुनो बारिश के कारण जाम में फंसी हूँ। घोड़ी देर हो जाएगी। स्माइली को कुछ देर अपने पास रोक लेना, प्लीज।

          शिप्रा, आज तो बारिश के कारण डांस क्लास हुई ही नहीं। मैंने तुम्हारी मासी को बता दिया था। शायद ट्यूशन भी नहीं हुई होगी, मासी बता रही थी। स्माइली घर पर ही है। मासी उसे खाना खिलाकर चली गई। डांस टीचर के जवाब से शिप्रा के माथे पर तनाव की लकीरें खींच गईं। जाम में रेंगते रेंगते शिप्रा की स्कूटी बढ़ रही थी।

          कई ख्याल उसके मन-मस्तिष्क को झिंझोड़ रहे थे। जमाना कितना खराब है! बेटी अकेली है। कोई घर में घुस गया तो? अपने माले पर एक फ्लैट तो खाली है। एक और फ्लैट वाले विदेश में हैं। चौकीदार को फ़ोन करूं? शिप्रा ने फ़ोन लगाया, फिर काट दिया। मन ने आवाज दी- नहीं नहीं, उसका क्या भरोसा! है तो भला आदमी, पर कब नीयत बदल जाए। अकेली बच्ची के साथ कुछ कर दिया तो.... शिप्रा इन्हीं चिंताओं में घिरी स्कूटी धीरे धीरे आगे बढ़ा रही थी। सारे रिश्तेदार भी मुंबई से बाहर रहते थे। यहाँ वो और उसकी बेटी अकेले थे। क्राइम पेट्रोल, सावधान इंडिया के सारे बच्चों के साथ क्राइम वाले एपिसोड शिप्रा की आँखों के आगे घूमने लगे।

          उसने बेटी को फोन करना चाहा। अचानक स्कूटी को धक्का लगा। फोन सड़क पर भरे पानी के अंदर! शिप्रा के आंसू छलक उठे। अब क्या करूं! बेटी को भूख लगी होगी। फ्रिज में फल भी नहीं है, क्या खाएगी ? नास्तिक शिप्रा ने सारे देवी-देवताओं की मनौतियां मना डालीं। रात करीब दस बजे शिप्रा घर पहुंची। घंटी बजाई। स्माइली ने दरवाजा खोला।

          मम्मी का एप्रिन डाले स्माइली खड़ी थी। एप्रिन उसके पैरों से बाहर जा रहा था। शिप्रा ने तुरंत स्माइली को गोद में उठाकर बहुत प्यार किया। आज बहुत देर हो गई। मम्मा, मैं समझ गई थी। बारिश के कारण आपको देर हो गई। आपका फ़ोन नहीं लग रहा था। अच्छा माँ, जल्दी-जल्दी किचन   में आओ। देखो, मैंने आपके लिए क्या बनाया है? स्माइली शिप्रा को किचन में ले गई। किचन में सारे बर्तन उलट-पुलट थे। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई तूफ़ान आया हो। यहाँ बैठो। स्माइली ने शिप्रा को कुर्सी पर बिठाया। कैसरोल खोला- मम्मी, ये खाओ, मैंने बनाया है। शिप्रा अवाक सी देख रही थी। उसकी स्माइली कितनी सहज थी। उसने परिस्थिति को कितनी सहजता से लिया। कुछ बना भी लिया। क्या सोच रही हो! खाओ ना। स्माइली ने चम्मच भर कर मम्मी के मुंह में डाला। पास्ता कच्चा था। कैसा बना है? जैसा आप बनाते हो, वैसा नहीं बना न, स्माइली ने उत्सुकता से पूछा।

          ये दुनिया का सबसे बढ़िया पास्ता है। इसमें जो स्वाद है, वो तो मैं भी कभी न ला पाती, शिप्रा ने स्माइली को गले लगाते हुए कहा। 

डॉ.संगीता गाँधी

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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

कुछ तो सुनिए अपनों की

 कुछ तो सुनिए अपनों की,

       कुछ तो सुनाइये अपनों को,

             कुछ तो सरल बनिये

(जीवन-यात्रा में मानव ने हर वह वस्तु प्राप्त कर ली है, जो जीवन को आसान बना रही है। मनुष्य इस आराम को दिन-ब-दिन बढ़ाने की तरफ़ ही बढ़ रहा है... इतनी सुचिता, इतने आराम के बावजूद मनुष्य अपनी सरलता छोड़ नहीं सका है... वह तलाशता रहा है किसी ऐसे को, जिससे वह निर्भय हो कह सके अपने मन की बात और आज यह तलाश बेचैनी में बदलती दिख रही है।)

