गुरुवार, 29 सितंबर 2016

दास्ताने चन्दन नगर  

अक्तूबर २०१५ में तीन महीनों के लिए हम सिडनी गए थे। वहाँ से जनवरी २०१६ में आने के बाद से ही ऐसा संयोग हुआ कि हर महीने शहर के बाहर जाना हो रहा था। लग रहा था कि सितम्बर का महीना  सूखा ही जाएगा। अत: सितंबर में भी कहीं बाहर जाने की इच्छा हो रही थी। मेरे पास दो विकल्प थे – ऐतिहासिक नगरी चन्दननगर या पारिवारिक भूमि धनबाद।

चन्दन नगर क्यों?
यह तो निश्चत था कि कहीं दूर नहीं ही जाना है। हिन्दी कि पत्रिका “अहा!ज़िंदगी” के स्तम्भ  “याद नगर” में डॉ.जयश्री पुरवार का लेख “चन्दन नगर” पढ़ा था।
डॉ जयश्री का लेख
पता चला कि चन्दननगर एक ऐतिहासिक जगह है जो किसी समय फ्रांसीसी उपनिवेश था। इस क्षेत्र के बारे में और छान बीन करने से बंदेल के चर्च और बांसबेरिया के मंदिर की भी जानकारी मिली। इसी समय कोलकाता के दैनिक पत्र “द टेलीग्राफ” ने “मेट्रो” के पूरे मुख पृष्ठ को समर्पित किया फ्रांस से आए पर्यटक एवं पुरस्कृत गणितज्ञ विलानी कि चन्दन नगर यात्रा का सविस्तार वर्णन करने में। तब चन्दन नगर  जाने कि इच्छा तीव्र हो गई।
मेट्रो का मुखपृष्ठ
उधर धनबाद में मेरे जीवन की बहुत सी यादें सुरक्षित हैं। परिवार के सबसे बुजुर्ग सदस्य मेरे चाचा एवं चाची कुछ समय के लिए वहाँ आते हैं। कई वर्षों से उनसे मुलाक़ात नहीं हुई थी। वे भी सितंबर में ही धनबाद पहुँच रहे थे। अब इस कश्मकश में था कि कहाँ जाऊँ
? धनबाद, अपनी यादें ताजा करने और परिवार के बुजुर्ग को नमन करने या चन्दननगर से साक्षात्कार करने। समस्या का समाधान स्वत: ही हो गया। चाचा-चाची का कार्यक्रम टल गया है और मेरा चन्दन नगर जाना निश्चित हो गया। एक रविवार सुबह सुबह हम चन्दन नगर के लिए घर से निकल पड़े।

कैसे जाएँ? कहाँ ठहरें?
चन्दन नगर कोलकाता से लगभग ५० कि.मी. हुगली नदी के तट पर बसा है। बस, ट्रेन या गाड़ी तीनों साधन उपलब्ध हैं। हमारा विचार शुरू से ही गाड़ी से ही जाने का था। सेल फोन के जी.पी.एस. ने तीन अलग अलग रास्ते सुझाए। दुर्गपुर एक्सप्रेस वे से सिंगूर होकर, स्टेट हाइवे ६ से या फिर ग्रांड ट्रंक रोड से। फोन, सिंगूर के रास्ता को कि.मी. से दूर पर समय में नजदीक बता रहा था। फिर भी, २ दिन पहले सिंगूर में हाइवे पर ममता की विशाल रैली को ध्यान में रखते हुवे मैंने स्टेट हाइवे ६ से ही जाना ज्यादा निरापद समझा। रास्ता प्राय: अच्छा है। इस सड़क को ४ लेन ड्राइव में परिवर्तित किया जा रहा है। इस कारण कहीं कहीं सड़क के मरम्मत का कार्य चल रहा है। हम आराम से धीरे धीरे, १ घंटा ४५ मिनिट में चन्दननगर पहुँच गए। वहाँ ठहरने के लिये स्ट्रैंड पर चन्दन नगर नगरपालिका के अतिथि भवन रवीन्द्र भवन पर ही सीधे पहुंचे।
रवीन्द्र भवन अतिथि गृह
विचार था कि अगर ठहरने की जगह मिले तो आराम से घूमा जाय अन्यथा घूम-घाम कर रात तक वापस अपने घर। नगरपालिका ने १२ बजे से कमरा देने का वादा किया
, हम निश्चिंत हो गए। हमें अच्छा कमरा दिया गया जो दूसरे तल्ले पर था, एसी भी था। बड़े से स्वच्छ कमरे में सोने के लिए मचान, अलमारी, छोटा सा दर्पण और दो प्लास्टिक की कुर्सियाँ थीं। हमारे लायक खाने पीने की सुविधा नहीं थी। १५०० रुपये में मुझे महंगा लगा।

