बुधवार, 29 अप्रैल 2009

सुख की सीमा

हम जब इस संसार में आते हैं, तब हमारे साथ होती है ईश्वर द्वारा प्रदत्त समझ। धीरे धीरे समय के साथ साथ इस पर सांसारिक समझ की परत चढ़ने लगती है। एक समय ऐसा आता है कि इस सांसारिक समझ की परत इतनी मोटी हो जाती है कि ईश्वरीय समझ विलुप्त हो जाती है। लेकिन वह न तो पूरी तरह समाप्त होती है और न ही मरती है। वह रहती है वहीं उसी प्रकार भले ही हम उसे भूल जाएँ, विस्मृत हो जाए, दिखाई न पड़े।

जन्म के साथ ही हम अपने कल्याण के लिए कार्यारम्भ कर देते हैं। हमारा कल्याण किस में है? कल्याण क्या है? जैसे जैसे हमारी समझ पर परतें चढ़ने लगती है, वैसे वैसे हमारी कल्याण की परिभाषा भी बदलने लग जाती है। प्रायः एक समय ऐसा आता है कि हमें अपना कल्याण अर्थोपार्जन में ही दिखने लगता है। क्योंकि हमें लगता है कि अर्थ से ही मनोवांछित भोग विलास की प्राप्ति की जा सकती है। और पूरा सुख इसी भोग विलास में समाहित है। लेकिन अगर इसे ज़रा सा कुरेदें तो वस्तुस्थिति दूसरी ही नजर आती है ।

प्रश्न है हमें कितना सुख चाहिए? सुख कि कोई सीमा है या फिर जितना मिले उतना सुख चाहिए? सही बात तो यह है कि हम सुख कि कोई सीमा नहीं चाहते, जितना मिले उतना सुख चाहिए। यानि असीम सुख चाहिए। सुख का परिमाण निश्चित होते ही दूसरा प्रश्न उठता है कि यह असीम सुख हमें कहाँ चाहिए? यानि घर पर चाहिए या दफ्तर में चाहिए या फिर कहीं और? बड़ा बेतुका सा प्रश्न प्रतीत होता है यह क्योंकि इसका तो सीधा सा उत्तर यही है कि मिले तो सब जगह सुख चाहिए। यह असीम, हर जगह मिलने वाला सुख किस किस से चाहिए? पति से, पत्नी से, बेटे से? ऐसा तो नहीं है कि हमें कुछ सीमित लोगों से ही सुख चाहिये। सही तो यही है कि मिले तो सब से सुख चाहिये। अच्छा तो यह सुख किस समय चाहिये? सुबह चाहिये या शाम को? रात को चाहिये दोपहर में? इसका भी वही उत्तर है, मिले तो सब समय चाहिये। लेकिन सुख के बहुत प्रकार होते हैं - जैसे नशे का सुख, भुलक्करी का सुख, सचेतन सुख , अचेतन सुख आदि आदि। निर्विवाद है कि सुख तो सचेतन ही चाहिये। सुख का हमें अनुभव होना चाहिये और उस सुख कि हमें याद भी बनी रहनी चाहिये। वह सुख क्या काम का जिसे हम अनुभव ही नहीं कर सकें और जिसकी हमें याद न रहे। अतः हमें चैतन्य सुख चाहिये।

यानि हमें असीम, अनन्त सुख चाहिए। हम जो चाहते हैं, वह सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक सुख है। हम सबसे सुख चाहते हैं और चैतन्य सुख चाहते हैं। अब अगर हम कुरेदें अपनी समझ को, अपने मस्तिष्क को जिस पर परतें पड़ी हुई हैं तो हमें तुंरत यह स्पष्ट हो जाएगा कि जाने अनजाने हम परमात्मा को ही चाह रहे हैं। हम समझें या न समझें हमारी चाह परमात्मा की ही है। लेकिन अपनी नासमझी के कारण हम सीमित सुख के पीछे दौड़ना शुरू कर देते हैं और सीमित सुख का अंत हर समय दुःख में ही होता है।

साध्य हमेशा साधन से बड़ा होता है। साध्य की प्राप्ति के लिए हम साधन का प्रयोग करते हैं। जैसे कि नदी पार करने के लिए नौका का, और साध्य की प्राप्ति के बाद साधन का त्याग कर देते हैं। जैसे कि नदी पार करने के बाद नौका का त्याग कर देते हैं। लेकिन हमने साधन को साध्य से बड़ा बना लिया है। सांसारिक भोग की प्राप्ति के लिए परमात्मा को साधन बना लिया है। इस साधन (परमात्मा) से हम साध्य (भोग) मांगते हैं और साध्य (भोग) की प्राप्ति होने पर साधन (परमात्मा) का त्याग कर देते हैं। क्या यह ठीक लगता है? कामना का होना बुरा नहीं है। लेकिन यह मालूम होना चाहिए की कामना में चाह है और चाह में आह। अतः कामनापूर्ति की चाह भी परमात्मा पर ही छोड़ देनी चाहिए।


गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

आजादी के बाद के लोग - विजय बहादुर सिंह

प्रश्न ! प्रश्न !! और प्रश्न !!! आज हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के जेहन में केवल प्रश्न ही प्रश्न हैं। बेचैन है हमारी आम जनता। उसके दिमाग में प्रश्न ही प्रश्न भरे हुए हैं, खोज है उत्तरों की। "आजादी के बाद के लोग" श्री विजय बहादुर सिंह की समय समय पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित ऐसे ही ३३ लेखों का एक संग्रह है जिसमें लेखक ने हमारे प्रश्नों को प्रस्तुत किया है। ऐसा लगता है की हमारे ही विचारों को शब्द मिले हैं।

"समाज के नियम क़ानून हैं, संविधान है, लोकसभा है। इन्हीं को तो सत्ता कहते हैं। ये सब मिलकर अपनी जनता से खेलते हैं। अब इस खेल में अगर सत्ता ही हर बार जीतती है और जनता के हाथ पराजय और निराशा ही आती है तो क्या किया जाए?"

स्वतन्त्रता संग्रामियों को क्षोभ है कि क्या उन्होंने अपनी जिन्दगी इन्ही मुद्दों के लिए झोंक दी थी जो अब उठाये जा रहे हैं? निचली जाति के पक्षधर मायावती और मुलायम, बाल ठाकरे और प्रकाश अम्बेडकर, लालू यादव और नितीश कुमार एक दूसरे के विरुद्ध खड़े हैं। क्या इनके हित अलग अलग हैं? बाहर के दुश्मनों को तो हमारे नौजवानों ने खदेड़ दिया लेकिन भीतर के इन दुश्मनों को ठिकाने कौन लगायेगा? क्या यह सच नहीं है कि देश के कुछ लोग ऐसा जीवन जीते हैं जैसा आर्यों के नायक इन्द्र और सोने की लंका के रावण को भी नसीब नहीं था? क्या इस देश में सबसे ज्यादा अभद्रता और अनैतिकता इसी वर्ग में नहीं दिखती जिसके हाथ में सत्ता और शासन की बागडोर है?