कुछ समय पहले एक समाचार पढ़ा – जापान में लोग अब श्रोता किराए पर लेने लगे हैं। समाचार विचित्र लगता है, पर यह इस नए युग की विडम्बना भी है। जापान में इस ऑनलाइन सेवा का आरंभ टाकानोबू ही निशीमोटो ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर किया है। निशीमोटो की उम्र लगभग पचास वर्ष है और उनके सभी साथी क़रीब 45 से 50 वर्ष की उम्र के ही हैं, इन्हें ओसान (OSSAN) कहा जाता है। ये सभी कार्यकर्ता करीब 1000 येन प्रति घंटे के हिसाब से उपलब्ध हैं।

          क़रीब चार वर्ष पूर्व आरंभ हुई इस सेवा के सदस्यों का है काम है 'सुनना', ये सभी सदस्य समझदार और पढ़े-लिखे हैं। अजीब बात यह है कि निशीमोटो हर महीने अकेले ही क़रीब 30-40 ग्राहकों को सुनते हैं। विडम्बना यह है कि लोग इन ओसान को सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि वे किसी से अपनी बात कह सकें। इस ग्रुप के ये लोग सदस्य की मांग के अनुसार निश्चित जगह या घर पर जाते हैं, जहाँ वे सामने वाले की पीड़ा, अकेलेपन के दर्द या व्यथा कथा या अनुभवों को गंभीर श्रोता की तरह सुनते हैं और उनकी भावनाओं के सहभागी होते हैं। यह कोई मनोवैज्ञानिक उपचार पद्धति नहीं है पर 'मेरी कोई सुनता नहीं' या 'किससे कहूँ' की छटपटाहट से निकलने का एक जरिया अवश्य है। किससे कहूँ' एक ऐसी व्यथा है जो इसे झेल रहा है वही इसकी वेदना या पीड़ा जानता है। ये सोशल आइसोलेशन या अकेलापन सामाजिक होने पर भी सामाजिक नहीं है। अनेक रिश्ते हैं, मित्र हैं, पर एक भी अपना-सा नहीं लगता। एक भी कंधा ऐसा नहीं लगता जिस पर सिर रख कर रो लें। जिससे अपनी पीड़ा कही,  कभी सुननेवाला जिसे अपना समझते थे,  अब ईर्ष्या से दग्ध-सा लगता है। कभी उपहास करता-सा, कभी अनसुनी करता-सा, कभी बातों को इधर-उधर फैलाकर चर्चा का विषय बनाता-सा, डर लगता है, किससे कहें कि दर्द उपहास का विषय न बने।  पीड़ा या वेदना जो अपनों से ही मिली है, कहीं उन्हीं तक न पहुँच जाए और बात सुलझने के बजाय इतनी बिगड़ जाए कि सुलझने की उम्मीद ही खत्म हो जाए। इस भय ने ही मानसिक अकेलेपन को जन्म दिया है और खो गई है सरल सहज रिश्तों की मिठास, हर रिश्ते में कुछ अनजाना-सा भय हो गया है कि कहीं कुछ गलत न कह दें, कहीं किसी गलत को न कह दें। यही भय अकेलेपन की त्रासदी को जन्म देता है और ओसान' उसी अकेलेपन के साझीदार होते हैं।

          कभी-कभी हम अपने विषाद - समस्याओं में इतने व्यथित हो जाते हैं या अपनी खुशी से इतने आह्लादित कि लगता है किसी से कह दें तो मन हल्का हो जाए, कोई तो सुने, समझे। बिना किसी पूर्वाग्रह या आलोचना के बस सुन भर ले। मन में घुटन होती है। कभी बात बिगड़ने का डर, कभी रिश्ते टूटने का, कभी अपनी छवि बिगड़ने का डर, कभी दूसरों की और भी न जाने क्या-क्या? वर्जनाएँ, प्रवंचनाएँ, कभी उपहास का डर, कभी ठगे जाने का, कभी अपनी कमियाँ, कभी मजबूरियाँ और इन सबसे जूझता मन। पर कहें तो किससे...? रिश्तों की डोर अपनेपन और सहजता से बनती है। जब संयुक्त परिवार थे तब कहासुनी थी, गीत थे, त्यौहार थे, मान-मनौवल थी, साथी थे, संवाद थे तो अकेलापन भी नहीं था। अब अनगिनत साधन होने पर भी अकेलापन है। जीवन सरल-सहज था। शान-शौकत-दिखावा-आडंबर नहीं था। जैसे हैं, वैसे ही थे। हम तो ऐसे हैं भैया  पुरुष, स्त्री, बच्चे, बड़े, अमीर, (गरीब कम) इस अकेलेपन का शिकार होते जा रहे हैं।

