शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

हमारा बुद्धिजीवी वर्ग

क्या हमारे देश में बुद्धिजीवी वर्ग है? शायद नहीं! अगर है तो कहाँ है? वह दिखता क्यों नहीं? कहीं शुतुरमूर्ग की तरह मुंह छुपाये, निष्क्रिय होकर बैठा है? या फिर बुद्धिजीवी का बल्ला लगाये अनपढ़ गंवार की तरह  सब कुछ देखते हुए भी अपने आप को असहाय मानते हुए मैं अकेला क्या कर सकता हूँ की माला जप रहा है? बुद्धिजीवी नेता की बाट नहीं जोहता, वह तो नेतृत्व प्रदान करता है। चीन ने जब तिब्बत को घेरना प्रारम्भ किया, दलाई लामा किसी की सलाह के मोजताज नहीं रहे, न ही किसी की सहायता की अपेक्षा रखी,  न ही यह सोचा कि मैं अकेला क्या कर सकता हूँ? वे चुपके से कठिन और दुर्गम बर्फ की शिलाओं को पैदल पार करते हुए बड़ी कठिनाई से भारत भाग आये। बाद में जब एक पत्रकार ने पूछा कि आपने ऐसी दुर्गम मंजिल कैसे तय की। उन्होने जवाब दिया, मेरा लक्ष्य स्पष्ट था और मैं एक बार में केवल एक कदम चला

क्या बुद्धिजीवी का अर्थ बड़ी डिग्री धारक, पीएचडी शोधकर्ता, विश्व विख्यात विश्वविद्यालयों में बैठे प्राध्यापक, वैश्विक स्तर पर मान्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले लेखक, या फिर नोबल या वैसी ही अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हस्ती ही है? तब तो यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि हाँ हमारा देश बुद्धिजीवियों से भरा पड़ा है। अगर यही कसौटी है तब मैं यही कहूँगा कि बुद्धिजीवी की परिभाषा बदलनी होगी

अभी कुछ वर्षों पहले, पूरे देश से 49 बुद्धिजीवियों के वर्ग द्वारा, दल बना कर (इन ग्रुप) भारत के प्रधान मंत्री को  पत्र लिखने की और फिर उसके प्रतिवाद में 62 बुद्धिजीवियों के एक दूसरे दल द्वारा अलग पत्र लिखने की चर्चा मीडिया पर छाई रही। उस समय तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा ऐसे पत्र लिखने का कार्य सम्पन्न होना प्रारम्भ ही हुआ था। लेकिन कालांतर में यह एक प्रकार का फैशन हो गया है जिसमें अब सेवानिवृत्त अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। बे-समय बोलते रहते हैं और समय पर चुप्पी साध लेते हैं। ये मुद्दे सार्वजनिक पिटाई (लिंचिंग) का हो, या असहिष्णुता (इंटोलरंस) का या दंगों का या देश को अपमानित करने का। सरकार को लिखते हैं लेकिन जनता से मुखातिब नहीं होते। इनका उद्देश्य जनता में भाईचारा, संयम, अमन चैन फैलाना नहीं है, सिर्फ  सस्ती लोकप्रियता बटोरना है? 