लेखक चिल्ला उठता है "तब हम क्या करें? क्या यह देश छोड़ परदेश में जा बसें? सुनामी को आमंत्रित करें कि हमें लील ले, या ओसामा हमारा सफाया कर दे या बुश से कहें कि पधारो हमारे देश?" हमारी स्वतन्त्रता-दिवस का "स्व" गायब है, "तंत्र" बिका हुआ और दिवस चाय-काफी-शराब की पार्टियों तक सीमित। और तो और हमारी राजनीति "वंदे मातरम" तक के पीछे हाथ धो कर पड़ी हुई है।

विजय बहादुर ने केवल हमारे प्रश्न ही उठाये हों, ऐसी बात नहीं है। उनहोंने हमसे प्रश्न भी किए हैं । जिस जेसिका लाल की ह्त्या के विरुद्ध समस्त मीडिया और लोग उठ खड़े हुए वे बोफोर्स के दलालों या अन्य राजनीतिक दलालों के विरुद्ध क्यों नहीं खड़े हो पाये? हम कैसे पके अन्न "भात" को छोड़ कर अनपके अन्न "राईस" खाने लगे? रौशनी का त्यौहार दिवाली क्यों सबों के घरों में चिराग न जला सकी? भाईचारे की होली, खून में क्यों सनने लगी? कैसे पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी राष्ट्रीय कम और सरकारी ज्यादा बन गए? एक अकेली ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमें चूस चूस कर भूखा और नंगा कर दिया था, आज वैसी ही सैकड़ों कंपनियाँ यहाँ कार्यरत हैं। उनके भूखे खूनी जबड़ों के लिए यह देश कितना छोटा पड़ेगा? क्या इस बात की ख़बर हमें है? क्या गुलामी केवल राजनीतिक ही होती है? अंग्रेजों ने अमेरिका को कैसे चूसा इसका जिक्र थॉमस पैन ने किया है "the inhabitants of that unfortunate city (Boston), who but a few months ago were in ease and affluence, have now, no other alternative than to stay and starve, or turn out to beg." अपने महामंत्र "वसुधैव कुटुंबकम" को भूल कर भू-मंडलीकरण (globalisation) की तरफ क्यों और कैसे घूम हम. विश्व को एक कुटुंब न बना कर एक बाजार बना कर रख दिया हमने!

" मैं अक्सर पूछता हूँ कि ग्लोबलाइजेशन क्यों? कुटुम्बीकरण क्यों नहीं। इसमें सिर्फ मनुष्य नहीं है, वे समस्त जीवन-रूप हैं, जो अस्तित्ववान हैं। कुटुंब भाव में जो सगापन है, मनुष्यता बोध है, ग्लोबलाइजेशन में उसकी दरकार नहीं। कलाओं के सामने आज यह सबसे कठिन चुनौती है कि वे इस बौद्धिक कुटिलता और धूर्तता का पर्दाफाश करें। लेकिन क्या भारत के गुलाम बुद्धिजीवियों से इसकी उम्मीद की जा सकती है? क्या उन्हें भारत की परम्पराओं का कोई अता-पता है? "

तीस जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को तो सिर्फ गांधी के शरीर की ह्त्या हुई थी, उनके विचारों की ह्त्या किसने की ? बुद्धिजीवियों एक बहुत बड़ा वर्ग सिर्फ अपनी स्वार्थपूर्ति में लगा हुआ है। अब अगर हमें इस देश की चिंता है तो हम जाएँ कहाँ? क्या इन बिके हुए बुद्धिजीवियों के पास या कहीं और? यह कहीं और कहाँ? पश्चिम के विद्वानों ने खूब प्रचारित किया कि भारत साधुओं, सन्यासियों का देश है। हम क्यों नहीं बता पाए की चाणक्य, वात्स्यायन, आर्यभत्त, नागार्जुन, धन्वनतरि, सुश्रुत भी इसी देश के थे?

आज हम इस काबिल भी नहीं की प्रश्न पूछ सकें। बशीर बद्र ने लिखा है " जी बहुत चाहता है सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता।" विजय बहादुर सिंह ने यह हौसला तो दिखाया। अगर हम प्रश्न उठाने का भी हौसला बना लें तो उत्तर तो हमें मिलने लग जायेंगें।

"पत्रकार, लेखक , वकील, डाक्टर, इंजीनियर
ठेकेदार बुद्धि के विद्या के पैगम्बर
अगर विवेक बचा है तुम सचमुच जिंदा हो
अपनी अब तक की करनी पर शर्मिन्दा हो
आओ! साबित करो तुम्हारा रक्त सही है
संकट में है देश तुम्हारा, वक्त यही है।"


तुम्हारा स्वाभिमान और आत्म-गौरव पहले भी जिंदा था, आज भी वह मरा नहीं हैयही तुम्हारी असली परम्परा हैयही तुम्हारा असली चरित्र हैहे भारत के भाग्य-विधाताओं उठो और अपने चरित्र को पहचानोतुम्हारा देश तुम्हें पुकार रहा है

हमें चाहिए उत्तर! उत्तर!! और उत्तर !!!



शनिवार, 18 अप्रैल 2009

बिरमित्रपुर - झुनझुनूधाम

बाम्हनी नदी के किनारे बसी है ओरिसा की इस्पात नगरी - राउरकेला। स्टेशन से ही पहाड़ पर स्थापित "वैष्णो देवी" का मन्दिर दिखाई पड़ता है। करीब ४०० सीढ़ी की ऊंचाई के इस मन्दिर में माँ वैष्णो देवी का ही प्रारूप विराजित है और इसी कारण है यह नाम। वैसे नाम के अलावा दोनों में और कोई समानता नहीं है - ही व्यवस्था की और ही भक्ति भाव की

राउरकेला से बिरमित्रापुर जाने के लिए बस (१५ रूपये), ऑटो (२५० रूपये) तथा टैक्सी (३५०रुपये) में उपलब्ध हैंदूरी है ३६ की.मीऔर रास्ता शानदारआप चाहें तो राउरकेला से निकलते समय गणगौर में नास्ता कर सकते हैंअगर आप कोलकाता के गणगौर से परिचित हैं तो अलग से बताने के लिए और कुछ नहीं बचता हैउत्तम मिठाई , सुस्वादु नाश्ता और बढ़िया भोजन आप जो चाहेंबिरमित्रापुर झुनझुनूधाम में अगर प्रसाद चढ़ाना हो तो उचित होगा की आप यहीं से साथ ले लें

बिरमित्रापुर स्थित रानीसती मन्दिर का नाम करण भी झुंझुनू के आधार पर "झुनझुनूधाम" ही रखा गया हैस्वरुप, सजावट, बनावट भी हूबहू झुनझुनूधाम के तर्ज पर ही हैऐसा लगता है जैसे यहाँ के धार्मिक लोगों को नक़ल करने की आदत हैतभी तो वैष्णो देवी भी है और झुनझुनूधाम भी

