शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

नयी या पुरानी

  अभी पिछले माह, जुलाई 2022 में मैं चिन्मय तपोवन आश्रम, सिद्धबारी, धर्मशाला में  दस दिवसीय श्रीमदभागवत पुराण, स्कन्ध एक की व्याख्या के शिविर में था। शिविर में वक्ता थे पूज्य स्वामी श्री अभेदानंदजी। स्वामीजी चिन्मय मिशन दक्षिण अफ्रीका से इस शिविर के आयोजन के लिए विशेष रूप से आए थे। जिस प्रकार राम चरित मानस और रामायण श्री राम कथा है उसी प्रकार श्रीमदभागवत महापुराण श्रीकृष्ण कथा है।

          स्वामीजी के सामने भागवत पुराण रहती थी और वे उसके पन्ने पलटते रहते थे। एक दिन बोलते-बोलते स्वामीजी अचानक रुक गए। कुछ समय पश्चात उन्होंने फिर से बोलना प्रारम्भ किया – आप देख रहे हैं। इस ग्रंथ के पन्ने निकल गए हैं। बहुत पुरानी हो गई है। काफी मैली सी भी दिखती है। पूरा ग्रंथ ढीला हो गया है। इसे बहुत यत्न से रखना पड़ता है, पन्नों को बड़ी सावधानी  से पलटना होता है। आप लोगों में से कइयों ने और दूसरों ने भी अनेक बार इसके बदले नया लेने को कहा, बल्कि लाकर रख भी दिया। लेकिन मैं बार-बार इसी पर लौट आता हूँ। मैं जब भी नयी पुस्तक खोलता हूँ मुझे उसमें कागज और स्याही के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखता। मुझे वह बेजान और  नीरस प्रतीत होती है। मैं, न तो उसे पढ़ पता हूँ और न ही कोई नया विचार, अर्थ मेरे मन में आता है।

          लेकिन जब इस पुरानी पुस्तक को खोलता हूँ तो ऐसे लगता है जैसे मैं भागवत पढ़ नहीं रहा हूँ, बल्कि भागवत खुद-ब-खुद मेरे कानों में बोल रही है। न जाने कितने वर्षों से मेरी अंगुलियों ने इसे छुआ है, इस पर चली हैं, मेरी आँखों ने इसे देखा है, इन पर छपी पंक्तियों की बीच के खज़ानों ने मेरे कानों में कुछ गुनगुनाया है। शायद इसने गुरुदेव की अंगुलियों के स्पंदन और दृष्टिपात का भी अनुभव किया होगा। उनके अलावा और भी कई गुरु-भाइयों, संतों, स्वामियों ने इसमें प्राण फूंके होंगे। इसमें  चेतना है, प्राण है, स्पंदन है। जगह-जगह मेरे निशान हैं, टिप्पणियाँ हैं। ये मुझ से बात करती हुई प्रतीत होती है।

          हमारे सदियों पुराने मंदिर, चार धाम, बारह ज्योतिर्लिंग, इक्यावन शक्ति पीठ, प्राचीन मंदिर और आस्थास्थल अपनी गंदगी, भीड़-भाड़, सँकड़ा प्रवेश, प्राचीन बनावट, छोटे प्रांगण और अन्य बुराइयों के बावजूद हमारे पूजनीय स्थल हैं, हमारी आस्था के प्रतीक हैं। लाखों नहीं करोड़ों लोग वहाँ जाते हैं, बार-बार जाते हैं, उनकी मनौती मानते हैं। इन आम जनता और राजा-महाराजाओं की श्रद्धा ने, संतों और महात्माओं के स्पर्श ने, विद्वानों और पंडितों के ज्ञान ने, कलाकारों और साहित्यकारों की कृतियों ने, श्रद्धालुओं और दीन-दुखियों की नजरों ने इनमें प्राण फूँक दिये हैं। इनकी रक्षा के लिए न जाने कितने लोगों ने अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया है। इनके दर पर न जाने कितने लोगों ने अपने सिर पटके हैं। ये जाग्रत देव हैं, इनमें शक्ति का निवास है। इनकी याद आने पर, यहाँ पहुंचने पर हम स्वयंमेव श्रद्धानवत हो जाते हैं हमारी सात्विकता प्रखर हो जाती है। 