कहाँ और क्या खाएं?
बंगाल में पर्यटकों के लिए यह एक समस्या है। कुछ एक जगहों को  छोड़कर प्राय: बंगाल में रहने और खाने की समुचित व्यवस्था नहीं है। दोनों में स्थानीयता की स्पष्ट छाप है। शाकाहारियों के लिए खाने की विशेष असुविधा है तथा भोजन का स्तर भी साधारण है। प्राय: हर जगह निरामिष भोजन ही ज्यादा है। मिठाइयों की अनेक दुकाने हैं। इनमें मिठाई के अलावा बंगाली समोसा, खस्ता कचोरी, सब्जी कचोरी, राधावल्लभी-आलूदाम मिल जाती हैं। यहाँ की मिठाई “जल भरा संदेशका नाम तो बहुत सुना, लेकिन हमें विशेष पसंद नहीं आया।  डोमिनो पीज़ा
भी उपलब्ध है। “रेड चिली”  में चाइनीज के अलावा उत्तर भारतीय भोजन भी उपलब्ध है। स्ट्रैंड के अंतिम कोने में “रसोई” भी है। लेकिन, मिठाई की दुकान के अलावा सब जगह निरामिष ही ज्यादा है।

क्या देखें?
शहर घूमने के लिए हमने वहीं का साइकिल रिक्शा किया। शहर घूमते हुवे कहीं यह अनुभव नहीं होता है कि हम एक ऐतिहासिक नगर में घूम रहे हैं। रिक्शेवाले ने भी बड़ी पीड़ा से बताया कि पुरानी इमारतों का रख रखाव करने के बजाय सरकार भी उन्हे गिरा / उपेक्षा कर नई इमारत बनाने में लगी है। उदाहरण के लिए चन्दन नगर पुस्तकालय है।
पुस्तकालय की पुरानी इमारत
सरकार को जर्जर अवस्था में पुस्तकालय की ऐतिहासिक इमारत का पुनरुद्धार करने के बजाय नई इमारत बनाना सुगम  लगा। ऐतिहासिक सिमेट्री को बचा कर रखा गया है। नन्द दुलाल का राधा कृष्ण का ऐतिहासिक मंदिर
, जिसका निर्माण १७७० में हुआ था, अच्छी अवस्था में है।  फ्रेंच कॉलोनी में अब नाम के अलावा उस समय का कुछ भी नहीं बचा है। फ्रांस के समय की थोड़ी बहुत यादें  स्ट्रैंड (नदी किनारे) पर है जिसके एक छोर में फेरी घाट है और दूसरे छोर पर “पाताल घर” जो किसी समय कविन्द्र रवीन्द्र का निवास स्थान भी था। अब उनके वंशज वहाँ रहते हैं।  इस पूरे करीब आधे-पौना कि.मी. में सिमटा हुआ है फ्रांसीसी चन्दन नगर।
स्ट्रैंड

स्ट्रैंड पर नगर पालिका की आधुनिक इमारत “रवीन्द्र भवन” के अलावा सब इमारतें ऐतिहासिक हैं और फ़ांसीसी उपनिवेशवद का इतिहास बयान करती है। एक पंक्ति से चन्दन नगर न्यायालय, कारागार, विद्यालय, पुलिस स्टेशन, विश्वविद्यालय, सेक्रेड हार्ट चर्च (२०० वर्ष प्राचीन), म्यूजियम, पाताल घर हैं। म्यूजियम में बंगला और अँग्रेजी के अलावा फ्रांसीसी में भी विवरण दिये हुवे हैं। स्ट्रैंड पर हुगली के किनारे बेंच पर बैठे या टहलते हुवे घंटे बिताये जा सकते हैं।
सेक्रेड हर्ट चर्च

म्यूजियम, जो किसी समय डुप्ले का निवास स्थान था, चन्दन नगर के वास्तुशिल्प, कारीगरी, वस्त्र आदि का इतिहास बताता है। चित्रों एवं प्रतिरूपों (मॉडेल्स) कि सहायता से नगर का भूगोल, इतिहास और अंग्रेजों के आक्रमण की दास्तान भी बयान करता है। डुप्ले द्वारा व्यवहार में लायी गई वस्तुएँ, लकड़ी की सोफा, टेबुल, पलंग आदि प्रदर्शित हैं। अगर इतिहास में रुचि हो तो यहाँ कुछ समय बिताया जा सकता है।
म्यूजियम जो कभी डुप्ले का निवास स्थान था

