महात्मा गांधी ने पहली ब्रिटेन यात्रा १८८८ में की थी। सही
मायने में महात्मा गांधी के बजाय मोहनदास करमचंद गांधी कहना ज्यादा उचित होगा
क्योंकि उस समय उनकी पहचान इतनी ही थी। विषम आर्थिक परिस्थितियों, सामाजिक बंधनों और विरोधों को नज़र अंदाज़ करते हुवे कानून की शिक्षा के उद्देश्य से वे इस समुद्री यात्रा पर
निकल पड़े। गांधी की यह यात्रा उनके भविष्य और भारत के इतिहास के लिए बहुत
महत्वपूर्ण रही। वहाँ गांधी ने अपनी वकालत की शिक्षा पूरी की। इस दौरान उनके
विचारों में अनपेक्षित उतार चढ़ाव आए। एक समय ऐसा भी आया जब वे पूर्णतया अँग्रेजी
पोशाक के कायल हो गए। न केवल खुद बल्कि अपने बच्चों को भी जबरन अँग्रेजी पोशाक पहनने
और पाश्चात्य तौर तरीकों को अपनाने के लिए मजबूर किया। समय के साथ विचारों में
बदलाव आया, अँग्रेजी पोशाक का परित्याग किया और काठियावाड़ी
पोशाक धारण की, लेकिन फिर अंत में गांधी ने घुटने तक की धोती
और एक चद्दर को अपनाया जो अंत समय तक उनकी पोशाक रही। इसी दौरान गांधी “थियोसोफिकल
सोसाइटी” के संपर्क में आए, “वेजिटेरियन क्लब” की स्थापना की, “द वेजिटेरियन” के लिए लेख लिखे एवं व्याख्यान दिये, “लंदन वेजिटेरियन सोसाइटी” के सदस्य बने। ऐसी अनेक गतिविधियों के कारण
गांधी अनेक अंग्रेजों के संपर्क में आए एवं घनिष्ठता बड़ी। ये संपर्क और अनुभव भविष्य
में गांधी के सहायक साबित हुवे।
गांधी |
गांधी ब्रिटेन की पढ़ाई समाप्त करने के बाद भारत होते हुवे
दक्षिण अफ्रीका पहूंचे। गांधी दक्षिण अफ्रीका गए तो थे वकालत के कार्य से, लेकिन कुदरत ने इन्हें एक अन्य महान कार्य में झोंक दिया। अफ्रीका
पहुँचते ही एक के बाद एक कई कटु अनुभव हुवे। अत्याचारों का सामना करना पड़ा, तीखे अपमानो को झेलना पड़ा। गोरी
चमड़ी के दमनचक्र से साक्षात्कार हुआ। बड़े साहस, धैर्य और
निर्भीकता से गांधी ने इनका विरोध प्रारम्भ किया। वहाँ के भारतीय प्रवासी के दिलों
में तो इन अन्यायों के विरोध में आग जल ही रही थी। गांधी के तूफान ने उस आग पर जमी
राख को उड़ा दिया और वहाँ के बासिन्दों को नेतृत्व प्राप्त हुआ। प्रदान किया। आग प्रज्वलित
हो उठी। इसकी तपन भारत और ब्रिटेन तक
पहुँची। इस संघर्ष के दौरान उनके हथियार रहे सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह। इन अभेद्य और नवीनतम
हथियारों के सामने वहाँ की सरकार को झुकना पड़ा।
अफ्रीका का कार्य समाप्त कर गांधी स्वदेश यानि भारत लौटे।
दक्षिण अफ्रीका में उनकी सफलता की खबर उनसे पहले भारत पहुँच चुकी थी। भारत में
उनका भव्य स्वागत हुआ। गोपाल कृष्ण गोखले की सम्मति पर भारत की परिस्थिति और यहाँ
के लोगों को समझने के लिए एक वर्ष तक पूरे भारत का दौरा करते रहे और अपने कार्य के
लिए सही समय का इंतजार करते रहे। उचित अवसर
प्रदान किया चंपारण में नील की खेती करने वाले किसानों ने। गांधी ने उनका नेतृत्व सँभाला और कूद पड़े भारत की राजनीति
में। अंग्रेजों के विरुद्ध अहिंसा और सत्य के अस्त्रों का प्रयोग असहयोग एवं
सत्याग्रह के उपकरणों के माध्यम से प्रारम्भ किया। भारत की आवाम ने उन्हें पूर्ण