देश में पढ़े - लिखे और सम्मानित लोगों की कमी नहीं है। मीडिया और जनता इनकी बात सुनती भी है, और प्रसारित भी करती है। उनमें धार भी है। हाँ, अब इनकी धार भोथरी होने लगी है, लेकिन इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। यह वर्ग अपने घर में आराम से बैठ कर विश्लेषण करने, प्राप्त पुरस्कार को वापस करने, इनके पक्ष या विपक्ष में मौके-बेमौके अपनी राय देने तक ही सीमित है। बल्कि कभी-कभी अपने वक्तव्यों से जनता को भड़काने, उनमें रोष पैदा करने, उन्हें असहज बनाने का कार्य ही करते हैं। इनमें से कोई भी जनता से मुखातिब नहीं होता। जनता को संयम बरतने, ईर्ष्या का त्याग कर प्रेम की तरफ ले जाने, आपसी भाईचारे को बहाल करने, कानून को अपने हाथ में न लेने की सलाह नहीं देता? ये लोग जनता को सही दिशा दिखाने के बजाय प्रधान मंत्री को पत्र लिखने, न्यूज़ चैनल को अपने तीखे विचार बता कर उन्हें भड़काने में ही अपने फर्ज़ की अदायगी समझते हैं। ये इस प्रकार सस्ते प्रचार तक ही सीमित रहते हैं। अगर सत्य और निष्पक्षता का दम है तब नेतृत्व करने सड़क पर क्यों नहीं उतरते? जनता का मार्ग दर्शन क्यों नहीं करते? हाँ कुछ लोग हैं, खेल जगत से, सिनेमा जगत से जिनका प्रसारण टीवी में कुछ सामाजिक मुद्दों पर जनता का सही मार्ग दर्शन करता है। लेकिन वे ज्यादातर सरकारी चैनलों से ही प्रसारित होते हैं। निजी चैलनों से  क्यों नहीं? क्या निजी चैनलों का कोई उत्तरदायित्व नहीं है? बुद्धिजीवी वर्ग इससे क्यों नहीं जुड़ता? उनका ध्येय अमन-चैन का नहीं है? उनमें माहौल बदलने का सामर्थ्य है, लेकिन वे दुराग्रहों से ग्रसित हैं और कुछ मौन साधे बैठे हैं। उनके ध्येय में स्वार्थ की दुर्गंध है। एक वर्ग को स्वार्थ का त्याग कर अमन-चैन की भाषा बोलनी होगी और दूसरे को मौन का त्याग कर मुखर होना होगा। ऐसा करना कठिन भी नहीं है, बस इच्छाशक्ति चाहिए।

बुद्धिजीवी वर्ग का कर्तव्य है जनता से संपर्क रखना, उसे सही मार्ग दिखाना। उनमें बिना भेद-भाव और पूर्वाग्रह के सही को सही और गलत को गलत कहने की, समझने की और जनता को सही मार्ग दर्शन करने की शक्ति, सामर्थ्य और उत्कुंठा होनी चाहिये। उनका असर जनता पर तात्कालिक और विद्युत गति से होता है। अगर यह वर्ग अपने कर्तव्य का पालन नि:स्वार्थ भाव से करे तो देश की दिशा और दशा सुधरती नज़र आयेगी। ऐसे बुद्धिजीवियों की हमारे देश में कमी नहीं है। हमें ऐसे लोग चाहिए जो जनता को विधायक और प्रशासक के विरुद्ध नहीं बल्कि अनीति के विरुद्ध और नीति के समर्थन में खड़ा करे। पापी का नाश करनेवाला कालांतर में खुद पापी बन जाता है, अत: पापी का नहीं  पाप का नाश करना है। 

यहाँ मैं स्वामी विवेकानंद की एक उक्ति उद्धृत करना चाहूँगा, मुझे ऐसे एक सौ युवा दे दो, जो सच्चे (truthful), शुद्ध एवं निस्वार्थी हों, मैं दुनिया बदल दूँगा”।  इसी तर्ज पर यह भी कहा जा सकता है सच्चे, शुद्ध और निस्वार्थ 50 बुद्धिजीवियों का एक संगठन भारत को बदल सकता है। जब देश के विभिन्न भागों में रहने वाले 111 (49 + 62) प्रतिष्ठित व्यक्ति एक दूसरे से संपर्क साध कर एक समूहिक पत्र साझा कर देश के प्रधान मंत्री को लिख सकते हैं, टीवी के चैनलों पर गला फाड़ फाड़ कर असहिष्णुता, संयम पर भाषण दे सकते हैं, तब वे एक आम सर्वनिष्ठ कार्यक्रम के अंतर्गत देश के कोने कोने में जाकर सामंजस्य स्थापित करने की लिये क्यों प्रेरित नहीं करते हैं?  

साहिर लुधियानवी के ये पंक्तियाँ याद आती हैं:

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ,

          ये कूचे ये गलियाँ ये मंजर दिखाओ

                   जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको बुलाओ

                             जिन्हें नाज़ है हिन्द पार वो कहाँ है?

                                                कहाँ है, कहाँ है, कहाँ है?

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शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

ऐसा भी होता है ....... ?