खैर मन्दिर प्रांगण का रख रखाव एवं व्यवस्था काबिले तारीफ़ हैमन्दिर परिसर में ही धर्मशाला है जिसमें १५ वातानुकूलित कमरे(रु.४००) हैं जिनमें व्यक्ति तक आराम से रह सकते हैंइसके अलावा दोर्मैतारी (रु.११००) भी हैं जिनमें १३ व्यक्ति रह सकते हैंबढिया भोजन एवं नाश्ते की भी व्यवस्था मन्दिर में है

मन्दिर से करीब की.मीपर ग्लोबल रिहैबितिलेशन एंड डेवेलपमेंट सेंटर हैयहाँ अभी ३६ बच्चे हैं, एवं १५ कर्मचारीअनाथ बच्चों के जीवन को सजाने-संवारने का एक उत्साहवर्द्धक एवं प्रशंसनीय प्रयास हैअगर आप बिरमित्रापुर जा रहे हैं तो इन बच्चों से जरूर मिलिएआप चाहें तो इनके लिए कुछ ले जा सकते हैं यथा : खाने के लिए, पहनने के लिए, खेलने के लिए, पढ़ने के लिए या और कुछ अपनी इच्छा एवं शक्ति के अनुरूप ले जाएँ और साथ ले जाएँ असीमित प्यारइन्हें स्नेह चाहिए, रास्ता चाहिए, करुणा या दया नहींयहाँ हम भाई बहनों से मिलेबहने बड़ी हो गयी हैं अतः पड़ने के लिए कोडाईकनाल पब्लिक स्कूल में भेज दी गयी हैंस्कूल की फीस सेंटर वाले ही देते हैं तथा प्रयोग के लिए एच पी का लैपटॉप भी दिया गया हैवे छुट्टी में अपने घर आई हुई थींपड़ने में तेज एवं निपुणएथेलेटिक कंपटीशन में देर सारे तमगे जीत रखे हैं उसने, साथ ही "वीरता" पुरस्कार भी - राज्य के मुख्यमंत्री से बहादुरी के लिएनिगाह है आई..एस परसही दिशा और साथ मिलता रहा तो निश्चित है की अपनी मंजिल पा लेंगीं

राउरकेला एवं बिरमित्रपुर में एक और ख़ास बात नजर आईवाहन चालकों को हड़बडी नहीं है। "पहले मैं" के बदले "पहले आप" की सोच स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैवाहन को रोकना और पास देना इनकी आदत हैबिरमित्रापुर एक छोटा सा कस्बा है, आबादी होगी यही कोई २०/२५ हजारकस्बे के चारों तरफ़ माईन्स हैं जिन में काम करने वाले ही इस कसबे के बाशिंदे हैं

कुल मिला कर बिरमित्रपुर की यात्रा यादगार यात्रा रहीपूर्ण विश्राम एवं रानीसती का पूजनदोनों साथ साथ और साथ में ग्लोबल विलेज का अविस्मरनीय अनुभव




गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

मेरे विचार - चुनाव, लोकतंत्र और भारतीय संविधान - १

चुनाव, लोकतन्त्र और भारतीय संविधान - १
मैं अपनी बात प्रारम्भ करना चाहूंगा Aby Hofman की एक पंक्ति से "Democracy is not something you believe in or a place to hang your hat, but its something you do, you participate. If you stop doing it, democracy crumbles and fails. If you paticipate, you win and the future is yours."

आइये अब हम थोड़ी चर्चा करें अपने भारत के संविधान की। हमारे संविधान को तैयार किया है constitutional assembly ने जिसमें हर धर्म, जाति, वर्ग के प्रतिनिधि समुचित संख्या में थे। २ वर्ष ११ महीने १८ दिनों के अन्दर इस एसेम्बली की १६६ बैठकें हुईं और ये बैठकें बंद कमरों में न होकर एक खुला अधिवेशन था। इसमें अनुसूचित जाति के ३० प्रतिनिधि थे। लिखे हुए संविधानों में हमारा संविधान सबसे बड़ा है तथा यह हिन्दी एवं अंगरेजी दोनों में है। हमारे संविधान की उद्देशिका प्रारम्भ होती है इन शब्दों से,"हम, भारत के लोग" जो इस बात की घोषणा करता है की अन्तिम सत्ता हम, भारत के लोगों के हाथ में है। यह, यह भी बताती है की यह संविधान हमने ही बनाया है। यह हमारे ऊपर लादा नहीं गया है और न ही किसी बाहरी शक्ति ने इसे हमें दिया है।उस गणराज्य को जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने खून से सींचा और रचा, जिसकी उम्र अभी ६० वर्ष भी नहीं हुई है, आइये अब थोड़ा विचार करें की उस संविधान के साथ हमलोगों ने क्या किया? इस ६० से कम वर्षों में हमने संविधान में १०० से ज्यादा संशोधन कर डाले जबकी अमेरिका ने २०० वर्षों में २७ संशोधन किए हैं, ऑस्ट्रेलिया के १०० वर्षों के इतिहास में १० से कम और जापान के ६० वर्षों में अब तक एक भी संशोधन नहीं हुआ है। तो अपने संविधान में इतने संशोधन करके हम क्या बताना चाहते हैं? - हमारे संविधान निर्माता सक्षम नहीं थे, वे दूरदर्शी नहीं थे, या फिर हम औरों की तुलना में ज्यादा प्रगतिशील हैं। इतने प्रगतिशील जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। दो दशकों ७१-८० और ८१-९० के दौरान २२-२२ परिवर्तन किए गए। और इनमें सबसे ज्यादा चर्चित परिवर्तन ४२ वें संशोधन में ४३ धाराओं में संशोधन किया गया। जबकि अन्य संशोधनों में प्रायः १ या २ धाराओं में ही परिवर्त किया गया था। यह तानाशाही या निरंकुश शासन का एक नमूना है। हमारी मूल उद्देशीका में "समाजवाद" एवं "पंथनिरपेक्ष" शब्द नहीं था। इन संशोधनों द्वारा वोट की राजनीति के तहत १९७७ में घुसेड़ा गया। जिसके कारण न जाने कितना खून बह चुका है, बह रहा है और बहना बाकी है।

पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है
पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है
पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है२००७ में लोकसभा का सत्र मात्र ६६ दिनों तक चला और इसमें से व्यवधान के कारण नष्ट हुए समय को निकाल दें तो यह संख्या और कम हो जायेगी। १३ वीं लोकसभा में २२.४% और १४ वीं लोकसभा में २६% समय हंगामों के कारण बर्बाद हुआ। लोकसभा की गिरती हुई गरिमा के मद्देनजर १९९२ में लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने सांसदों के लिए आचार संहिता पर विचार करने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। तत्पश्चात सी.एम्.जी.बालयोगी की अध्यक्षता में २००१ में आचार संहिता लागू की गयी। वैसे इस आचार संहिता की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि लोकसभा नियमावली ३७३(अ) के अंतर्गत कार्यवाही करने का प्रावधान है। लेकिन ये सब केवल कागज़ के पन्नों तक ही सीमित हैं। हंगामे होते रहते हैं, शान्ति बनाए रखने का अनुरोध किया जाता है लेकिन कार्यवाही के नाम पर केवल शून्य है।


