शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

पैसों के मालिक नहीं, रखवाले

 फिक्की लेडीज़ और्गेनाइज़ेशिन (FLO) के चेयरपर्सन के एक इंटरनेशनल समारोह में सुधा मूर्ति ने बतलाया था कि उन्हें जे आर डी टाटा से एक अनमोल सलाह तब मिली, जब उन्होंने अपने पति नारायण मूर्ति की स्टार्ट अप कंपनी इंफ़ोसिस में उनका सहयोग करने के लिए नौकरी छोड़ दी थी। टाटा ने कहा था, “यह याद रखना कि कोई भी पैसे का मालिक नहीं होता, हम केवल पैसों के रखवाले हैं और यह हमेशा एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहता है। इसीलिए जब आप सफल हों तो इसे समाज को वापस लौटा दें, जिसने आपको बहुत सद्भावना दी है”।


 

आजादी के पहले अपने सपनों के भारत की कल्पना करते हुए महात्मा गाँधी ने ट्रस्टिशिप के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया था। मूलत: यह सिद्धान्त उनके मन में १९०३ में आया था जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे। इस सिद्धान्त पर उन्होंने पूरी गहराई से विचार किया था और इसके सब आयामों पर विचार कर विस्तार से इसे प्रतिपादित किया था। उनके इस सिद्धान्त की जड़ यही है कि पूंजी का असली मालिक पूंजीपति नहीं बल्कि समाज है। उनका मानना था कि पूंजीपतियों के पास जो पूंजी है उसका असली मालिक वह पूंजीपति खुद नहीं है बल्कि समाज है। पूंजीपति तो सिर्फ उसका रखवाला है, समाज की वह पूंजी उसके पास धरोहर के रूप में है। महात्मा गाँधी के इस ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त के अनुसार जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति का संचय करता है, उसे केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संपत्ति के उपयोग का अधिकार है। शेष संपत्ति का प्रबंध उसे एक ट्रस्टी की हैसियत से देखभाल कर समाज कल्याण पर खर्च करना चाहिए। महात्मा गाँधी यह स्वीकार करते थे कि सभी लोगों की क्षमता एक सी नहीं होती है। किसी की पैसे  कमाने की क्षमता अधिक होती है किसी की कम। अत: जिनके पास कमाने की क्षमता अधिक है, उन्हें कमाना तो चाहिए लेकिन अपनी जरूरतों को पूरा करने के बाद शेष राशि समाज के कल्याण पर खर्च करना चाहिए। गाँधीजी के अनुसार पूंजीपतियों को अपनी जरूरतें भी सीमित करनी चाहिए तभी वे बची हुई आमदनी को जरूरत मंदों पर खर्च कर सकेंगे। 

दुर्भाग्यवश देश के बुद्धिजीवी, उद्योगपति और व्यवसायियों के बड़े वर्ग ने, गाँधी के इस सिद्धान्त पर काल्पनिक आदर्शवाद का बल्ला लगा इसे अव्यवहारिक बता इसकी खिल्ली उड़ाई। लेकिन महात्मा गाँधी इससे विचलित नहीं हुए और लगातार और बराबर देश के पूँजीपतियों और धनी व्यक्तियों से इसपर चर्चा करते रहे। अनेक उद्योगपतियों ने इस पर विचार किया और इसे अपनाया। ट्रस्टीशिप सिद्धान्त का पालन करने वाले अनेक उद्योगपतियों में परिवार सहित सादगीपूर्ण रहन-सहन अपनाने वाले जमनालाल बजाज को महात्मा गाँधी का सबसे प्रिय उद्योगपति शिष्य माना जाता है।  