कतराव (kataraw)? का नाम आपने सुना है? अच्छा सहोदरा (sahodara) का नाम? या फिर बगहा (bagaha) का? नहीं सुना है न? मैंने भी नहीं सुना था। चंपारण? इसका नाम तो गांधी ने इतिहास में दर्ज करा दिया है, जरूर सुना होगा। इसी चंपारण से गांधी ने भारत में अपना पहला सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया था, नील की खेती करने वाले किसानों के लिए। उत्तर बिहार में नेपाल की सीमा के नजदीक, बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले का एक छोटा सा गाँव है कतराव; यह  सहोदरा थाने के अंतर्गत आता है। बगहा शहर से 70 किलोमीटर है और पटना से 245 किमी दूर।

सहोदरा पुलिस स्टेशन की भौगोलिक स्थिति दर्शना गूगल मैप 

आप सोच रहे हैं कि मैं इसकी चर्चा क्यों कर रहा हूँ। कतराव एक आदर्श गाँव है जिसकी मिसाल नहीं मिलेगी। यहाँ के थाने में आजादी के 73 सालों में आज तक एक भी, किसी भी अपराध के लिए एफ़आईआर (FIR) दर्ज नहीं हुई है और न ही अदालत में कोई फ़ौजदारी मुकदमा दर्ज हुआहै। यह गाँव उसी बिहार में है जो अपने अपराधों के कारण देश के शीर्षतम राज्यों में एक माना जाता है। गाँव में लगभग 5000 लोग रहते हैं जिनमें अनुसूचित जाति के लोग भी शामिल हैं। यहाँ के आपसी झगड़े वहीं की पंचायत निबटा देती है और सबों को उसका फैसला मान्य होता है। महिलाओं से संबन्धित मामलों का महिला पंचायत में फैसला होता है जिनमें पुरुषों की दखल अंदाजी नहीं होती है। लोगों ने बताया कि यह संभव हुआ है उनकी महात्मा गांधी के आदर्शों में पूर्ण विश्वास और आस्था के कारण। महात्मा गांधी का भितिहरवा गांधी स्मारक आश्रम  यहाँ से सिर्फ 15 किमी पर है। राज्य के डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे को भी विश्वास नहीं हुआ। लेकिन जब वे भी वहाँ का दौरा कर आए तब उन्हे भी मानना पड़ा कि आज भी महात्मा में अविश्वसनीय शक्ति है। आज भी महात्मा गांधी वह करने में  सक्षम हैं जिसे थाना, पुलिस, कानून नहीं कर सकती

गांधी आश्रम
भीतिरहवा गांधी आश्रम का प्रवेश द्वार (यहाँ से प्रवेश करें)


ऐसा क्या था बापू के आदर्शों में, जिसे लोग आज भी निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं और सब साथ साथ एक परिवार की तरह रहते हैं? पढे-लिखे लोग, बुद्धिजीवी वर्ग, शिक्षित समुदाय शायद इस पर बड़े बड़े शोध पत्र लिख डालें, डिग्रियाँ हासिल कर लें और शायद इसको लेकर लड़ भी लें। दुर्भाग्य तो यह है कि देश में गांधी के नाम से चलाने वाली संस्थाओं के पदाधिकारी भी गांधी के नाम पर कमोबेश परस्पर द्वेष और वैमनस्य बढ़ाने की ही भाषा बोल रहे हैं। इसके विपरीत कतराव ग्राम के वासी इसकी चर्चा नहीं करते, बल्कि गांधी मार्ग अपना कर उसका अतिउत्तम उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सही कहें तो इसका कोई एक कारण नहीं है। अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन एक बहुत ही सीधा और सरल सा कारण है हम। हम मतलब कौन? साधारण से शब्दों में इस हम को बड़े अच्छे ढंग से परिभाषित किया गया है इस कविता में : 

बचपन में जब भी पूछता था कोई,

कितने भाई बहन हैं तुम्हारे,

जोड़ने लगते थे हम सभी ......