          कुछ थोड़ा-सा समय अपनों को दें, सहज-सरल बन कर। जीवन की आपाधापी तो चलती ही रहेगी, पर कुछ तो कहिए, कुछ तो सुनिए अपनों की बस ध्यान रखना चाहिए कि कोई अगर अपनी व्यथा कह रहा है तो उसका उपहास न करें, न आलोचना करें। गम्भीर श्रोता बन कर सुन भर लें। न आदर्शवादी सुझाव दें, न ज्ञान बघारें, न अहं आड़े आने दें। अगर आप सुनना सीख गए तो सुनने वाले भी आपके इर्द-गिर्द जमा हो जाएंगे।

          हमारे यहाँ की चौपाल, संयुक्त परिवार, परंपराओं, साझे-चूल्हे, दादी-नानियों का संरक्षण, कथा कहानियाँ, उत्सव, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और संस्कारों, संस्कृति ने इस अकेलेपन से बचा रखा था। पर अब दिखावे, आडंबरपूर्ण व्यवहार और बढ़ते हुए आधुनिकता के झूठे प्रभाव ने व्यक्तियों को चंगुल में लेना शुरू कर दिया है। और अब अकेलापन हमें भी जकड़ने लगा है। घुटन, संवादहीनता जिंदगी का हिस्सा बनने लगी है। पहले अपनापन था अब अकेलापन है, इसके पहले कि हवा आँधी बने, तूफ़ान बने, कुछ तो थमिए, कुछ तो रुकिए, कुछ तो सोचिए। रिश्ते बनाइए, रिश्तों की डोर मजबूत कीजिए।

          सहज बनिए, सरल बनिए, पहले अपने प्रति फिर दूसरों के प्रति। अपनी सुनाने की जल्दी न करें, दूसरों की सुनें। सुनने लगेंगे तो सुनने वाले भी मिल जाएंगे।

(डॉ. अलका चौबे)

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यूट्यूब लिंक -->

https://youtu.be/EOr7SNXHt-c



शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

हार - जीत

 कहते हैं न, प्यार में हारने वाला ही जीतता है। हम हर जगह जीत खोजते हैं लेकिन फूल की दुकान पर हार खोजते हैं! बच्चों के साथ जीतने में आनंद नहीं आता, उनसे तो हारने में ही आनंद आता है। जीवन में अनेक क्षण ऐसे आते हैं जहाँ जीतने से हारने का मोल ज्यादा होता है, हारने का आनंद जीतने से ज्यादा होता है। 



