शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

गाँव के मेले

(क्या आपको कभी गाँव-कस्बे में रहने का अवसर मिला है? त्यौहारों और पूजा पर लगने वाले मेलों को नजदीक से देखा है? उसे महसूस किया है? मनोज कुमार झा ने इसे देखा भी और महसूस भी किया। महसूस हुआ तो लिखा और ऐसा लिखा कि लगता है मेले में ही घूम रहे हैं, उससे रूबरू हो रहे हैं। कई गांवों में आज भी लगते हैं, लेकिन वे अब वैसे नहीं रहे जैसे हुआ करते थे। ऐसे ही मेलों में मानुष-रूपों की एक झांकी।)

कभी दुर्गा पूजा, कभी कृष्ण पूजा तो कभी इंद्र पूजा के अवसरों पर पहले गांवों में नियमित रूप से मेले लगा करते थे। मगर इन  पूजाओं में पूजे जाने वाले देवता थोड़ा पीछे खिसक जाते और जो लोग मेले में घूमने आते, वे थोड़ा आगे आ जाते। जो मेले में घूमने आते थे, वे पाँच मिनट मूर्ति के साथ रहते, बाकी समय सखा-सहेली के साथ। बस्ताव में मेले में वे भी आते जो आस्तिक नहीं थे।

 

सबसे खास होता था मेलों में विवाहित स्त्रियों का अपने रिश्तेदारों से मिलना। यह मोबाइल आने से पहले की बात है। तब विवाह नजदीक में ही होता लेकिन गांवों में घूमना-फिरना कम ही हो पाता था, अत: विवाह का अर्थ जड़ों से उखड़ जाना होता था। जब नैहर से कोई मिलने आता तो  वे खूब रोती। फिर छोटी-छोटी बातें पूछती। जैसे कि आँगन के बाएँ कोने में जो चूल्हा था वह वहीं है या उखड़ गया, माँ किस रंग की साड़ी ज्यादा पहनती है, अमरूद इस बार कितना फला....।

 

मेले का तो साल भर इंतजार रहता। उस दिन उन्हें माँ, चाची, बहन सब मिलती। मिलते ही गले लगकर बड़ी देर तक रोती। कितने पूराने किस्से निकलते। फिर ठहाके भी उठते। छोटी-छोटी बातें  होती जैसे, कैसे अंधड़ में आम चुगने गई थीं, जिसमें बेली भी साथ थी। ये सहेलियों को अपने ही दिये नामों से पुकारती थी। मेले में ये सहेलियाँ भी मिलती। तीन-चार कोस पर मेला लगता था। आसपास जो कोई रहती, आती। इनकी बातें छोटी-छोटी होती, लेकिन उसमें शक्कर की मिठास होती। ये छोटी-छोटी बातें मर्द लोग नहीं करते। छोटी बात को मर्द लोग मौगियाही बातें कहते, जनाना बातें। माउगी अर्थात स्त्री। इन बातों का उनके लिए कोई महत्व नहीं था कि पिछले मेले में लाल काकी ने जो पीतल का लोटा लिया था, उसे अपने पास रखा या बेटी को दे दिया। इन स्त्रियों के स्टार वही माँ, बहन, भाई आदि थे, जिनके बारे में ये सबकुछ जान लेना चाहतीं। मर्दों के स्टार रेडियो-टीवी आदि से निकलते।

 

महिलाओं के ढेरों छोटे-छोटे झुंड मेले में होते। तीन-चार घंटे ये बैठी रहती। खूब रोती-हँसती। मिठाइयाँ लेती-देती। मेला देखती। जब ये विदा होती तो थोड़ी उदास हो जाती और अपनी विदाई के बारे में सोचने लग जाती,आँखों में आँसू तक आ जाते।

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शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

जीवन को मिली एक सीख

(हमारी जिंदगी को तराशने में हमारे समाज, परिवार, वातावरण की अहम भूमिका होती है। यह परिवेश किसी को मंदिरका देवता बना देता है, किसी को नींव का पत्थर तो किसी को राह में ठोकर खाने वाला रोड़ा। लेखिका मेहरुन्निसा परवेज़ के एक संस्मरण का कुछ अंश जो लगभग चार दशक पहले लिखा गया था।)