सभ्य एवं स्वच्छ
संकड़ी गलियाँ एवं सड़कें आशा से ज्यादा साफ और अच्छी अवस्था में हैं। अड्डेबाजी की जगह की कमी नहीं है फिर भी कहीं भी अड्डे बाजी नहीं है। लोग शांत, सौम्य एवं सभ्य हैं। दो पहिये की सवारी की भरमार होने के बावजूद कहीं भी तनाव, हल्ला सुनने को नहीं मिला। जितने भी लोगों के संपर्क में हम  आए, नगरपालिका के कर्मचारी और अधिकारी सहित, सभी सहायक और मैत्री पूर्ण भाव से मिले। रविवार और साथ ही विश्वकर्मा के विसर्जन का भी दिन होने के कारण स्ट्रैंड बच्चे, युवा, बुजुर्ग, महिलाओं से भरा था। कहीं भी बैठने, खड़े रहने, चलने में किसी भी प्रकार का भय या तनाव नहीं। खोमचे वालों की भरमार थी, लेकिन क्या मजाल कहीं भी कचरा दिख जाए। सुबह उठ कर घूमने नीचे आए तो आभास नहीं हुआ कि रात को यही जगह खोमचे वालों से भरी थी। शहर भर में सड़कों पर खाने–पीने की दुकाने हैं, लेकिन गंदगी कहीं नहीं। लगता है कि चन्दननगरवासियों ने सफाई का पहला पाठ, गंदगी न करना, अच्छे से पढ़ा और गुना है। वे ठीक से जानते हैं कि सरकार केवल सफाई का प्रबंध कर सकती है। स्वच्छता तो नागरिकों का ही उत्तरदायित्व है और वे उसे बखूबी निबाह रहे हैं। कोलकातावासियों कि तरह गंदगी फैलाना अपना अधिकार नहीं समझते। कोलकाता एवं चंदननगर वासियों के शिष्टाचार, आचरण और व्यवहार में बुनियादी फर्क साफ परिलिक्षत होता है।  चन्दननगर जाने और देखने लायक है, अपने आप में एक अनुभव है, वहाँ के निवासियों से सीखने कि जरूरत है।

स्ट्रैंड पर टहलने के बाद आराम 

स्ट्रैंड पर गप शप

स्ट्रैंड पर ओरियंटल बत्ती


बन्देल
इमामबाड़ा
हुगली नदी के किनारे चन्दननगर से सिर्फ ८ कि.मी. पर है बन्देल का १८४० मेँ बना इमामबाड़ा
इसका निर्माण हाजी मुहम्मद मोहसीन ने करवाया था। इसकी दीवालों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं और इसमें १०८ कमरे हैं। क्या यह हिंदुओं का प्रभाव है, या इत्तिफ़ाक, या मुसलमानों में भी १०८ की महत्ता है?  किसी समय सोने चाँदी से सजा हुआ था।   लेकिन अब माली आर्थिक अवस्था के कारण मरम्मत का कार्य भी नहीं हो रहा है। सरकार ने मरम्मत के लिए ५ करोड़ रुपये दिये हैं, लेकिन जरूरत ५०० करोड़ रुपये की है। इमारत के पीछवाड़े मेँ सूर्य घड़ी है। मुख्य द्वार पर विशालकाय घड़ी है जो प्रत्येक १५ मिनट में घंटा बजाती है। वहाँ के गाइड, मिर्जा मुल्ला अली, ने बताया कि घंटा ४० मन का है, लंदन की ब्लैक एंड मर्रे कंपनी से ११,७२१ रुपये में १८५२ में खरीदा गया था।
घड़ी का रख रखाव कोलकाता की दत्ता कंपनी करती है। समय को ठीक से चलते रहने का उत्तरदायितत्व वे पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। घड़ी तक पहुँचने के लिए करीब डेढ़ सौ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। यहाँ के प्रमुख त्यौहार, मुहर्रम शोक का और इमाम का जन्मदिन उल्लास का है।

बेसिलिका चर्च
१५९९ में पुर्तगालियों द्वारा निर्मित यह ऐतिहासिक चर्च अपनी पूरी शान-शौकत से खड़ा है। रख रखाव के अलावा, देख कर ही लगता है कि समय समय पर इसका विस्तार भी होता रहा है। श्रद्धालुओं और पर्यटकों का निरंतर आवागमन है। भव्य
इमारत, नक्काशीदार स्टेन ग्लास की खिड़कियाँ, ईसा मसीह के जीवन प्रसंग की मूर्तियाँ और साथ मेँ बड़ा सा बगीचा चर्च की खूबसूरती की कहानी कहती हैं।

हंसेश्वरी देवी का मंदिर
माँ काली ही सहस्त्र दल पर हंसेश्वरी के नाम से यहाँ विराजमान हैं। यहाँ के जमींदार ने १७८८ में “वासुदेव” के मंदिर की स्थापना की थी। मंदिर की दीवारों पर आज भी खूबसूरत नक्काशी मौजूद है। सुरक्षा के अभाव मेँ वासुदेव का ऐतिहासिक विग्रह चोरी हो गया। इसी के बगल मेँ, कई वर्षों  बाद,  हंसेश्वरी देवी के विशाल मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर मेँ नियमित रूप से पूजा होती है। दोनों मंदिर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग के संरक्षण मेँ है। मंदिर देखने योग्य है।


वापस सिंगूर हो कर आना था। लेकिन वहीं पता चला कि मंदिर के बगल से ही हुगली पर ईश्वर गुप्ता सेतु पार कर कल्याणी एक्स्प्रेस वे से कोलकाता एयर पोर्ट होकर रास्ता अच्छा भी है और नजदीक भी। अत: इसी रास्ते से वापस आए। गर्मी और अद्रता ने परेशान किया, अन्यथा भ्रमण ज्ञानवर्धक और आरामदायक रही।