टाटा ने भी गाँधी जी के इस सिद्धान्त पर गहराई से विचार किया और कहा कि इस सिद्धान्त का अक्षरश: पालन नहीं किया जा सकता। लेकिन इसे अपनाया जा सकता है। और देश तथा देश की  जनता के लिए उन्होंने इस सिद्धांत पर चलने का निश्चय किया। उन्होंने ऐसी व्यवस्था की जिसमें टाटा समूह की कंपनियों के शेयर टाटा संस के पास हैं। और टाटा संस के प्राय: ८५ प्रतिशत शेयर सार्वजनिक परोपकारी-धर्मार्थ-सामाजिक ट्रस्ट के पास हैं। इस प्रकार टाटा समूह की कमाई का बड़ा हिस्सा डिविडेंड के रूप में इनके पास आता है और फिर वे ट्रस्ट उसका उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए करते हैं। जिनमें शिक्षा, अनुसंधान, कला, साहित्य, चिकित्सा, विज्ञान आदि के लिए किया जाता है। देश में बदलते नियम-कानून के चलते टाटा को अपनी इस व्यवस्था में भी फेर-बदल करने पड़े लेकिन प्रमुखत: उनके कार्यों का सिद्धान्त यही बना रहा। इसी प्रकार विप्रो और इंफ़ोसिस के संस्थापक श्री अजीम प्रेमजी एवं श्री नारायण मूर्ति भी अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक संस्थाओं के निर्माण, उत्थान, रख-रखाव के लिए अपनी सामाजिक ट्रस्ट द्वारा करते हैं।  

ध्यान रखें आपके पास जो है वह आपका नहीं बल्कि समाज या ईश्वर का है। आप उसमें से सिर्फ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति, इच्छाओं की नहीं, लायक पूंजी निकालने के अधिकारी हैं। बाकी पूंजी समाज या ईश्वर के कार्यों में लगाकर उन्हें समर्पित करना आपका कर्तव्य है।     

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शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

जीवन कैसे जिया जाये

जीवन कैसे जिया जाये                                                                

यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात एक बार भ्रमण करते हुए एक शहर में पहुँचे। वहाँ उनकी एक वृद्ध व्यक्ति से भेंट हुई। दोनों काफी घुल मिल गये। सुकरात ने उन वृद्ध महानुभाव के व्यक्तिगत जीवन में काफी रुचि ली। काफी खुलकर बातें कीं। सुकरात ने संतोष व्यक्त करते हुए कहा, आपका  विगत जीवन तो बड़े  शानदार ढंग से बीता है, पर इस वृद्धावस्था में आपको कौन-कौनसे पापड़ बेलने पड़ रहे हैं, यह तो बताइये?’ 



वृद्ध किंचित मुसकुराया, मैं अपना पारिवारिक उत्तरदायित्व अपने समर्थ पुत्रों को देकर निश्चिंत हूँ। वे जो कहते हैं, कर देता हूँ, जो खिलाते हैं, खा लेता हूँ और अपने पौत्र-पौत्रियों के साथ खेलता रहता हूँ। बच्चे कभी भूल करते हैं, तब भी चुप रहता हूँ। मैं उनके किसी कार्य में बाधक नहीं बनता। पर जब कभी वे परामर्श लेने आते हैं तो मैं अपने जीवन के सारे अनुभवों को उनके सामने रखकर की हुई भूल से उत्पन्न दुष्परिणामों की ओर से सचेत कर देता हूँ। वे मेरी सलाह पर कितना चलते हैं, यह देखना और अपना मस्तिष्क खराब करना मेरा काम नहीं है। वे मेरे निर्देशों पर चलें ही, यह मेरा आग्रह नहीं। परामर्श देने के बाद भी अगर वे भूल करते हैं तो मैं  चिंतित नहीं होता। उसपर भी वे पुन: मेरे पास आते हैं तो मेरा दरवाजा सदैव उनके लिए खुला रहता है। मैं पुन: उचित सलाह देकर उन्हें विदा करता हूँ। 

वृद्ध की बात सुनकर सुकरात बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि आपने इस आयु में जीवन कैसे जिया जाय, यह बखूबी समझ लिया है।

(गीतप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण से)

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https://youtu.be/bnF3qTUMN9E

