शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

नदी - उषा प्रियम्वदा


नदी
लेखिका          उषा प्रियम्वदा
प्रकाशक         : राजकमल प्रकाशन
संस्करण         : 2014
मूल्य             : 350 रुपए
पृष्ट               : 171
पुस्तक को पढ़ने के पहले लेखिका से थोड़ा परिचय हो तो इसे पढ़ने और समझने में सुविधा रहेगी। लेखिका भारतीय मूल की अमेरिकन हैं। लेखिका  पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित हैं। यह पुरस्कार भारतीय मूल के विदेशी हिन्दी लेखन पर दिया जाता है, जिसे भारत के राष्ट्रपति प्रदान करते हैं।

उपन्यास का प्रारम्भ बड़े नाटकीय या जासूसी ढंग से है। नायिका अपने पति और दो बच्चियों को घर पर छोड़ कर अपनी बहन से मिलने एक सप्ताह के लिए दूसरे शहर गई थी। वहाँ से लौट कर जब रात घर पहुँचती है तब तक पूरा परिवार सब कुछ समेट कर वापस भारत जा चुका है और तो और वह मकान भी बेचा जा चुका है। इस परिस्थिति से सामना होता है हमारी नायिका, आकाशगंगा का। 

नदी अपने उद्गम से निकल कर बहना शुरू करती है और लगातार नीचे और नीचे उतरते हुए अपने गंतव्य की तरफ कभी धीरे कभी तेज निरंतर आगे बढ़ती हुई अंत में  सागर या झील में समा जाती है। नदी के अपने हाथ में ज्यादा कुछ नहीं होता। जहां जैसा रास्ता मिलता जाता है, अपने को  उसी ओर मोड़ती चली जाती है। लेकिन, पूरा मार्ग इतना आसान भी नहीं होता। कहीं चट्टान, कहीं दीवार तो कहीं कच्चे-पक्के बांध भी उसे मिलते हैं। इन सबका सामना भी उसे करना ही पड़ता है। कभी  रौद्र रूप धारण कर उसे लांघना, तो कभी तटों की मर्यादा को भंग भी करना पड़ता है। रास्ते में मिले फूल और गंदगी को समान रूप से समेटते हुए अस्तित्वहीन हो जाती है। नदी चाहे गंगा हो या आकाशगंगा कहानी एक ही है।

नारी जीवन भी कुछ ऐसा ही है। कहीं समर्पण तो कहीं संघर्ष। लेकिन यह समर्पण और संघर्ष कब, कितना और कहाँ? यही तय करती है उसकी नियति। और इस हद में उसका भविष्य भी उसके हाथ में ही है। जब लगता है कि अब जीवन समाप्त, तभी किसी का सहारा नवजीवन प्रदान पर जाता है। और कभी लगता है कि जीवन अब सीधा-साधा रह गया है तभी कोई लहर फिर से संघर्ष के लिए मजबूर कर देती है। “हम सब अपने परिवेश, अपने संस्कारों और समाज के द्वारा ही गढ़े जाते हैं”।

भाग्यवान होते हैं वो जिन्हे हर मनचाही चीज मिल जाती है, या फिर वे जीवन से समझौता कर लेते हैं”।  पढ़िये, शायद आप को भी अच्छा लगे।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