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लेखिका बताती हैं कि वे एक सम्पन्न परिवार से थीं लेकिन स्कूल में उनकी दोस्ती एक साधारण परिवार की लड़की गंगा से हो गई थी। गंगा जशपुर जेल में, सिपाहियों की नजर बचा कर पेड़ से कूद कर घुस जाती और ढेर सारे नसपाती चुरा कर जमा कर लेती और लेखिका उसका स्लेट पकड़े निगरानी करतीं।

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वह मेरे लिये अपने घर से रोटी लाती थी। हम दोनों टिफिन बदल कर खाते थे। मुझे अपने घर के गेंहू के पराठे पसंद नहीं आते थे और उसकी ज्वार की रोटी और चटनी मुझे बहुत अच्छी लगती थी। ज्वार की रोटी की वह सोंधी सुगंध मुझे बहुत भली लगती थी। ...

 

...  वह लड़की (गंगा) काफी फक्कड़ तबीयत की थी। उसने ही मुझे बाजार जाना सिखाया। अकसर हम दोनों वहाँ लगने वाले छोटे-से हाट पर चली जातीं और लाई-चना, अमरूद, बेर, इमली खरीद कर चोरी से खाया करते थे। मैं उसके साथ ये सारे काम बहुत चोरी से करती थी, हाट भी जाती तो बड़ी सड़क को छोड़कर छोटी-छोटी गलियों से लुकते-छिपते जाते थे।

 

एक दिन हमलोग स्कूल के बाद सीधे हाट चले गये और वहाँ हम दोनों लाई-चना खरीद रहे थे। मेरी और उसकी दोनों की फ्रॉक की ओली में लाई चना था तथा  बस्ता पीछे बंधा था। हम दोनों लाई-चना मुट्ठी-मुट्ठी उठा कर फाँकने लगे। आखिर घर भी तो जल्दी जाना था। शाम हो चली थी। तभी उधर से एक मोटी सी औरत सर पर सब्जी का टोकरा लिये आई और बोरा बिछाकर अपनी दुकान लगाने लगी कि तभी उसकी नजर गंगा पर पड़ी और वहीं से ज़ोर से चिल्लाई, अरी गंगा, तेरा बाप तेरी माँ को कूटे डाल रहा है। कमरा बंद कर लिया है। जा, जल्दी घर जा नहीं तो तेरी माँ को तेरा बाप मार ही डालेगा

 

सुनते ही गंगा का चेहरा फक पड़ गया। मुट्ठी में भरा लाई चना गिर गया, ओली सीधी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर गये और वह घर की ओर बेहताशा भागने लगी। मैंने भी सारा लाई-चना फेंक दिया और उसके पीछे भागने लगी। मैं भूल गयी थी कि मेरा घर दूसरा है और अब शाम हो गयी है। मुझे घर जाना चाहिये। मैं उसके पीछे सरपट भाग रही थी, जैसे कोई मेरी माँ को कूटे डाल रहा हो। गंगा माँ माँ चिल्ला रही थी और रो रही थी। उसका घर एक छोटी सी गली में नाले के किनारे था। खोली बंद थी और भीतर से किसी औरत की रोने-चीखने की आवाज ज़ोर-ज़ोर से आ रही थी। आसपास मुहल्ले के कुछ लोग खड़े थे।

 

गंगा दरवाजा पीट रही थी, बापू, दरवाजा खोल, माँ को मत मार, बापू दरवाजा खोल। गंगा के साथ मैं भी दरवाजा पीटने लगी थी और वही शब्द दोहराने  लगी थी, साथ हो रोते भी जा रही   थी।  मैं भूल गयी थी कि गंगा का घर पराया है। मैं उसके दुख में इस तरह खो गयी थी कि अपना अस्तित्व भी भूल गयी थी।

 

मेरी नन्ही सी जान हैरान थी कि ऐसा धक्का, ऐसा दुख गंगा को कैसे मिला? हादसा उसके घर हुआ था, दुख उस पर पड़ा था, पर उसकी नंगी चोट का एहसास मेरे मन पर सीधा पड़ रहा था। तब भी और आज भी मैं हैरान हूँ कि ऐसा क्यों हुआ था? उसके वातावरण और मेरे वातावरण में जमीन आसमान का अंतर था। अमीरी और गरीबी का यह भेद अचानक एक क्षण में समाप्त कैसे हो गया था? बस दु:ख था, जिसकी आँच हम दोनों को बराबर लग रही थी। उस दिन मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ी हो गई थी। मैं दूसरे के दर्द की चुभन महसूस कर रही थी। गंगा मेरी पहली पात्र थी, जिसके दर्द में मैंने अपना दर्द देखा और मेरे नन्हें-से मन में अनजाने में एक लेखिका ने जन्म लिया। गंगा के रूप में मेरी पहली कहानी, जो आगे आगे दौड़ रही थी, और मैं उसकी सारी चुभन को अपने भीतर समेटे कहानीकार के रूप में उसके पीछे दौड़ती, उसकी गंदी गली में गयी थी। यह मेरे लेखक मन की  पहली पहचान थी, पहला एहसास था जो मुझे कभी नहीं भूलता। ...

