गुरुवार, 9 अप्रैल 2009

मेरे विचार - चुनाव, लोकतंत्र और भारतीय संविधान - १

चुनाव, लोकतन्त्र और भारतीय संविधान - १
मैं अपनी बात प्रारम्भ करना चाहूंगा Aby Hofman की एक पंक्ति से "Democracy is not something you believe in or a place to hang your hat, but its something you do, you participate. If you stop doing it, democracy crumbles and fails. If you paticipate, you win and the future is yours."

आइये अब हम थोड़ी चर्चा करें अपने भारत के संविधान की। हमारे संविधान को तैयार किया है constitutional assembly ने जिसमें हर धर्म, जाति, वर्ग के प्रतिनिधि समुचित संख्या में थे। २ वर्ष ११ महीने १८ दिनों के अन्दर इस एसेम्बली की १६६ बैठकें हुईं और ये बैठकें बंद कमरों में न होकर एक खुला अधिवेशन था। इसमें अनुसूचित जाति के ३० प्रतिनिधि थे। लिखे हुए संविधानों में हमारा संविधान सबसे बड़ा है तथा यह हिन्दी एवं अंगरेजी दोनों में है। हमारे संविधान की उद्देशिका प्रारम्भ होती है इन शब्दों से,"हम, भारत के लोग" जो इस बात की घोषणा करता है की अन्तिम सत्ता हम, भारत के लोगों के हाथ में है। यह, यह भी बताती है की यह संविधान हमने ही बनाया है। यह हमारे ऊपर लादा नहीं गया है और न ही किसी बाहरी शक्ति ने इसे हमें दिया है।उस गणराज्य को जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने खून से सींचा और रचा, जिसकी उम्र अभी ६० वर्ष भी नहीं हुई है, आइये अब थोड़ा विचार करें की उस संविधान के साथ हमलोगों ने क्या किया? इस ६० से कम वर्षों में हमने संविधान में १०० से ज्यादा संशोधन कर डाले जबकी अमेरिका ने २०० वर्षों में २७ संशोधन किए हैं, ऑस्ट्रेलिया के १०० वर्षों के इतिहास में १० से कम और जापान के ६० वर्षों में अब तक एक भी संशोधन नहीं हुआ है। तो अपने संविधान में इतने संशोधन करके हम क्या बताना चाहते हैं? - हमारे संविधान निर्माता सक्षम नहीं थे, वे दूरदर्शी नहीं थे, या फिर हम औरों की तुलना में ज्यादा प्रगतिशील हैं। इतने प्रगतिशील जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। दो दशकों ७१-८० और ८१-९० के दौरान २२-२२ परिवर्तन किए गए। और इनमें सबसे ज्यादा चर्चित परिवर्तन ४२ वें संशोधन में ४३ धाराओं में संशोधन किया गया। जबकि अन्य संशोधनों में प्रायः १ या २ धाराओं में ही परिवर्त किया गया था। यह तानाशाही या निरंकुश शासन का एक नमूना है। हमारी मूल उद्देशीका में "समाजवाद" एवं "पंथनिरपेक्ष" शब्द नहीं था। इन संशोधनों द्वारा वोट की राजनीति के तहत १९७७ में घुसेड़ा गया। जिसके कारण न जाने कितना खून बह चुका है, बह रहा है और बहना बाकी है।

पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है
पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है
पाठकों, दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की साहस हीनता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश के साथ भी यही हुआ। बुराई की बढ़ती हुई कालिमा को देखकर अच्छे भाग खड़े हुए। सूर्य निस्तेज हो गया। जनसामान्य के साहस की मृत्यु हो गयी और राक्षसों के अन्याय का जन्म हुआ। संशोधनों की आवश्यकता बुराई को होती है, अच्छाई अपना रास्ता बीहड़ एवं दुर्गम परिस्थितियों में भी निकाल लेती है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषण ने कौन से संशोधन किए? कौने से नियमों को बदला? बिना किसी परिवर्तन के उसने न जाने कितने परिवर्तन कर डाले, नई चेतना जगा दी, आमूल परिवर्तन कर डाला। कैसे? केवल एक ही विचार था-"संविधान को संवैधानिक ढंग से चलाना" न की सब जैसा करते रहे हैं वैसा करना। शांडिल्य ने लिखा है२००७ में लोकसभा का सत्र मात्र ६६ दिनों तक चला और इसमें से व्यवधान के कारण नष्ट हुए समय को निकाल दें तो यह संख्या और कम हो जायेगी। १३ वीं लोकसभा में २२.४% और १४ वीं लोकसभा में २६% समय हंगामों के कारण बर्बाद हुआ। लोकसभा की गिरती हुई गरिमा के मद्देनजर १९९२ में लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष शिवराज पाटिल ने सांसदों के लिए आचार संहिता पर विचार करने के लिए सम्मेलन का आयोजन किया। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। तत्पश्चात सी.एम्.जी.बालयोगी की अध्यक्षता में २००१ में आचार संहिता लागू की गयी। वैसे इस आचार संहिता की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि लोकसभा नियमावली ३७३(अ) के अंतर्गत कार्यवाही करने का प्रावधान है। लेकिन ये सब केवल कागज़ के पन्नों तक ही सीमित हैं। हंगामे होते रहते हैं, शान्ति बनाए रखने का अनुरोध किया जाता है लेकिन कार्यवाही के नाम पर केवल शून्य है।