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

कोरोना काल में यात्रा

 किसी भी बीमारी के लिए अगर यह पूछा जाए कि उसका प्रकोप कब प्रारम्भ हुई, तो इसकी एक तिथि नहीं बताई जा सकती। लगभग .......... समय प्रारम्भ हुई – ऐसा ही कहा जा सकता है। दुनिया में कोरोना के प्रारम्भ होने का समय अलग है भारत का अलग। कोरोना भारत में कब प्रारम्भ हुआ? अलग-अलग तर्क हैं, समय हैं और अगर उन तर्कों को सुनें तो सब अपनी-अपनी जगह सही भी हैं। यहाँ हम अपनी सुविधा के लिए यह मान लेते हैं कि भारत में कोरोना कि यात्रा उस समय प्रारम्भ हुई जिस दिन पहली बार हमारे प्रधान मंत्री ने कुछ घंटों का और फिर सप्ताहों का देश व्यापी बंद या कर्फ़्यू का ऐलान किया। ठीक इसके पहले मैं ऑस्ट्रेलिया में था और उसकी धमक हम ने अपनी वापसी यात्रा में  महसूस कर ली थी। एयरलाइन्स ने हमारी यात्रा में बड़ा बदलाव कर दिया था और सिडनी से कोलकाता तक की यात्रा में हमें दो जगहों पर अपना विमान बदली करना पड़ा था और हर जगह कोरोना का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर था।

          खैर, हम सही सलामत कोलकाता पहुँच गए और उसके बाद भी, भागवत कृपा से, सही रहे। कोलकाता पहुँचने के पहले से ही हमने एक-के-बाद एक तीन यात्राएं निर्धारित कर रखी थीं, जिन्हें कोलकाता पहुँचने के बाद बड़े भारी दिल से रद्द करना पड़ा था। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों में ढील मिलनी प्रारम्भ हुई – सीमित संख्या में हवाई, रेल और सड़क मार्ग को खोलने का कार्य आरंभ हुआ। जैसे-जैसे ये प्रतिबंध कम होने लगे मैं फिर से बाहर जाने के लिए छटपटाने लगा। आखिर जनवरी 2021 के अंतिम सप्ताह में कोलकाता के बाहर पहला कदम रखा। तब से अब तक मैं दिल्ली, ऋषिकेश, उत्तराखंड में – देवप्रयाग, तिलवारा, गुप्तकाशी, उखीमठ, जोशिमठ, रुद्रप्रयाग – एवं इंदौर की यात्रा  कर चुका हूँ। ये यात्राएँ कई चरणों में हुई और इस दौरान मैं ने हवाई, रेल और सड़क मार्गों का उपयोग किया।  कोरोना काल में लोग हवाई यात्रा को सबसे सुरक्षित एवं सुविधापूर्ण मानते हैं। इन यात्राओं के दौरान मेरा अनुभव कुछ अलग ही रहा। कौन-सी निरापद है और क्यों, कौन-सी सुखद है और क्यों इसका निर्णय तो आप खुद ही अपनी सुविधानुसार कीजिये। हाँ प्रारम्भ करने के पहले मैं यह बता दूँ कि यात्रा खर्च हमारे लिए प्रमुख नहीं रहा। प्रमुखता थी सुखद एवं निरापद। तब आइए, ले चलता हूँ अपनी यात्रा के अनुभवों पर:

 

हवाई यात्रा

ये यात्राएं ऋषिकेश से कोलकाता, दिल्ली होते हुए, दिल्ली से इंदौर और वापस तथा दिल्ली से कोलकाता की हुईं। ये यात्राएं इंडिगो से हुईं सिर्फ अंतिम यात्रा, दिल्ली से कोलकाता तक की एयर इंडिया से हुई। एयर इंडिया के सामने इंडोगों कहीं नहीं ठहरती – बैठने के लिए ज्यादा जगह, पैर फैलाने की जगह, 25 किलो समान बिना अतिरिक्त खर्च के, भाड़ा इंडिगो के बराबर, भोजन में चावल के अतिरिक्त रोटी / पराठा भी उपलब्ध।  