 

गंगा का मेरा साथ कुछ महीनों का था। हमारा ट्रांसफर हुआ और हम दूसरे शहर में चले गये। पर गंगा को, जेल की दीवार को, नसपाती को, उसके घर ज्वार की सोंधी महक से भरी उस रोटी को मैं भूल नहीं पायी।... 

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(एक लंबे अरसे के बाद लेखिका की मुलाक़ात गंगा से हुई, ट्रेन में। दो महिला पुलिस एक अपराधी औरत को लिये जा रही थी। यह अपराधी औरत गंगा थी।)

...उसने आँखें खिड़की से बाहर कर ली, उसकी साँवली मोटी आँखों में आँसू भर गये थे। थोड़ी देर बाद वह फिर से मेरी तरफ देखने लगी थी, मैं गंगा हूँ, पर एकदम अपिवत्र। गंगा इतने वर्षों के बाद मुझे इस हाल में मिलेगी, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। ... मेरा मन इतना कड़वा सत्य देखने को तैयार नहीं था।

 

जब मेरा स्टेशन आनेवाला था, तो उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये, मुझे पता है कि अब हम कभी नहीं मिलेंगे। मुझे १४ साल की सजा तो होगी ही, पर मैं आज जो हूँ, जहाँ हूँ, उसके जिम्मेदार लोग कौन हैं? क्या मेरे माँ-बाप नहीं? मेरी माँ ने मुझे इतनी नन्ही-सी उम्र में मुझे अपने दु:ख का भागीदार क्यों बनाया? मुझे हकीकत का सामना क्यों कराया? उन्हें मेरा बचपन छीनने का क्या हक था? मेरे कच्चे मन पर हथौड़ों से दु:खों की मार क्यों दी? माँ ने अपने दु:खों का गवाह मुझे ही क्यों बनाया? और आज दु:खों का सामना करते-करते मैं खुद एक अपराधीन बन गई हूँ

 

स्टेशन आया, मैं उतर गयी। वह खिड़की के पास बैठी थी। सलाखों के पार उसकी आँखें रो रही थीं और मेरी भी आँखें भरी हुई थीं। मन डूबा हुआ था गंगा के दर्द में। गंगा के दर्द को मैं फिर सह रही थी, एक ही दर्द को हम दोनों फिर से झेल रहे थे। यह मेरे कहानीकार मन पर दूसरी चोट थी। उस दिन मैंने जाना कि लेखक और पात्र का रिश्ता कितना गहरा होता है।

(कवि ने कुछ अनुभव पर ही ये पंक्तियाँ लिखी होगी

                        वियोगी होगा पहला कवि, आह! से उपजा होगा गान,

                                                उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।)

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शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

कल भी, आज भी..... कल भी!

 मानव न बदला है और न बदलता नजर आ रहा है। जैसा कल था, वैसा आज भी है, क्या कल भी ऐसा ऐसा ही रहेगा? अर्द्ध शताब्दी पूर्व श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर का यह लेख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। हमने भले ही वैज्ञानिक प्रगति की हो, भौतिक संसाधन जुटा लिए हों लेकिन क्या हमने कल की भूलों से सीख कर अपने आज को सही किया? 

 


मैंने (चाचाजी * ने) एक कविता लिखी थी। पैदा तो भारत वर्ष में हुआ हूँ परंतु जब पैदा हुआ था राज्य अंग्रेजों का था। इसलिये अँग्रेजी हर समय अंदर उछल-पुछल करती रहती है और छलाँगे लगती रहती है। कविता भले ही अँग्रेजी में है परंतु बात सच्ची - सबके लिये है:

          As a rule man is a fool

                    When it is hot, he wants it cool

                             When it is cool, he wants it hot

                                       He wants a thing which is not.