"सबसा दिखना छोड़ कर ख़ुद सा दिखना सीख।
संभव है, सब हों ग़लत बस तू ही हो ठीक । "
अच्छाई को किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं होती, वह अकेले ही बुराई पर भारी पड़ती है। देश की जिस नेता को जनता का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त था, उतना जितना की देश के स्वतन्त्रता संग्रामियों को भी नहीं मिला, वह भी दुर्भाग्यवश दिशाहीन हो गयी। कांग्रेस को विभाजन के बाद चुनाव के लिए उम्मीदवार नहीं मिले। इंदिरा के नाम पर जिसे भी टिकट मिला संसद में जा बैठा। जनता ने उम्मीदवारों को नजरअंदाज कर उस गर्म खून को अपना मत दिया जिसमें उसे अपने सपने देखे। इसका परिणाम यह हुआ की संसद असमर्थ, सत्तालोलुप, अशिक्षितों का अखाड़ा बन गयी जहाँ से शिक्षित, योग्य, समाजसेवी, देश परायण लोगों ने पलायन कर दिया। सज्जनों, पार्टी नहीं लड़ती जुल्म के खिलाफ, आदमी लड़ता है। आदमी अगर ख़ुद स्वार्थी, बदमाश और लुच्चा होगा तो वह राम की और से भी लड़े तो उन्हें भी रावण बना कर दम लेगा। और यही हुआ हमारे नेताओं के साथ, वे भी रावण बन गए। समय के साथ, वर्ष दर वर्ष सांसदों का स्तर गिरता गया। होनहार व्यक्तियों को राजनीति से डर लागने लगा एवं घृणा होने लगी और असंसदीय सांसदों की बन आई। संसद का प्रमुख कार्य है - विधेयक बनाना, जनता के पैसों की हिफाजत करना एवं प्रशासन संभालना। उपलब्ध आंकडों से पता चलता है की प्रथम लोकसभा का ४९ प्रतिशत समय कानून संबंधी कार्यकलापों में लगा था जो अब घटा कर १३ प्रतिशत से भी कम हो गया है। इसी प्रकार आम बजट, रेल बजट, राज्यों के बजट तथा केन्द्र प्रशासित राज्यों के बजट पर जहाँ पहले २५ प्रतिशत समय लगता था, वहाँ अब १२% से कम समय लगता है। यही हाल प्रशासनिक कार्यों का है। १६% से घाट कर ९% रह गया है।"शून्य काल" में पहले जहाँ २०-२५ प्रश्नों के उत्तर दिए जाते थे, अब यह घाट कर सिर्फ ५ रह गए हैं। ज्यादातर समय नारेबाजी, शोर शराबा, गाली-गलौच, मार-पीट या फिर समय बरबाद करने के उद्देश्य से गोल गोल लंबे उत्तर देने में समाप्त हो जाता है । किसी भी विधेयक या बिल को मंजूरी देने के पहले उस पर बहस होती है और मंजूरी देने के लिए कोरम का होना आवश्यक होता है। धीरे धीरे हमारी संसद इस अवस्था में पहुँच चुकी है जहाँ सांसदों में उन पर बहस करने के लिए समय नहीं है। मैं कहूंगा उसे समझने वाले सांसद संसद में हैं ही नहीं। और जब वे समझते ही नहीं तो फिर न तो वे बहस में भाग ले सकते हैं और न ही उपस्थित रहना आवश्यक समझते हैं । संसद ने २००७ में ४६ विधेयक पारित किए। इनमें से ४१% बिना बहस के पारित हो गए। बिल को पारित करने के लिए कोरम की आवश्यकता को नज़रंदाज़ करना एक आम बात । aur इसमें पक्ष और विपक्ष दोनों की मिली भगत है। बिल पास होते रहते हैं , सरकारी मोहरें लगती रहती हैं। ६२% सांसदों ने यह स्वीकार किया है कि कोरम सम्बधित संविधान की आवश्यकता को वे जानते हैं, वे यह भी मानते हैं की संसद संविधान की इस आवश्यकता के उल्लंघन से भी परिचित है लेकिन कुछ इन गिने सांसद ही इसको लेकर चिंतित है। इसका कारण केवल लापरवाह सांसद नहीं, बल्कि नासमझ सांसद हैं। इसे समझाने के लिए किसी संशोधन की आवश्यकता नहीं बल्कि उसको मानने की है।

शेष में

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