किसी भी बीमारी के लिए अगर यह पूछा जाए कि उसका प्रकोप कब प्रारम्भ हुई, तो इसकी एक तिथि नहीं बताई जा सकती। लगभग .......... समय प्रारम्भ हुई – ऐसा ही कहा जा सकता है। दुनिया में कोरोना के प्रारम्भ होने का समय अलग है भारत का अलग। कोरोना भारत में कब प्रारम्भ हुआ? अलग-अलग तर्क हैं, समय हैं और अगर उन तर्कों को सुनें तो सब अपनी-अपनी जगह सही भी हैं। यहाँ हम अपनी सुविधा के लिए यह मान लेते हैं कि भारत में कोरोना कि यात्रा उस समय प्रारम्भ हुई जिस दिन पहली बार हमारे प्रधान मंत्री ने कुछ घंटों का और फिर सप्ताहों का देश व्यापी ‘बंद’ या ‘कर्फ़्यू’ का ऐलान किया। ठीक इसके पहले मैं ऑस्ट्रेलिया में था और उसकी धमक हम ने अपनी वापसी यात्रा में महसूस कर ली थी। एयरलाइन्स ने हमारी यात्रा में बड़ा बदलाव कर दिया था और सिडनी से कोलकाता तक की यात्रा में हमें दो जगहों पर अपना विमान बदली करना पड़ा था और हर जगह कोरोना का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर था।
खैर, हम सही सलामत कोलकाता पहुँच गए और
उसके बाद भी, भागवत कृपा से, सही रहे। कोलकाता
पहुँचने के पहले से ही हमने एक-के-बाद एक तीन यात्राएं निर्धारित कर रखी थीं, जिन्हें कोलकाता पहुँचने के बाद बड़े भारी दिल से रद्द करना पड़ा था।
जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा, सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबन्धों
में ढील मिलनी प्रारम्भ हुई – सीमित संख्या में हवाई, रेल और
सड़क मार्ग को खोलने का कार्य आरंभ हुआ। जैसे-जैसे ये प्रतिबंध कम होने लगे मैं फिर
से बाहर जाने के लिए छटपटाने लगा। आखिर जनवरी 2021 के अंतिम सप्ताह में कोलकाता के
बाहर पहला कदम रखा। तब से अब तक मैं दिल्ली, ऋषिकेश, उत्तराखंड में – देवप्रयाग, तिलवारा, गुप्तकाशी, उखीमठ, जोशिमठ, रुद्रप्रयाग – एवं इंदौर की यात्रा
कर चुका हूँ। ये यात्राएँ कई चरणों में हुई और इस दौरान मैं ने हवाई, रेल और सड़क मार्गों का उपयोग किया। कोरोना काल में लोग ‘हवाई’ यात्रा को सबसे सुरक्षित एवं सुविधापूर्ण मानते हैं। इन यात्राओं के
दौरान मेरा अनुभव कुछ अलग ही रहा। कौन-सी निरापद है और क्यों, कौन-सी सुखद है और क्यों इसका निर्णय तो आप खुद ही अपनी सुविधानुसार कीजिये।
हाँ प्रारम्भ करने के पहले मैं यह बता दूँ कि यात्रा खर्च हमारे लिए प्रमुख नहीं
रहा। प्रमुखता थी सुखद एवं निरापद। तब आइए, ले चलता हूँ अपनी
यात्रा के अनुभवों पर:
हवाई यात्रा
ये यात्राएं ऋषिकेश से कोलकाता, दिल्ली होते हुए, दिल्ली से इंदौर और वापस तथा दिल्ली से कोलकाता की हुईं। ये यात्राएं इंडिगो से हुईं सिर्फ अंतिम यात्रा, दिल्ली से कोलकाता तक की एयर इंडिया से हुई। एयर इंडिया के सामने इंडोगों कहीं नहीं ठहरती – बैठने के लिए ज्यादा जगह, पैर फैलाने की जगह, 25 किलो समान बिना अतिरिक्त खर्च के, भाड़ा इंडिगो के बराबर, भोजन में चावल के अतिरिक्त रोटी / पराठा भी उपलब्ध।
हवाई यात्रा, समय की बचत के लिए सही हो सकती है, लेकिन सुविधा और निरापद तो है ही नहीं। ‘बैगेज़ ड्रॉप’ तक हमें ट्रॉली मिली, लेकिन ट्रॉली हमें ही लेनी और ले जानी पड़ी, चेक-इन तक और फिर उसे बेल्ट पर चढ़ाया भी हमी ने, उसके बाद वहाँ से विमान में ‘ओवर हैड’ तक ले जाना और चढ़ना भी हमें ही पड़ा। बीच में ‘सुरक्षा जाँच’ पर भी पूरी जद्दोजहद भी हमें ही झेलनी पड़ेगी। यही हाल गंतव्य स्थल पर है। विमान से लेकर टैक्सी तक हमारा ही सर-दर्द है। ‘बैगेज ड्रॉप’ से लेकर विमान तक की यात्रा भी अनेक बार काफी लंबी रही। विमान में खाना इतना की भूख शांत हो जाए लेकिन मिटे नहीं। वरिष्ठ नागरिक होने के कारण कहीं-कहीं थोड़ी सुविधा थी, यानि पंक्ति को पार कर आगे जाने मिला – अत: ज्यादा खड़ा नहीं रहना पड़ा, सहायता के लिए अन्य यात्रियों या विमान कर्मचारियों ने – विमान के अंदर और एयरपोर्ट पर - अपने हाथ बढ़ाये।
और निरापद! ऐसी मारामारी और एक-दूसरे पर चढ़ना, भगवान बचाए –लगा कि विमान नहीं स्थानीय सरकारी बस में चढ़ने और अपनी सीट रोकने
का तमाशा चल रहा है। एयरपोर्ट में प्रवेश के लिए, एक्स-रे के
लिए अगर जरूरत है तो, चेक-इन या बैगेज़ ड्रॉप के लिए, सुरक्षा जाँच के लिए, विमान में चढ़ाने के लिए और
अंत में अपनी आरक्षित कुर्सी तक पहुँचने के लिए, हर जगह लोग
एक दूसरे पर चढ़े हुए। बस धकेल-धकेल कर बढ़ते जाइए और तमाशा देखते रहिए, कुछ नहीं कर सकते। इन सब यात्राओं में इसी दौर से गुजरा। 1 या 2 जगह छोड़
कर आप पंक्ति के समाप्त होने का इंतजार भी नहीं कर सकते हैं,
हर जगह अंत-हीन लोग हैं। और मैं यह तो लिखना ही भूल गया की अंत में अपनी कुर्सी पर
पहुँचने के बाद भी शांति नहीं, अगल-बगल वाले के साथ सट कर
ही बैठना है। है तो मजेदार बात?
