शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

पैसे दे शिक्षा ले

विद्याधर शास्त्री वाराणसी में विख्यात पंडित थे। धर्म ग्रन्थों का ज्ञान और अनुशीलन दोनों उन्हे प्राप्त था। उनके शिष्य और विद्यार्थी जहां भी जाते उन्हे अपने गुरु और आचार्य की जितनी ही प्रशंसा प्राप्त होती। विद्याधर शास्त्री की ख्याति का कोई ओर छोर नहीं था। कहा जाता है कि उनके गुरुकुल में एक सहस्त्र विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे और अपने अपने क्षेत्र में  यश और धन दोनों उपार्जन कर रहे थे। विद्याधर शास्त्री को भी बिना मांगे इतनी गुरु दक्षिणा मिलती थी कि वे पूर्ण वैभव के साथ जीवन यापन करने में समर्थ थे।

काल की गति किसी के लिए नहीं ठहरती। विद्याधर शास्त्री का भी समय आ गया तब उन्होने भी खुद को चित्रगुप्त के समक्ष खड़ा पाया। बोले, “महाराज, मैंने तो इतना विद्यादान किया है कि उसके पुण्य के बखान से  आपका पूरा खाता भी अपर्याप्त होगा”।
चित्रगुप्त बोले, “आचार्य, आप नि:संदेह विद्वान हैं, परंतु एक बात आप भी समझ नहीं पाये। आपने अगर किसी एक भी ऐसे शिष्य को विद्या दी होती, जो कि आपकी गुरुदक्षिणा देने में असमर्थ था, तब मैं उसे दान समझता। आप ने विद्यादान कहाँ किया, आपने तो विद्या का विक्रय किया है”।

शिक्षा, जो एक सामाजिक कृत्य, समाज  सेवा और सामाजिक उत्तरदायित्व हुआ करता था एक व्यवसायिक कृत्य, व्यवसाय का जरिया और व्यवसायियों का उत्तरदायित्व हो गया है। शिक्षण संस्थायें, इन संस्थाओं में उपलब्ध पाँच सितारा सुविधाओं, शिक्षा के अलावा दी जाने वाली अन्य शिक्षाओं तथा वहाँ से निकले छात्रों को कहाँ कितना वेतन मिलता है इसकी चर्चा करती हैं। वहां क्या शिक्षा दी जाती है, कैसे शिक्षा दी जाती है, शिक्षकों का क्या स्तर है, वहाँ से निकले छात्र कैसे इंसान बने इसकी कोई जानकारी नहीं है।

कई दशकों पूर्व सिटी कॉलेज के आचार्य ने कहा, “शहर के प्रतिष्ठित कॉलेज केवल उन्ही विद्यार्थियों को प्रवेश देती हैं जिन्हे माध्यमिक में प्रथम श्रेणी प्राप्त होता है। फिर वे छात्र स्नातक की परीक्षा में भी वैसा ही परिणाम देते हैं। हम तीसरी श्रेणी तथा कंपपार्टमेंटल से पास होने वाले विद्यार्थियों को लेते हैं, लेकिन स्नातक की परीक्षा में सब  पास होते हैं और उनमें से कइयों को  प्रथम श्रेणी भी प्राप्त होता है”।

पहले शिक्षा ले फिर पैसे दे, अब पैसे दे तब शिक्षा ले।
 

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