शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

संस्कृति से प्यार


यह बात आजादी के पहले की है। अँग्रेजों के शासन के समय एक प्रख्यात विद्यालय था। इसमें प्राय:  विद्यार्थी अमीर घरों से आते थे। उनमें ज़्यादातर विद्यार्थी फैशन परस्त एवं अंग्रेजों का ही लिबास पहने दिखते थे। उस विद्यालय में एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया।  प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती-कुर्ता व साधारण जैकेट थी। विद्यालय के छात्रों ने उस नवांगतुक छात्र को देख कर उसका खूब मज़ाक उड़ाया। उस पर कटाक्ष भी किया। इसे सुन छात्र अप्रभावित रहा और बोला, “यदि पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो कोट पेंट पहनने वाला हर अंग्रेज़ ऋषितुल्य होता। मुझे तो उनमें ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। इस गरम प्रदेश में आने वाले अंग्रेज़ अपनी संस्कृति की प्रतीक पोशाक को यहाँ के अनुरूप नहीं बदल सकते तो मैं ही उनकी देखा देखी अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ?  मुझे अपने इस झूठे सम्मान से अधिक अपनी संस्कृति प्यारी है। जिसे जो कहना है कहे, पर मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक त्यागना मेरे लिए मरणतुल्य है

वह विद्यार्थी और कोई नहीं, वरन प्रसिद्ध विचारक व क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी  थे, जिन्हे अपनी संस्कृति से गहरा लगाव रहा।
 
गणेश शंकर विद्यार्थी
पढ़ और सुन कर तो हम नहीं समझते लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि हम यह देख कर भी नहीं समझ सके कि ठंडे प्रदेश से गरम प्रदेश में  आने पर भी गोरों ने अपनी पोशाक नहीं छोड़ी और हम गरम प्रदेश में  रहते हुए भी अपने प्रदेश की पोशाक छोड़ कर उनकी नकल में ठंडे प्रदेश की पोशाक को अपना लिया।  अब तो हमें  आजाद हुए सात से ज्यादा दशक हो चुके हैं, हम कब नकल करना छोड़ अकल से काम लेना सीखेंगे।


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

ब्रेकिंग न्यूज़


निशाना साधा (बंदूक से नहीं)
वार किया (चाकू से नहीं)
पलट वार (लाठी से नहीं)
आक्रमण (अस्त्र-शस्त्र से नहीं)
धमाका (बम का नहीं)

यह कोई युद्ध या आक्रमण या लड़ाई के समाचार के शब्द नहीं हैं। ये वे हिंसात्मक शब्द हैं जिनका  प्रयोग आजकल मीडिया रोजमर्रा के जीवन में किए जाने वाले शब्दों की तरह करती है – खेल, राजनीति, धर्म, व्यापार या किसी भी जगत के समाचार को देने के लिए। खिलाड़ी से खिलाड़ी पर, खेल के एक टीम से  दूसरे टीम पर, राजनीतिक दलों - मंत्रियों - पक्ष विपक्ष के बयानों पर इन शब्दों के लिए जगह बनाई जाती है। साधारण से साधारण खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज़ की संज्ञा देना, चिल्ला चिल्ला कर और उत्तेजित होकर उसे सुनाना, जैसे कि उनका उद्देश्य समाचार पढ़ना नहीं बल्कि श्रोता को उत्तेजित करना ही है।

एक खबर पर दूसरी खबर को चिपकाना या दिन भर सब चैनलों पर बार बार एक ही खबर और एक ही विडियो को दिखाना खबरों की अहिमीयत, उसका अर्थ और संवेदनशीलता को बुरी तरह प्रभावित करती है। इसका असर यह हुआ है कि हम किसी भी खबर को गंभीरता से नहीं लेते और उसके सत्यापन पर संदेह करते हैं। आतंकवादी को मारने की खबर हो या जवान के मौत की। सीमा पर जवानों की कार्यवाही की हो या आतंकी हमले की। आरोपी सही या गुनहगार।  सरकारी हो या विपक्ष के आंकड़े हों, कौन सही कौन गलत – कुछ पता नहीं। हमने पढ़ा है – सत्य मौन रहता है झूठ गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाता है। लेकिन अब हर कुछ संदेहों के कटघरे में खड़े हैं। सत्य आदतन मौन है या वही दोषी है? समझ पाना मुश्किल हो गया है। सबों को हम एक ही नजर से देखते हैं, एक ही कान से सुनते हैं, एक ही दिमाग से समझते हैं। या इसका उलट भी कह सकते हैं – न देखते हैं, न सुनते हैं, न समझते हैं। ये सब हमें एक ही बॉलीवुड की फिल्म सी लगती है और उस पर टिप्पणी भी ठीक उसी प्रकार करते हैं। यथा, निर्माता (चैनल) कौन है, नायक-नायिका (पक्ष-विपक्ष) कौन है, फिल्मांकन (धुंधली) कैसा है, आवाज (स्पष्टता) कैसी है वगैरह वगैरह। क्या कहा  या क्या दिखाया गौण हो गया, हम पूछते हैं – किसने कहा, कब कहा, कौनसी पार्टी ने कहा, किस चैनल ने दिखाया, किस पेपर में छपा और पूरा विश्लेषण का आधार भी यही हो गया है। सही-गलत नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी अपनी पसंद – नापसंद के नायक-नायिका-निर्माता-गायक-संगीतकार के अनुसार हम अपना मत बनाते हैं – अच्छा है या खराब  है। यही कारण है कि अपराध होते देख जनता उसे रोकने के बजाय उसका विडियो लेने में और फिर उसे हाथों हाथ सोशल साइट पर अपलोड करने में और घड़ी घड़ी  लाइक को काउंट करने में मशगूल है ।

आज के न्यूज़ चैनल समाचार नहीं देते, सब अपना अपना मत प्रकट करते हैं और पूरे समाचार को तोड़ मरोड़ कर इस प्रकर रखते हैं कि उनका मत ही सही लगता है। और-तो-और किसी भी प्रकार तोड़ना-मरोड़ना संभव नहीं हुआ और अपने मत के विरोधी हैं तो  उस खबर को एकदम नजर अंदाज कर देना, जैसे की वैसा कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे गायब जैसे गधे के सिर से सींग।  

संवेदनशीलता और विश्वास की इतिश्री करने में जितना हाथ राजनीतिज्ञों का है उससे ज्यादा मीडिया का ही है। अब याद आते हैं वे दिन जब आकाशवाणी – औल इंडिया रेडियो – से समाचार प्रसारित हुआ करते थे। एकदम सपाट, कोई उत्तेजना नहीं, कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, अपना मत नहीं। जस-का-तस। सुन कर यह अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि समाचार पढ़ने वाले या चैनल वाले, या उनके मालिक किस मत के पक्षधर है। आवाज में न कोई कंपन, न उत्तेजना। न किसी भी प्रकार के हिंसात्म्क शब्दों का प्रयोग। समाचार सुन कर आप दुखी हो सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं, विचारमग्न हो सकते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं। अब, वह समाचार भी कोई समाचार है जो दर्शक-पाठक को उत्तेजित न करे?