          अगर आपके घर में भी कोई ग्रंथ है, भले ही किसी भी अवस्था में हो, उसे न हटाएँ। उसमें आपके पूर्वजों के संस्कार, उनकी आत्मा, उनके स्पंदन, उनकी यादें समाई हैं। उस ग्रंथ को वही आदर दीजिये जो आप अपने पूर्वज को देते हैं। आदर पूर्वक आहिस्ते से खोलिये, उसे प्रणाम कीजिये, उसका सम्मान कीजिये, उसकी पूजा कीजिये। अगली पीढ़ी को संस्कारित करने का यह भी एक सरल सा उपाय है।

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शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

हर मुश्किल से पार लगाती है, इंसानियत

(कहानी नहीं, उन सच्ची घटनाओं में से एक है यह, जिनमें जात-पाँत के होते हुए भी इन्सानों में सच्ची इन्सानियत का जज्बा उझक-उझक कर झलकता है और होठों पर बरबस मुस्कान और मोहब्बत की लकीरें खींच जाती है। इंसान-इंसान होता है, वह न हिन्दू है न मुसलमान, न सिक्ख, न ईसाई। वह न गरीब है न धनवान। जात-पांत से परे उसी कुम्हार की रचना है जिसने सब को गढ़ा है।)



          मैं एक किसान का लड़का हूँ, मगर मैंने खुद कभी हल नहीं चलाया। मेरे पिताजी संस्कृत के बड़े पण्डित थे, साथ ही खेती का काम भी अच्छी तरह से जानते थे। हमारे पड़ोसी थे, इब्राहीम। वे जात के जुलाहे थे, पर खेती से अपना गुज़ारा करते थे। हमारे और उनके खेत पास-पास थे अतः हमारे बीच अच्छा संबंध था। मेरे पिताजी उनको अपने भाई की तरह मानते थे। हम सब उन्हें इब्राहीम चाचा कह कर पुकारते थे।

          इब्राहीम चाचा हमारे साथ अपने बच्चों का-सा बरताव करते थे। वे एक नेक मुसलमान थे, और हमारी धार्मिक बातों का हमसे भी ज़्यादा ख़याल रखते थे। अक्सर, फसल के दिनों में मेरे पिता और इब्राहीम चाचा बारी-बारी हमारे खेतों की रखवाली करते, और इस तरह पैसा और वक़्त दोनों बचा लिया करते थे।

          जब कभी हम मुँह अँधेरे अपने खेत पर जाते, तो दूर से ही चिल्ला कर पुकारते- "इब्राहीम चाचा, सो रहे हो या जाग रहे हो?" वे खेत में से जवाब देते– “आओ बेटा, आओ ! आज मैंने बहुत अच्छी-अच्छी ककड़ियाँ और मीठे-मीठे खरबूजे तोड़े हैं। आओ, ले जाओ", और हमारी झोलियाँ भर देते। मेरे पिताजी भी अपने अच्छे से अच्छे खरबूजे तुड़वा कर चाचा के घर भिजवाते। हम में से किसी को भी यह खयाल तक न आता कि हम हिन्दू है और वे मुसलमान!