जल्दी-जल्दी,

अपनी नन्ही-नन्ही उँगलियों पर,

उँगलियाँ खत्म हो जातीं, जोड़ नहीं

क्योंकि, कज़िन क्या होता है, पता ही नहीं था।

माँ ने कहा, ये तेरे बड़े भाई हैं, यह छोटी बहन।

बस,

हो गए हम ढेर सारे.....

जब भूख लगे,

जिस घर के बाहर खेलते उसी में घुस जाते;

वे अपने नहीं थे, पता ही नहीं था!!

चाची, ताई, मासी, बुआ,

न जाने कितने अपने लोग, कितने प्यारे रिश्ते,

एक ही टोकरी में सजे, अलग-अलग फूलों की भांति, 

उतना ही अपनापन, उतनी ही डांट,

परायापन क्या होता है, पता ही न था। .........

(यह खबर मैंने पढ़ी अँग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ इंडिया, कोलकाता, में और कविता का यह अंश लिया है मधुसंचय से)

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित खबर 


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http://youtube.com/watch?v=pY7R-iXnbm8

शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

लीजिये! फिर आ गया पंद्रह अगस्त

हाँ जी साहब! फिर आ गया। हर साल ही आता है। कम से कम एक छुट्टी तो मिलती है। इस साल तो इतनी छुट्टियाँ मिल चुकी हैं कि अब उसकी भी प्रतीक्षा नहीं रही। कुछ सिर फिरे लोग फिर भी देश-प्रेम के गीत, जोश से भरने वाले गानों को ज़ोर से बजाएँगे। मुहल्ले के कुछ लोग कार्यक्रम करने के नाम पर चंदा जमा कर गुलछर्रे उड़ायेंगे। बच्चे जोश भरे गीत गुनगुनाएँगे। टीवी पर वैसी ही फिल्में देखनी पड़ेगी, वैसे ही गाने सुनने पड़ेंगे। खबरों में भी यही छाया रहेगा। कौन से राज्य में पंद्रह अगस्त कैसे मनाया गया, प्रधान मंत्री ने लाल किले से क्या बोला, वगैरह वगैरह। कोविद-19 के चलते हो सकता है शायद ऐसा कुछ न हो या कुछ कम हो। लेकिन यह दिन बस एक, केवल एक दिन के लिए, न उसके पहले न उसके बाद। सब भूल कर यथावत हो जाएगा। देश गया........

हम यह भूल जाते हैं कि आजादी वर्ष में केवल एक दिन के लिए नहीं आई है। एक समय था लोगों के सर पर जुनून उठता था, पुरानी बातें ताजा हो जाती थीं। सीना चौड़ा हो जाता था। आजादी ऐसे ही नहीं आई थी। बहुतों ने बहुत कुछ दिया था, खोया था। किसी का सर्वस्व स्वाहा हो गया, तो किसी की जान गई थी। कोई ऐसा घर न था जिसने किसी न किसी प्रकार का योग दान न दिया हो, आजादी का दिन देखने के लिए। परिवार का परिवार स्वाहा हो गया। जब तक ऐसे लोग थे, जिन्होने आजादी में बलिदान दिया था, आजादी का अर्थ समझ आता था, उसका मूल्य समझते थे। ये वे लोग थे जिन्होने कहा यह मत पूछो कि देश ने तुम्हारे लिए क्या किया, कहो कि तुमने देश के लिए क्या किया

लेकिन हमें तो आजादी बैठे बैठाये मिली, बिना हाथ पैर हिलाये, बिना कुछ दिये, जन्म से ही। हम तो उनमें हैं जो पूछते हैं, देश ने हमारे लिए क्या किया’? हम तो उनमें हैं जो पूछते हैं सूरज से तुम क्यों जलते रहते हो, हम पूछते हैं फूल से तुम क्यों सुगंध देती हो, हम पूछते हैं धरती से तुम क्यों अन्न उपजाती हो, हम पूछते हैं मेघ से तुम क्यों बरसते हो? बच्चों के जोश की आग से भी सीखने के बदले हम अपनी बातों और व्यवहार से उनमें पनप रही देश भक्ति की आग को बुझा देते हैं। उनसे प्रेरणा लेने के बजाय उन्हें भी निराश कर देते हैं। राष्ट्रीय गान पर खड़े होने में बड़ा कष्ट महसूस होता है लेकिन उत्तेजक या फिल्मी धुन पर तुरंत खड़े हो कर शरीर के हर अंग को तोड़-मरोड़ कर,  लटके – झटके देने में कोई कष्ट नहीं होता।