क्या इसके लिए हम और आप कम दोषी हैं? हम ही मसाले वाले अखबार पढ़ते हैं, अत: वही ज्यादा बिकते हैं। मसाले वाले चैनल देखते हैं अत: उनकी टीआरपी (TRP) बढ़ती है। आप इसे बदल सकते हैं। हाँ, आप अकेले ही काफी हैं। क्योंकि हर कोई यही सोचता है कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? इसके विपरीत अगर यह सोचे कि और कोई करे या नहीं मैं तो करूँ? पता चलेगा कि सबने कर लिया। इंतजार मत कीजिये, शुरुआत कीजिये अपने आप से।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

प्रगति का अर्थ

हिमाचल प्रदेश के कुमायूँ अंचल से हैं हिन्दी लेखिका शिवानी। उन्होने कुमायूँ देखा नहीं, जीया है। उन्नति, प्रगति, आधुनिकीकरण क्या होता है उनसे ज्यादा कौन समझ सकता है। इसकी क्या कीमत चुकनी पड़ती है? इसका अंदाज और उससे ज्यादा अहसास शिवानी की लेखनी में पढ़ा नहीं महसूस किया जा सकता है। उनकी कहानी पुष्पहार के अंश-
“.... ग्राम को डिजनीलैंड ही बनाकर छोड़ेगा, देखते ही देखते कच्ची सड़क ने केंचुली उतार दी। फक-फक करता बुलडोजर, निरीह पहाड़ी-घाटियों का कलेजा रौंदने लगा। पीपे के पीपे कोलतार की मोटी  तहों ने पीली धूप-भरी सड़कों पर शहरी व्याधि की स्याही फेर दी। डाइनामाइट की दिल दहलाने वाली गर्जना से आए दिन त्रस्त गिरि-कन्दरायें गूंजने लगीं। फिर नई बनी क्षीण कलेवर की सड़क पर अफसरों की जीप-गाडियाँ आईं, मंत्री की झण्डा लगी बनी-ठनी वेश्या सी इठलाती चमकती गाड़ी और फिर आईं देश-विदेश से पर्यटकों से  लदी लग्ज़री बसें।

देखते ही देखते वह ग्राम हवाई द्वीप सा ही प्रसिद्ध हो उठा। जहां का शुद्ध पहाड़ी घृत अपनी पावन सुगंध की सुख्याति कभी दूर-दूर तक फैलता आया था, अब चूर की मिलावट से अपने सुनाम पर कालिख पोतने लगा। पास ही में  मिलिटरी की एक बड़ी टुकड़ी भी आ गई थी। सीमा के प्रहरी शराब की हुड़क लगने पर धेले-टके में ट्रांज़िस्टर बेचने लगे और धीरे-धीरे ग्राम के बंदरों ने भी अदरख का स्वाद लेना सीख लिया। जो सुरम्य घाटियां कभी मधुर झोड़े गीतों से गूँजती थी, अब विवशता से फिल्मी गानों से गूंजने लगी। एक लौंडरी खुल गई। जिस ग्राम में मिश्री की डली ही मिठाई मानी जाती थी, वहीं एक व्यापार कुशल हलवाई ने पहाड़ की प्रसिद्ध बाल्सिंघौड़ियों की ऐसी भव्य दुकान खोल दी की लोग शहरियों की भांति मिठाई का स्वाद लेना भूल गए, रंगीन मनमोहक डिन्नों का ही स्वाद लेने लगे।

प्रगति? क्या इसे ही प्रगति कहते हैं? स्थानीय इंसान को रौंद कर शहरी व्यक्ति के लिए जगह बनाना ही क्या प्रगति है? गाँव के सीधे सादे लोगों में भी शहरी (अव)गुणों को भरना, गाँव की मोहक सुगंध को इंपोर्टेड पर्फ्यूम से बदल देना। गाँवों से विस्थापित कर शहर की झुग्गी झोपड़ियों में बिलबिलाने के लिए छोड़ देना?  ......



शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सत्य बोलना चाहिये – हाँ? या ना?

एक यूनिवर्सिटी में एक धर्मगुरु ने आकर विद्यार्थियों को कुछ पर्चे बांटे। एक प्रश्नावली (क्वेस्चनेयर) था और उसमें पूछा गया था कि तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कौन सी समझते हो? विद्यार्थियों की सुविधा के लिए विभिन्न भाषाओं की अनेक पुस्तकों का नाम भी संलग्न किया गया था। लेकिन विद्यार्थियों को इस बात की छूट थी कि वे उनके अलावा भी किसी भी पुस्तक का नाम लिख सकते हैं।  किसी ने लिखा बाइबिल, किसी ने लिखा कुरान, किसी ने लिखा झेंदावेस्ता, किसी ने लिखा गीता, किसी ने लिखा ताओ। किसी ने ऑस्कर वाइल्ड तो किसी ने रवीन्द्र नाथ टैगोर का नाम दिया तो किसी ने लिखा शेक्स्पीयर का। यानि जिसकी जो पसंद थी उसने उसका नाम दिया। सारे इकट्ठे करके उसने उन विद्यार्थियों से पूछा कि तुमने जो-जो किताबें लिखीं, इनको तुमने पढ़ा? उन्होने कहा, “नहीं, हमने पढ़ा नहीं है, लेकिन ये श्रेष्ठ किताबें हैं। इन्हे पढ़ता कोई भी नहीं है। जो किताबें हम पढ़ते हैं, वे दूसरी हैं। पर उनके बाबत आपने जानकारी नहीं चाही। आपने पूछा था, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक”।

असल में, श्रेष्ठ किताब की परिभाषा यही है कि जब उस किताब का नाम सब को पता हो जाए और कोई उसे न पढ़ता हो, तो समझना कि वही श्रेष्ठ किताब है। जब तक उसे कोई पढ़ता हो, तब तक वह श्रेष्ठ नहीं है, पक्का समझना।

जहां व्यवस्था की जरूरत है, वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है जहां पुलिस की जरूरत है चोरी रोकने के लिए, वह समाज चोरों का है। और जहां कारागृहों की जरूरत है अपराध रोकने के लिए, वह अपराधियों की जमात है। लेकिन जहां कोई कारागृह नहीं हो, और जहां कोई पुलिस वाला खड़ा नहीं करना पड़ता हो? जहां साधू-संतों को लोगों को यह समझाते फिरना नहीं पड़े  कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, यह मत करो, वह मत करो? जहां इसकी चर्चा ही नहीं चलती वहीं व्यवस्था है वही ईमानदारों की जगह है, वही सज्जनों का समाज है।

मुझे याद है, भारत में  टीवी आए कुछ वर्ष हो चुके थे। हमें टीवी खरीदना था। दोस्तों से बात करने पर पता चला कि भारत सरकार की  ईसी (EC) टीवी सबसे बढ़िया है। लेकिन कइयों ने शंका खड़ी कर दी, सरकारी टीवी है सर्विस का भरोसा नहीं। बात जँची। एक मित्र जिसके पास ईसी टीवी थी संपर्क किया। उसने टीवी की प्रशंसा की। लेकिन जब सर्विस बाबत पूछा तब उसने बताया कि उसे इस बाबत उसे कोई जानकारी नहीं है क्योंकि पिछले पाँच वर्षों में उसे किसी भी प्रकार की सर्विस की आवश्यकता नहीं पड़ी। अगर वस्तु अच्छी हो तो सर्विस की क्या आवश्यकता?