"सबसा दिखना छोड़ कर ख़ुद सा दिखना सीख।
संभव है, सब हों ग़लत बस तू ही हो ठीक । "
अच्छाई को किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं होती, वह अकेले ही बुराई पर भारी पड़ती है। देश की जिस नेता को जनता का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त था, उतना जितना की देश के स्वतन्त्रता संग्रामियों को भी नहीं मिला, वह भी दुर्भाग्यवश दिशाहीन हो गयी। कांग्रेस को विभाजन के बाद चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं मिले। इंदिरा के नाम पर जिसे भी टिकट मिला संसद में जा बैठा। जनता ने उम्मीदवारों को नजरअंदाज कर उस गर्म खून को अपना मत दिया जिसमें उसे अपने सपने देखे। इसका परिणाम यह हुआ की संसद असमर्थ, सत्तालोलुप, अशिक्षितों का अखाड़ा बन गयी जहाँ से शिक्षित, योग्य, समाजसेवी, देश परायण लोगों ने पलायन कर दिया। सज्जनों, पार्टी नहीं लड़ती जुल्म के खिलाफ, आदमी लड़ता है। आदमी अगर ख़ुद स्वार्थी, बदमाश और लुच्चा होगा तो वह राम की और से भी लड़े तो उन्हें भी रावण बना कर दम लेगा। और यही हुआ हमारे नेताओं के साथ, वे भी रावण बन गए। समय के साथ, वर्ष दर वर्ष सांसदों का स्तर गिरता गया। होनहार व्यक्तियों को राजनीति से डर लागने लगा एवं घृणा होने लगी और असंसदीय सांसदों की बन आई। संसद का प्रमुख कार्य है - विधेयक बनाना, जनता के पैसों की हिफाजत करना एवं प्रशासन संभालना। उपलब्ध आंकडों से पता चलता है की प्रथम लोकसभा का ४९ प्रतिशत समय कानून संबंधी कार्यकलापों में लगा था जो अब घटा कर १३ प्रतिशत से भी कम हो गया है। इसी प्रकार आम बजट, रेल बजट, राज्यों के बजट तथा केन्द्र प्रशासित राज्यों के बजट पर जहाँ पहले २५ प्रतिशत समय लगता था, वहाँ अब १२% से कम समय लगता है। यही हाल प्रशासनिक कार्यों का है। १६% से घाट कर ९% रह गया है।"शून्य काल" में पहले जहाँ २०-२५ प्रश्नों के उत्तर दिए जाते थे, अब यह घाट कर सिर्फ ५ रह गए हैं। ज्यादातर समय नारेबाजी, शोर शराबा, गाली-गलौच, मार-पीट या फिर समय बरबाद करने के उद्देश्य से गोल गोल लंबे उत्तर देने में समाप्त हो जाता है । किसी भी विधेयक या बिल को मंजूरी देने के पहले उस पर बहस होती है और मंजूरी देने के लिए कोरम का होना आवश्यक होता है। धीरे धीरे हमारी संसद इस अवस्था में पहुँच चुकी है जहाँ सांसदों में उन पर बहस करने के लिए समय नहीं है। मैं कहूंगा उसे समझने वाले सांसद संसद में हैं ही नहीं। और जब वे समझते ही नहीं तो फिर न तो वे बहस में भाग ले सकते हैं और न ही उपस्थित रहना आवश्यक समझते हैं । संसद ने २००७ में ४६ विधेयक पारित किए। इनमें से ४१% बिना बहस के पारित हो गए। बिल को पारित करने के लिए कोरम की आवश्यकता को नज़रंदाज़ करना एक आम बात । aur इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों की मिली भगत है। बिल पास होते रहते हैं , सरकारी मोहरें लगती रहती हैं। ६२% सांसदों ने यह स्वीकार किया है कि कोरम सम्बधित संविधान की आवश्यकता को वे जानते हैं, वे यह भी मानते हैं की संसद संविधान की इस आवश्यकता के उल्लंघन से भी परिचित है लेकिन कुछ इन गिने सांसद ही इसको लेकर चिंतित है। इसका कारण केवल लापरवाह सांसद नहीं, बल्कि नासमझ सांसद हैं। इसे समझाने के लिए किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं बल्कि उसको मानने की है।

शेष में

मेरे विचार - चुनाव, लोकतंत्र और भारतीय संविधान - 2

चुनाव, लोकतंत्र और भारतीय संविधान - 2

चुनाव आयुक्त ने पहली बार अप्रैल २००४ में जीते हुए सांसदों के आंकड़े , उन्हीं के द्वारा दाखिल किए गए हलफनामों पर आधारित, प्रस्तुत किए हैं। इन आंकडों का विश्लेषण किया है पब्लिक अफेयर्स सेंटर के डा. सैमुअल पाल और प्रोफ़ेसर एम्.विवेकानंद ने। उस विश्लेषण से सामने आए हैं कुछ नतीजे। मैं प्रमुखतः तीन मुद्दों पर आपलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा:-

संसद में बढ़ते अपराधी - संसद में लगातार अपराधियों की संख्या बढ़ती जा रही है। मौजूदा संसद में लगभग २५% सांसद के विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से ५०% के विरुद्ध मामले हलके फुलके या राजनीतिक हैं। लेकिन बाकी ५०% के विरुद्ध गंभीर मामले हैं जिसके कारण ५ साल या उससे ज्यादा की जेल हो सकती है। चुनाव आयोग ने संसदीय समिति को यह सुझाव दिया था की वे उम्मीदवार जिनके विरुद्ध गंभीर आरोप दर्ज हैं तथा न्यायालय को प्रिअमा फेसिया (prima facia) आरोप सही लग रहे हैं, ऐसे उम्मीदवारों का नामांकन पात्र स्वीकृत नहीं होना चाहिए। दुःख की बात है संसद समिति ने इस सुझाव को स्वीकार नहीं किया।