अन्य फोटो,डॉ.जयश्री का लेख एवम मेट्रो का मुख पृष्ठ

टेलीग्राफ कोलकाता मी एक रिपोर्ट जनवरी 2018 मेन प्रकाशित हुई

कोलकाता के दैनिक पत्र टेलीग्राफ ने रविवार 31 दिसंबर 2017 को पूरा एक पेज चंदरनगर पर निकाला। उसमें प्रकाशित कई फोटो यहाँ देख सकते हैं।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016


क्यों और क्या? – हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया 

अंग्रेजों का भारत आने का एकमात्र उद्देश्य अपने व्यापार को बढ़ाना था। केवल अंग्रेज़ ही नहीं विश्व के अनेक देशों के व्यापारी, जिनमें यूरोपीय देश भी शामिल थे, भारत तिजारत करने के लिए आते रहते थे।  इतनी बड़ी संख्या में विदेशियों का भारत आने का एक विशेष कारण था? भारत सम्पन्न था, लोग भले, सीधे-सादे, भोले-भाले, ईमानदार  एवं धनी थे। सोने, चाँदी, हीरे, एवं बहुमूल्य रत्नों का बाहुल्य था।  भारत में प्रचुर मात्र में अनेकों प्रकार की वनस्पतियां एवं खनिज उपलब्ध थीं। यहाँ के कारिगर अपने पेशे में निपुण और उत्कृष्ट कोटि की वस्तुओं का निर्माण करने में दक्ष थे। भारत में आए हुए पर्यटकों, व्यापारियों, छात्रों, धर्म प्रचारकों की डायरी, लेख, यात्रा विवरण को अगर खंगाले तो उन सबों ने एक स्वर में भारत के बारे में यही सकारात्मक बात लिखी है। इन विदेशियों ने ही भारत को “सोने की चिड़िया” के विशेषण का जामा पहनाया। आज से लगभग सिर्फ दो सौ वर्ष पूर्व १८३५ में मैकाले ने ब्रिटिश संसद में यह स्वीकार किया कि उसे पूरे भारत में एक भी भिखारी और चोर नहीं मिला। उसने कहा कि भारत एक धनी देश है, भारतियों का मनोबल बहुत ऊंचा और दृड़ है, वे अपने कार्यों में नपुण हैं। 

व्यापार के लिए आए दलों में सबसे बड़ा दल ब्रिटेन से था। यहाँ की सम्पन्नता, कारीगरी, धन, वैभव और ईमानदारी देख कर ही वे शीघ्रता से अपने पैर पसारने लगे थे। उन्हे अपना भविष्य बहुत सुनहरा दिखा और अपने व्यापार को छल-कपट से बढ़ाना प्रारम्भ किया। देखते देखते ईस्ट इंडिया कंपनी ने, जो कि सिर्फ एक व्यावसायिक कंपनी थी, करीब करीब पूरे भारत को अपने कब्जे में कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने तो बहुत बाद में, २ अगस्त १९५८ को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट १८५८ के तहत, ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत का प्रशासन सीधे अपने हाथ में लिया।  अगर इस पूरे प्रकरण की सूक्ष्मता से जांच करें तो महात्मा गांधी का कथन सत्य साबित होता है – “हिंदुस्तान हमारे हाथ से चला गया, कहने के बजाय यह कहना ज्यादा सही है कि खुद हमी ने उसे अंग्रेजों के हाथ सौंप दिया”।  हम भारतीयों ने ही भारतीयों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया। विश्व इतिहास में  ऐसा उदाहरण  कहीं नहीं है जहाँ एक व्यावसायिक कंपनी के कुछ हजार लोगों ने, जो स्थानीय व्यक्तियों की तुलना में कमजोर भी थे और अपने वतन से हजारों मील दूर भी, करोड़ों की आबादी वाले अपने से बलिष्ठ, शक्तिशाली और  बुद्धिमान राष्ट्र को गुलाम बना लिया। 

जैसे जैसे अंग्रेजों का व्यापार भारत में बढ़ने लगा उन्हें दो चिंताएँ सताने लगीं:
१.      अन्य देशों का आगमन:- उस समय यूरोपीय देश विश्व भर में उपनिवेश खोजने में लगे थे। इस खोज में उनका भी भारत पहुंचना स्वाभाविक था। उनके आगमन से या तो भारत का व्यापार उन सब देशों में बाँट जाता, इससे उनकी आपसी प्रतिस्पर्द्धा में भारत का फायदा और विदेशियों का नुकसान होता।  या फिर अंग्रेजों का अन्य देशों से युद्ध की स्थिति बन सकती थी। दोनों ही अवस्थाओं में अंग्रेजों का नुकसान तो होता ही। इस कारण अंग्रेजों ने भारत के बारे में भ्रामक नकारात्मक प्रचार प्रारम्भ कर दिया कि भारत केवल जंगलों, सपेरों, ठगों और जानवरों का प्रदेश है। लोग अंधविशवासी, असभ्य एवं अशिक्षित हैं। निर्धनता है। उनके इस प्रभावशाली प्रचार तंत्र का बहुत व्यापक असर हुवा। विश्व ने अंग्रेजों द्वारा भारत के बारे में प्रसारित  इस नकारात्मक अभियान को सच मान लिया और बड़ी संख्या में भारत नहीं आए। हाल के वर्षो में कम्प्युटर, सूचना और दूर संचार तकनीक में अपनी पहचान बनाने के बाद ही दुनिया का यह भ्रम टूटा और हम अपनी सकारात्मक छवि बनाने में सफल हुवे।

