सोमवार, 30 मई 2016

आसाम के जंगल में

गैडों के शहरों में
काजीरंगा यानि गैंडों का शहर? गैंडों का शहर यानि काजीरंगा? हाँ यह सही है कि इन दोनों का आपस मे बड़ा तालमेल है, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ है यहाँ। काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान गैंडों की बस्ती के लिए विश्व प्रसिद्ध है। अगर गैंडे देखने हों तो काजीरंगा आइये। अगर काजीरंगा आए हैं तो गैंडे तो दिखाई पड़ेंगे ही। मुझे वन्य जीवन देखने का काफी शौक रहा है और कई वन्य प्रदेशों में घूम भी चुका हूँ। काजीरंगा का नाम बहुत बार सुना, वहाँ जाना की  इच्छा हर समय रही। लेकिन जाना कभी हुआ नहीं। अत: विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जब काजीरंगा जाने का मौका मिला तो सोचा, चलो चलते हैं। यहाँ आकर समझा कि काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान दो मायनों में दूसरे जंगलों  से भिन्न है और काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान के नागरिक केवल गैंडे नहीं है, और भी अन्य वन्य प्राणी यहाँ हैं।
माँ और बच्चा
काजीरंगा जाने का कार्यक्रम बनाया नहीं, बस बन गया। हुआ यूं कि एयर लाइंस, जैसा अक्सर होता है, सस्ती टिकटें दे रही थी। होली के समय, करीब ५ दिनों की लगातार छुट्टी थी। बेटी ने देखा गुवाहाटी की सस्ती टिकिट मिल रही है। आव देखा न ताव, न किसी से पूछा टिकिट खरीद ली। लौटने की सस्ती टिकिट नहीं मिली तो ट्रेन की ले ली। मेरे तो अब तक समझ में नहीं आ रहा है कि इस सस्ती टिकिट से पैसे बचे या लगे? खैर, अब, जब जाने आने की टिकटें हो गई तो कवायद शुरू हुई कहाँ जाया जाए। काफी उठा-पटक के बाद और समय सीमा को ध्यान में रखते हुए सुई आकर अटकी काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान पर। मेरे पास खबर आई तो मैंने सोचा कि इतने दिन काजीरंगा के लिए बहुत ज्यादा हैं। वहाँ इतने दिन निकालना मुश्किल होगा।  लेकिन किसी दूसरी जगह जाने के लिए समय कम है। तब काजीरंगा के साथ मैंने पोबीतोरा को भो जोड़ दिया।

प्रकृति का संगीत
अगर आप किसी भी जंगल में आज तक नहीं गए हैं तो सबसे पहला काम तो यह कीजिये कि आप अभी किसी जंगल में जाइए और कम से कम एक रात वहाँ रहिए – जानवर देखने नहीं बल्कि जंगल 
जंगल की शाम
देखने, जंगल छूने, जंगल सूंघने, जंगल सुनने और जंगल को महसूस करने। यह तभी संभव है जब आप वहाँ रात में रहें, एकदम शांत। जी हाँ, जब प्रकृति में उसके प्राकृतिक रूप और नीरव वातावरण में पहुँचते हैं तब प्रकृति दृष्टिगोचर होती है। उसकी मौजूदगी का अहसास होता है। उसकी सुंगंध नाशापुटों में भर जाती है। उसका संगीत कानों में पड़ता है। उसकी बातें सुनाई पड़ती हैं। किसी अदृश्य शक्ति की मौजूदिगी का अहसास होता है। गांवों, शहरों में कितनी ही गर्मी पड़े, जंगल ठंडे रहते हैं। पर्याविद फिजूल का हल्ला नहीं मचाते। उनकी “जंगल बचाओ” की कवायद समझ में आती है। जंगलों का सफाया होना, वैश्विक गर्माहट का एक प्रमुख कारण है। मार्च का अंतिम सप्ताह था। कोलकाता गरम हो चुका था। फिर भी काजीरंगा में पता लगा कर हिदायत के अनुसार गरम कपड़े लेकर भी गए, लेकिन ठंड अनुमान से ज्यादा थी। हाँ दोपहर में धूप तेज थी।
प्रकृति 
गुवाहाटी से काजीरंगा
इस प्रदेश में टैक्सियों और होटलों पर भरोसा कम है। सरकारी टुरिस्ट होटल / लॉज का भी कोई ठिकाना नहीं कि कैसा होगा। अत: पूरी यात्रा हमने टूर ऑपरेटर के जिम्मे करदी थी, जिसमें घूमना, रहना, जीप और हाथी की सफारी तथा गुवाहाटी एयर पोर्ट से गुवाहाटी रेलवे स्टेशन तक की गाड़ी शामिल थी। गुवाहटी से काजीरंगा तक का २५० कि.मी. का सफर उबाऊ है। साथ में अच्छे साथी हों तब बात अलग है। हमारे साथ अच्छे साथी थे, अत: गाते बजाते पहुँच गए। सही माने में काजीरंगा के लिए गुवाहाटी के बदले तेजपुर सही एयरपोर्ट है। रास्ते में डाउन टाउन होलिडी रिज़ॉर्ट में दोपहर का भोजन किए। जगह बड़ी, साफ सुथरी और खुली हुई है। भोजन का समय समाप्त हो चुका था। 
डाउन टाउन होलिडे रिज़ॉर्ट
अत: भोजनालय में हमारा एकक्षत्र शासन था लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं था। हम ८-९ लोगों को देखकर रोटी, चावल, दाल, सब्जी उसने आनन फानन में तैयार कर दी थी, जो कि बहुत स्वादिष्ट थी।

