मानव न बदला है और न बदलता नजर आ रहा है। जैसा कल था, वैसा आज भी है, क्या कल भी ऐसा ऐसा ही रहेगा? अर्द्ध शताब्दी पूर्व श्री सुरेन्द्र नाथ जौहर का यह लेख आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितना उस समय था। हमने भले ही वैज्ञानिक प्रगति की हो, भौतिक संसाधन जुटा लिए हों लेकिन क्या हमने कल की भूलों से सीख कर अपने आज को सही किया?
मैंने (चाचाजी
* ने) एक कविता लिखी थी। पैदा तो भारत वर्ष में हुआ हूँ परंतु जब पैदा हुआ था
राज्य अंग्रेजों का था। इसलिये अँग्रेजी हर समय अंदर उछल-पुछल करती रहती है और
छलाँगे लगती रहती है। कविता भले ही अँग्रेजी में है परंतु बात सच्ची - सबके लिये
है:
As a rule man is a fool
When it is
hot, he wants it cool
When
it is cool, he wants it hot
He
wants a thing which is not.
कॉफी हाउस
में जाता है तो पहले आइस क्रीम और फिर हॉट-कॉफी माँगता है। कभी हॉट-डॉग्स माँगता
है तो कभी कोल्ड-कैट्स। हवाई जहाज में जाता है तो एयर-कंडिशन चाहिए और साथ में
हॉट-कॉफी।
एक दफा की
बात है कि एक बड़ी दावत (banquet) बुलाई गई। बड़े शान की दावत होती है। उसको कैसे
बयान किया जाए? रंग-बिरंगे, मीठे-नमकीन, खुश्क-चमकीले, ठंडे-गरम, एक
के बाद दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे व्यंजनों का तांता ही लग जाता है। मेज की शान, सफेद दस्तरख्वान, फूलों के गुलदस्ते, बेयरों की चहल-पहल, कोई आ रहा है, कोई जा रहा है। प्लेटों की खटपट, चम्मच-छूरी की छनछनाहट, रोशनी जो
सूरज को भी मात कर दे। डिनर-सूटों में बड़े-बड़े सरकारी ऑफिसर और नौसेना, वायुसेना, थलसेना के बड़े-बड़े ऑफिसर तमगों से लदे
हुए। कुछ विदेशी दूत और बीच में चार-पाँच तिकोनी टोपी (गांधी टोपी) वाले, कोई धोती चप्पल में और कोई पाजामे-खेड़ी में। इस बीच में, मुझे याद नहीं मैं कैसे फंस गया।
मेज पर तो
हल्ला नहीं कर सकता शोर काफी मचा हुआ था। सब अपनी – अपनी बातों में मस्त थे। मेरे
दाहिने हाथ पर कोई पुलिस ऑफिसर था। वह अपने साथी के साथ बातों में मस्त था। मेरे
बाएँ हाथ एक शानदार फौजी ऑफिसर बैठा था। जो जनरल नहीं तो करनल जरूर रहा होगा। वह
किसी से बात नहीं कर रहा था, शांत बैठा था। मेज
पर चारों ओर से आवाजें आ रही थीं। ‘यह गरम लाओ’, यह ठंडा लाओ’। ‘यह ठंडा लाओ’, यह गरम लाओ’। यह ऑफिसर बहुत देर तक तो चुप बैठा रहा
– शांत रहा - परंतु धीरज की भी एक हद होती है। मुझ से कहने लगा, - ये सब लोग इतने बड़े-बड़े ऑफिसर हैं और अपने आप को पढ़ा-लिखा कहते हैं। मतलब तो उसका
था कि वे बेवकूफ हैं परंतु शिष्ट भाषा में कहने लगा कि उनको इतना भी ज्ञान नहीं है
कि मनुष्य का शरीर तो भगवान ने संतोषी बनाया है। इसके अंदर गरम डालो तो ठंडा हो
जाता है, ठंडा डालो तो गरम हो जाता है। तो फिर यह ठंडे-गरम
की बाहरी बक-बक क्या है? यदि, जैसा
मिले संतोष से खा लिया जाए तो शरीर की मशीनरी को झटकों से बचाया जा सकता है।
यह किस्सा
उस जमाने का है जब भारत में दुर्भिक्ष पड़ा हुआ था, कहने के लिए अनाज नहीं था, दूसरे मुल्कों से भीख मांगी जा रही थी और लाखों करोड़ों
को एक समय भी खाना नहीं मिलता था। जीवन-स्तर (लिविंग स्टैंडर्ड) की बात ही क्या
थी। और दूसरे तरफ ठंडे-गरम के नखरे और नजाकत किए जा रहे थे।
*श्री सुरेन्द्र
नाथ जौहर को सब चाचाजी कहते थे
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