२। सांसदों में शिक्षा का अभाव -
हमारी संसद में शिक्षा का भी अभाव है। १३२ सांसद स्नातक नहीं हैं। और कम पढ़े लिखे सांसदों में अपराधी भी ज्यादा हैं। शिक्षित सांसदों के विरोध में यह कहा जाता है की हमारे देश की अधिकतम जनता गांवों में रहती है और अनपढ़ है। लेकिन प्रश्न यह है की हम व्यवस्था आज के लिए कर रहे हैं या आगामी शताब्दियों तक के लिए? हम जनता को अनपढ़ बनाए रखना चाहते हैं या उसे पढ़ाना चाहते हैं।हम शिक्षा पर जोर देना चाहते हैं या अशिक्षा पर। अभी हाल में भूटान में हुए पहले चुनाव में विभिन्न प्रकार के तर्क वितर्क के बावजूद संसद के पहले चुनाव में undergarduate प्रत्याशियों के लिए दरवाजे बंद कर दिए गए। परिणामस्वरूप मौजूदा संसद के ६६% सांसद चुनाव नहीं लड़ सके। प्रमुख चुनाव आयुक्त ने कहा की भूटान की संसद को विधेयक बनाने हैं और देश के हित में राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय निर्णय लेने हैं। हमारे पढ़े लिखे नागरिक अनपढ़ नागिरकों के हितों को अच्छी तरह समझते हैं और उनके हितों की रक्षा करने में सक्षम हैं। और सबसे अहम् बात - दुर्बलों की रक्षा सबल ही करते हैं, दुर्बल अपनी रक्षा ख़ुद नहीं कर सकते। अतः सांसदों का शिक्षित एवं सक्षम होना अनिवार्य है।
३.सांसदों की उम्र- हम बात करते हैं युवा भारत की। एक ऐसे भारत की जिसमें युवा बहुमत में हैं। युवा यानी ३५ वर्ष से कम उम्र की। लेकिन गौर करें अपने सांसदों के उम्र पर।हमारी संसद में वरिष्ठ सांसदों का आधिपत्य है। हमारी लोक सभा में सांसदों की औसत उम्र ४६.५ से बढ़कर ५२.७ वर्ष हो गयी है। इनमें ६५ वर्ष से ज्यादा के १६% सांसद हैं जबकि ३५ वर्ष के सांसद केवल ६.५% हैं। मैं यह नहीं कहता की संसद में युवा सांसदों का बहुमत होना चाहिए लेकिन यह आवश्यक है की सांसदों की औसत उम्र कम होनी चाहिए। बढ़ते उम्र के साथ, दुर्भाग्यबश, कुर्सी छोड़ने के बजाय कुर्सी से येन तेन प्रकारेण चिपके रहने की लालसा बढ़ती जाती है। लेकिन सावधान - युवा सांसदों और राजनीतिज्ञों को लेकर जो एक नई हवा चलानी शुरू हुई है उससे हमें सावधान रहने की आवश्यकता है। बुजुर्ग एवं सफल राजनीतिज्ञ अपने बच्चों को युवा का जामा पहना कर राजनीति के दंगल में उतार रहे हैं। और अपनी छत्र छाया में इस बात का ध्यान रख रहे हैं कि दंगल में वे जीतते रहें। उन्हें हार बर्दास्त नहीं और न ही जमीन से जुड़े हुए हैं। पिछले दरवाजे से सीधे बोर्ड रूम में घुसा दिए गए हैं। भारत की राजनीति में यह एक भयानक मोड़ है जिस पर नजर रखने की आवश्यकता है।

अब प्रश्न यह है की हमारे पास क्या विकल्प है? लोकतंत्र में डंटे रहें या तानाशाही की और घूमें । तानाशाही की तरफ जाना तो पीछे हटना है क्योंकि दुनिया में हर जगह तानाशाही समाप्त हो रही है और लोकतंत्र आ रहा है। अतः यह तो निर्विवाद है कि हमें लोकतंत्र को ही पकड़े रहना है। अब अगला प्रश्न है - संसदीय प्रणाली या फिर राष्ट्रपती प्रणाली। संसदीय पद्धति का हमें पिछले ६० वर्षों का अनुभव है। इसके फूलों की सुंगंध एवं काँटों की चुभन सह चुके हैं। इनसे निपटना हमें आ गया है। संसदीय पद्धति में रहते हुए हमने राष्ट्रपति प्रणाली का रूप देखा है। और देखा है तानाशाही में डूबते हुए अपने देश को। लेकिन सौभाग्यवश हम अपनी नाव को बचाने में सक्षम रहे और इतने आंधी तूफानों के बाद भी हम लोकतंत्र की रक्षा कर पाए। यह कैसी सोचनीय परिस्थिति है कि कांग्रेस पिछले ६० सालों में एक परिवार के बाहर अपना नेता खोजने में असमर्थ रही। लेकिन यह भी सच है कि लोकतंत्र होने के कारण यह उनकी बपौती संपत्ति नहीं बन पाई। विपक्ष को भी मौका मिलता है और उसने भी सफल सरकारें बनाई हैं। आवश्यकता है तीन प्रकार के सांसदों की:
१। सांसद जो पढ़े लिखे हों, सभ्य एवं शिक्षित हों ताकि वे शोरगुल, हंगामा, गाली गलौच करने में शर्मिन्दगी अनुभव करें तथा देश के मसलों को समझ कर प्रशासन को चुस्त एवं दुरुस्त करें।
२। संसद में अपराधी नहीं होने चाहिए। वे केवल संसद की गरिमा को गिराते ही नहीं बल्कि जनता एवं स्वच्छ सांसदों का मनोबल भी तोड़ते हैं।
३। वे राजनीतिज्ञ जिनके पाँव कब्र में लटके हों वे सक्रीय राजनीति से हट कर पथ प्रदर्शक बनें और उसके अनुरूप पदों पर सुशोभित हों। उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि child is better than father.

अब हम विचार करें एक अहम् प्रश्न पर। क्या ये तीन परिवर्तन करने से शासन में सुधार हो जायेगा? या देश सुधर जायेगा? या फिर दूसरों के सुझाव लेकर आवश्यक परिवर्तन कर दिए जाएँ? प्रणाली बदली करनी हो तो मन मोहन सिंह या सोनिया गांधी या लाल कृष्ण अडवानी या करात या किसी और को Presidential Form of Government के अंतर्गत राष्ट्रपति बना दें या आप कहें तो उन्हें पूर्ण अधिकार देते हुए देश का राजा या रानी बना दें? लेकिन यह करेगा कौन? किसे चुनेगा और कौन? यह करना तो हमें ही होगा ना - "हम, भारत के लोग।"