२.      स्थानीय निवासी: - अंग्रेजों को यह तो समझ आ ही गया था कि भारत के लोग सम्पन्न एवं कुशल हैं। उन्हे लगा कि भारत के पास अपार ज्ञान और धर्म का भंडार है। उन्हे इस बात का डर सताने लगा कि अगर भारतीयों को यह इस बात कि भनक लगी कि वे अंग्रेजों से ज्यादा धनी, ज्ञानी, समझदार, सम्पन्न और मेहनती हैं तो वे उन्हें खदेड़ देंगे। अंग्रेजों को यह बात भी समझ आ गई थी कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति व आध्यात्म के बल पर काफी संगठित है। यही भारत की जड़ तथा रीड़ की हड्डी है। अत: उन्होने हमारी मान्यता, सभ्यता, संस्कृति और भाषा पर सीधे प्रहार करते हुवे जबर्दस्त नकारात्मक प्रचार प्रारम्भ किया। यह स्थापित किया कि हम हर प्रकार से अंग्रेजों से कमजोर, अज्ञानी, असभ्य और अनपढ़ हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति पुरानी और पिछड़ी है। अंग्रेज़ हमसे श्रेष्ठ हैं, हमारी भलाई उनकी बातें सुनने और मानने में ही है। अंग्रेज़ हमारी भलाई और विकास के लिए ही यहाँ हैं।

पूरी दुनिया ने उनकी बात सुनी और मानी, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन हम खुद उनके इस नकारात्मक प्रचार में फंस गए और यह मान बैठे कि पाश्चात्य या अंग्रेज़ियत हमसे श्रेष्ठ है। हमने यह स्वीकार कर लिया कि हमार आचार-विचार-व्यवहार, विवेक-ज्ञान, भाषा-साहित्य, सभ्यता-संस्कृति-धर्म निकृष्ट, पुराना और पिछड़ा है। हमारी तुलना में अंग्रेज़ बेहतर हैं। साधारण जनता ही नहीं पढ़े लिखे समझदार बुद्धिजीवी समुदाय ने भी यह स्वीकार कर लिया और अंग्रेजों की जी हजूरी में लग गई। अंग्रेजों ने एक सोची समझी रण नीति के अंतर्गत हमारी भाषा, सभ्यता, संस्कृति को तहस नहस कर दिया और जड़ से उखाड़ने में लग गई। यही नहीं एक ऐसी व्यवस्था लागू कर दी कि हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी हीन भावना से ग्रस्त रहें। एक ऐसी जमात खड़ी कर दी जो शक्ल और सूरत में तो भारतीय है लेकिन इसके अलावा और हर तरह से अंग्रेज़ है। दुर्भागवश इसी जमात ने अगस्त १९४७ में भारत का प्रशासन सँभाल लिया। सब कुछ वैसा ही रहा केवल चमड़ी का रंग बदल गया। हीरे को फेंक हमने पत्थर को अपना लिया।

विदेशी, जो भारत आए, इनमें दो प्रकार के लोग थे:

एक) चिंतक एवं विचारक – इन्होने भारत से बहुत कुछ सीखा, यहाँ के ज्ञान को समझा और सराहा। इसे पूरी दुनिया में बांटा, प्रचारित और प्रसारित किया। हमारी अमूल्य धरोहरों को खोज खोज कर निकाला और संरक्षित किया। साथ ही हमें भी बहुत कुछ दे गए, जैसे हमारे बहुत से ग्रंथ, जिनमें चारों वेद भी शामिल हैं का पुनरुद्धार किया। अनेक साहित्यिक रचनाएँ तथा धार्मिक ग्रंथ जो लोप होने के कगार पर थीं उनका पुन: प्रकाशन किया एवं संसार की अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद भी किया।  भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा तय कर इसे पुनर्गठित किया। इसके पहले पूरा भारत छोटे बड़े अनेकों राज्यों एवं  गणपदों में विभाजित था।

दो) शासक वर्ग -  उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ यहाँ शासन करना और अधिक से अधिक धन इकट्ठा कर अपने देश, ब्रिटेन भेजना था। हम गुलाम थे और वे शासक। इस अवस्था में अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए और अपने शासन को दीर्घकालीन बनाने के लिए उन से जो भी बन पड़ा, साम-दाम-दंड-भेद से, सब किया। हमें बहुत बूरी तरह नोचा-खसोटा-लूटा, अपमानित किया, दुर्दांत हींन भावना से ग्रसित किया। एक पूरी असभ्य और बार्बर जाति की तरह हमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से बर्बाद किया। हमारे साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा एक अत्याचारी शासक अपने  गुलाम से करता है। एक सम्पन्न सभ्यता को भिखारी और जर्जर बना दिया। हमें केवल राजनीतिक ही नहीं मानसिक गुलामी के जंजीरों में भी जकड़ दिया। शासक होने के नाते राजनीतिक दृष्टिकोण से अंग्रेजों के उन कार्यों पर अब  कोई टिप्पणी करना फिजूल है।  