रेल-यात्रा
यह यात्रा मैंने दो बार की, दोनों बार कोलकाता से दिल्ली जाने के लिए, राजधानी एक्सप्रेस से। अपने घर के कमरे से लेकर रेल की सीट तक सहयोगियों
ने पूरा सामान सही ढंग से व्यवस्थित कर दिया। स्वेच्छा से मैंने कुछ सामान उठा
लिया अन्यथा आवश्यकता नहीं थी। वैसे ही गंतव्य स्थान पर रेल की सीट से लेकर टैक्सी
में व्यवस्थित करने तक मुझे कोई सामान छूने की भी जरूरत नहीं पड़ी। रेल में बिस्तर एवं ‘पकाया’ खाना नहीं मिला। लेकिन हमारे साथ बिछाने-ओढ़ने की चद्दरें थीं, एसी ज्यादा ठंडा नहीं था – सुहावना था, खाने की
पर्याप्त सामग्री हमारे साथ थी। गरम एवं ठंडा पेय तथा पैकेज्ड भोजन उपलब्ध था। सैनीटाइजर
साथ था, जिसका बिना मोह-माया का हमने प्रयोग किया, हैंडल-सीट-दरवाजे-टॉइलेट-एवं अन्य हर कुछ को साफ करने के लिए। यात्रियों
की आवाजाही नहीं के बराबर थी। सब अपनी अपनी सीट पर व्यवस्थित थे। किसी से भी न सटने
की जरूरत थी न ही मजबूरी। मुझे काफी निरापद और आराम दायक यात्रा महसूस हुई।
सड़क-मार्ग – बस
यह यात्रा दिल्ली से ऋषिकेश के मध्य सरकारी वॉल्वो बस में, अपने एक परिचित के सुझाव पर किया।
यात्री कम थे अत: आवाजाही कम थी। लेकिन वॉल्वो बस का आभास और आराम नहीं मिला, शायद बस का रख-रखाव सही नहीं था। ‘निरापद और सुविधा’ पूर्ण नहीं थी।
सड़क-मार्ग – गाड़ी (टॅक्सी)
अगर उत्तराखंड में पहाड़ों पर यात्रा कर रहे हैं तो इसका हमारे पास इसका
विकल्प है ही नहीं। ऐसी यात्रा में सुखद और आरामदायक का होना तो निर्भर करता है
अपने साथी और गाड़ी चालक पर। साथी हमारे मस्त थे, खुशहाल, खिलखिलाती हँसी हँसने, बातूनी और जानकार भी। चालक फिफ्टी-फिफ्टी। निरापदता तो अपने हाथ में थी।
इस समय तक रोग का भय समाप्त प्राय: था, उत्तराखंड वैसे भी
निरापद था, अत: हमारा ध्यान इस पर ज्यादा नहीं था। यात्रा भी
बड़ी आनंददायक रही।
निष्कर्ष
हमें तो हवाई मार्ग की तुलना में
रेल मार्ग ज्यादा निरापद, आरामदायक और सुखद लगी।
न कहीं रेलम-पेल, न कहीं सामान की चिंता, न लोगों का सट-सट कर चलना-उठना-बैठना, न कोई बोझ उठाना-न
किसी से मतलब। सैनीटाइज़र की शीशी हाथ में, जहाँ मन हुआ छिड़क लिया।
लंबे होकर सो लिया, मन-मुताबिक सामान बाँध लिया – सब यात्राएँ
लंबी होने के कारण ज्यादा सामान की कोई कटाई-छाँटाई भी नहीं करनी पड़ी।
आप और किसी भी प्रकार की
जानकारी चाहते हैं तो मुझ से संपर्क कर सकते हैं। आप का स्वागत है। इस विवरण को
लिखने का उद्देश्य सिर्फ इतना ही है कि यात्राओं की कठिनाई और सुविधा से पाठकों को
अवगत कराना। अगर आप को इससे जरा भी सुविधा या जानकारी मिली तो मेरा यह लेखन सफल
रहा।
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हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।
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