ऐसे समय में अभयनगर का उदाहरण जानने योग्य है। यह छोटा सा गाँव उसी देश में है जहां सिनेमा हाल में राष्ट्रगान बजने पर खड़े होने के आदेश का विरोध होता है और उन विरोधियों का  राजनीतिक दल और गैर सरकारी जनहित संस्थाएं संवैधानिक मौलिक अधिकार के नाम पर समर्थन करती हैं। उसी देश में यह गाँव हैं, जहां कुछ लोगों को  ‘.................जय बोलने से भावनात्मक या धार्मिक ठेस पहुँचती है। इतना ही नहीं,  स्वार्थवश अनेक लोग संविधान की दुहाई दे कर उनका साथ देते हैं। यह उसी देश में है जहां देश विरोधी नारे लगाए जाते हैं और उससे ज्यादा लोग इसे उचित ठहराते हुए तर्क देते हैं। जी हाँ, यह गाँव, अभायनगर,  कोलकाता से मात्र 158 किमी दूर, नदिया जिले में है। इस गाँव में एक प्राथमिक विद्यालय है। इस विद्यालय में रोज 10.50 प्रात: एक घंटी बजती है। यह कोई साधारण घंटी नहीं है। इस घंटी के बजते ही पूरा गाँव 1 मिनट के लिए थम जाता है। गाँव में सब लोग बुत बन जाते हैं। गाँव के हर घर के लोग, सड़क पर चल रहे राहगीर, साइकिल या मोटर साइकिल सवार, बाजार-दुकान में,  सब अपनी अपनी जगह पर रुक कर खड़े हो जाते हैं। इसे अंजाम दिया है विद्यालय के प्रधानाध्यापक सफीकुल इस्लाम ने; उद्देश्य है बच्चों और गाँववासियों में राष्ट्रीय चेतना का विकास करना। 10.55 पर विद्यालय के बच्चे एक गीत गाते हैं। विद्यालय की इमारत पर लगे लाउड स्पीकर से पूरे गाँव में बच्चों द्वारा गाया जाने वाला यह गीत सुनाई पड़ता है। यह गीत और कुछ नहीं राष्ट्र गीत होता है।

             

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शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

पिता का पत्र, बेटे के नाम

(श्रीअजय कुमार पांडेय की रचना पर आधारित। अनाम पिता का, वतन से दूर अपने बेटे को लिखा एक गुमनाम पत्र)

प्रिय बेटा,                                                                                                                👂🔉

मोबाइल युग में चिट्ठी? देखो बुरा न मानना। पुरानी लत है, आज बड़ी ज़ोर की तलब लगी, सो लिखने बैठ गया। एक समय था, जब मैं खूब चिट्ठी लिखा करता था। मेरे पास भी चिट्ठियाँ आती थीं। जब छोटा था, हम भाइयों में होड़ रहती थी, किसके नाम से सबसे ज्यादा डाक आती है। मैं हर समय अव्वल आता था। अत: अंत में भाइयों ने होड़ ही समाप्त कर दी। लेकिन आज मोबाइल और कम्प्युटर के चंद बटनों तक सिमट कर रह गई है सारी दुनिया। सारे रिश्ते-नाते के मतलब, तो बस,  रिंग-टोन हो गये हैं।