लेकिन, हम आज ७० वर्षों के बाद भी अपने आप को उन्ही जंजीरों में क्यों बांध रखे हैं?  अगस्त १९४७ के बाद भी हम उसी गुलामी के रास्ते पर क्यों चल रहे हैं? हम अपने ही देश में अपने को क्यों पुनर्स्थापित नहीं कर रहे हैं? हम अपने भारत का निर्माण न कर ब्रिटिश इंडिया का ही लालन पालन व पोषण क्यों कर रहे हैं?  इसी क्षोभ की दास्तान है “हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया”। मुद्दे ढेर हैं। सबकी बात एक साथ नहीं हो सकती । अत: समय समय पर एक एक मुद्दे पर एक एक बात।


संदर्भ
१.        हिन्द स्वराज - महात्मा गांधी
२.        ब्रिटिश रूल इन इंडिया - पंडित सुंदरलाल

३.        प्रोसपरस ब्रिटिश इंडिया - विलियम डिग्बी

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

किस की सुनें

किस की सुनें

ईश्वर ने हमें यह जिंदगी दी है?
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से तो ठीक लगता है। लेकिन यह सोच कर कर्मभूमि में हाथ पर हाथ धरे बैठना बुज़दिली है, अकर्मण्यता है। हम खुद अपनी जिंदगी के निर्माता हैं। जिंदगी या प्राण देना और लेना, हाँ, ये दोनों ईश्वर के हाथ में है। लेकिन इस यात्रा के आदि से अंत तक का सफर करने वाले हम खुद हैं। कौन से रास्ते पर चलना है, कैसे चलना है, किस गति से चलना है, किधर चलना है, कब चलना और रुकना है, मुड़ना या घूमना है, धीरे या तेज चलना है, यह निर्णय हमारा है। यह ताकत भी हमारी है। ईश्वर इसमें दखलंदाजी करने नहीं आता है। न तो उसके पास इसके लिए समय है और न ही इससे उसका कोई सारोकार। इसे बनाना और बिगाड़ना हमारे हाथों में, कर्मों में है और सबसे ज्यादा सोच में है। हम करते वही हैं जो हम सोचते हैं। सोचने औए दिशा देने का कार्य बुद्धि और आत्मा करती है। बुद्धि हमें खड्डे में धकेलती है और आत्मा हमारे जीवन को सँवारती है। हम किस की सुनें? बुद्धि की या आत्मा की? यह निर्णय हमारा है।

  

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया


महात्मा गांधी ने पहली ब्रिटेन यात्रा १८८८ में की थी। सही मायने में महात्मा गांधी के बजाय मोहनदास करमचंद गांधी कहना ज्यादा उचित होगा क्योंकि उस समय उनकी पहचान इतनी ही थी। विषम आर्थिक परिस्थितियों, सामाजिक बंधनों और विरोधों को नज़र अंदाज़ करते हुवे कानून की शिक्षा के उद्देश्य से वे इस समुद्री यात्रा पर निकल पड़े। गांधी की यह यात्रा उनके भविष्य और भारत के इतिहास के लिए बहुत महत्वपूर्ण रही। वहाँ गांधी ने अपनी वकालत की शिक्षा पूरी की। इस दौरान उनके विचारों में अनपेक्षित उतार चढ़ाव आए। एक समय ऐसा भी आया जब वे पूर्णतया अँग्रेजी पोशाक के कायल हो गए। न केवल खुद बल्कि अपने बच्चों को भी जबरन अँग्रेजी पोशाक पहनने और पाश्चात्य तौर तरीकों को अपनाने के लिए मजबूर किया। समय के साथ विचारों में
गांधी 
बदलाव आया
, अँग्रेजी पोशाक का परित्याग किया और काठियावाड़ी पोशाक धारण की, लेकिन फिर अंत में गांधी ने घुटने तक की धोती और एक चद्दर को अपनाया जो अंत समय तक उनकी पोशाक रही। इसी दौरान गांधी “थियोसोफिकल सोसाइटी” के संपर्क में आए, “वेजिटेरियन क्लब” की स्थापना की, “द वेजिटेरियन” के लिए लेख लिखे एवं व्याख्यान दिये, “लंदन वेजिटेरियन सोसाइटी” के सदस्य बने। ऐसी अनेक गतिविधियों के कारण गांधी अनेक अंग्रेजों के संपर्क में आए एवं घनिष्ठता बड़ी। ये संपर्क और अनुभव भविष्य में गांधी के सहायक साबित हुवे।