जाग चेत कुछ करौ उपाई - मिथिलेश्वर


जाग चेत कुछ करौ उपाई

                  (आत्मकथात्मक उपन्यास)
लेखक            : मिथिलेश्वर
प्रकाशक         : वाणी प्रकाशन
संस्करण         : 2015
मूल्य             : 495 रुपए
पृष्ट               : 277
ऐसी पुस्तक हाथ में कम ही आती हैं, जिन्हे पढ़ना शुरू करने के बाद समय का ध्यान नहीं  रहता। पुस्तक समाप्त किए बिना छोड़ी नहीं जाती। मिथिलेश्वर की यह पुस्तक उन्हीं कुछ गिनी चुनी पुस्तकों में से एक है। एक बार शुरू किया तो प्रथम 5 अध्याय एक ही सांस में पढ़ गया। यह उनकी जीवनी का तीसरा भाग है, लेकिन कहीं ऐसा नहीं लगता कि इसके पहले के दो भाग नहीं पढ़े गए हैं। इस उपन्यास में 11 अध्याय हैं। ये अपने आप में ग्यारह स्वतंत्र घटनाएँ हैं। सब आपस में जुड़ी भी हैं और अलग अलग भी।

प्रथम तीन अध्याय उन तीन व्यक्तियों को समर्पित हैं जिन्हों ने उनके जीवन को गहराई से स्पर्श किया। उनके घर पर काम करने वाली रामरती, उनके मित्र रामनाथ मिश्र और प्रोफेसर के.डी.तिवारी।  मिथिलेश्वरजी का राजनीति से सामना तब हुआ जब प्रोफेसर तिवारी ने राजनीति में प्रवेश करने का मन बनाया। इसी दौरान उन्हे लगा कि भारतीय शासनतंत्र कि विशेषता यही है कि हर पाँच वर्ष पर इसे बदलते जाना है। संख्या बल पर आधारित होना इसकी कमजोरी प्रतीत होती है क्योंकि इसी कारण जनता को भरमाने, भटकने तथा खरीद-फोख्त के कार्य होते हैं। लेकिन लेखक का मानना है कि संख्या बल पर आधारित होना ही लोकतन्त्र की सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है। ...... समस्या यह है कि हमारी बहुसंख्यक जनता अशिक्षा, अज्ञान और अंधविश्ववास से ग्रस्त है समय की सत्ता को रेखांकित करते हुए लेखक कहता है कि हम बहुत कुछ करना चाहते हैं लेकिन हो कुछ और जाता है। इसके मूल में समय की नियामक भूमिका होती है

चौथे अध्याय से लेखक आत्मकथ्य प्रारम्भ करता है। लेकिन लेखक की दृष्टि अपनी पूर्व लेखन पर लगी है। जीवन यात्रा के दौरान घटने वाली घटनाओं का विवरण देते हुए लेखक बार बार यह बताता है कि इनकी चर्चा कौनसी पुस्तक में है और क्यों? इस कारण पुस्तक के प्रवाह में ठहराव सा आ गया है लेकिन पढ़ने की रुचि लगातार बनी रहती है। अध्याय के प्रारम्भ में ही लेखक सचेत कर देता है अड़चनों, परेशानियों, कठनाइयों एवं विघ्न-बाधाओं के बावजूद पूरे मन और पूरी चेतना से हम जिस कार्य में लगे होते हैं, उसे पूरा होने से कोई रोक नहीं पाता। नई जगह पर स्थानांतरण होने पर, जगह और वहाँ के लोगों से समुचित परिचय न होने के कारण लेखक को मुसीबतों का सामना करना पड़ता है और तब लेखक समझ लेता है नयी जगह में जीवन की सभी अनिवार्य अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं से सम्बन्धित जानकारी लेकर ही हमें रहना चाहिए। उन्हे यह भी अनुभव होता है कि सुसज्जित आधुनिक उपकरणों की सार्थकता उसके पीछे कार्यरत इंसान के चुस्त दुरुस्त होने से ही है। पढ़े लिखे सभ्य सम्पन्न समाज के बजाय गाँव-देहात के कम पढ़े साधारण समाज के स्वभाव में मानवीय पक्ष का शुमार होता है।  गाँव कस्बों में रहने के कारण लेखक ने यह देखा भी अनुभव भी किया है। शायद इसी अनुभूति के तहत गांधी ने भी हिन्द स्वराज में सरकार द्वारा गाँव-देहात के लोगों को हस्ताक्षर करना सिखाने की पहल पर टिप्पणी की थी। लेखक का आहत मन, इसी बात पर सभ्यता, विकास और शिक्षा पर कटाक्ष करता है, सभ्यता और विकास के नाम पर हम इतने आगे बढ़ जाएँ कि हमारे अंदर मानवता के भाव शेष ही न रहें, तो क्या हमारा विकास श्रेयस्कर हो सकता है? मेरे जानते हमारी आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था इसके लिए कम उत्तरदायी नहीं .....। उसकी उन्नत वैज्ञानिक तकनीकी शिक्षा को भी हमें अपने गुरुकुल परम्परा की आदर्श जमीन से जोड़ना होगा, तभी विकास के साथ हम मानवीय भी बने रह पाएंगे.......”  