“सत्य बोलना चाहिए?” 
हाँ” 
“बोलते हो” 
“....... !!!” 


क्यों, सत्य बोलना मजबूरी है या मजबूती ?

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

कुछ (क्या) बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी?


यूनान-ओ-मिश्र-ओ-रुमा, सब मिट गए जहाँ से ,
          अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां  हमारा।
                   सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तान हमारा।
                        कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी ...........

इकबाल ने लिखा हमने पढ़ा प्रसन्न भी हुए और गौरवान्वित भी। लेकिन विचारणीय तो यह है कि ऐसा हुआ क्यों? ऐसा क्या है कि इतनी समृद्धशाली संस्कृतियाँ काल के गाल में समा गईं  लेकिन हमारी हस्ती अभी भी मौजूद है। यह कोई अकस्मात नहीं हुआ और न ही दैवयोग से।  इसका कारण है हमारे कुछ मूलभूत सिद्धान्त। इन सिद्धांतों को हमें किसी ने नहीं पढ़ाया, किसी ने नहीं बताया लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी हम सब इसे सीखते चले गए और यह अहसास तक नहीं हुआ कि हम कुछ विलक्षण सिद्धांतों को प्रतिपादित कर रहे हैं। हमारी नसों में समाये ये सिद्धान्त हमारे प्राचीनतम ग्रंथ, ऋग्वेद की देन हैं। हमने सबके वजूद को स्वीकार किया, सबको जगह दी। हम और केवल हम ऐसी विचारधारा नहीं है। यह कहना सही नहीं है कि  हमारा देश एक सराय जैसा है जहां हर किस्म के लोग आते रहे, ठहरते रहे और हमें प्रभावित करते रहे और उनके आने से हमारे अंदर यह विचारधारा उत्पन्न हुई। विपरीत इसके हमारे पास ऐसी विचार धारा थी इसलिए हमने सबको आत्मसात किया। बस ये कुछ बाते हैं जिसे हम जानते हैं, समझते हैं, मानते हैं। जिसे दूसरे समझ ही नहीं पाते वे हमारे लिए साधारण सी बात है। क्या हैं वे सिद्धान्त जो हमारे वजूद को बनाए रख्खा है, हमारी हस्ती को मिटने नहीं देता:-
१। सब एक हैं, लेकिन स्वरूप अनेक हैं -
जितने भी पूज्य स्वरूप हैं, दिव्य देव हैं, देवता हैं, भगवान हैं  चाहे वे किसी प्रतिमा के रूप में हों, प्रतीक के रूप में हों, विचार के रूप में हों,  वास्तव में ये सब एक ही शक्ति के स्वरूप हैं। ये विचार हमारे सबसे प्राचीनतम ग्रंथ, संभवत: विश्व के सबसे प्राचीनतम ग्रंथ, ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से मिलता है, बार बार मिलता है। एकम सत एक ही सत है

इस धारणा के बनने से इस विचार की उत्पत्ति होती है कि मैं जब किसी के देवता को देखता हूँ तब मैं कहता हूँ कि मेरे देवता ये हैं और मैं इनका भक्त हूँ, तुम्हारे देवता वो हैं और तुम उनके भक्त हो। मैं इनके सामने नतमस्तक हूँ तुम उनके सामने नतमस्तक हो लेकिन वास्तव में ये दोनों एक ही हैं। तो इतना भर मान लेने से यह झगड़ा नहीं रहता कि मेरा देवता सत्य है और तेरा असत्य है। ट्रू गॉड एंड फाल्स गॉड (True God and false God) का संघर्ष समाप्त हो जाता है। हम यह मानते हैं कि सबके देवता सत्य हैं। अत: यह स्वीकार करना पड़ेगा की जब ऋग्वेद की रचना हुई उस समय भिन्न भिन्न स्वरूपों, ईश्वरों के मानने वाले लोग थे। इसीलिए ऋग्वेद के समय यह मंथन और संघर्ष हो चुका था और  यह सिद्धान्त प्रतिपादित हो चुका था। इस प्रकार हमने दूसरों की आस्था को मान्यता दी, उन्हे दुतकारा नहीं, उन्हे भी जगह दी, उन्हे भी स्वीकार किया।

2। आकार और निराकार, सगुण और निर्गुण  एक हैं, इनमें भेद नहीं है  
एक देवता है या अनेक देवता हैं? क्या इनके अनेक स्वरूप हैं? इतने स्वरूप हो सकते हैं या नहीं? क्या ये साकार है या निराकार? इनकी मूर्ति बनानी चाहिए या नहीं? अगर वह निराकार है तो साकार हो ही नहीं सकता अत: उसकी प्रतिमा बन ही नहीं सकती। वेद में लिखा भी है उसकी प्रतिमा नहीं बन सकती

मान लिया कि वैदिक काल में या ऋग्वेद में मूर्ति पूजा है। लेकिन वही वेद देवी देवताओं के सम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन कर उनकी वाक प्रतिमा भी तैयार करता है। उनके स्वरूप के वर्णन में उनके प्रिय रंग, वस्त्र, हथियार, मुद्रा, वाहन, रुचि, शक्ति आदि अनेक वस्तुओं और इच्छाओं का विस्तृत वर्णन भी करता है और उनकी पूजा भी। स्थूल प्रतिमा हो-या-न-हो  वाक प्रतिमा तो थी ही। तब उसका आकार तैयार हो गया। तब यह निराकार कहाँ रहा। अत: यह कैसे कह सकते हैं कि वेद में सगुण उपासना नहीं है, भले ही पत्थर की, लकड़ी की, अन्य किसी द्रव्य से बनी  प्रतिमा न हो।  एक स्वरूप तो हो ही गया। यह ऋग्वेद में ही है।

अत: वेद में मूर्ति है या नहीं यह विवाद नहीं रहा। इस प्रकार हमने आकार – निराकार दोनों को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि दोनों को एक ही बताया और उसका नामकरण किया ब्रह्म आकार एवं साकार, निर्गुण एवं सगुण दोनों को मान्यता दी, दोनों को  स्वीकार कर सबको अपने में समेट लिया।