गांधी ब्रिटेन की पढ़ाई समाप्त करने के बाद भारत होते हुवे दक्षिण अफ्रीका पहूंचे। गांधी दक्षिण अफ्रीका गए तो थे वकालत के कार्य से, लेकिन कुदरत ने इन्हें एक अन्य महान कार्य में झोंक दिया। अफ्रीका पहुँचते ही एक के बाद एक कई कटु अनुभव हुवे। अत्याचारों का सामना करना पड़ा, तीखे  अपमानो को झेलना पड़ा। गोरी चमड़ी के दमनचक्र से साक्षात्कार हुआ। बड़े साहस, धैर्य और निर्भीकता से गांधी ने इनका विरोध प्रारम्भ किया। वहाँ के भारतीय प्रवासी के दिलों में तो इन अन्यायों के विरोध में आग जल ही रही थी। गांधी के तूफान ने उस आग पर जमी राख को उड़ा दिया और वहाँ के बासिन्दों को नेतृत्व प्राप्त हुआ। प्रदान किया। आग प्रज्वलित हो उठी।  इसकी तपन भारत और ब्रिटेन तक पहुँची। इस संघर्ष के दौरान उनके हथियार रहे सत्य,  अहिंसा और सत्याग्रह। इन अभेद्य और नवीनतम हथियारों के सामने वहाँ की सरकार को झुकना पड़ा।

अफ्रीका का कार्य समाप्त कर गांधी स्वदेश यानि भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनकी सफलता की खबर उनसे पहले भारत पहुँच चुकी थी। भारत में उनका भव्य स्वागत हुआ। गोपाल कृष्ण गोखले की सम्मति पर भारत की परिस्थिति और यहाँ के लोगों को समझने के लिए एक वर्ष तक पूरे भारत का दौरा करते रहे और अपने कार्य के लिए सही समय  का इंतजार करते रहे। उचित अवसर प्रदान किया चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों ने। गांधी ने  उनका नेतृत्व सँभाला और कूद पड़े भारत की राजनीति में। अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसा और सत्य के अस्त्रों का प्रयोग असहयोग एवं सत्याग्रह के उपकरणों के माध्यम से प्रारम्भ किया। भारत की आवाम ने उन्हें पूर्ण सहयोग दिया। इसके बाद गांधी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

लेकिन यह कितने आश्चर्य और दुख की बात है कि जिस गांधी ने उस ब्रिटिश राज को,  जिसके शासन में सूरज भी डूबने की हिम्मत नहीं करता था, मजबूर कर दिया आज उस भारत के लोगों ने गांधी को  “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कह कर खारिज कर दिया। वे भारतीय नेता, जो गांधी के चारों ओर चक्कर लगाते रहते थे, आजादी के बाद गांधी को किनारे कर दिया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी फोटो को हर सरकारी दफ्तर में टांग कर अपने कर्तव्य का निर्वाह मान लिया।

अपने लेखन, कार्यों एवं आंदोलनों के दौरान गांधी कभी भी अंगरेजों के खिलाफ नहीं रहे। उनका संघर्ष भारत में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ था। “ब्रिटिश क्राउन” के प्रति वे श्रद्धावनत  ही रहे। दोनों विश्वयुद्धों के समय, अनेक विरोधों के बावजूद, उन्होने ब्रिटेन कि सहायता भी की। गांधी ने एक ही बात पर ज़ोर दिया “बुरे को नहीं, बुराई को हटाओ”। लेकिन हम बुरे को मिटाते और बुराई को अपनाते रहे। हमने अंग्रेजों को हटा दिया और अंग्रेज़ियत को अपना लिया। परिणामत: १९४७ के बाद ब्रिटिश भाषा, सभ्यता और संस्कृति को ही बढ़ावा देते रहे। यथा:

१। दोषपूर्ण संसद प्रणाली : ब्रिटेन कि संसद प्रणाली को गांधी ने “वेश्या” और “बांझ औरत” कि संज्ञा दे कर उसकी भर्त्सन की। गांधी ने ब्रिटिश संसद प्रणाली को बहुत करीब से देखा और साफ शब्दों में कहा कि यह प्रणाली तभी स्वीकार्य है जब चुनने वाली जनता और चुने जाने वाले प्रतिनिधिगण दोनों ही पढ़े-लिखे और समझदार हों जो सोच समझ कर चुनाव करें। लेकिन न ऐसा होता है और न यह संभव है। हम आज एक ऐसी ही संसद को ढो रहे हैं जिसका चयन अनपढ़, नासमझ एवं अविवेकी जनता ने किया और वैसे ही सांसदों ने सरकार और मंत्री मण्डल का निर्माण किया। संसद के अनेक सदस्यों को संगीन एवं गंभीर अपराधों के जुर्म में जेल में  सलीखों के पीछे होना चाहिए, लेकिन वे गद्दी पर बैठे राज कर रहे हैं। फलस्वरूप प्रशासन उन्हे गिरफ्तार करने के बजाय उनकी सुरक्षा के लिए मजबूर है।