          हम चार भाई थे मैं सबसे छोटा था, इसलिए इब्राहीम चाचा मुझे सबसे ज्यादा प्यार करते थे। आम के मौसम में टपके का सबसे पहला आम इब्राहीम चाचा उतारते, बहुत हिफाजत के साथ उसे  कपड़े में लपेट कर लाते और चुपचाप मेरी जेब में डाल देते। मैं उसे सूँघता और उसकी मीठी खुशबू से मस्त होकर मारे खुशी से बोल उठता- "चाचा, आप तो इस आम से भी ज्यादा मीठे हैं।" चाचा को गुड़ बहुत पसन्द था, और उनकी बोली भी बहुत मीठी थी। इससे हम सब उन्हें हंसी से 'मीठे चाचा' कहा करते। यह सुन वे चिढ़ते और हमें पकड़ने के लिए लपकते। हम भाग जाते और कभी उनके हाथ न आते।

          अक्सर इब्राहीम चाचा अपनी रकाबी में रोटी रख कर हमारे घर आते और मुझे आवाज देकर कहते “बेटा, जरा देखो तो तुम्हारे घर कोई साग तरकारी बनी है?" मैं दौड़ा-दौड़ा माँ के पास जाता और तरकारी, अचार और दूसरी अच्छी-अच्छी खाने की चीजें थाली में ले आता और उनकी रकाबी में रख देता। चाचा वहीं बैठ कर बड़े मजे से खाते और उन्हें परोसी हुई चीज खतम भी न हो पाती कि मैं और ले आता और उनके मना करने पर भी रकाबों में परोस देता। मेरे इस बरताव से अक्सर उनकी आँखों में मोहब्बत के आंसू छलछला आते।

          इस तरह मेल-मोहब्बत में कई साल बीत गये, और दोनों कुनबों के लोगों में आपसी मोहब्बत बढ़ती गयी। इस बीच मेरे पिताजी गुज़र गये। अब तो इब्राहीम चाचा हमें पहले से भी ज़्यादा प्यार करने लगे। मेरे बड़े भाई हमेशा उनकी सलाह से काम करते, और चाचा भी उन्हें सच्ची सलाह देते।

          एक बार का क़िस्सा है। हिन्दुओं की कुछ गायें और भैंसे चरवाहों की लापरवाही से मुसलमानों के कब्रिस्तान में घुस गये और बहुत से पेड़-पौधे चर गयीं। मुसलमानों को यह बात बहुत बुरी मालूम हुई। गाँव के मुसलमानों ने चरवाहों की खासी मरम्मत की और जानवरों को कांजी हौस में ले जाने लगे। चरवाहों ने यह खबर गांव में पहुंचायी। जानवरों के मालिक अपनी लाठियाँ संभाल कर मौकाये  वारदात पर पहुंच गये। बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गयी, और आसपास तमाम हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे से लड़ने के लिए मैदान में जमा होने लगे। घण्टों तू-तू, मैं-मैं होती रही और लाठियों के चलने की पूरी तैयारी हो गयी। समझौते की सब कोशिशें बेकार साबित हुई। मुसलमानों ने कहा- "चरवाहों के लड़के हमेशा ऐसा करते हैं” और उन्होंने लाठी, पत्थर, ईंट वगैरह जो भी चीज मिली, जमा कर ली। वे लड़ने और मरने मारने पर तुल गये।

          इब्राहीम चाचा भी अपने बेटों और पोतों के साथ वहां मौजूद थे। उन्होंने झगड़ा मिटाने की बहुत कोशिश की, मगर किसी ने उनकी न सुनी। उन मवेशियों में हमारे मवेशी भी थीं, इसलिए मेरे भाई भी वहाँ पहुंच गये थे। औरतों और बच्चों को छोड़ कर सारा गाँव वहाँ जमा हो गया था। औरतें  बेचारी हैरान थी और सोचती थी – मर्दों का क्या होगा?

          मैं मदरसे से आया तो देखा घर के दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द थीं। मुझे भी झगड़े का पता चल गया। मैंने किताबें एक कोने में पटकी, माँ मना करती रही, मगर मैं मैदान की तरफ भाग लिया, और तेज़ी से उस जगह पहुँच गया जहाँ लोगों की भीड़ जमा थी। देखा तो मालूम हुआ कि इब्राहीम चाचा अपने बेटों और पोतों के साथ सामने वाले दल में सबसे आगे खड़े थे। मैंने बड़ी मासूमियत से उनसे पूछा- "इब्राहीम चाचा, आप किस तरफ हैं?"