हवाई यात्रा, समय की बचत के लिए सही हो सकती है, लेकिन सुविधा और निरापद तो है ही नहीं। बैगेज़ ड्रॉप तक हमें ट्रॉली मिली,  लेकिन ट्रॉली हमें ही लेनी और ले जानी पड़ी, चेक-इन तक और फिर उसे बेल्ट पर चढ़ाया भी हमी ने, उसके बाद वहाँ से विमान में ओवर हैड तक ले जाना और चढ़ना भी हमें ही पड़ा। बीच में सुरक्षा जाँच पर भी पूरी जद्दोजहद भी हमें ही झेलनी पड़ेगी। यही हाल गंतव्य स्थल पर है। विमान से लेकर टैक्सी तक हमारा ही सर-दर्द है। बैगेज ड्रॉप से लेकर विमान तक की यात्रा भी अनेक बार काफी लंबी रही। विमान में खाना इतना की भूख शांत हो जाए लेकिन मिटे नहीं। वरिष्ठ नागरिक होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ी सुविधा थी, यानि पंक्ति को पार कर आगे जाने मिला – अत: ज्यादा खड़ा नहीं रहना पड़ा, सहायता के लिए अन्य यात्रियों या विमान कर्मचारियों ने – विमान के अंदर और एयरपोर्ट पर - अपने हाथ बढ़ाये।  

          और निरापद! ऐसी मारामारी और एक-दूसरे पर चढ़ना, भगवान बचाए –लगा कि विमान नहीं स्थानीय सरकारी बस में चढ़ने और अपनी सीट रोकने का तमाशा चल रहा है। एयरपोर्ट में प्रवेश के लिए, एक्स-रे के लिए अगर जरूरत है तो, चेक-इन या बैगेज़ ड्रॉप के लिए, सुरक्षा जाँच के लिए, विमान में चढ़ाने के लिए और अंत में अपनी आरक्षित कुर्सी तक पहुँचने के लिए, हर जगह लोग एक दूसरे पर चढ़े हुए। बस धकेल-धकेल कर बढ़ते जाइए और तमाशा देखते रहिए, कुछ नहीं कर सकते। इन सब यात्राओं में इसी दौर से गुजरा। 1 या 2 जगह छोड़ कर आप पंक्ति के समाप्त होने का इंतजार भी नहीं कर सकते हैं, हर जगह अंत-हीन लोग हैं। और मैं यह तो लिखना ही भूल गया की अंत में अपनी कुर्सी पर पहुँचने के बाद भी शांति नहीं, अगल-बगल वाले के साथ सट कर ही  बैठना है। है तो मजेदार बात?

 

रेल-यात्रा

यह यात्रा मैंने दो बार की, दोनों बार कोलकाता से दिल्ली जाने के लिए, राजधानी एक्सप्रेस से। अपने घर के कमरे से लेकर रेल की सीट तक सहयोगियों ने पूरा सामान सही ढंग से व्यवस्थित कर दिया। स्वेच्छा से मैंने कुछ सामान उठा लिया अन्यथा आवश्यकता नहीं थी। वैसे ही गंतव्य स्थान पर रेल की सीट से लेकर टैक्सी में व्यवस्थित करने तक मुझे कोई सामान छूने की भी जरूरत नहीं पड़ी।  रेल में बिस्तर एवं पकाया खाना नहीं मिला। लेकिन हमारे साथ बिछाने-ओढ़ने की चद्दरें थीं, एसी ज्यादा ठंडा नहीं था – सुहावना था, खाने की पर्याप्त सामग्री हमारे साथ थी। गरम एवं ठंडा पेय तथा पैकेज्ड भोजन उपलब्ध था। सैनीटाइजर साथ था, जिसका बिना मोह-माया का हमने प्रयोग किया, हैंडल-सीट-दरवाजे-टॉइलेट-एवं अन्य हर कुछ को साफ करने के लिए। यात्रियों की आवाजाही नहीं के बराबर थी। सब अपनी अपनी सीट पर व्यवस्थित थे। किसी से भी न सटने की जरूरत थी न ही मजबूरी। मुझे काफी निरापद और आराम दायक यात्रा महसूस हुई।

 

सड़क-मार्ग – बस

यह यात्रा दिल्ली से ऋषिकेश के मध्य सरकारी वॉल्वो बस में, अपने एक परिचित के सुझाव पर किया। यात्री कम थे अत: आवाजाही कम थी। लेकिन वॉल्वो बस का आभास और आराम नहीं मिला, शायद बस का रख-रखाव सही नहीं था। निरापद और सुविधा पूर्ण नहीं थी।

 

सड़क-मार्ग – गाड़ी (टॅक्सी)