तुमने डाकिये के बारे में तो सुना ही होगा। पोस्टमैन कहने पर तुम्हें शायद ज्यादा सहूलियत होगी। पहले जब चिट्ठियाँ लिखा करते थे तो डाकिया कंधे पर थैला लटकाये, साइकिल की घंटी बजाते घर-घर चिट्ठियाँ पहुंचाया करता था। पता नहीं तुमने कभी इस विलुप्त होती प्रजाति को देखा है या नहीं। तुम शायद सोच रहे होगे कि मुझे क्या सूझा कि  मैं बैठ गया इतना समय जाया करने। लिखने और पढ़ने वाले दोनों के समय की बरबादी करने। लेकिन बेटा, ऐसा मत सोचना। क्या यह संभव है कि इतनी लंबी और निश्चिंत बात मोबाइल पर की जा सके? ठीक है, तो फिर रखता हूँ’, कह कर टेलीफोन का गला दबा दिया जाता है; या फिर ऐसा लगता है कि बातें एक दूसरे से नहीं कइयों से एक साथ हो रही है, कई काम एक साथ चल रहे हैं, ध्यान कहीं और है, कान कहीं और, फोन कहीं और। मोबाइल पर भी कभी हम सब एक साथ बैठ कर बातें किया करते थे लेकिन अब तो हम सब भी अलग-अलग हो गये हैं। आजकल जो ज्यादा लोग ब्लड प्रैशर, अवसाद के शिकार हो रहे हैं, यह इन्हीं मन में कैद गुबारों की वजह से ही होता है। जब हम खुल कर बतिया ही नहीं पाएंगे तो तनाव तो बढ़ेगा ही न?

चिट्ठियों की यह खूबी थी बेटा कि मिल जाने पर लोग इसे खोल कर पढ़ ही लिया करते थे, तह कर पॉकेट या दराज़ में रख लिया करते थे। एक बार नहीं कई-कई बार पढ़ लिया करते थे। मोबाइल में आए संदेशों की तरह इग्नोर या डिलीट नहीं करते थे। और चिट्ठियों में क्या नहीं होता था – माँ का प्यार!, बाबूजी का आशीर्वाद!, भैया की नसीहतें!, और दीदी का दुलार। जीजाजी की चिट्ठी आने पर दीदी का चेहरा कैसे हजार वॉट के बल्ब की तरह चमक उठता था। मैं सभा-संस्थाओं की  सदस्यता तथा कार्यों का बौरा, पत्र-पत्रिकाएँ तथा उनकी पुस्तक सुची, सदस्यता का ब्योरा आदि भेजने के लिए चिट्ठी लिखता रहता था। बस केवल इसलिए कि हमारे पोस्ट बॉक्स में मेरे नाम की डाक हो। अपने व्यस्त क्षणों में से चंद लम्हे निकाल सको और एक चिट्ठी लिख दो, तो मेरे लिये बड़ी खुशी की बात होगी। एक बार फिर डाकिया दरवाजे पर आयेगा और मेरे नाम एक चिट्ठी थमा जाएगा।

मैं जब भी तुमसे फोन पर बात करता हूँ, लगता है जल्दी मची है। मैं तो अतृप्त होकर रह जाता हूँ। बहुत सी बातें करने का मन करता है। सप्ताह भर सोचता रहता हूँ कि इस बार यह बोलूँगा, वह पूछूंगा; यह बताऊंगा – वह पूछूंगा लेकिन जब फोन आता है सब बातें गुम हो जाती है। और फोन रखते ही सब याद आ जाती हैं। कुछ बातें तो समझ ही नहीं पड़ती कि कैसे कहूँ, कैसे पूछूं? तुम कब आओगे, एक बार देखने का मन हो रहा है, एक बार आ कर मिल लो।  नहीं, कुछ कहना नहीं है, कुछ चाहिए भी नहीं बस कुछ दिन साथ साथ रह लेते, बिना कुछ किए। अब जिंदगी का क्या भरोसा? अब रोज-रोज का बाज़ार नहीं होता। रिश्ते-नाते अब नहीं सँभलते। हम, मैं और तुम्हारी माँ, अब एक दूसरे को नहीं सँभाल पाते? आँखें किसी को ढूंढती रहती हैं। अब इस शहर का शोर-बर्दास्त नहीं होता। यहाँ की चहल-पहल, रेलम-पेल, भाग दौड़, समझ के परे हो गई है। रिश्ते-नातों को संभालना भारी लगने लगा है। किसी छोटी जगह, तीर्थस्थल पर जा कर रहूँ, व्यवस्था कैसे करूँ? किस को कहूँ ये सब?