3। कर्म सर्वोच्च है, इससे बड़ा कुछ भी नहीं है –
सबों को अपने कर्म का ही फल मिलता है। हर कोई अपने कर्म से ही बंधा  है और उसी से बना है। वैदिक विचारधारा इस पर पूर्णतया स्पष्ट है कि दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता, ईश्वर भी नहीं। सब अपने ही कर्मों का फल है। मैं जो भी करूंगा मुझे उसका फल मिलेगा। मैं अपने कर्म से बंधा हूँ, उसीसे बना हूँ। कोई दूसरा इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकता, ईश्वर भी नहीं। इस प्रकार कर्म की ही प्रधानता है। ईश्वर की  कृपा से, गुरु की  कृपा से, किसी और की कृपा से शायद छुटकारा मिल जाए, दुख या पाप का निवारण हो जाए!  - ऐसा नहीं हो  सकता है।  जब भी इनकी कृपा की बात करते हैं इसका अर्थ लेवल इतना भर ही है कि मेरे कर्मों के कारण हो सकता है ये हमें रास्ता दिखा दें, हमारी रक्षा करें, हमारी सहायता करें। बस इतना ही। लेकिन यह निर्भर है हमारे कर्म पर। इस प्रकार हमने उस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे सब सीधे या प्रकारान्तर  से स्वीकार करते हैं।

जब तक हम इन सिद्धांतों पर कायम हैं, इन्हे स्वीकार करते हैं हमारी सभ्यता बनी रहेगी। हमारी हस्ती मिटेगी नहीं, हमारा नामों निशां बना रहेगा।
डॉ भारत गुप्त से प्रेरित

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

अधिकार का नशा या कर्तव्य की मस्ती

अधिकार! अधिकार!! अधिकार!!! हक़! हक़!! हक़!!!।        कर्तव्य?.......... फर्ज़?...........
अधिकारों और हक़ के शोर में कर्तव्य और फर्ज़ गूंगे हो गए हैं। बढ़ते अधिकारों की मांग के सामने कर्तव्य ने चुप चाप पलायन कर लिया। हक़ के सामने फर्ज़ ने घुटने टेक दिये। अधिकारों और हकों की लड़ाई से परेशान होकर कर्तव्य और फर्ज लोप हो गए।

चारों तरफ अधिकार की मांग बुलंद है। अल्पसंख्यकों का अधिकार - दलितों का अधिकार - वनवासियों का अधिकार -  जनजातियों का अधिकार - औरतों का अधिकार - पत्नियों का अधिकार - धार्मिक संस्थाओं का अधिकार - मनुष्य होने का अधिकार। अब तो बातें और आगे बढ़ गई हैं जैसे धार्मिक स्थलों में प्रवेश का अधिकार - धार्मिक स्थल के निर्माण का अधिकार  - विवाहेतर संबंध बनाने का अधिकार - समलैंगिक भोग का अधिकार – तलाक का अधिकार – तलाक न देने का अधिकार ......... और न जाने कौन-कौन कैसे-कैसे अधिकारों की बात कर रहा है। क्या हमें यह भान है कि अधिकारों के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं? आज अधिकार की मांग करने वालों में से कितनों को उससे जुड़े कर्तव्य की जानकारी है? क्या हमें यह बोध है कि हर अधिकार किसी न किसी कर्तव्य की अदायगी के लिए ही दिया जाता है?

बिना कर्तव्य का अधिकार दुख लाता है और इसके  विपरीत बिना अधिकार का कर्तव्य सुख लाता है।  अधिकार सिवाय दुख के और कुछ नहीं लाता सुख तो लाता ही नहीं है। क्षणिक आनंद भले ही ले आए लेकिन सुख नहीं। क्योंकि सुख तो स्वीकार कर लिया गया है कि यह होना ही चाहिए। कितना और कैसा यह भी स्वीकार कर लिया गया है। वह नहीं हो तो? तो, दुख ही आता है। यह दुख और अधिक अधिकार की चाह उत्पन्न करता है। अधिकार का तो केवल नशा होता है। थोड़ी देर के नशे में, भूल-भुलईय्या में दुख भूल जाएँ लेकिन वह वहीं रहता है। जस का तस। नशा उतरते ही दुख वापस चढ़ बैठता है।

अगर क्षण भर समय निकल कर विचार करें तो तुरंत समझ आ जाता है कि जैसे ही हम श्रेय की मांग करते हैं तुरंत और दावेदार तथा उसे छीनने वाले आ जाते हैं। जहां हमने कोई दावा किया वहीं उसका खंडन करने वाले पैदा हो जाते हैं। हम जो भी चाहते हैं उसका विपरीत तत्काल पैदा हो जाता है। प्रशंसा के साथ निंदा और आदर के साथ निरादर का चोली दमन का साथ है। सिंहासन पर बैठने वाले धूल में गिरते हैं। सुख के चाह में हम दुख का झोला भर लेते हैं।

वहीं कर्तव्य का पालन करें तो सहायक खड़े हो जाते हैं। लोगों की आँखों में प्रशंसा, अधरों पर मुस्कान, हृदय में सम्मान भर जाता है। कर्तव्य पालन सिवाय सुख के और कुछ नहीं लाता। कर्तव्य पालन में दुख-कष्ट  स्वीकार कर लिया जाता है कि कष्ट तो होना ही है। कब और कितना यह भी स्वीकार कर लिया जाता है। उतना कष्ट-दुख आए-न-आए, सुख तो आता ही है। प्रारम्भ में कुछ दुख-कष्ट की संभावना है लेकिन आसन्न सुख के समक्ष नगण्य है। यह सुख हमें और कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करता है। सुख के पीछे पीछे आनंद और शांति स्वत: चले आते हैं।    

अगर हम चेष्टा न करें, कोई प्रयास न करें, कर्ता न बनें, दावे न करें तब हमें वह सब कुछ मिल जाएगा जिसके लिए हम ये सब कुछ करते हैं -  अपरिमित सुख, प्रसन्नता और शांति।

शुक्रवार, 9 नवंबर 2018

गुड लक – बैड लक


अपनी तकदीर हम लिखा कर लाये हैं या हम खुद लिखते हैं? “गुड लक” और “बैड लक” क्या है? किसी और के द्वारा हमारी ज़िंदगी में धकेली हुई घटना या फिर ये हमारी खुद की कमाई है? प्राय: हम ऊपरी तड़क - भड़क, शान - शौकत,  बढ़ बोली बातों में भ्रमित होकर सच्चाई  समझ ही नहीं पाते हैं?