          चार्ल्स बुकोवस्की कहते हैं कि बौद्धिक लोग आसान चीजों को मुश्किल तरीकों से कहते हैं। वहीं कलाकार मुश्किल चीजों को बड़ी आसानी से बयाँ कर देते हैं। जर्मन-अमेरिकन कवि बुकोवस्की की इसी बात को पंजाबी के लेखक राम सरूप अणखी की कहानी के जरिए समझा जा सकता है। ग्रेजुएशन के दौरान कोर्स की किताब में पढ़ी यह कहानी एक शख्स गुरविंदर की है। 40 साल का यह व्यक्ति गुरविंदर सिंह साइकिल पर शहर से गाँव जा रहा है। थोड़ा रास्ता तय करने के बाद उसकी नजर एक लड़के पर पड़ती है। लड़के की हाल ही में शादी हुई है। साइकिल पर पत्नी के साथ गुरविंदर के पास से होकर गुजरता है। गुरविंदर अपनी मस्ती में साइकिल चलाते हुए जोड़े से आगे निकल जाता है। खुद को पीछे महसूस कर लड़का तेज पैडल मारने लगता है, जैसे ही वो गुरविंदर को पीछे छोड़ देता है, पीछे बैठी दुल्हन के चेहरे पर खुशी, जीत और गर्व का भाव एक साथ आ जाता है। तीन-चार बार साइकिल दौड़ का यही क्रम जारी रहता है। इस अनकही दौड़ में अब गुरविंदर आगे निकल जाता है और अपनी जीत को देखने के लिए पीछे देखता है, पाता है कि दुल्हन के चेहरे का गर्व, अब हार के भाव में बदल चुका है। यह देखकर उसके मन में न जाने क्या आता है कि साइकिल धीमा, और धीमा कर लेता है। लड़का एक बार फिर से आगे निकल जाता है। दुल्हन जिसकी हार फिर से गर्व में बदल गई है। वह पीछे मुड़कर गुरविंदर की ओर देखती है और फिर लड़के के कंधे पर हाथ रख लेती है। गुरविंदर ने एक हजार किताबें नहीं पढ़ी थीं, पर वह समझ गया था कि आज अगर यह लड़का अपनी पत्नी के सामने इस साइकिल दौड़ में हार गया, तो फिर उसकी नजरों में कभी जीत नहीं पाएगा... कितनी सरलता से गुरविंदर ने खुद को हार जाने दिया। कितनी सरलता से उस लड़के को जीत जाने दिया। जिंदगी आसान है और गुरविंदर जैसे लोगों के पते पर मिलती है। राम सरूप अणखी और प्रेम प्रकाश की कहानियों में मिलती है। 'बावर्ची' फ़िल्म में राजेश खन्ना यानी रघु के किरदार में मिलती है। सरलता जो कहानियों में बची रह गई है, दरअसल वह आदमी के भीतर का सबसे सरल कोना है जो कि कभी-कभार खुलता है।

क्या आपके अंदर भी ऐसा कोना है? क्या ऐसी सरलता आपके पते पर भी  मिलती है। 4जी नेटवर्क के अंधेरे में खो रहे ऐसे कोनों को बचा कर रखिए, ऐसे पतों को ढूंढिए और लोगों को बताइये - एक दिन तुझसे मिलने ज़रूर आऊँगा जिंदगी मुझे तेरा पता चाहिए...

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यू ट्यूब लिंक --> https://youtu.be/zFQeDwpqw3k



शनिवार, 1 जनवरी 2022

सूतांजली जनवरी 2022

 नव २०२२ पर हार्दिक शुभ-कामनाएँ एवं बधाई।

सूतांजली के जनवरी अंक के ब्लॉग और यू ट्यूब का  संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की तेरहवीं किश्त है।

१। नया सवेरा                                                    मैंने पढ़ा

नव-प्रभात का वर्णन अद्भुत है। लेखिका की कलाम को सराहे बिना नहीं रहा जा सकता।

भगवती माँ स्व के बदले सर्व का चिंतन करने का उपदेश देती है। स्व में केवल स्वयं के लिए सुख, शांति, स्वर्ग की कल्पना है। लेकिन बिना अपनों के, बिना प्रियजनों के यह अधूरी है। सर्व के लिए प्रयास हमें सुख, शांति, स्वर्ग, मोक्ष तक नहीं ले जाता है बल्कि इन्हें धरा पर उतार लाता है। इस नव-वर्ष “सर्व” पर ही कार्य करने का संकल्प लें।

२। निर्भीक

निर्भीकता की परिभाषा देने के लिए दिवगंत जनरल बिपिन रावत सबों को छोड़ कर महात्मा की उक्ति याद अति है।

३। बापू की कमी खलती है                                       मैंने पढ़ा

क्यों खलती है बापू की कमी। समझिए एक मार्क्सवादी की कलाम से। उनकी अपनी कोई बात थी ही नहीं। उन्होंने सब बातें विश्व के विभिन्न धर्मों से, विद्वानों से, चिंतकों से ही उठाई थी। हम उन्हीं की बात दोहराते हैं, अपने शब्दों में, अपनी बात कह कर। हम अपना कार्य सही ढंग से नहीं कर सके, हम अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह नहीं कर पाये, तब ...... उस रिक्त स्थान को कौन भरेगा...... कौन करेगा उस कमी को दूर......  

४। असली पूंजी                                   लघु कहानी (संस्मरण) - जो सिखाती है जीना

असली पूंजी क्या है? क्यों महात्मा ने लाखों-करोड़ों को छोड़ एक ताँबे के सिक्के का मोल ज्यादा लगाया?

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की तेरहवीं किश्त


यू ट्यूब का संपर्क सूत्र (लिंक) : à

https://youtu.be/27HCnS2tErw