अगर उत्तराखंड में पहाड़ों पर यात्रा कर रहे हैं तो इसका हमारे पास इसका विकल्प है ही नहीं। ऐसी यात्रा में सुखद और आरामदायक का होना तो निर्भर करता है अपने साथी और गाड़ी चालक पर। साथी हमारे मस्त थे, खुशहाल, खिलखिलाती हँसी हँसने, बातूनी और जानकार भी। चालक फिफ्टी-फिफ्टी। निरापदता तो अपने हाथ में थी। इस समय तक रोग का भय समाप्त प्राय: था, उत्तराखंड वैसे भी निरापद था, अत: हमारा ध्यान इस पर ज्यादा नहीं था। यात्रा भी बड़ी आनंददायक रही।

 

निष्कर्ष

हमें तो  हवाई मार्ग की तुलना में रेल मार्ग ज्यादा निरापद, आरामदायक और सुखद लगी। न कहीं रेलम-पेल, न कहीं सामान की चिंता, न लोगों का सट-सट कर चलना-उठना-बैठना, न कोई बोझ उठाना-न किसी से मतलब। सैनीटाइज़र की शीशी हाथ में, जहाँ मन हुआ छिड़क लिया। लंबे होकर सो लिया, मन-मुताबिक सामान बाँध लिया – सब यात्राएँ लंबी होने के कारण ज्यादा सामान की कोई कटाई-छाँटाई भी नहीं करनी पड़ी।   

          आप और किसी भी प्रकार की जानकारी चाहते हैं तो मुझ से संपर्क कर सकते हैं। आप का स्वागत है। इस विवरण को लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि यात्राओं की कठिनाई और सुविधा से पाठकों को अवगत कराना। अगर आप को इससे जरा भी सुविधा या जानकारी मिली तो मेरा यह लेखन सफल रहा।

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शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2021

इंजीनियरिंग की भाषा

अभी, कुछ समय पहले टाइम्स अखबार में एक खबर पढ़ी अब इंजीनियरिंग की शिक्षा हिन्दी, बंगाली एवं अन्य 6 भाषाओं में। कई वाकिए एक साथ आँखों के सामने से गुजर गए।

          अपने सम्बन्धों के कारण हम विदेशों से आए मेहमानों को अपने घर पर ठहरने की सुविधा प्रदान करते थे। प्रारम्भ में यह विचार था कि ये मेहमान ज़्यादातर आस्ट्रेलिया से आएंगे, लेकिन जैसे-जैसे समय गुजरता गया हमने पाया कि आस्ट्रेलिया के बजाय यूरोप से हर देश से लोग आ रहे हैं, बल्कि उन्हीं की संख्या ज्यादा है इसके अलावा चीन और जापान से भी आ रहे हैं। घर पर ही ठहरने के कारण उन से अंतरंगता हो जाती थी और कइयों से बहुत बातें भी होती थीं। हमें यह देख कर बड़ा आश्चर्य होता था कि इनमें से ज़्यादातर लोगों को अँग्रेजी नहीं आती थी या बस काम चलाऊ। इनमें से  कई लोग उच्च पदों पर नियुक्त सरकारी या निजी कर्मचारी और उच्च शिक्षा प्राप्त मेडिकल-इंजीनियरिंग-कम्पुटर के क्षेत्र से जुड़े तकनीशियन भी थे। जिनसे अंतरंगता हुई उनसे हमने जिज्ञासा की कि बिना अँग्रेजी के वे कैसे इन पदों और डिग्री को हासिल कर पाये? उनसे जो उत्तर प्राप्त हुए उसका निचोड़ यह निकला –

‘इन विशेष शिक्षा या उच्च पदों का भाषा और वह भी एक विदेशी भाषा से क्या संबंध है? हमारे पास अपनी भाषा में पठन-पाठन की पूरी सामग्री उपलब्ध है और हमें उन्हें पढ़ने और समझने में कोई परेशानी नहीं होती। हर तकनीकी (टेक्निकल) शब्द का या तो हमारी भाषा में उसका समानार्थी शब्द है या फिर हम उस शब्द को वैसे-का-वैसा अपना लेते हैं।  जिन्हें विदेश जाना हो, पढ़ाई या नौकरी के लिए जहाँ अँग्रेजी का ज्ञान होना आवश्यक है उनके लिए जरूरत के अनुसार उसी प्रकार की व्यावहारिक अँग्रेजी सीखने के एक से बारह महीने के क्रैश कोर्स उपलब्ध हैं। यह कहाँ की समझदारी है कि मुट्ठी भर लोगों के लिए पूरे देश वासियों को अपनी भाषा छोड़कर एक विदेशी भाषा सीखने के लिए मजबूर किया जाए?  