हमारा गुड लक हमारे या  हमारे पूर्वजों और परिवार वालों के सत्कर्मों का ही फल होता है। और ठीक इसके विपरीत उनके दुष्कर्मों का फल हमारे बैड लक के रूप में ही हमारी जिंदगी में आता है।

एक धन बटोर कर खुश होता है। दूसरा धन बाँट कर खुश होता है। वह यही मानता है कि वह धन उसका नहीं, देने वाले ने किसी और को देने के लिए ही उसे दिया है। दोनों हाथों से समेटने वाले की  तुलना में दोनों हाथों से बाँटने वाला ज्यादा आनन्द पाता है। दोनों अपनी तकदीर खुद ही लिखते हैं।

एक गरीब लकड़हारा दिनभर मेहनत करता, इसके बावजूद उसे आधा पेट भोजन भी नहीं मिलता। एक दिन उसकी मुलाक़ात एक साधु से हुई, उसने पूछा कि महाराज, आप तो सबकुछ जानते हैं, मुझे मेहनत और ईमानदारी के बाद भी आधा पेट भोजन मिलता है, क्यों? साधु ने आँखें बंद कर कुछ सोचा  फिर कहा, “तुम अपने आधे पेट के भोजन में से एक रोटी रोज किसी भूखे को दान कर दिया करो”। गरीब लकड़हारे को आश्चर्य हुआ, सोचा आधे पेट का भोजन, उसमें भी एक रोटी दान करना बड़ी कठिन बात है। लेकिन उसे साधू पर भरोसा था, सो उसने एक रोटी किसी गरीब को देना का नियम बना लिया। आधे पेट वैसे ही भूखे रहने की आदत थी सो एक रोटी और कम सही। कुछ दिन इसी प्रकार बीत गए। एक दिन लकड़हारा जंगल में लकड़ियाँ काट रहा था, तब उसे अचानक कुछ चन्दन के पेड़ मिल गए। वह चंदन की लकड़ियाँ काट कर, उसे शहर में लाकर बेचने लगा। उसके पास इतना धन हो गया कि उसे आधे पेट भोजन करने की जरूरत नहीं रही। मगर भोजन करने के पहले वह भूखे  मनुष्यों को भोजन कराना नहीं भूलता। एक दिन उसकी मुलाक़ात फिर उसी साधू से हो गई। उसने साधू को सिर नवाया और फिर बोला, “महाराज, आपकी कृपा से मेरी सारी गरीबी दूर हो गई, अब मैं भर पेट भोजन करता हूँ”। साधू मुस्कुराए और बोले, “भाई, इसमें मेरी कोई कृपा नहीं है, दरअसल तुम भूखों को भोजन देते हो, उनके आशीर्वाद का ही नतीजा है कि तुम्हारी लकड़ियों में चंदन की सुगंध आ जाती है

हमने जो दिया वो हमें मिला, जो हमने रखा वो हमने गंवाया।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

संस्कार – कहाँ और कैसे

संस्कार देने और लेने की अलग से कक्षा नहीं होती। यह न पाठशाला में पढ़ने की है न घर पर।  न विश्वविद्यालय में सीखा जा सकता है  न पुस्तकालय में प्राप्त है। न बचपन में सीखते हैं, न जवानी में। न मंदिर में, न मस्जिद-गिरजा-गुरुद्वारा में। न घाटियों में, न पहाडों  की चोटियों पर। न कन्दराओं में, न नदी के किनारे । इनमें से कहीं भी और किसी से भी नहीं लेकिन इन सबों से और हर किसी से। बशर्ते हमारी आँखों को देखना आए और कानों को सुनना आए। मस्तिष्क में ग्रहण करनी की शक्ति होनी चाहिए, उसे स्वीकार करना आना चाहिए।  शायद इसीलिए कहा जाता है कि हर समय  शुभ बोलना चाहिए, निर्माण की बात करनी चाहिए। क्या पता कब कौन कहाँ संस्कारित हो जाए?

राजेंद्रलहरिया अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं:  
पाठशाला का वह मेरा प्रथम दिन था। टाटपट्टी की खाली जगह की ओर इशारा करते हुए मास्साब ने कहा, “यहाँ बैठो” , और पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा”?
“किसना”, मैंने धीरे से अपना नाम बताया।
“किसना .....नहीं.....” वे बुदबुदाये थे, “किशनलाल......रामकिशन.....” फिर मेरी तरफ देख कर कहा था, “किसना नहीं, तेरा नाम  रामकिशन है आज से!.....  क्या है”?   वे मेरी ओर देख रहे थे।
“रामकिसन” मैंने जैसे तैसे उच्चारा था।
“रामकिसन नहीं, रामकिशन! श सीटी वाला!” उन्होने कहा था।
आगे चलकर मुझे पता लगा था कि मास्साब का उस दिन का सिटी वाला ही हिन्दी भाषा विज्ञान में ‘तालव्य’ श कहलाता है।

अनुपममिश्र के संपर्क में आए हर व्यक्ति ने यह अनुभव किया है कि वह पारस के संपर्क में आ गया है। और वे इस पारस की अनुभूति अपनी करनी से करवाते थे। एम्स के डॉक्टर प्रसून चक्रवर्ती अनुपम मिश्र को याद करते हुए लिखते हैं-
उनसे मिलने और उन्हे जानने के बाद मुझे अपने अस्तित्व का अंदाजा हुआ। हम कितने पानी में हैं, इस 
अनुपम मिश्र
ब्रह्मांड में कितनी लघुतम स्थिति है हमारी, और ऐसा उन्होने कह कर नहीं बल्कि अपने जीने से, व्यहवार से जताया। उस दिन उनका पेट-स्कैन करना था। इसके लिए मरीज को टेबल पर लिटाना पड़ता है। एक के बाद एक मरीज को हम लिटाते जाते हैं और स्कैन करते जाते हैं। अनुपमजी से पहले जिस मरीज को हमने लिटाया था, उसने टेबल से उतरते हुए उस पर बिछी चादर को नीचे गिरा दिया था। अनुपमजी आए तो पहले उस गिरी चादर को उठाई, प्रेम से उसे हिलाया, ठीक से फैला कर टेबल पर बिछाया और चारों कोने बराबर कर, उस पर लेट गए। इस काम को करने के लिए जो आदमी था, उसके आने का इंतजार नहीं किया। उनका स्कैन हो गया तो टेबल से नीचे उतरते ही पहले चादर ठीक की, सलवटें हटाई और संभाल कर बिछाया और फिर बाहर गए। ...... उससे वातावरण पर कैसा असर होता है!
   

अपनी कथनी और करनी पर नजर रखिए। आप सबसे पहले अपने ही परिवार को संस्कारित कर रहे हैं जिनमें हैं आपके बच्चे, आपके पति / पत्नी, भाई बहन आदि। और उसके बाद वे सब जिनसे आप सम्पर्क में आते हैं।  


शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

विधायक का पद सेवा का या व्यवसाय का?