"हम, भारत के लोग।" यह तो जाना पहचाना वाक्य है। हमारे संविधान कि उद्देशिका यही तो कहती है - "हम, भारत के लोग।" यानी सत्ता हमारे हाथ में है। हमने उन ५५० लोगों को प्रशासन चलने का कार्य भार सौंप रखा है। उन ५५० लोगों ने मंत्रीमंडल को और मंत्रीमंडल ने प्रधानमंत्री को। यानि सत्ता तो हमारे हाथ में है और हम बात कर रहे हैं औरों को बदलने की! बदलना तो हमें ख़ुद को है। लोकतंत्र बहुमत का शासन है, और हरेक के पास एक वोट है। अतः यहाँ यथा राजा तथा प्रजा नहीं बल्कि यथा प्रजा तथा राजा, सटीक बैठता है। हम प्रशासन में कितना ही रद्दोबदल करलें, उठा पटक कर लें, प्रणालियाँ बदल दें, जब तक हम ख़ुद नहीं बदलते कोई परिवर्तन सम्भव नहीं है।
लोग आहट से भी आ जाते थे गलियों में कभी,
अब जो चीखें भी तो कोई घर से निकलता ही नहीं।
यह क्या हो गया है हमें। कितने बदल गए हैं हम। हम हाथ पर हाथ धरे बैठें हैं और सोचते हैं कोई, कभी, कहीं से आकर हमारे घर को ठीक कर जाय।
ये कैसा इम्तिहान है मेरे मालिक
कि एक मुल्क ६० साल से खुशगवार मौसम का इन्तजार कर रहा हो
और उसकी नौजवान नस्लें हाथ पर हाथ धरी बैठी होमेरे खुदा, मेरे मालिक, मेरे मौला
अगर तुम इस शर्मनाक माहौल में होते
तो क्या तुम ख़ुद
अपने खुदा के खिलाफ बगावत नहीं करते?
मैं वापस याद दिलाना चाहूंगा एबी हाफमैन की उन पंक्तियों को जहाँ से मैंने अपना लेख प्रारंभ किया था, " लोकतंत्र वह प्रणाली नहीं है जिसमें आप सिर्फ विश्वास करते हैं और जिसे व्यवस्थित कर आप निश्चिंत हो जाते हैंबल्कि इस प्रणाली में आप हर समय कुछ कुछ करते रहते हैं, इसमें आप भाग लेते हैंऔर जब आप अपना सहयोग नहीं देते हैं तो लोकतंत्र टूट कर बिखर जाता हैलेकिन अगर आप अपना सहयोग बनाए रखते हैं तो जीत आपकी है, भविष्य आपका है।"

अतः लोकतंत्र की पहली शर्त है सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक। तो आईये सुनहले भविष्य के लिए हम यह शपथ लें की हम सतर्क एवं प्रबुध्द नागरिक हैं, रहेंगें और बनायेंगें। हम अपना उत्तरदायित्व केवल एक वोट देकर समाप्त नहीं समझेंगें और निरंतर इसे अपना सहयोग देते रहेंगें।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

मेरे विचार - हम, चुनाव और लोकतंत्र

हम, चुनाव और लोकतंत्र

तुलसीदास की रामायण क्या केवल एक भक्ति रचना है? एक आम आदमी भगवान कैसे बन सकता है यह हमें राम के चरित्र से ही पता चलता है। गांधी के राम राज्य की परिकल्पना भी तुलसीदास की ही देन है। राम एवं राम राज्य के आधार पर हम अपने दिमाग में, अपने चिंतन में एक भगवान एवं एक आदर्श राष्ट्र का निर्माण करते हैं। हम सब भारतवासियों के दिलों दिमाग में एक आदर्श राष्ट्र की रूप रेखा है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि हमें यह विशवास भी है कि वैसा राष्ट्र केवल कल्पना में हो सकता है यथार्थ में नहीं। हम यह गाते हैं कि " जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा वह भारत देश है मेरा'। लेकिन यह गीत हम उस तोते की तरह दुहराते हैं "शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, फंसना नहीं" और झुंड के झुंड उस जाल में फंसते चले जाते हैं। चुनाव आने पर ये तथा कथित बुद्धीजीवी वर्ग हमें हमारी नागरिकता का अर्थ समझाते हुए हमें हमारे वोट की कीमत बताने लगते हैं और हमें अपना वोट डालने की याद दिलाने लगते हैं। जैसे कि हमारी नागरिकता पाँच वर्षों में केवल एक दिन के लिए ही आती हो। जैसे कि हमारी नागरिकता केवल एक वोट डालने तक सीमित हो। अरे आप समझते क्यों नहीं कि आप पाँचों साल, बारहों महीने, सातों दिन और चौबीसों घंटे भारत के नागरिक हैं। और जिस दिन आप यह समझ लेंगे राम राज्य अवतरित हो जायेगा। जैसे डाक्टर आपकी बीमारी पर और महात्मा आपके अज्ञान पर जीता है वैसे ही दुर्जन आपके भय, स्वार्थ एवं अलगाव पर जीता है। अगर हम जुड़ जाएँ तो ये भाग खडें हों। गांधी ने क्या किया? केवल हमारे डर को बाहर निकाल कर फ़ेंक दिया और हम सबों को एक दूसरे से जोड़ दिया। और इसका नतीजा - उस साम्राज्य में जिस में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, सूर्य अस्त होने लगा।

हम क्यों अपना नेता संसद में ही ढूंढ रहे हैं? क्या यह आवश्यक है कि हमें नेतृत्व राज्य सभा से ही मिलेगा या फिर विधान सभा के रास्ते से ही निकल कर हमारा नेता आयेगा? हो सकता है इनमें कोई द्रोणाचार्य हो, भीष्मपितामह हो, कृपाचार्य हो। लेकिन इन सबों को कृष्ण ने मरवाया क्योंकि व्यक्तिगत रूप में ये सब चाहे जैसे हों लेकिन ये सब पापी के साथी थे। हो सकता है हमारे वर्तमान नेताओं में भी ऐसे लोग हों लेकिन उन सबों को मिटना होगा। पापियों का साथ देना वाला कभी भी जननेता नहीं बन पायेगा। हमें अपना नेता इन राजनीतिक दलों के बाहर से ही मिलेगा। और हमें उसे ढूढ़ना नहीं पड़ेगा उसका तेज, उसकी रौशनी हमें ख़ुद दिखाई देगी।

तो क्या हम चुप चाप हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें? हर्गिज नहीं। हमें सचेत रहना होगा। विप्लवी विचारक Aby Hoffman ने कहा है,"Democracy is not something you believe in or a place to hang your hat, but its something you do, you participate. If you stop doing it, democracy crumbles and fails. If you participate, you win and the future is yours." अतः पाँच वर्षों में केवल एक दिन के लिए नागरिक बनने से नहीं चलेगा, हमें सतत नागरिक बने रहना होगा।

सही वक्त पर चुप्पी साधना मौत मरना है। अतः हमें मुखर होना होगा।

अन्धकार काले बादलों से नहीं, सूर्य के निस्तेज होने से होता है। अतः काले बादलों से बिना डरे सूर्य को अपना तेज बनाए रखना होगा।

जितने भी अवतार हुए, अवतरित होने से पूर्व ईश्वर के गण उनकी सहायता करने उनके साथ अवतरित हुवे थे। अतः उनके गणों की तरह हमें भी अपने हाथ और कंधे मजबूत रखने होंगे और छातियाँ चौड़ी ताकि आवश्यकता पड़ने पर हम मजबूती से हाथ थाम सकें, कन्धों पर उठा सकें और छातियों पर गोली खा सकें। और अगर हम ऐसा कर सके तो राम राज्य को कोई भी नहीं रोक सकता।



सपना जो पूरा हुआ - वर्गिज कुरियन



4th March 2009

This is an autobiography of Verghese Kurien, the man behind bringing White Revolution in India. The original book is in English. This is its hindi translation.