सहयोग दिया। इसके बाद गांधी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
लेकिन यह कितने आश्चर्य और दुख की बात है कि जिस गांधी ने
उस ब्रिटिश राज को, जिसके
शासन में सूरज भी डूबने की हिम्मत नहीं करता था, मजबूर कर
दिया आज उस भारत के लोगों ने गांधी को “मजबूरी का नाम महात्मा गांधी” कह कर खारिज कर दिया। वे भारतीय नेता, जो गांधी के
चारों ओर चक्कर लगाते रहते थे, आजादी के बाद गांधी को किनारे
कर दिया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी फोटो को हर सरकारी दफ्तर में टांग कर अपने कर्तव्य
का निर्वाह मान लिया।
अपने लेखन, कार्यों एवं आंदोलनों के
दौरान गांधी कभी भी अंगरेजों के खिलाफ नहीं रहे। उनका संघर्ष भारत में ब्रिटिश सत्ता
के खिलाफ था। “ब्रिटिश क्राउन” के प्रति वे श्रद्धावनत ही रहे। दोनों विश्वयुद्धों के समय, अनेक विरोधों के बावजूद, उन्होने ब्रिटेन कि सहायता
भी की। गांधी ने एक ही बात पर ज़ोर दिया “बुरे को नहीं, बुराई
को हटाओ”। लेकिन हम बुरे को मिटाते और बुराई को अपनाते रहे। हमने अंग्रेजों को हटा
दिया और अंग्रेज़ियत को अपना लिया। परिणामत: १९४७ के बाद ब्रिटिश भाषा, सभ्यता और संस्कृति को ही बढ़ावा देते रहे। यथा:
१। दोषपूर्ण संसद प्रणाली : ब्रिटेन
कि संसद प्रणाली को गांधी ने “वेश्या” और “बांझ औरत” कि संज्ञा दे कर उसकी भर्त्सन
की। गांधी ने ब्रिटिश संसद प्रणाली को बहुत करीब से देखा और साफ शब्दों में कहा कि
यह प्रणाली तभी स्वीकार्य है जब चुनने वाली जनता और चुने जाने वाले प्रतिनिधिगण
दोनों ही पढ़े-लिखे और समझदार हों जो सोच समझ कर चुनाव करें। लेकिन न ऐसा होता है
और न यह संभव है। हम आज एक ऐसी ही संसद को ढो रहे हैं जिसका चयन अनपढ़, नासमझ एवं अविवेकी जनता ने किया और वैसे ही सांसदों ने सरकार और मंत्री
मण्डल का निर्माण किया। संसद के अनेक सदस्यों को संगीन एवं गंभीर अपराधों के जुर्म
में जेल में सलीखों के पीछे होना चाहिए, लेकिन वे गद्दी पर बैठे राज कर रहे हैं। फलस्वरूप प्रशासन उन्हे गिरफ्तार
करने के बजाय उनकी सुरक्षा के लिए मजबूर है।
२। पैशाचिक सभ्यता : गांधी
ने पश्चिमी सभ्यता को सभ्यता न कह कर “बीमारी” का नाम दिया। आज हम अपनी सभ्यता को
त्याग कर इसी “बीमारी” को अपनाने में गर्व अनुभव करते हैं। गांधी ने कहा कि
पश्चिमी सभ्यता एक “शैतानी सभ्यता” है जो “जिसकी लाठी उसकी भैंस”, “योग्यता कि रक्षा” या “दूसरों को मारकर जियो” के सिद्धान्त पर आधारित
है। यह भौतिकवाद की पूजक है जिसके दुष्परिणाम स्वरूप शक्तिशाली शक्तिहीनों का शोषण
करते हैं। असली दुश्मन उपनिवेशवाद नहीं बल्कि यह सभ्यता है। जब तक हम इस सभ्यता कि
चकाकौंध में चुंधियाते रहेंगे हमारी गुलामी समाप्त नहीं होगी। हम भले ही राजनीतिक
रूप से स्वतंत्र हो जाएँ लेकिन परतंत्रता कि बेड़ियों में जकड़े रहेंगे। आज ७०
वर्षों कि राजनीतिक स्वतन्त्रता के बाद भी गुलामों की ही ज़िंदगी ढो रहे हैं। १२०
करोड़ कि जनता में शायद १० करोड़ जनता ने ही
आजादी का स्वाद चखा हो।
३। इंग्लिस्तान या हिंदुस्तान :