एक जमींदार ने अपने बगीचे की देखरेख ले लिए दो माली रखे। दोनों क्रम से एक-एक दिन छोड़ कर आते थे। दोनों में बगीचे के रखरखाव पर मत भेद था। एक जमीन जोतता तो दूसरा अगले दिन आकर उसका काम बिगाड़ देता। ऐसा महीनों तक चलता रहा। बगीचा उजाड़ पड़ा रहा। राजनीतिक दल आज ऐसा ही कर रहे हैं।

मंत्री का पद जनता की सेवा के लिए है न कि ताकत पर अभिमान करने के लिए। जब सत्ता का प्रयोग समाज सेवा के लिए न करके निजी सुख के लिए या प्रतिष्ठा बनाने के लिए किया जाता है तो पूरे समाज में भ्रष्टाचार फैलता है, विकास रुक जाता है और नैतिक पतन होता है। मंत्री पद कोई भोग विलास नहीं। उसे त्यागना कोई बड़प्पन नहीं बल्कि अपने पवित्र कर्तव्य को छोड़ना है। किसी को मंत्री पद प्रदान करने का मतलब ही उससे सर्वोत्तम सेवा की मांग करना है, न कि उसे पुरस्कृत करना।

जनसेवा के लिए किसी भी गद्दी या दर्जे की आवश्यकता नहीं है। बिना किसी औपचारिक पद के कहीं बेहतर सेवा कर सकते हैं जैसा कि महात्मा गांधी ने किया। अक्सर शासक सुधारक नहीं होता और सुधारक शासक नहीं होता

निरक्षरता के कारण जनता का मुख्य प्रेरणा स्त्रोत उसकी भावना होती है। अपने छोटे छोटे फ़ायदों के लिए राजनीतिक दल व धार्मिक नेता जनता की भावुकता का गलत इस्तेमाल करते हैं। अधिकांश नेता सच्ची सेवा की शिक्षा से वंचित हैं। दूसरे व्यवसायों की भांति हमें अपने नेता को भी शिक्षा देने की एक प्रणाली बनानी होगी ज़िम्मेदारी का भार उठाने के लिए एक न्यूनतम स्तर की सामाजिक शिक्षा और परिपक्वता आवश्यक है। वसुधैव कुटुंबकमसम्पूर्ण विश्व एक परिवार है की भावना को फैलाने की अभी बहुत आवश्यकता है। मंत्रियों को सही-गलत को पहचानने में सक्षम होना पड़ेगा।

आज कल किसी उच्च ध्येय के बजाय एक सामान्य राजनीतिक विरोधी का सामना करने के लिए राजनीतिक गठबंधन बन रहे हैं। इन गठ बंधन का मूल उद्देश्य भय, घृणा और स्वार्थ है। ऐसी राजनीति का अंत होना चाहिए।     
श्री श्री रवि शंकर से प्रेरित एवं कल्पवृक्ष से संकलित

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2018

ईश्वर है, उसे याद करें

रात के ढाई बजे थे, एक सेठ को नींद नहीं आ रही थी, वह घर में चक्कर पर चक्कर लगाए जा रहा था। आखिर थक कर नीचे उतर आया और कार निकाली, शहर की सड़कों पर निकल गया। रास्ते में  एक मंदिर दिखा, सोचा थोड़ी देर इस मंदिर में  जाकर भगवान के पास बैठता  हूँ। प्रार्थना करता हूँ तो शायद शांति मिल जाए। वह सेठ मंदिर के अंदर गया तो देखा, एक दूसरा आदमी पहले से ही भगवान की मूर्ति के सामने बैठा था। मगर उसका आँखों में करुणा भरी थी। सेठ ने पूछा, “क्यों भाई इतनी रात को मंदिर में क्या कर रहे हो”? आदमी ने कहा, “मेरी पत्नी अस्पताल में है, सुबह यदि उसका ऑपरेशन नहीं हुआ तो वह मर जाएगी और मेरे पास ऑपरेशन के लिए पैसा नहीं  है”। उसकी बात सुनकर सेठ ने जेब में जितने रुपए थे वह उस आदमी को दे दिये। देखकर उस आदमी के चहरे पर चमक आ गई। 

सेठ ने अपना कार्ड दिया और कहा इसमें फोन नंबर और पता भी है, जरूरत हो तो नि:संकोच बताना। उस गरीब आदमी ने कार्ड वापस कर दिया और कहा, “मेरे पास उसका पता है, इस पते की जरूरत नहीं है सेठ जी”। आश्चर्य से सेठ ने कहा, “किसका पता है भाई”। उस गरीब आदमी ने कहा, “जिसने रात के ढाई बजे आपको यहाँ भेजा उसका”।


जिसके मन में अटूट विश्वास होता है उसके कार्य पूर्ण हो जाते हैं।

 "रिलीफ "  पत्रिका से 

शुक्रवार, 28 सितंबर 2018

एक अति से दूसरी अति

जब हम एक अति पर पहुँच जाते हैं, तभी दूसरी अति पर बदलने की हमारी तैयारी शुरू होती है। जटिलता की हम अति पर पहुँच गए हैं। अब उसके आगे कोई उपाय नहीं  है, और विपरीत बात हमारी समझ में आ सकती है। जैसे कोई आदमी बहुत श्रम करके थक गया हो, तभी उसे नींद की बात समझ में आ सकती है। निद्रा श्रम के बिलकुल विपरीत है। उसी प्रकार जो नींद लेकर थक चुका हो उसे श्रम की बात समझ आ जाती है।

विपरीत से हम प्रभावित होते हैं, लेकिन विपरीत के साथ रह नहीं सकते। इसलिए हमारी आखिरी दिक्कत यह होती है कि जिससे हम प्रभावित होते हैं, उसके साथ रह नहीं सकते और जिसके साथ रह सकते हैं उससे हम कभी प्रभावित नहीं होते। इसलिए पुराने लोग ज्यादा होशियार थे, या कहें, चालक थे। वे कहते थे, विवाह किसी और से करना और प्रेम किसी और से करना। ये दोनों काम कभी एक साथ मत करना। विवाह उसके साथ करना जिसके साथ रह सको, और प्रेम उससे करना  जिससे प्रभावित हो। इनको कभी एक साथ मत लाना।

जहां जहां मशीन पूरी तरह आ जाएगी, वहीं-वहीं सवाल उठेगा कि आदमी अब समय का क्या करे? शक्ति का क्या करे? तकनीक का क्या करे? ज्ञान का क्या करे? और जिसका हम उपयोग नहीं कर पाते, उसका हमें दुरुपयोग करना पड़ता है। क्योंकि हम बिना किए नहीं रह सकते। करना तो कुछ  पड़ेगा ही। पाल सार्त्र ने कहा है हम चुनाव कर सकते हैं, लेकिन न चुनाव करने के चुनाव की कोई स्वतन्त्रता नहीं है।  चुनना तो पड़ेगा ही। करना तो कुछ पड़ेगा ही। अगर ठीक नहीं करेंगे, तो गलत करना पड़ेगा। शक्ति का तो उपयोग करना ही पड़ेगा। अगर सृजनात्मक न हुआ तो विध्वंस में हो जाएग।