मैं अभी यह किताब पढ़ रहा हूँ। कई खास बातें हैं गीता पीरामल की पुस्तक Business Maharaja पढ़ा हूँ। लेखिका ने इस पुस्तक में लिखा है कि जीवन में एक ऊंचाई के बाद आसमान छूने के लिए केवल काबिलियत काफी नहीं होती है। यह आवश्यक है कि किसी किसी का वरद हस्त सर के ऊपर हो जो कठिनाइयों को दूर कर सके तथा छलांग लगवा सके। कुरियन में काबिलियत तो थी ही साथ ही उनके जीवन में ऐसे लोग भी मौजूद थे।

कुरियन ने जो भी अनुभव किया एवं सीखा उसे बहुत ही सहज भाषा में परोस दिया है। पढ़ने में बहुत ही सरल और सुनी सुनाई सी बात लगती है लेकिन शब्दों में अनुभव की ऊष्मा महसूस कर सकते है। यथा :

जब आप स्वयं के लाभ के लिए काम करते हैं तो उससे प्राप्त सुख अल्पकालिक होता है, लेकिन यदि आप दूसरों के लिए काम करते हैं तो संतुष्टि का एक गहरा भाव जाग्रत होता है और जो धन मिलता है, वह आवश्यकता से कहीं अधिक होता है ( पृ. ४३)

सरकारी अनुष्ठानों से मिले कटु अनुभवों को बेबाक शब्दों में अभिव्यक्त किया :

जब भी सरकार किसी व्यवसाय में घुसती है तो भारतीय जनता के साथ धोखा किया जाता है सरकार के किसी भी व्यवसाय में शामिल होने का सबसे अप्रत्यक्ष प्रभाव यह पड़ता है कि सरकार जनता के निहित हितों कों पूरा करने के बजाय स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति में लग जाती है (पृ.४४)

डेयरी की स्थापना करते हुए उनके सामने यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी - उत्पादन ऐसे मूल्य पर होना चाहिये कि वस्तु को लाभ के साथ बेचा जा सके :

किसी भी वस्तु का उत्पादन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई वस्तु उस कीमत से अधिक पर नहीं बिकती, जिस पर उसका उत्पादन हुआ है अधिक कीमत उत्पादक को और अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित करती है (पृ.६८)

स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजों के तौर तरीकों से ही कार्य करने की पद्धति से भी वे संतुष्ट नहीं हैं :

ब्रिटिशों के कार्य करने की पद्धति कुछ इस तरह की थी कि कोई भी काम सरकारी नियमों द्वारा स्वीकृति लेने के बाद ही होता था और स्वतंत्रता के बाद भी हम भारतियों ने उसमें सुधार करते हुए उसी ढर्रे पर चलना जारी रखा

दुर्भाग्यवश , हम भारत की सबसे बड़ी संपत्ति - यहाँ की जनता - को ही भूल गए किसी भी अनुभवी सरकार के लिए आवश्यक है कि वह देश की जनता को अपनी सबसे बड़ी संपत्ति माने और किसी भी कार्य को नौकरशाही को देने के बजाय देश की जनता को सौंपने की कोशिश करे (पृ.७०)


विदेशी धन के निवेश पर टिप्पणी करते हुए, कूरियन लिखते हैं :

कोई भी देश किसी दूसरे देश में तब तक निवेश नहीं कर सकता जब तक उसे निवेशित धन से अधिक प्राप्त होने की आशा न हो। (पृ.७३)

आज जब हर राजनीतिज्ञ किसी भी तरीके से पैसे बनाने के चक्कर में है, टी.टी.कृष्णामचारी की एक घटना का उल्लेख सुकून पहुंचाती है। टी.टी.कृष्णामचारी की संस्था टी.टी.के.एंड सन्स को अमूल मख्खन का वितरक बनाया गया था। टी.टी.कृष्णामचारी जो उस समय वित्तमंत्री थे इस कंपनी के मालिक थे। टी.टी.के. को लगा कि यह उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं होगा। अत: , उन्होंने २४ घंटों में वितरक को बदलने का आदेश दिया। आज के राजनीतिज्ञों के लिए यह एक सबक है।

11th March 2009

प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी आणन्द का दौरा किया था। उनकी जिद थी के वे एक गांव में किसी किसान के घर पर ही निवास करेंगें। सुरक्षा के इंतजाम एवं वास्तविक गाँव में असली किसान के घर पर ठहराने का काम आसान नहीं था। लेकिन इसे सफलता पूर्वक किया गया। शास्त्रीजी ने आणन्द में किसानों से काफी बातें कीं, वहां कि जलवायु, मिटटी एवं हर प्राकृतिक परिस्थिति का जायजा लिया। फ़िर कुरियन से पुछा कि आणन्द में ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिसके कारण यहाँ के डेयरी सफल हो और दूसरी जगह असफल। फिर उनकी हर सरकारी डेयरी जो पूरे देश में फैली हुई हैं वे क्यों नहीं चल रही हैं? कूरियन ने बताया कि इसका केवल एक कारण है - बाकि सब डेयरियाँ सरकारी हैं जबकि उनकी डेयरी किसानों कि ख़ुद कि हैं।

शास्त्रीजी ने उसी समय देश कि सब डेयरी का संचालन कुरियन के हाथों में देने का निर्णय ले लिया लेकिन दिल्ली लौटने के बाद उनका निर्णय नौकरशाही के बीच फँस गया। कुरियन कि पहुँच प्रधानमंत्री एवं अन्य सत्ताधारी राजनीतिज्ञों तक भी थी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा जगह जगह उनकी यह खीज उजागर होती है :-
दिल्ली के लोग बहुत सी चीजों के बारे में तो सोचते हैं, सिर्फ किसानों के बार में नहीं सोचते। (प्र.१०९)
सरकार के साथ संपर्क के दौरान मुझे इस बात का पूरी तरह से अहसास हो गया था कि सरकार का काम सिर्फ शासन करना हैउन्हें व्यवसायों को चलाने का काम नहीं करना चाहियेसरकार के नियम-कानूनों का उद्देश्य डेयरियाँ चलाना नहों था, बल्कि देश का शास चलन था। (प्र.११२)

कुरियन सरकार कि उस प्रक्रिया से बहुत कुंठित थे जो एक निरर्थक प्रक्रिया का अंग बन चुकी थी जिसमें समय एवं शक्ति का बहुत व्यय होता था. एन.डी.डी.बी. कि फाइल को ले कर वे कहत परेशान रहे। उन्हीं के शब्दों में:
मैं फाइल ले कर गया और सचिव से मिला, जिसने कुछ चर्चा के बाद मुझसे कहा,"हाँ सरकार इस मुद्दे पर विचार करेगी।" जब मैं ने पूछा सरकार कौन है?" तो उनहोंने मुझे बताया,"यह सरकार मंत्री हैं।" इसलिए मैं फाइल ले कर ,"पहले कृषि मंत्री, फिर वित्त, योजना और पर्यावरण मंत्री के पास गयावहां एक बार फिर इस मुद्दे पर वही पुरानी चर्चा कि गई और मुझे बताया गया कि,"हाँ, सरकार इसपर विचार करेगी।" (प्र.१४०)
इस बार सरकार प्रधानमंत्री थेऔर प्रधानमंत्री ने सरकार कैबिनेट को बतायापुरा साल बीत गया थामेरे मन में यह कलुषित विचार घर कर गया था कि जिस व्यक्ति से भी मिलूं और वह मुझे बताये कि "सरकार इस विषय पर विचार करेगी" तो इसका अर्थ होगा कि इसपर कोई भी विचार करने नहीं जा रहा है। (प्र.१४०)