कॉफी हाउस में जाता है तो पहले आइस क्रीम और फिर हॉट-कॉफी माँगता है। कभी हॉट-डॉग्स माँगता है तो कभी कोल्ड-कैट्स। हवाई जहाज में जाता है तो एयर-कंडिशन चाहिए और साथ में हॉट-कॉफी।

 

एक दफा की बात है कि एक बड़ी दावत (banquet)  बुलाई गई। बड़े शान की दावत होती है। उसको कैसे बयान किया जाए? रंग-बिरंगे, मीठे-नमकीन, खुश्क-चमकीले, ठंडे-गरम, एक के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे व्यंजनों का तांता ही लग जाता है। मेज की शान, सफेद दस्तरख्वान, फूलों के गुलदस्ते, बेयरों की चहल-पहल, कोई आ रहा है, कोई जा रहा है। प्लेटों की खटपट, चम्मच-छूरी  की छनछनाहट, रोशनी जो सूरज को भी मात कर दे। डिनर-सूटों में बड़े-बड़े सरकारी ऑफिसर और नौसेना, वायुसेना, थलसेना के बड़े-बड़े ऑफिसर तमगों से लदे हुए। कुछ विदेशी दूत और बीच में चार-पाँच तिकोनी टोपी (गांधी टोपी) वाले, कोई धोती चप्पल में और कोई पाजामे-खेड़ी में। इस बीच में, मुझे याद नहीं मैं कैसे फंस गया।

 

मेज पर तो हल्ला नहीं कर सकता शोर काफी मचा हुआ था। सब अपनी – अपनी बातों में मस्त थे। मेरे दाहिने हाथ पर कोई पुलिस ऑफिसर था। वह अपने साथी के साथ बातों में मस्त था। मेरे बाएँ हाथ एक शानदार फौजी ऑफिसर बैठा था। जो जनरल नहीं तो करनल जरूर रहा होगा। वह किसी से बात नहीं कर रहा था, शांत बैठा था। मेज पर चारों ओर से आवाजें आ रही थीं। यह गरम लाओ’, यह ठंडा लाओयह ठंडा लाओ’, यह गरम लाओ। यह ऑफिसर बहुत देर तक तो चुप बैठा रहा – शांत रहा - परंतु धीरज की भी एक हद होती है। मुझ से कहने लगा, - ये सब लोग इतने बड़े-बड़े ऑफिसर हैं  और अपने आप को पढ़ा-लिखा कहते हैं। मतलब तो उसका था कि वे बेवकूफ हैं परंतु शिष्ट भाषा में कहने लगा कि उनको इतना भी ज्ञान नहीं है कि मनुष्य का शरीर तो भगवान ने संतोषी बनाया है। इसके अंदर गरम डालो तो ठंडा हो जाता है, ठंडा डालो तो गरम हो जाता है। तो फिर यह ठंडे-गरम की बाहरी बक-बक क्या है? यदि, जैसा मिले संतोष से खा लिया जाए तो शरीर की मशीनरी को झटकों से बचाया जा सकता है।  

 

यह किस्सा उस जमाने का है जब भारत में दुर्भिक्ष पड़ा हुआ था, कहने के लिए अनाज नहीं था, दूसरे  मुल्कों से भीख मांगी जा रही थी और लाखों करोड़ों को एक समय भी खाना नहीं मिलता था। जीवन-स्तर (लिविंग स्टैंडर्ड) की बात ही क्या थी। और दूसरे तरफ ठंडे-गरम के नखरे और नजाकत किए जा रहे थे।

 

*श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर को सब चाचाजी कहते थे

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शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

एक लतीफा, कितना सच्चा कितना झूठा?

 (क्या यह लतीफा है? क्या यह आज की सच्चाई है? क्या यह झूठ  का पुलिंदा है? क्या  है यह? पाठक ही विचार करें! पाठक ही बताएं। लिखा है नारायण दत्त ने। बस पात्र और स्थान बदलते चलिये और... दूध का दूध, पानी का पानी।)