गाँधी ने कहा कि लोगों का मानना था कि हमें अग्रेजों का राज्य तो चाहिए, पर अंग्रेज़
नहीं चाहिए। हम बाघ का स्वभाव तो चाहते हैं, पर बाघ को नहीं
चाहते। मतलब यह कि हम हिंदुस्तान को अंग्रेज़, अँग्रेजी तौर
तरीके, अँग्रेजी शक्ल सूरत वाला बनाना चाहते हैं। पर तब तो
वह हिंदुस्तान नहीं, इंग्लिस्तान कहलाएग। गांधी को ऐसा स्वराज
मान्य नहीं था। सही माने में ११० करोड़ जनता को भी यह मान्य नहीं है। फिर भी हमने
स्वराज को त्याग कर इंग्लिस्तान को अपना लिया। गांधी इसमें सबसे बड़ी बाधा थे। अत:
उनको अनदेखा कर गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों
को हटा कर खुद भूरे रंग की चमड़ी के भारतीय अंग्रेज गद्दी पर बैठ गए। वह आजादी जो हमें
कभी मिली ही नहीं उसे मनाते रहे और आज भी मना रहे हैं। यह विचारणीय है कि हम आज
जहां सांस ले रहे हैं वह “हमारा भारत” है या अंग्रेजों का “ब्रिटिश इंडिया”?
बदलाव
आज कि इस परिस्थिति में बदलाव लाने का उत्तरदायित्व हमारा है
और यह सम्भव है। लेकिन यह कार्य सरकार नहीं कर सकती है, वह केवल सहयोग या विरोध कर पाएगी। यह कर सकती भारत की जनता, यानि हम। भगत सिंह के
प्रश्न पर उनकी माँ ने यह प्रतिप्रश्न किया था,”अंग्रेज़ तो
लाखों हैं, तू उन्हे कैसे भगाएगा?” भगत
सिंह ने कहा, “लेकिन भारतीय तो करोड़ों में हैं। क्या
करोड़ मिल कर लाखों को नहीं भागा सकते?” वही प्रश्न आज भी है। क्या ११० करोड़ भारतीय देश वासी १० करोड़ भारतीय
अँग्रेजी बाबुओं को समझा नहीं सकते?
अंग्रेजों ने जब हम पर अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म को लादा था तब उन्होने भी कभी यह नहीं सोचा था कि उनके भारत
छोड़ने के बाद भी स्वाधीन भारत उन्ही नीतियों पर वैसे ही चलती रहेगी और अंग्रेजी
बाबुओं का निर्माण करती रहेगी। ये १० करोड़ भारतीय बाबू उन्हीं की देन हैं जो
अज्ञानतावश या स्वार्थ के अधीन होकर विदेशी संस्कृति, भाषा
और सभ्यता का राग आलाप रहे हैं। चूंकि वे ऊंचे ओहदों पर बैठे हैं देश की पूरी जनता
भेड़ की तरह उनकी नकल करने में लगी है। हमें इसकी तिलांजलि दे कर अपनी भारतीय भाषा, संस्कृति और सभ्यता को पुन: स्थापित करना होगा। “ऐसा संभव नहीं है’ यह सोच हमारी मानसिक गुलामी का ही प्रतीक है।
इतिहास साक्षी है कि इज़राइल की हिब्रू भाषा सैंकड़ों वर्षों
तक लुप्त प्राय: रही। लेकिन धीरे धीरे वहाँ के बुद्धिजीवी वर्ग ने सदियों तक अथक
परिश्रम से हिब्रू को वापस खड़ा कर अपनी सभ्यता को लुप्त होने से बचा लिया। भाषा के
लुप्त होने से केवल भाषा ही नहीं मरती बल्कि सभ्यता और संस्कृति भी मर जाती है।
अवश्यकता है सिर्फ अपनी भाषा,
संस्कृति और सभ्यता के प्रति आस्था रखने की, उसके महत्व को
समझने की, उसके प्रति जागरूक होने की,
इसे पुनर्स्थापीत करने की। एक बार यह समझ लें तो फिर मंजिल दूर नहीं। लेकिन, मैं इस बात को दोहराना चाहूँगा, इसके लिए उत्तरदायी सरकार नहीं भारत के
संविधान में लिखित “हम, भारत के लोग” हैं।
संदर्भ
१.हिन्द स्वराज
२. सम्पूर्ण गांधी वाङ्ग्मय
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