दक्षिण अमेरिका के एक देश से, जो कभी स्पेन का उपनिवेश रह चुका था, आए एक युवा जोड़े से पता चला कि वे एक सिविल इंजीनियर और दूसरी इंटिरियर डिज़ाइनर हैं। उन्हें टूटी-फूटी अँग्रेजी भी नहीं आती थी, केवल कुछ शब्द। उन्होंने हमें हमारे विचारों का मर्म समझाया –‘हम चूंकि ब्रिटिश उपनिवेश रह चुके हैं हम ऐसा सोचते हैं कि बिना अँग्रेजी के काम नहीं हो सकता, लेकिन सच्चाई वैसी नहीं है। उनका देश स्पेन का उपनिवेश था, अत: वहाँ अँग्रेजी नहीं स्पैनिश है। उनके लिए तो स्पेनिश एक मजबूरी है क्योंकि वहाँ के स्थानीय लोगों की हत्या कर दी गई थी। उनकी अपनी भाषा को जानने वाले केवल कुछ हजार लोग ही बचे हैं और उसे उन कुछ लोगों के अलावा और कोई समझ नहीं पाता। अत: अब साल-दर-साल उस भाषा को बोलने वाले कम होते जा रहे हैं और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। फिर भी कोशिश जारी है लेकिन उम्मीद बहुत कम है।‘

          चीन से एक युवा बच्ची, जो शायद 20-25 वर्ष की ही थी, अकेली आई थी। उसे न अँग्रेजी आती थी, न हिन्दी। फिर भी अकेली आने का साहस जुटाया था। उससे तो किसी भी प्रकार का वार्तालाप संभव ही नहीं था। वह ठीक दोपहर के भोजन के पहले आई थी। हमने उसे भोजन के लिए निमंत्रित किया लेकिन वह समझ नहीं सकी और सिर हिलाकर ना ही करती रही। हम खाने बैठे तब हमने देखा कि वह बार-बार चक्कर लगा रही है, हमने समझा कि शायद उसे भूख लग रही है, लेकिन उसने फिर सिर हिलाकर मना कर दिया। फिर उसके किसी भारतीय दोस्त, जो चाइनीज़ जानता था, का फोन आया तब पता चला कि उसे बहुत ज़ोर की भूख लगी है उसे खाने को कुछ दिया जाए। इस युवती ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की, और अच्छी नौकरी मिलने के बाद लेकिन कार्य आरंभ करने के पहले भारत निकल पड़ी – बोध गया - भगवान बुद्ध के स्थान के दर्शन के लिए।  

          क्या आपको पता है कि हिब्रू, इज़राइल की राष्ट्र भाषा, जो अपना अस्तित्व खोने के कगार पर पहुँच गई थी, को 1900 में फिर से स्थापित कर लिया गया। यह वही भाषा है जिसे शताब्दियों तक बोला नहीं गया था। इस महत कार्य को किया था वहाँ के शिक्षाविदों ने जिन्हें सरकारी सहयोग भी प्राप्त हुआ। इसी प्रकार एक ऐसा समय आया था जब ब्रिटेन से अँग्रेजी  साफ होने के कगार पर पहुँच गई थी, फ्रेंच भाषा ने पूरी तरह ब्रिटेन पर कब्जा जमा लिया था। इसे सरकारी, उच्च अफसर, और धनवानों का भी पूरा समर्थन प्राप्त था। अँग्रेजी बोलना, पढ़ना हेय दृष्टि से देखा जाता था। फिर वहाँ की आम जनता और शिक्षाविद, साहित्यकारों में जागृति फैली, वे उठ खड़े हुए और फ्रेंच भाषा को अपदस्थ कर बिना सरकारी सहयोग के, अँग्रेजी को उसका दर्जा और सम्मान दिलाया।