लेखक ने अध्ययन-अध्यापन, लेखक और शोधकर्ता का जीवन खुद जीया। उनकी पत्नी भी अध्यापन के कार्य से जुड़ीं। इन सब के दौरान शिक्षा तंत्र से इनका ईमानदार और सच्चा व्यक्तित्व बार बार टकराया, आहत हुआ और जीवन का एक बड़ा समय इन्हीं से लड़ते लड़ते बीता। लेकिन झुका नहीं, संग्राम छोड़ा नहीं, अस्त्र डाले नहीं। अपनी चार बेटियों के विवाह ने भी अनेक  कड़ुए घूंट पीने के लिए विवश किया। मान-अपमान, परेशानियाँ, कठिनाइयाँ लगातार पीछा करती रहीं। इन सबके बावजूद लेखन से विरक्त नहीं हुए, जीवन हमारे तय कार्यक्रम से संचालित नहीं होता, उसकी बागडोर समय के हाथ में होती है

छठवें अध्याय तक आते आते लेखक की आत्मकथा आत्मकथ्य की पटरी पर तेजी से दौड़ने लगी और इसके साथ ही पाठक का मानस भी। अपने भरे-पूरे परिवार के बढ़ते सदस्यों के चलते अलग अलग घरों में स्थानान्तरित होना, भले ही अगल बगल में हों, और उन सबसे बढ़ कर घर में किसी बुजुर्ग का न रहना, क्या होता है, इसका सजीव चित्रण, हमें अपने माता-पिता की याद दिलाता है। यह समझते देर नहीं लगती कि इंटरनेट, कम्प्युटर, मोबाइल फोन ने लोगों को पास नहीं दूर दूर किया है। जहां लोग एक दूसरे से मिलते थे, आते जाते थे, हाथों लिखा खत भेजते थे वहीं अब घर बैठे फोन पर ही सब निपटा लेते हैं। न परिचय होता है, न जान पहचान और न भावनाओं का सम्प्रेषण । फोन पर किया हुआ वार्तालाप क्षणिक होता है जबकि लिखे पत्र और मुलाक़ात की आयु  लंबी होती है। बदलते  परिवेश में कला-संगीत-खेल का महत्व तो बढ़ा है, सीमित परिधि में ही सही । लेकिन साहित्य उपेक्षित होता जा रहा है। फलस्वरूप न वैसा लेखन हो रहा है और न ही पाठन। 

सातवें अध्याय में लेखक ने अपनी पुस्तक भोजपुरी लोक कथाएँ लेखन की कथा लिखी है। लिखने बैठने के पहले लोक कथाओं को जमा करने, जानने और समझने के लिए मिथिलेश्वरजी ने कई यात्राएं कीं और उस दौरान अनेक पापड़ बेलने पड़े। इन यात्राओं के दौरान हुए उनके अनुभव चौंकाने वाले तो हैं हीं साथ ही समाज की परिस्थिति का भी सजीव चित्रण करती हैं। यात्रा के अनुभव कष्ट दायक ही नहीं बल्कि जोखिम भरा और भावनात्मक भी रहा। उनकी लिखी मनबोध मउआर पढ़ने के बाद रह रह कर यह प्रश्न उठता रहा कि अब मनबोध नस्ल के व्यक्ति क्यों नहीं पाये जाते। इसका जवाब लेखक ने यहाँ दिया है , जब हम स्वयं अपने ऊपर खतरा महसूस करते हैं, अपने को कटघरे में पाते हैं तो हमारी भावना, संवेदना, तरलता स्वत: खत्म हो जाती है। ....... शायद मानव मन का यह मनोविज्ञान रहा है कि अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर ही हम परमार्थ का काम कर पाते हैं, अपने को असुरक्षित और खतरे में डाल कर नहीं  