26th March 2009

ऑपरेशन फ्लड की कामयाबी के साथ इसकी देश एवं विदेशों में धूम मच गई तथा अनेक अति विशिष्ट व्यक्तियों कातांता लग गया। इनमें रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन भी थे। डेयरी देखने के बाद उन्होंने कहा कि भारत में दूध केअलावा वनस्पति तेल, जूट एवं कपास में भी ऐसी ही क्रान्ति की आवश्यकता है। दूध वितरण में सुधार कराने में३० वर्ष लगे और इसी प्रकार तेल के लिए ३० वर्ष एवं जूट के लिए ३० वर्ष लगे तो अपना कार्य पूरा करने के पहले हीकुरियन इस दुनिया से विदा हो जायेंगें। अत: महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को इतना धीरे धीरेनहीं किया जाना चाहिए। इन सभी परिवर्तनों को सभी क्षेत्रों में एक साथ एवं शीघ्रता से लाया जाना चाहिए। यहएक क्रान्ति की तरह होना चाहिए। और इसके साथ ही कोसिगिन ने कुरियन को रूस आने का निमंत्रण दिया।कुरियन रूस गए, वहाँ घूमे और उसके बाद कोसिगिन की टिप्पणी को पूरी तरह नकारते हुए लिखा :
"परिवर्तन में निशिचित रूप से समय लगना चाहिए। बुनियादी सामाजिक और आर्थिक परिवर्थान क्रमिक दंग से लाये जाने की आवश्यकता है। जितनी अधिक सावधानी एवं सोच विचार करके इसे लाया जाएगा उताना ही यह अधिक स्थायी होगा। (पृ.१९१)"
कुरियन को कई देशों से वहाँ के दूध वितरण व्यवस्था को सुधारने के लिए निमंत्रण मिला और वे वहाँ गए भी ।
लेकिन दुर्भाग्यवश कहीं भी सफलता नहीं मिली। इसके प्रमुखत: दो कारण रहे। पहला - दुग्ध वितरण में लगे हुएव्यवसाइयों का विरोध एवं दूसरा उस देश में अपना दूध बेचने वाली MNC। वहाँ की सरकारों ने इन दो शक्तियों केआगे घुटने टेक दिए। उनके अनुभवों से यह साफ़ विदित होता है की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कितनी ताकतवर होतीं हैंतथा उनका उद्देश्य केवल अपनी कमाई होती है, और इस उद्देश्य की पूर्ती में वे उस देश का कितना अहित करतीं हैं।

कूरियन पाकिअस्तान भी गए और वहाँ के लोगों से मिले। उनसे मिलने के बाद वे लिखते हैं:
"मेरी समझ में दोनों देशों के बीच चल रही कटुता बेबुनियाद है। मेरे विचार से, विभाजन के पीछे विकसित देशों का षड्यंत्रकारी दिमाग हमें कमजोर बनाने का रहा है।" (पृ.१९४)
श्री लंका में नेस्ले कंपनी ने लंका के बाजार को आधा आधा बाँट लेने का प्रस्ताव रखा जिसे कूरियन ने ठुकरा दिया। फलस्वरूप अंत में कूरियन को ही वापस आना पडा।

दूध वितरण की सफलता के बाद, सरकार के अनुरोध पर कूरियन ने बिजली, नमक, फल एवं सब्जी के वितरण व्यवस्था का अध्ययन किया। लेकिन अब तक वे सरकार से लड़ते लड़ते काफी थक चुके थे। सरकार का भी पहले जैसा समर्थन प्राप्त नहीं था, भ्रष्टाचार एवं नैतिकता का इतना ज्यादा पतन हो चुका था कि कूरियन क्षुब्ध हो जाते थे।
"वास्तव में यह पता करके मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि हमारे लाइनमैन ही किसानों को बिजली चुराने के गुर सिखा रहे थे।" (पृ.२०१)
इन पीड़ा के क्षणों में उन्हें कोसिगिन की फिर याद आई :
"कई बार सरकारी कर्मचारियों ने खुलासा किया कि उनका अस्तित्व उनकी शक्ति और पैसे के कारण है। उनका अस्तित्व देश की भलाई पर टिका नहीं है। अत्यन्त निराशा के इस क्षणों में मुझे वास्तव में आश्चर्य होता है कि कोसिगिन द्वारा दी गई सलाह पर मैंने ध्यान क्यों नहीं दिया। परिवर्तन केवल क्रांति द्वारा और कुछ लोगों का सर काट कर लाया जा सकता है। निस्संदेह यह मेरा ऐसा संघर्ष था, जिससे मैं पीछे हट गया। (पृ.२०४)
वर्त्तमान नेताओं एवं राजनीतिज्ञों पर लिखते हैं:
"यह देख कर पीड़ा होती है कि हमारे पास अब वे महान उद्देश्य अनुसरण के लिए नहीं है और हम घटिया नेता पैदा कर रहें हैं। सरकार से मेरा संबंध पचास वर्षों से अधिक का रहा। मैंने पाया कि सार्वजनिक जीवन में शालीनता दुर्लभ हो गयी है। आज जब शक्ति एवं धन हासिल करने के लिए तीव्र स्पर्धा चल रही है तो अशिष्टता चरम सीमा पर पहुँच गयी है और योग्यता सबसे पीछे रहा हाई है.(पृ.२०७)
लोकतंत्र क्या है :
"
नौकरशाहों की सरकार, नौकरशाहों द्वारा तैयार सरकार और नौकरशाहों के लिए सरकार - लोकतंत्र के इस ब्रांड का जनता में कोई स्थान नहीं है। (पृ। २०७)
अन्तिम पृष्ठों में कूरियन दार्शनिक हो जातें हैं :
"बहुत कम पैसे होना कष्टकारी है, क्योंकि तुम्हारे पास खाने तथा अपनी भूख शांत करने के लिए भी पर्याप्त धन होना चाहिए। किंतु अत्यधिक धन होना इससे भी बुरा है, क्योंकि तब तुम निश्चय ही भ्रष्ट हो जाओगे।(पृ.२२४)
"जब भी आपको आपकी योग्यता से कम मिलता तो आप सम्मान पा सकते हैं और यदि आपको योग्यता से अधिक पैसे मिलते हों तो आपको कोई सम्मान नहीं मिलेगा। (पृ.२२५)
पूरी पुस्तक पड़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि

१। गीता पीरामल का यह कथन पूर्णतया सही है कि सफलता के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति का वरदहस्त सर पर होना चाहिए।
२। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बच कर रहना चाहिए।
३। सरकारी कर्मचारी देश एवं जनता की भलाई के लिए नहीं केवल अपनी भलाई ले लिए होते है।