काजीरंगा
शाम तक हम अपने गंतव्य स्थल कोहोरा पहुँच गए। हमें “जोनाकी करेंग” में ठहरना था। इसे रिज़ॉर्ट का नाम दिया गया है शायद इसलिए क्योंकि इसके आगे पीछे बगीचा और मैदान है। रिज़ॉर्ट के सामने ही एक खेल का मैदान है और मैदान के चारों तरफ केवल होटल ही होटल, एक प्रकार का होटलों का कॉम्प्लेक्स जैसा है। जंगल में जाने के लिए जीप सफारी भी यहीं से मिलती है। शाम को इसी कॉम्प्लेक्स के नजदीक, पर्यटकों के मनोरंजन के लिए आसाम के लोक नृत्य  का आयोजन किया जाता है। व्यवस्था निम्न स्तर की थी। मंच, साउंड, लाइट, दर्शक दीर्घा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण प्रदर्शन अच्छा होने के बावजूद अपनी छाप नहीं छोड़ सका।

मैंने कहा था कि काजीरंगा दो मायनों में दूसरे जंगलों से एकदम अलग है। पहला, काजीरंगा में घूमते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता कि हम जंगल में घूम रहे है। इसका बड़ा भाग सपाट मैदानी इलाका है। नदी, तालाब पोखर हैं। ऊंची ऊंची घास भी है। जिसे समय समय पर, अलग अलग हिस्सों में जलाया जाता है। पर्यावरण एवं जानवरों के दृष्टिकोण से आवश्यक है। लेकिन सघन पेड़ नहीं हैं जो जंगल का आभास कराते हैं। दूसरा, अन्य जंगलों में हो सकता है कि कुछ भी न दिखे यानि  हिरण, जंगली भैंस, जंगली सूअर आदि के अलावा। लेकिन यहाँ गैंडा और हाथी निश्चित रूप से दिखेंगे। हो सकता है नजदीक में न दिखेँ, लेकिन ज्यादा दूर से भी नहीं।
हमें देख भागा

पूरा उद्यान तीन हिस्सों में बांटा हुआ है, पूर्व, मध्य और पश्चिम। ये सब तीनों प्राय: एक ही प्रकार के हैं। लेकिन लोग बातें करते रहते हैं कि कहाँ क्या दिखा और कौन सा भाग किससे बेहतर है। हमारे पास समय था अत: हमने तीनों भागों में जीप सफारी की इसके अलावा हाथी पर भी गए।  हाथी गैंडों के बहुत पास तक चले जाते हैं। अत: गैंडे बहुत नजदीक से देख सके।  हाथी पर अगर घोड़े की तरह दोनों तरफ पैर लटका कर बैठना हो तो मुसीबत है। घोड़े तो पतले होते हैं, लेकिन हाथी? थोड़ी ही देर में फैले हुवे पैरों के कारण जांघों में दर्द होने लगा। एक घंटे का सफर जो पहले बहुत कम का लग रहा था अब वही सफर बहुत लंबा लगाने लगा।

हमने यहाँ देखा कि औसतन लगभग २५०० कि.ग्रा. के गैंडे में गज़ब की फुर्ती है। अपने पतले पतले पैरों में तीन अँगूठों की सहायता से ३०-४० कि.मी. प्रति घंटे कि रफ्तार से दौड़ लेता है। लेकिन अपने इन तीन अँगूठों और नाक पर बने सींग के कारण मारा भी जाता है। सींग में औषधीय गुण तथा अलौकिक शक्ति का मिथ्या विश्वास होने के कारण तथा पैरों में तीन अँगूठों के कारण सजाने की वस्तु बन गई। पता नहीं आदमी कब इंसान बनेगा?