          इब्राहीम चाचा ने फ़ौरन अपने एक बेटे के हाथ से लाठी ली, और वे मेरे पास आ खड़े हुए। उन्होंने अपने बेटों से कहा- "इसका पिता आज ज़िन्दा नहीं है, इसलिए मैं इसके साथ रह कर ही लड़ूँगा। तुम उस तरफ़ रहो।" इब्राहीम चाचा को दूसरी तरफ़ जाते देख कर सब लोग दंग रह गये। कुछ देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। सब शर्मिन्दा हो गये और बिना कुछ बोले अपने-अपने घरों की ओर चल पड़े। इब्राहीम चाचा के पीछे-पीछे हम सब भी अपने-अपने घर लौट आये।

          उस दिन तो मैं समझ ही न पाया कि इतना बड़ा झगड़ा एकदम कैसे ठण्डा पड़ गया। लेकिन आज में इस चीज़ को अच्छी तरह समझता हूँ, क्योंकि आज मैं इन्सानियत से परिचित हो गया हूँ।

          इब्राहीम चाचा अब इस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन मैं उन्हें कभी नहीं भूलूँगा। मैं उनकी क़ब्र को अच्छी तरह पहचानता हूँ। उसे देख-देख कर मैंने कई बार आँसू बहाये हैं। जब कभी क़ब्रिस्तान की तरफ़ से निकलता हूँ, तो उनकी क़ब्र देख कर बच्चों की तरह बरबस यह पूछ बैठता हूँ-"इब्राहीम चाचा! सोते हो या जागते हो?" और मुझे अपने प्यारे इब्राहीम चाचा की मानों सदियों से सुनी आ रही वही भीनी-भीनी ख़ुशबू लिये आवाज़ सुनायी देती है— “बेटा, तेरा इब्राहीम चाचा दुनिया की नज़रों में भले सो चुका हो, लेकिन तेरी हर पुकार पर हमेशा की तरह दौड़ कर, तुझे अपनी बाँहों में भर, हर मुश्किल के समन्दर से पार लगा देगा।"

(वंदना - 'अग्निशिखा', से)

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यूट्यूब  का संपर्क सूत्र

https://youtu.be/Ytn1Afhodxs


रविवार, 7 अगस्त 2022

सूतांजली 2022

सूतांजली के अगस्त अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में हैं श्री अरविंद का लेख और धर्मवीर भारती के यात्रा वृतांत पर आधारित भारतीयता का अर्थ।

१। मौलिक विचारों की आवश्यकतामैंने पढ़ा

श्रीअरविंद को हम एक महान योगी के रूप में  जानते हैं। कुछ लोग जानते हैं कि योगी बनाने के पूर्व वे एक जुझारू क्रांतिकारी भी थे जिन्होंने अपनी लेखनी से भारत के युवा वर्ग को झकझोर उन्हें जाग्रत और उनका पथ-प्रदर्शन किया। अंग्रेज़ सरकार उनसे परेशान थी और निरंतर उन्हें जेल में ठूँसने के लिए प्रयत्नशील थी। इसके बावजूद श्रीअरविंद निरंतर लिखते रहे। उन्होंने अपनी सशक्त लेखनी, अपने संवादों, अपने भाषणों से कायरता को वीरता में, निराशा को आशा में और निष्क्रियता को सक्रियता में परिणित कर दिया। वैसे ही लेखों की एक बानगी।)

२। माई जी की भारत-माता

श्री धर्मवीर भारती के यात्रा संस्मरण पर आधारित यह राष्ट्रियता से ओत-प्रोत आख्यान साथ में जे आर डी का एक संस्मरण

 

यू ट्यूब पर सुनें : à

https://youtu.be/HHA_01AVB-g

ब्लॉग  पर पढ़ें : à 

https://sootanjali.blogspot.com/2022/08/2022.html