किस्सा एक बूढ़े रूसी किसान का है। सभी रूसी किसानों की तरह उसका भी जीवन कठिनाइयों से भरा था। वर्षों तक वह और उसकी बीवी अपने दो बेटों के साथ एक कोठरी में रहते थे। फिर एक बेटा फौज में चला गया और मोर्चे पर मारा गया। दूसरे बेटे ने दूर के किसी शहर में नौकरी कर ली। कुछ वक्त बाद जब उसकी बीवी भी चल बसी तो ग्राम-सोवियत ने वह कोठरी छीन कर एक नवदंपत्ती को दे दी और एक पड़ोसी के कमरे के कोने में परदा लगवा कर उसके रहने की व्यवस्था कर दी। सत्तर साल की जिंदगी में पहली बार किसान के दिल में विद्रोह की चिंगारी सुलगी।

 

साल में दो बार मई-दिवस और क्रांति की वर्ष गांठ पर गाँव की सड़क, झंडियों और प्ले कार्डों से सज उठती थी, जिन पर लिखा होता था – लेनिन जिंदा थे, जिंदा है और सदा जिंदा रहेंगे। इस बार ये शब्द पढ़ कर बूढ़े किसान के मन में आया कि क्यों न मास्को जाकर सर्वशक्तिमान लेनिन से ही कमरा वापस दिलवाने की प्रार्थना करूँ। वैसे जीवन भर वह कभी अपने गाँव से चंद मील से ज्यादा दूर नहीं गया था, मगर उसने कुछ मांग कर, कुछ उधर लेकर किराया जुटाया और रेल पर चढ़ कर मास्को जा पहुंचा। मास्को में भी पूछताछ करता हुआ, कम्यूनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के एक बड़े पदाधिकारी के सामने हाजिर हो गया। उसे  सारा किस्सा सुनाकर बोला कि मुझे लेनिन साहब से मिलवा दीजिये, ताकि मैं उनसे कह सकूँ कि वे खुद मेरा कमरा मुझे वापस दिलवाएँ।

 


अधिकारी हक्का-बक्का रह गया। फिर अपना आश्चर्य छिपा कर उसने किसान को बताया कि लेनिन तो कभी के मर चुके हैं। अब हक्का-बक्का होने की बारी किसान की थी। अफसर ने समझाया कि लेनिन का शव लाल चौक  पर उनके मकबरे में  रखा हुआ है। लेकिन किसान अड़ा रहा, मगर झंडे पर साफ लिखा है कि लेनिन जिंदा थे, जिंदा है और सदा जिंदा रहेंगे। अधिकारी ने बड़े सब्र से उसे समझाना शुरू किया कि इसका अर्थ सिर्फ यह है कि लेनिन की प्रेरणा जिंदा है, और वह हमारा मार्ग दर्शन कर रही है। अधिकरी काफी भावावेग के साथ बोलता रहा। जब वह बोल चुका तो किसान चुपचाप उठ कर चल दिया। दरवाजे पर पहुँच कर वह पलटा और वहीं से चिल्ला कर अधिकारी को बोला,अब मैं  समझ गया साहब, जब आपको जरूरत पड़ती है, लेनिन जिंदा हो उठते हैं, लेकिन जब मुझे जरूरत होती है, लेनिन मर जाते हैं”।

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शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

सूतांजली, जुलाई 2021

 सूतांजली के जुलाई अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की सातवीं किश्त है।

१। ऋषि, ऋषिभाव, ऋषित्व – मैंने पढ़ा

कौन है ऋषि और कैसे उसे ऋषिभाव एवं ऋषितव की प्राप्ति होती है? गीताप्रेस, गोरखपुर की पुस्तक पर आधारित है यह लेख।

२। पैसों के मालिक नहीं, रखवाले – मेरे विचार

क्या अधिकार, दायित्व और कर्तव्य है पूँजीपतियों के? क्या कहा गाँधी ने और कैसे उसे आचरण में ढाला जमुनालाल बजाज, जे आर डी टाटा, नारायण – सुधा मूर्ति, प्रेम अजीम जी ने!

३। सामाजिक कार्यकर्त्ता  - मैंने पढ़ा

श्री प्रमोद शाह अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच के संस्थापक अध्यक्ष रह चुके हैं। उन्हीं के अनुभव उन्हीं की कलम से।

४। लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

श्री अरविंद सोसाइटी से प्रकाशित पत्रिका अग्निशिखा में प्रकाशित कहानी पर आधारित।

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की सातवीं किश्त

पढ़ने के लिए ब्लॉग का संपर्क सूत्र (लिंक) (ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है): ->

https://sootanjali.blogspot.com/2021/07/blog-post.html