एक गृहस्थ, नौकरी पेशा लेखक के लिए लिखने के लिए समय निकालना और लिखने लायक माहौल पाना अपने आप में एक संग्राम से कम नहीं। माहौल तो अंत तक लेखक बना ही नहीं पाया लेकिन हाँ अपने आप को हर माहौल में लिखने लायक बना लिया। समय के लिए जिद्दोजहद तो हर समय बनी ही रही। आठवें अध्याय की कथा वस्तु यही है। ढलती उम्र में शारीरिक सुविधा और लेखन के लिए समय और माहौल की मांग को नजर में रखते हुए लेखक घर के कामों के लिए नौकर रखता है।  नौकर की खोज में हुए अनुभव मन में खीज तो पैदा करते ही हैं, इस विडम्बना की तरफ भी ध्यान जाता है कि वैश्वीकरण के चक्कर में समाज जिन चीजों को पैदा करता है, उसके उपयोग और इस्तेमाल से वह खुद वंचित रहता है  क्योंकि क्षमतावान लोग उसे कौड़ियों के दाम खरीद ले जाते हैं। एक कष्ट पूर्ण जिंदगी के बाद ढलती उम्र में जब सुख मिलता है तभी उसका सुख को अनुभव कर पाते हैं। दु:ख के बाद सुख का अनुभव होता है। जो लोग बराबर सुख में ही रहे वे सुख का अनुभव कर ही नहीं सकते। नौकर से हुए अनुभव पढ़ने योग्य हैं। लेखक के खट्टे, मीठे और हसीन अनुभवों को समझने के लिए।

क्या हमारे देश में शिक्षित और बुद्धिजीवी का बिल्ला ऐसे लिया और दिया जाता है? क्या ऐसे तैयार होता है  हमारा यह वर्ग? क्या इस वर्ग में ऐसे ही लोगों की संख्या ज्यादा है? शायद इसी कारण हमारे समाज में इतनी संड़ान्ध है और हम नर्क के गर्त में गिरते जा रहे हैं। उस समाज को कौन बचा सकता है जिसका पथ-प्रदर्शक ही पथ-भ्रष्ट हो? केवल साध्य ही नहीं साधन भी सही चाहिए गांधी का नीति याद आई। लेखक बेबाक हो कर यह उद्घाटित करने का साहस कर सका यह भी अपने आप में एक अनोखी-अनबूझ पहेली है और काबिले तरीफ भी। शायद इसी  नौंवे अध्याय के कारण ही लेखन ने अपनी इस आत्मकथा का नामकरण जाग चेत कुछ करौ उपाई किया है। हमें जगाने, सावधान करने और कोई उपाय करने के लिए। वर्तमान और भविष्य सुधारने के लिए हमें जगना ही होगा।

लेखन के लिए समय निकालने के लिए लेखक को अनेकों का कोप-भाजन भी बनना पड़ा। इस पुस्तक को पढ़ने से यह तो आभास हुआ कि इस कार्य में भले ही अर्थ की कमी रहती हो लेकिन विलास की कमी नहीं। अब यह तो व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उन्हे छोड़े, दलदल में धँसे या  उपलब्ध भोग को भोगे और अपराध बोध न रखे। जब शहर की एक धनवान महिला ने उनका अप्रत्यासित आतिथ्य किया तो इनके कान खड़े हो गए, आज के युग में सिर्फ श्रद्धा की  वजह से ऐसा आतिथ्य संभव नहीं है