जानवरों के अलावा काजीरंगा में पक्षी भी बहुत प्रकार के और विविध रंगों के देखने मिलते हैं। इनके रंगों की छटा एक साथ दिख जाए तो वसंत का भ्रम होने लगेगा। अपनी नज़र जल्दी से इन्हें नहीं खोज पातीं, लेकिन जीप चालक तुरंत खोज लेता है, उनकी आवाज पहचान लेता है। जंगल के सफर में शांत रहना आवश्यक है। जीप / इंसान को देख जानवर भाग जाते हैं। जानवरों को इंसान अच्छे नहीं लगते और उन्हे इन्सानों पर भरोसा तो एकदम नहीं है।

यहाँ ठहरने के लिए जगहों की कमी नहीं हैं। सरकारी एवं निजी होटल बहुत हैं। प्राय: रेस्तरां नहीं है रसोईघर हैं। पहले से कह दिये तो दाल, रोटी, चावल सब्जी आदि मिल गई। कई एक अच्छी जगहें भी हैं, जैसे इओरा (IORA)। खाना अच्छा है और स्तर के मुताबिक मंहगा भी नहीं। बाजार में फल  ढूंढते रहे लेकिन नहीं मिला। पावरोटी तो हर जगह मिली लेकिन मक्खन बड़ी मुश्किल से मिला। 
  
पोबीतोरा
काजीरंगा से निकल कर गैंडों के दूसरे शहर पोबीतोरा पहुंचे। यह भी गैंडों की ही नगरी है। गुवाहाटी से महज ५० कि.मी. पर ही है। यहाँ गैंडों की आबादी का घनत्व विश्व में सबसे ज्यादा है, काजीरंगा से भी ज्यादा। लेकिन समुचित सुविधाओं के अभाव एवं अन्य वन्य जीवन न होने के कारण पर्यटक कम आते हैं। रहने खाने के लिए एक अच्छी जगह है, जिजिना रिज़ॉर्ट, लेकिन अपने स्तर से बहुत महंगी। एक और रिज़ॉर्ट है आर्य ईको रिज़ॉर्ट। पोबीतोरा में भी हमलोगों ने जीप और हाथी की सफारी की। लेकिन काजीरंगा से आने के बाद पोबितोरा में केवल समय बिताना सा ही रहा। एक साथ ये दोनों जगह जाने का औचित्य नहीं है।

ठंडी सुबह, गरम दोपहर और सुहावनी शाम के अनुभव के साथ हम वापस लौटे। यात्रा लंबी रही लेकिन पहली बार जंगल में वह सब दिखा जो हम सोच कर गए थे। वह भी दिखा जो हम सोच कर नहीं गए थे, विशेष कर पक्षी। बस, गैंडे इतने देख लिए कि अब और गैंडों को देखने की इच्छा नहीं रही।

सफारी के लिए तैयार हाथी




हाथी की सफारी 

रविवार, 8 मई 2016

राजस्थान दिवस

हम घर के बाहर भी राजस्थानी हैं


मंच पर उपस्थित हमारे विशिष्ट अतिथि श्री सुदर्शन कुमारजी बिरला, हमारे आज के विशिष्ट अतिथि गण, राजस्थान पत्रिका और राजस्थानी प्रचारिणी सभा के अधिकारी एवं कार्यकर्ता, सभा में  उपस्थित अन्य गणमान्य एवं अतिथि जन को राजस्थान दिवस पर बहुत बहुत बधाई। हम पिछले तीन सालों से राजस्थान दिवस मना रहे हैं, यह चौथा साल है। पहले दो वर्षों में हमने आपका ध्यान इस बात की तरफ आकर्षित किया था कि हमें कम से कम अपने घरों में, आपस में, बच्चों से, औरतों से मारवाड़ी में बातें करनी चाहिए। पिछले वर्ष मैंने यह बात आगे बढ़ाई। मैंने कहा कि हमें कम से कम की बात नहीं करनी चाहिए। लक्ष्य छोटा नहीं बड़ा होना चाहिए। यदि कोई  बच्चे से पूछे कि क्यों बेटे परीक्षा में पास तो हो जाओगे न? बच्चे का इतिहास समझ में आ जाता है। तो लक्ष्य पास होने का नहीं प्रथम आने का होना चाहिए। और दूसरी बात मारवाड़ी हम केवल घर में और आपसी संबंधियों से ही नहीं हर मारवाड़ी से घर में हो या बाजार में, दुकान में हो या गद्दी में, कारखाने में हो या गोदाम में, शहर में, देश में, विदेश में, चीन में या जापान में, रूस में या अमरीका में, इंगलैंड में या जर्मनी में जहां भी मिलेंगे मारवाड़ी में ही बात करेंगे।