एक बार कनफ्यूसियस एक गाँव से गुजरा। देखता है एक बूढ़ा आदमी अपने बगीचे में अपने बेटे को अपने साथ जोते हुए कुएं से पानी खींच रहा है। कनफ्यूसियस चकित हुआ और उस बूढ़े आदमी के पास  जाकर कहा कि क्या उसे पता नहीं है कि अब लोग घोड़ों या बैलों से पानी खींचने लगे हैं, राजधानी में तो कुछ मशीनें भी बना ली गई हैं, जिनसे पानी खींचा जाता है। उस बूढ़े आदमी ने कनफ्यूसियस को  हिदायत दी कि जरा धीरे बोले, कहीं उसका बेटा सुन न ले और उसे थोड़ी देर बाद आने के लिये कहा।

कनफ्यूसियस बहुत हैरान हुआ। जब वह थोड़ी देर बाद पहुंचा, उस बूढ़े ने, जो वृक्ष के नीचे लेटा  था, कनफ्यूसियस से कहा कि ये बातें यहाँ मत लाओ। यह तो मुझे पता है कि अब घोड़े जोते जाने लगे हैं। घोड़े जोत कर मैं बेटे का समय तो बचा दूँगा, लेकिन फिर बेटे के उस बचे हुए समय  का मैं क्या करूंगा? और घोडा जोत कर मैं बेटे की शक्ति बचा दूँगा, लेकिन उस शक्ति का मेरे पास कोई उपयोग नहीं है। तुम अपने घोड़े और मशीन को अपने शहर में रखो, यहाँ उसकी खबर मत लाओ।  


इसके पहले की हम आदमी को कोई मशीन दें, कोई शक्ति दें, उस शक्ति का सृजनात्मक उपयोग पहले बता दो। इसके पहले की हम आदमी के हाथ में एटम बम रखें  आदमी की आत्मा को इतना बड़ा बना दें की उसके हाथ में एटम बम रखा जा सके। अन्यथा एटम बम उसके हाथ में न रखें। छोटे आदमी के हाथ में एटम बम खतरनाक होगा। अज्ञानी के हाथ में शक्ति खतरनाक हो जाती है। अच्छा है अज्ञानी आदमी अशक्त हो। तो कम से कम कोई दुरुपयोग तो नहीं होगा। 


शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

अपने घर से विलुप्त होती प्रजाति

विश्व की अनेक प्रजातियां, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी विलुप्त हो चुके हैं। इनमें से अनके ऐसे हैं जिनके बारे में  हमें  जानकारी ही नहीं है। अनेक ऐसे हैं जो अब नहीं हैं  लेकिन उनके कंकाल, चित्र, अन्य जानकारियाँ विश्व के संग्रहालयों (म्यूजियम) की धरोहर हैं और वहाँ देखे जा सकते हैं। अनेक विलुप्त होने के कगार पर हैं और बचा कर रखने की पहल लगातार हो रही है।  इनमें केवल पेड़-पौधे और पशु-पक्षी ही नहीं बल्कि मानव की भी प्रजातीय हैं।  इनमें वनवासी और जनजाति ही नहीं पूरी तरह से सभ्य, शिक्षित और होनहार जातियाँ भी हैं। प्राचीन चीन, ग्रीस, रोमन ऐसी ही कुछ सभ्यताएं हैं जिनके वाहक अब समाप्त हो चुके हैं और उनके विलुप्त हो जाने के कारण ही  किसी समय संसार की गिनी चुनी श्रेष्ठ सभ्यताओं का नामोनिशान नहीं रहा। आज हम बड़े गर्व से गाते हैं:
यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा, सब मिट गए जहाँ से।
अब तक मगर है बाक़ी, नाम-ओ-निशाँ हमारा।।
सारे जहाँ से अच्छा ......
लेकिन सावधान! हमारी इस सभ्यता के वाहक भी धीरे धीरे समाप्त होते जा रहे हैं और अगर ऐसा ही चलता रहा तो हमारी सभ्यता का भी नामों निशान मिट जाएग। इसे बचा कर हम ही रख सकते हैं क्योंकि हमारी सभ्यता के ये वाहक हमारे ही घरों रहते हैं।

आने वाले १०-१५ वर्षों में  एक पीढ़ी संसार छोड़ कर जाने वाली है। कड़वा है लेकिन सच है। इस पीढ़ी के लोग बिलकुल ही अलग हैं। मसलन रात को जल्दी सोने वाले, सुबह जल्दी जागने वाले और भोर में घूमने निकलने वाले। आँगन और पौधों को पानी देने वाले, देव पूजा के लिए फूल तोड़ने वाले, पूजा अर्चना करने वाले, प्रतिदिन मंदिर जाने वाले। रास्ते में  मिलने वालों से बात करने वाले, उनका सुख दुख पूछने वाले, दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करने वाले, पूजा किए बगैर अन्न जल ग्रहण न करने वाले। उनका अजीब सा संसार ...... तीज, त्यौहार, मेहमान, शिष्टाचार, अन्न, धान्य, सब्जी, भाजी की चिंता। तीर्थयात्रा, रीति रिवाज, सनातन धर्म के इर्द गिर्द घूमने वाले। पुराने फोन पे ही मोहित,  फोन नंबर की डायरी मेंटेन करने वाले, रोंग नंबर से भी बातें करने वाले, समाचार पत्र को दिन भर में २-३ बार पढ़ने वाले। हमेशा एकादशी याद रखने वाले, अमावस्या और पूर्णिमासी याद रखने वाले। भगवान पर प्रचंड विश्वास रखने वाले लोग, समाज का डर पालने वाले लोग, पुरानी चप्पल, बानियान, चश्मे वाले लोग। गर्मियों में अचार-पापड़ बनाने वाले लोग, घर का कूटा हुआ मसाला इस्तमाल करने वाले लोग और हमेशा देशी टमाटर, बैंगन, मेथी, साग सब्जी ढूँढने वाले लोग। नजर उतारने वाले, सब्जी वाले से १-२ रुपए के लिए झिक झिक करने वाले। क्या आप जानते हैं ये सभी लोग धीरे-धीरे हमारा साथ छोड़ कर जा रहे हैं? क्या घर में कोई ऐसा है? यदि हाँ, तो उनका बेहद ख्याल रखें, अन्यथा एक महत्वपूर्ण सीख उनके साथ ही चली जाएगी। वो है, संतोषी जीवन, सादगी पूर्ण जीवन, प्रेरणा देने वाला जीवन, मिलावट और बनावट रहित जीवन, धर्म सम्मत मार्ग पर चलने वाला जीवन और सबकी फिक्र करने वाला आत्मीय जीवन।