प्रशासन, परिस्थिति, सहकर्मी और ऐसे ही अनजान व्यक्तियों से भी अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाला, उनके विरुद्ध न्याय के लिए लड़ने वाला भीड़तन्त्र के सामने लाचार हो गया। भीड़ का कोई  धर्म नहीं होता। न जाति होती है न कोई लिंग। न कोई ईमान, न समझ, न ज्ञान। एक ईमानदार, समझदार, ज्ञानी भी भीड़ बनकर अपनी पहचान खो देता है। उसके चेहरे पर एक दूसरा मुखौटा चढ़  जाता है। उसकी जागरूकता नष्ट हो जाती है।  भीड़ को रोकना असम्भव तो नहीं लेकिन दुष्कर तो है ही। हमारी सभ्यता और शिक्षा अभी ऐसी नहीं हो पाई है कि लोगों के अंदर जागरूकता पैदा हो सके। हमारे देश और समाज को लूटने वाले अपराधी सरेआम घूमते हैं। यह भीड़ उन्हें अच्छी तरह जानती-पहचानती है। लेकिन देखते ही नतमस्तक हो जाती है और चोर-पॉकेटमार के नाम पर किसी निरीह प्राणी की जान लेने लगती है। यह सब जगरूकता का अभाव नहीं तो और क्या है....” लेखक को भीड़तंत्र के कई अनुभव हुए। असमर्थ अकेला लेखक कुछ नहीं कर पाता। सहायता के लिए अनुरोध भी करता है, लेकिन सब केवल अपने रास्ते ही नहीं चले जाते बल्कि उसे भी इस पचड़े में न पड़ने की ही सलाह देते हैं। मैं फिर मनबोध मउअर को याद किये बिना नहीं रह पाता। लेकिन मनबोध ने व्यक्तियों को ललकारा था भीड़ को नहीं। इन घटनाओं के देख कर लेखक का दिल चित्कार कर उठता है, नासमझों की भीड़ का जवाब कोई जागरूक भीड़ ही दे सकती है। ...... मेरे जानते लोगों को जागरूक बनाने से बड़ा कार्य यहाँ दूसरा नहीं । इसका कोई आसान रास्ता नहीं दिखता इसलिए रचता है जाग चेत कुछ करौ उपाई

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

विरुद्ध - मृणाल पांडे का उपन्यास


विरुद्ध
लेखिका : मृणाल पांडे
प्रकाशक : राधाकृष्ण
पहला संस्करण : 1977
दूसरा संस्करण : 2013 (राधाकृष्ण का पहला)
पृष्ट : 131

जैसा कि प्रथम संस्करण से विदित है, यह उपन्यास 1977 में छपा था। जाहिर है यह उपन्यास उस समय या उससे पहले ही लिखा गया होगा। यह लेखिका की सर्वप्रथम या प्रारम्भिक रचनाओं में है। लेखिका हिन्दी साहित्य में अपना  विशिष्ट स्थान रखती हैं और एक जाना पहचाना नाम है। यही कारण था कि मैंने इस उपन्यास को पढ़ना प्रारम्भ किया। लेकिन निराशा हुई। ऐसा लग रहा था कि सजा के तौर पर इसे पढ़ना पड़ रहा हो। किसी प्रकार प्रथम दो अध्याय पढ़ गया। लेकिन  उसके बाद झेल नहीं सका और छोड़नी ही पड़ी।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

मन्नू भण्डारी की चुनी हुई कहानियाँ


मन्नू भण्डारी की चुनी हुई कहानियाँ           

लेखिका : मन्नू भण्डारी 
संपादिका : सुधा अरोड़ा
प्रकाशक : साहित्य भंडार
संस्करण : 2014
मूल्य :  200 रुपए
पृष्ट : 144