          इन घटनाओं और इस इतिहास के परिप्रेक्ष्य में जब मैंने टाइम्स की इस खबर को पढ़ा तब  आँखों में पानी आना स्वाभाविक था। देश की जनता बे-खबर भेड़ चाल चल रही है, धनाड्य और उच्च अधिकारी वर्ग अँग्रेजी भाषा की सहायता से अपनी विशिष्टता बचाए रखे हैं, शिक्षाविद भी पता नहीं किस प्रलोभन में अपनी भाषा को स्थापित करने में रोड़े अटकाना ही अपनी विशिष्टता समझ  रहे हैं। ऐसे माहौल में यह निर्णय जिससे देश की आम जनता को अपना हुनर-ज्ञान सीखने का मौका मिलेगा, जानकर अतीव हर्ष हुआ। इस वर्ग का खेल-कूद की दुनिया में योगदान किसी से छिपा नहीं है। हमें चाहिए कि हम इसका समर्थन करें और अपनी भाषा को प्रोत्साहित करें।

          अभी, जब एक लंबे समय तक बड़े शहरों से इतर छोटे गाँव, कस्बे से आए बालक-बालिकाओं के संग रहा तब पता चला कि इन्हें अँग्रेजी का ज्ञान नहीं है, दूसरी कोई भाषा हम गंभीरता से सीखाते नहीं, अत: इन्हें किसी भी भाषा का सही ज्ञान नहीं है, लेकिन  भाषा के इतर इनका ज्ञान और समझ किसी भी शहरी और शहर के तथाकथित अच्छे विद्यालय के बच्चों से ज्यादा है। केवल भाषा का अल्प ज्ञान होने के कारण इन में हीन भावना आ जाती है। अपनी भाषा और पहनावे के कारण ये कम पढ़े-लिखे प्रतीत होते हैं। उन्हें अगर समुचित सुविधा और अवसर प्रदान की जाए तो इनमें देश को बदलने की क्षमता है। यहाँ के संपर्क से यह भी ज्ञात हुआ कि सरकारी सहयोग एवं प्रोत्साहन से क्षेत्रीय, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पुस्तक, पत्र, पत्रिका एवं अनुवाद के छपने-छपाने  के कार्य में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। यह वास्तव में बड़े हर्ष का विषय है।

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शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2021

सूतांजली, अक्तूबर 2021

 सूतांजली के अक्तूबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की दसवीं किश्त है।

१। क्या गाँधी से दूर रहा जा सकता है?                              मैंने पढ़ा

किसी भी वाद-विवाद का कोई अंत नहीं होता। अत: जब कभी कहीं कोई गाँधी की आलोचना करता, मेरे पास चुप रहने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता। मैं जानता हूँ कि वह गाँधी के बारे में नहीं जानता। सोनाली के लेख को पढ़ने से संतोष हुआ, ऐसा सोचने वाला मैं अकेला नहीं हूँ, और भी हैं। किसी की आलोचना करनी है, जरूर कीजिये लेकिन उसे जानने के बाद, समझने के बाद, पढ़ने का बाद। आधे-अधूरे ज्ञान से नहीं, सुनी-सुनाई बातों से नहीं।                             

२। मैंने शायरी को देखा है                                              मेरे अनुभव

आपने शायरी सुनी होगी, आपने शायरी पढ़ी भी होगी, हो सकता है अपने शायरी लिखी भी हो। लेकिन जनाब, क्या अपने कभी शायरी देखी भी है? हाँ, मैंने देखी है।

३। सज्जनता                                             लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

आज अचानक सज्जनता का यह पाठ पढ़ा कर तुमने मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया भाई। युद्ध के इस नारकीय दलदल में  फँसे हुए मुझको हाथ देकर उबरने की कीमत तो नहीं चुका पाऊँगा, लेकिन...

४। मेरी नहीं सबकी माँ                                                                मैंने पढ़ा                         

सुख-आनंद सर्व में है स्व मेन नहीं। माँ यह अच्छी तरह से समझती है। तभी तो...

जब प्रकृति का न्याय होता है तब न धन, न धर्म, न पद, न ज्ञान काम आता है। काम आता है सिर्फ कर्म।

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की दसवीं किश्त

पढ़ने के लिए ब्लॉग का संपर्क सूत्र (लिंक) (ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है): ->


https://sootanjali.blogspot.com/2021/10/2021.html