२। पैशाचिक सभ्यता : गांधी ने पश्चिमी सभ्यता को सभ्यता न कह कर “बीमारी” का नाम दिया। आज हम अपनी सभ्यता को त्याग कर इसी “बीमारी” को अपनाने में गर्व अनुभव करते हैं। गांधी ने कहा कि पश्चिमी सभ्यता एक “शैतानी सभ्यता” है जो “जिसकी लाठी उसकी भैंस”, “योग्यता कि रक्षा” या “दूसरों को मारकर जियो” के सिद्धान्त पर आधारित है। यह भौतिकवाद की पूजक है जिसके दुष्परिणाम स्वरूप शक्तिशाली शक्तिहीनों का शोषण करते हैं। असली दुश्मन उपनिवेशवाद नहीं बल्कि यह सभ्यता है। जब तक हम इस सभ्यता कि चकाकौंध में चुंधियाते रहेंगे हमारी गुलामी समाप्त नहीं होगी। हम भले ही राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो जाएँ लेकिन परतंत्रता कि बेड़ियों में जकड़े रहेंगे। आज ७० वर्षों कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद भी गुलामों की ही ज़िंदगी ढो रहे हैं। १२० करोड़ कि जनता में शायद  १० करोड़ जनता ने ही आजादी का स्वाद चखा हो।

३। इंग्लिस्तान या हिंदुस्तान : गाँधी ने कहा कि लोगों का मानना था कि हमें अग्रेजों का राज्य  तो चाहिए, पर अंग्रेज़ नहीं चाहिए। हम बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, पर बाघ को नहीं चाहते। मतलब यह कि हम हिंदुस्तान को अंग्रेज़, अँग्रेजी तौर तरीके, अँग्रेजी शक्ल सूरत वाला बनाना चाहते हैं। पर तब तो वह हिंदुस्तान नहीं, इंग्लिस्तान कहलाएग। गांधी को ऐसा स्वराज मान्य नहीं था। सही माने में ११० करोड़ जनता को भी यह मान्य नहीं है। फिर भी हमने स्वराज को त्याग कर इंग्लिस्तान को अपना लिया। गांधी इसमें सबसे बड़ी बाधा थे। अत: उनको अनदेखा  कर गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों को हटा कर खुद भूरे रंग की चमड़ी के भारतीय अंग्रेज गद्दी पर बैठ गए। वह आजादी जो हमें कभी मिली ही नहीं उसे मनाते रहे और आज भी मना रहे हैं। यह विचारणीय है कि हम आज जहां सांस ले रहे हैं वह “हमारा भारत” है या अंग्रेजों का “ब्रिटिश इंडिया”?

बदलाव
आज कि इस परिस्थिति में बदलाव लाने का उत्तरदायित्व हमारा है और यह सम्भव है। लेकिन यह कार्य सरकार नहीं कर सकती है, वह केवल सहयोग या विरोध कर पाएगी। यह कर सकती भारत की  जनता, यानि हम। भगत सिंह के प्रश्न पर उनकी माँ ने यह प्रतिप्रश्न किया था,”अंग्रेज़ तो लाखों हैं, तू उन्हे कैसे भगाएगा?” भगत सिंह ने कहा, “लेकिन भारतीय तो करोड़ों में हैं। क्या करोड़  मिल कर लाखों को नहीं भागा सकते?” वही प्रश्न आज भी है। क्या ११० करोड़ भारतीय देश वासी १० करोड़ भारतीय अँग्रेजी बाबुओं को समझा नहीं सकते?

अंग्रेजों ने जब हम पर अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म को लादा था तब उन्होने भी कभी यह नहीं सोचा था कि उनके भारत छोड़ने के बाद भी स्वाधीन भारत उन्ही नीतियों पर वैसे ही चलती रहेगी और अंग्रेजी बाबुओं का निर्माण करती रहेगी। ये १० करोड़ भारतीय बाबू उन्हीं की देन हैं जो अज्ञानतावश या स्वार्थ के अधीन होकर विदेशी संस्कृति, भाषा और सभ्यता का राग आलाप रहे हैं। चूंकि वे ऊंचे ओहदों पर बैठे हैं देश की पूरी जनता भेड़ की तरह उनकी नकल करने में लगी है। हमें इसकी तिलांजलि दे कर अपनी भारतीय भाषा, संस्कृति और सभ्यता को पुन: स्थापित करना होगा। “ऐसा संभव नहीं है यह सोच हमारी मानसिक गुलामी का ही प्रतीक है।

इतिहास साक्षी है कि इज़राइल की हिब्रू भाषा सैंकड़ों वर्षों तक लुप्त प्राय: रही। लेकिन धीरे धीरे वहाँ के बुद्धिजीवी वर्ग ने सदियों तक अथक परिश्रम से हिब्रू को वापस खड़ा कर अपनी सभ्यता को लुप्त होने से बचा लिया। भाषा के लुप्त होने से केवल भाषा ही नहीं मरती बल्कि सभ्यता और संस्कृति भी मर जाती है।  

अवश्यकता है सिर्फ अपनी भाषा, संस्कृति और सभ्यता के प्रति आस्था रखने की, उसके महत्व को समझने की, उसके प्रति जागरूक होने की, इसे पुनर्स्थापीत करने की। एक बार यह समझ लें तो फिर मंजिल दूर नहीं। लेकिन, मैं इस बात को दोहराना चाहूँगा,  इसके लिए उत्तरदायी सरकार नहीं भारत के संविधान में लिखित “हम, भारत के लोग” हैं। 

संदर्भ
१.हिन्द स्वराज

२. सम्पूर्ण गांधी वाङ्ग्मय