(क्या यह लतीफा है? क्या यह आज की सच्चाई है? क्या यह झूठ का पुलिंदा है? क्या है यह? पाठक ही विचार करें! पाठक ही बताएं। लिखा है नारायण दत्त ने। बस पात्र और स्थान बदलते चलिये और... दूध का दूध, पानी का पानी।)
किस्सा एक
बूढ़े रूसी किसान का है। सभी रूसी किसानों की तरह उसका भी जीवन कठिनाइयों से भरा
था। वर्षों तक वह और उसकी बीवी अपने दो बेटों के साथ एक कोठरी में रहते थे। फिर एक
बेटा फौज में चला गया और मोर्चे पर मारा गया। दूसरे बेटे ने दूर के किसी शहर में
नौकरी कर ली। कुछ वक्त बाद जब उसकी बीवी भी चल बसी तो ‘ग्राम-सोवियत’ ने वह कोठरी छीन कर एक नवदंपत्ती को
दे दी और एक पड़ोसी के कमरे के कोने में परदा लगवा कर उसके रहने की व्यवस्था कर दी।
सत्तर साल की जिंदगी में पहली बार किसान के दिल में विद्रोह की चिंगारी सुलगी।
साल में दो
बार मई-दिवस और क्रांति की वर्ष गांठ पर गाँव की सड़क, झंडियों और प्ले कार्डों से सज उठती थी, जिन पर
लिखा होता था – ‘लेनिन जिंदा थे,
जिंदा है और सदा जिंदा रहेंगे’। इस बार ये शब्द पढ़ कर
बूढ़े किसान के मन में आया कि क्यों न मास्को जाकर सर्वशक्तिमान लेनिन से ही कमरा
वापस दिलवाने की प्रार्थना करूँ। वैसे जीवन भर वह कभी अपने गाँव से चंद मील से
ज्यादा दूर नहीं गया था, मगर उसने कुछ मांग कर, कुछ उधर लेकर किराया जुटाया और रेल पर चढ़ कर मास्को जा पहुंचा। मास्को
में भी पूछताछ करता हुआ, कम्यूनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति
के एक बड़े पदाधिकारी के सामने हाजिर हो गया। उसे
सारा किस्सा सुनाकर बोला कि मुझे लेनिन साहब से मिलवा दीजिये, ताकि मैं उनसे कह सकूँ कि वे खुद मेरा कमरा मुझे वापस दिलवाएँ।
अधिकारी
हक्का-बक्का रह गया। फिर अपना आश्चर्य छिपा कर उसने किसान को बताया कि लेनिन तो
कभी के मर चुके हैं। अब हक्का-बक्का होने की बारी किसान की थी। अफसर ने समझाया कि
लेनिन का शव लाल चौक पर उनके मकबरे
में रखा हुआ है। लेकिन किसान अड़ा रहा, ‘मगर झंडे पर साफ लिखा है कि ‘लेनिन जिंदा थे, जिंदा है और सदा जिंदा रहेंगे’। अधिकारी ने बड़े सब्र से उसे समझाना शुरू किया कि इसका अर्थ सिर्फ यह है
कि लेनिन की प्रेरणा जिंदा है, और वह हमारा मार्ग दर्शन कर
रही है। अधिकरी काफी भावावेग के साथ बोलता रहा। जब वह बोल चुका तो किसान चुपचाप उठ
कर चल दिया। दरवाजे पर पहुँच कर वह पलटा और वहीं से चिल्ला कर अधिकारी को बोला, “अब मैं समझ गया साहब, जब आपको जरूरत पड़ती है, लेनिन जिंदा हो उठते हैं, लेकिन जब मुझे जरूरत होती है, लेनिन मर जाते हैं”।
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