तुम्हारे लिए जो भेजा था, मिला? खाया, पहना? कैसा लगा? अपने दोस्तों को भी दिया? दूध पीते हो? रात को नींद ठीक से आती है? देर तक तो नहीं जागते? बार बार नींद तो नहीं टूटती? ...... कैसे पूछूं ये सब? बैठे बैठे अनेक प्रश्न आते-जाते रहते हैं, लेकिन पूछ नहीं पाता।

ये सारी बातें मन में रह जाती हैं। आज चिट्ठी के बहाने खुल कर बतियाने का मौका मिला, मन में जो बातें घुमड़ती रहती थीं, तुमसे कह कर बड़ा हल्का महसूस कर रहा हूँ। पता नहीं, फिर कभी इतनी बातें करने का मौका मिलेगा या नहीं। अच्छे से रहना। अपना ख्याल रखना। दोस्तों को मेरा आशीर्वाद कहना। अच्छे और नियमत जीवन का पालन करना। ईश्वर तुम्हें सुखी रखे और तुम्हें जीवन में अपार सफलता और उन्नति मिले, मेरी यही कामना है।

शुभकामनाओं सहित,

तुम्हारा पापा

पुन:श्च :

वैसे बेटा तुम्हारी भी अपनी विवशता होगी। अनजाने लोग, पराई भाषा, अनबूझ सभ्यता को तो तुम भी झेल रहे होगे। बेतहाशा भाग  रही जिंदगी से तुम भी परेशान तो होगे, लेकिन क्या इतने विवश हो? सुख-दुख, धूप-छाँव, वसंत-पतझड़, प्रकाश-अंधेरा तो साथ साथ ही हैं। लेकिन क्या इंसान इतना लाचार हो गया है?)

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शनिवार, 1 अगस्त 2020

सूतांजली अगस्त 2020

सर्व प्रथम, सूतांजली के  चौथे वर्ष में प्रवेश में सहयोग के लिए धन्यवाद।

 संपर्क सूत्र (लिंक):

URL  https://sootanjali.blogspot.com/2020/08/2020.html

 सूतांजली के अगस्त अंक में निम्नलिखित कई विषयों पर चर्चा है:

१। अनुशासित विरोध

गांधी का तरीका – कैसे करें विरोधियों से बर्ताव?

८ अगस्त १९४२ मुंबई, गवालिया टैंक मैदान – आज का अगस्त क्रांति मैदान – युद्ध की घोषणा का स्थल बना था, और महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी को संबोधित किया था। गांधी मार्ग से उसी सम्बोधन का प्रारम्भिक अनुच्छेद।)  

“आपने अभी जो प्रस्ताव पास किया है उसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। मैं उस तीन साथ.......

२। सोचो और  समझो

          बातें -

          क। श्री जय प्रकाश नारायण, और

          ख। बी आर अंबेडकर की 

३। सामान्य सेवक और निष्ठावान भक्त

विनोबा से प्रश्नोत्तर :

विनोबा से बातचीत का अलग ही आनंद था, क्योंकि वे, सवाल के बोझ और जवाब के आतंक से मुक्त, आनंद में पगे होते थे। एक छोटी से बानगी गांधी मार्ग से।

प्रश्न : लक्ष्मी अपने माँ-बाप के अंतिम समय में भी नहीं आई। उस वक्त उनके पास रहना लक्ष्मी ....

४। परतन्त्रता का मूल है - भय

भय क्यों, किससे? भय को पहचानें और दूर करें। स्वतन्त्रता का यही सिद्धान्त है। श्री माँ,गांधी और बाज़ार के कारनामे:

अग्निशिखा में मैंने पढ़ा कि श्रीमाँ अपने अनुभवों की चर्चा करते हुए एक दिन बताती हैं:

मैंने अपनी आंखें खोलीं और क्या देखती हूँ मैं? एक विशाल, क्रुद्ध सर्प मेरे सामने फुफकार रहा था। वह आधा कुंडली मारे बैठा  था। उसे मेरा वहाँ बैठना बिलकुल नहीं गंवारा। मुझे पता नहीं था .....

 सूतांजली के आँगन में के नाम से ज़ूम मीटिंग की सूचना और अपने सुझाव देने का अनुरोध।

 संपर्क सूत्र (लिंक):

URL  https://sootanjali.blogspot.com/2020/08/2020.html