   दैनिक विश्वामित्र से

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

पैसे दे शिक्षा ले

विद्याधर शास्त्री वाराणसी में विख्यात पंडित थे। धर्म ग्रन्थों का ज्ञान और अनुशीलन दोनों उन्हे प्राप्त था। उनके शिष्य और विद्यार्थी जहां भी जाते उन्हे अपने गुरु और आचार्य की जितनी ही प्रशंसा प्राप्त होती। विद्याधर शास्त्री की ख्याति का कोई ओर छोर नहीं था। कहा जाता है कि उनके गुरुकुल में एक सहस्त्र विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे और अपने अपने क्षेत्र में  यश और धन दोनों उपार्जन कर रहे थे। विद्याधर शास्त्री को भी बिना मांगे इतनी गुरु दक्षिणा मिलती थी कि वे पूर्ण वैभव के साथ जीवन यापन करने में समर्थ थे।

काल की गति किसी के लिए नहीं ठहरती। विद्याधर शास्त्री का भी समय आ गया तब उन्होने भी खुद को चित्रगुप्त के समक्ष खड़ा पाया। बोले, “महाराज, मैंने तो इतना विद्यादान किया है कि उसके पुण्य के बखान से  आपका पूरा खाता भी अपर्याप्त होगा”।
चित्रगुप्त बोले, “आचार्य, आप नि:संदेह विद्वान हैं, परंतु एक बात आप भी समझ नहीं पाये। आपने अगर किसी एक भी ऐसे शिष्य को विद्या दी होती, जो कि आपकी गुरुदक्षिणा देने में असमर्थ था, तब मैं उसे दान समझता। आप ने विद्यादान कहाँ किया, आपने तो विद्या का विक्रय किया है”।

शिक्षा, जो एक सामाजिक कृत्य, समाज  सेवा और सामाजिक उत्तरदायित्व हुआ करता था एक व्यवसायिक कृत्य, व्यवसाय का जरिया और व्यवसायियों का उत्तरदायित्व हो गया है। शिक्षण संस्थायें, इन संस्थाओं में उपलब्ध पाँच सितारा सुविधाओं, शिक्षा के अलावा दी जाने वाली अन्य शिक्षाओं तथा वहाँ से निकले छात्रों को कहाँ कितना वेतन मिलता है इसकी चर्चा करती हैं। वहां क्या शिक्षा दी जाती है, कैसे शिक्षा दी जाती है, शिक्षकों का क्या स्तर है, वहाँ से निकले छात्र कैसे इंसान बने इसकी कोई जानकारी नहीं है।

कई दशकों पूर्व सिटी कॉलेज के आचार्य ने कहा, “शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज केवल उन्ही विद्यार्थियों को प्रवेश देती हैं जिन्हे माध्यमिक में प्रथम श्रेणी प्राप्त होता है। फिर वे छात्र स्नातक की परीक्षा में भी वैसा ही परिणाम देते हैं। हम तीसरी श्रेणी तथा कंपपार्टमेंटल से पास होने वाले विद्यार्थियों को लेते हैं, लेकिन स्नातक की परीक्षा में सब  पास होते हैं और उनमें से कइयों को  प्रथम श्रेणी भी प्राप्त होता है”।

पहले शिक्षा ले फिर पैसे दे, अब पैसे दे तब शिक्षा ले।
 

शुक्रवार, 7 सितंबर 2018

शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

संस्कार – कब?किसे?क्यों? कैसे?

संस्कारित करने  के लिए न पाठ पढ़ाना पड़ता है न ही पुस्तक और न ही स्कूल भेजना  पड़ता है। संस्कार तो अपने आप वातावरण में, समाज में, घर में उठते-बैठते जो देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं उनसे मिलते हैं और इनका प्रभाव भी चिरस्थाई होता है। बच्चों को संस्कारित करने के लिए जरूरी होता है कि हम खुद सजग रहें, संस्कार समझें। बच्चे हमारी बातों को बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं, समझते हैं और ग्रहण करते हैं।   

एक संत अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिए निकले। एक दरवाजे पर पहुँच कर उन्होने आवाज लगाई, भिक्षा दो माई। आवाज सुनकर एक छोटी बच्ची बाहर आई और संत से बोली, “बाबा, हम खुद गरीब हैं, आपको देने के लिए इस वक्त हमारे पास कुछ नहीं है”। संत ने बच्ची से कहा, “कोई बात नहीं बेटी, इंकार मत करो, अपने आँगन की धूल ही उठाकर इस भिक्षापात्र में डाल दो”। बच्ची ने एक चुटकी धूल उठाई और भिक्षा पात्र में डाल दी। संत के साथ खड़े उस शिष्य ने पूछा, “गुरुजी, आपने धूल डालने के लिए क्यों कहा, धूल भी कोई भिक्षा होती है क्या”? संत ने उत्तर दिया, “बेटा, अगर वह बच्ची आज साफ इंकार कर देती तब फिर भविष्य में भी कभी कुछ नहीं दे पाती। आज उसने धूल दी है तो क्या हुआ, उसके भीतर देने का संस्कार तो पड़ ही गया। आज धूल दी है, कल देने की  भावना जागेगी, समर्थ होगी तब फल-फूल भी जरूर देगी”।

- राजेन्द्र केडिया 

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

अटलजी की अनुभूतियां

अटलजी केवल राजनीतिज्ञ और भारत के प्रधान मंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सशक्त व्यक्तित्व एवं  कवि भी थे। कवि सम्मेलनों में उनकी धूम रहती और उन्होने कोलकाता में एकल कवि सम्मेलन भी  सफलता पूर्वक किया। राष्ट्रियता और चुनौती के अलावा अनुभूति के स्वर भी उनकी कलम से मुखरित हुए हैं। प्रस्तुत है उनकी दो अनुभूति की कविताओं की कुछ बानगी:

हरी हरी दूब पर
ओस की बूँदें
अभी थीं
अब नहीं है।
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
                        सूर्य एक सत्य है
                        जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
                        मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
                        यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
                        क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ?
                        कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
                                    सूर्य तो फिर भी उगेगा,
                                    धूप तो फिर भी खिलेगी,
                                    लेकिन मेरी बगिची की
                                    हरी हरी दूब पर,
                                    ओस की बूंद
                                    हर मौसम में नहीं मिलेगी।

                                                ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जो कल थे
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वो कल नहीं होंगे।
                        होने, न होने का क्रम
                        इसी तरह चलता रहेगा,
                        हम हैं, हम रहेंगे,
                        यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
                        होना या
                        न होना?
                        या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
                        मुझे लगता है कि
                        होना-न-होना एक ही सत्य के
                        दो आयाम हैं,
                        शेष सब समझ का फेर है,
                        बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,

यह प्रश्न अनुत्तरित है।