संकलन में लेखिका की 11 कहानियाँ हैं :
1। मैं हार गई
2। दो कलाकार
3। अकेली
4। मजबूर
5। क्षय
6। छत बनाने वाले
7। नई नौकरी
8। असामयिक मृत्यु
9। स्त्री-सुबोधिनी
10। त्रिशंकु
11। नमक
सभी कहानियाँ हमारी अपनी या अपने आस-पड़ोस की आप बीती हैं। प्राय: एक ऐसी सच्चाई जिसे हम नकारते हैं, नहीं चाहते हैं, लेकिन या तो हमारे ऊपर लाद दी गई हैं या हम मजबूर हैं ऐसी जिंदगी जीने के लिये, ऐसी घटनाओं से गुजरने के लिए। कई ऐसी घटनाएँ हैं जिन्हे लेखिका आत्मसात नहीं कर पाती। उनके विरुद्ध विद्रोह भी करती है। लेकिन फिर समझती भी है कि भले ही उसे या पाठक को वह घटनाक्रम पसंद न आए लेकिन यथार्थ वही है और फिर विद्रोह के स्वर छोड़ कर सत्य लिख बैठती है। हाँ लिखते लिखते यह जरूर बता देती है कि उसे भी यह अंत पसंद नहीं लेकिन सत्य तो यही है। शायद भविष्य इसे यथार्थ में पलट दे। मैं हार गई में अंत में लेखिका स्वीकार करती है कि वह, वह नहीं लिख सकी जिसे लिखने वह बैठी थी, और अपने सारे अहम को तिलांजलि देकर बहुत ही ईमानदारी से मैं कहती हूँ कि मेरा रोम रोम महसूस कर रहा था कि कवि भरी सभा में शान के साथ जो नहला फटकार गया था, उस पर इक्का तो क्या, मैं दुग्गी भी न मार सकी। मैं हार गई, बुरी तरह हार गई”।  

इसी प्रकार जब लेखिका ने भीमा को दूसरा मौका दिया, तब भी, बार बार मन ही मन रटने के बावजूद भीमा, अपने को सँभाल ही नहीं पाया और सोच-चाहा मांगने के बजाय गदगदाते हुए कुंवरजी के चरणों में लोटकर घणी खम्मा घणी खम्मा की गुहार लगाने लगा भीमा का इस प्रकार के असफल प्रयास पर लेखिका झल्ला उठी, “ओफ़्फ़! कुछ नहीं हो सकता ... पाँच पीढ़ियों से जिसकी रगों में हवेली का नमक बह रहा है, उसके लिए कोई कुछ नहीं कर सकता ......”


मुझे विश्वास है आप को संग्रह की कहानियाँ पसंद आएँगी।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

सूतांजली जनवरी २०२०

ग्रेगोरियन कैलेंडर के
नव वर्ष
पर
हार्दिक शुभ कामनाएँ

सूतांजली जनवरी २०२० में ३ लेख हैं।
१.  पहला पागलपन – २ आना रखना १४ आना देना
कुछ भी हासिल करने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है। जितनी मूल्यवान हो, कीमत भी उसी अनुपात में होती है। हम हासिल भी करना चाहते हैं, खरीदना भी । लेकिन न कुछ छोड़ने तैयार हैं न उसकी कीमत चुकाने। जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं लेकिन जहाँ के तहाँ। श्री अरविंद ने क्या छोड़ा?
२. मित्र और मित्रता  
किसे कहते हैं मित्र और क्या होती है मित्रता? जानिए खलील जिब्रान के विचार।
३. १०८ ही क्यों?
१०८ – बहुत पर कानों में पड़ता है। लेकिन क्या कभी विचार किया १०८ ही क्यों? १०८ समस्त संसार का, ब्रह्म का प्रतीक है।


 पढ़ें http://sootanjali.blogspot.com पर