माइक पर महेश लोधा, मंच पर  सर्वश्री संदीप गर्ग, राजीव हर्ष, सूर्य प्रकाश बगला, प्रहलाद गोएनका, रतन शाह, सुदर्शन बिरला, काशी प्रसाद खेरिया, नंदलाल रुंगटा, रवि पोद्दार, रतन अगरवाल  

इस संबंध में मैं आप को अपनी एक आपबीती सुना रहा हूँ।  अभी पिछले वर्ष नवम्बर २०१५ में हम आस्ट्रेलिया घूमने गए थे। मार्केटिंग के लिए कई चीजें साथ ले गए थे। कई जगहों पर  बातें हुई। माल भी दिखाए। लेकिन कहीं भी मन लायक काम नहीं हुआ। एक दिन, एक स्टोर में घुस गए। चारों तरफ नजर घूमाने के बाद मैं अपनी पत्नी से मारवाड़ी में बोला, “ म न लाग ह अठे काम कोणी होवगो”। (मुझे लगता है यहाँ काम नहीं होगा)। यह सुनते ही वहाँ बैठी एक औरत तुरंत खड़ी हो गई और बोली,”क्या आप मारवाड़ी हैं?” मेरा पूरा काम वहाँ मेरे मन लायक बहुत अच्छे तरीके से हो गया। इसे कहते हैं मातृ भाषा, और यह है मातृ भाषा की ताकत। मातृ भाषा हमारी पहचान है। यह तुरंत संबंध बनाती है, अपनत्व पैदा करती है, विश्वास जगाती है। हमें अपनी मातृ भाषा पर गर्व होना चाहिए।

भाषा केवल बातचीत के शब्द नहीं हैं। भाषा, साहित्य और संस्कृति समाज की पहचान होती है। साहित्य हमारे समाज का मापदंड है, बैरोमीटर है। हमारी भाषा, हमारा साहित्य, हमारी संस्कृति जितनी समृद्ध होगी हमारा समाज उतना ही उन्नत समझा जाएगा। अपनी भाषा ककी उन्नति हमारे हाथों में है। हम केवल मारवाड़ी में बात करके और मारवाड़ी में बात करने के किए कह कर यह मान लेते हैं कि हमारे उत्तरदायित्व का निर्वाह हो गया? भाई वाह! क्या केवल इतना भर कर लेने से हमारी भाषा का उत्थान हो जाएगा?

करने के लिए तो बहुत कुछ है, लेकिन जो और जितना हमसे हो सकता है उतना तो करें? तो आइये इस साल हम दो शपथ लेते हैं। पहला – राजस्थानी में दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक अनेक पत्र एवं पत्रिकाएँ प्रकाशित होती हैं। तो हम तीन पत्रिका, कम से कम एक पत्रिका, जरूर से मँगवाएँ। इस से हमें, अपने घर वालों को, संबंधियों को और आने वाले मेहमानों को इसके बारे में पता चलेगा, और इसके साथ साथ राजस्थानी साहित्य के सृजन को भी प्रोत्साहन मिलेगा। और दूसरा – यहाँ उपस्थित प्रत्येक परिवार रोज भाषा के लिए कुछ करने का अभ्यास करें। यह अभ्यास करने के लिए प्रत्येक परिवार अपने घर के ड्राइंग रूम में एक “भाषा कलश” स्थापित करे। कठिन लग रहा है ना। इसी बात को दूसरी तरह से कहते हैं, कलश नहीं गुल्लक रखेँ। यह तो आसान है। गुल्लक न कह कर “भाषा कलश” कहें, तो एक अच्छे उद्देश्य का अनुभव होता है। इस कलश में रोज कुछ न कुछ रुपये अवश्य डालें, कम से कम १० रुपये और इसका उपयोग मातृ भाषा के प्रचार-प्रसार-सृजन-संरक्षण के लिए करें। मैं आप को बता दूँ कि हमसे प्रेरणा लेकर समाज के कई लोगों ने ऐसे भाषा कलश स्थापित किए हैं और उनका सहयोग हमें निरंतर मिल रहा है।

मुझे विश्वास है कि आप प्रबुद्ध राजस्थानी नागरिकों का हमें पूर्ण सहयोग मिलता रहेगा जिससे हम राजस्थानी भाषा के प्रचार, प्रसार, सृजन और संवर्धन का कार्य कुशलता पूर्वक करते रहें। 

राजस्थान दिवस -२०१६ समारोह में मेरा वक्तव्य
(यह वक्तव्य मारवाड़ी में दिया गया था)