शुक्रवार, 28 मई 2021

कोविडविडोज़.इन

कोविड ने पहले चरण में और उससे भी ज्यादा अपने दूसरे चरण में भीषण त्राहि-त्राहि मचाई है। अनगिनत लोगों ने अपनी जानें गवाईं हैं। हर प्रकार के लोग, बच्चे, बूढ़े, पुरुष, महिला, युवा, गरीब, अमीर, सामर्थ्यवन, असहाय, आम आदमी, खास व्यक्ति; माँ, बाप, लड़के, लड़की, बहू, जवाईं, परिचित, मित्र, रिश्तेदार कौन नहीं आया इस चपेट में। किसी का प्रिय गया, किसी का सहारा, किसी का अकेला कमाऊ पूत। किसका दुख ज्यादा है किसका कम, किसको सहायता की ज्यादा और पहले जरूरत है और किसे बाद में इसका आकलन नहीं किया जा सकता। कुछ लोग ने इस स्थिति का फायदा उठा कर लूट, हैवानियत, आतंक को अपनाया है लेकिन ज्यादा लोगों ने इंसानियत और मदद के हाथ बढ़ाये हैं। सब अपने अपने ढंग, समझ और सामर्थ्य से उनसे जो भी बन पड़ा रहा है कर रहे हैं।

 

ऐसे में  कोविडविडोज़.इन  (https://covidwidows.in)  ने इस महामारी में कोविड की वजह से हुई विधवाओं के लिए एक अभूतपूर्व कदम उठाया है, उन्हें आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाने का।  पति के जाने का दुख और झटका तो हम साझा नहीं कर सकते लेकिन कुछ तो ऐसा कर सकते हैं कि उनको राहत मिले। ऐसी विधवाओं को न तो सहानुभूति चाहिए, न हमदर्दी, न भीख। उन्हें चाहिए कमाई का कोई रास्ता ताकि वे अपना और अपने परिवार वालों को दो जून रोटी दे सकें, इज्जत से जीने का हक दे सकें। कोविडविडोज़.इन इस प्रयत्न में  लगा है कि ऐसी विधवाओं को नौकरी दिलवाई जा सके, आवश्यकतानुसार प्रशिक्षण दिया जा सके या उन्हें स्वावलंबी बनाया जा सके ताकि वे इस विपदा को झेल सकें।  आप उनके इस प्रयास से जुड़ सकते हैं, उन्हें सहायता पहुंचा सकते हैं। कैसे?

 

इससे दो अलग-अलग प्रकार से जुड़ सकते हैं –

पहले प्रारूप में दो रास्ते हैं, ऐसी विधवाओं को  

१. नौकरी देकर, या

२. प्रशिक्षण देकर।

 

दूसरे प्रारूप में कई रास्ते हैं। इसका उद्देश्य है ज्यादा से ज्यादा विधवाओं तक इस पहल को पहुंचाना और यह सुनिश्चित करना कि उन्हें आवश्यक सहायता प्राप्त हुई।

१. इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचायें,

२. ऐसी विधवाओं को इसके बारे में बताएं,

३. अगर वे खुद जुड़ना नहीं जानती तो उनकी सहायत कर उन्हें जोड़ें,

४. उनका पंजीकरण (registration) करवाने के बाद भी जब तक उनकी व्यवस्था नहीं हो जाती तब तक संपर्क बनाए रखें।

५. अपने मन में किसी भी प्रकार का आग्रह न रख कर हर निर्णय उस महिला और कोविडविडोज़.इन पर छोड़ें। आपका कार्य केवल मार्ग प्रदर्शन करना और कोविडविडोज़.इन से संपर्क बनाए रखना है।

 

ज्यादा जानकारी के लिए टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित इस खबर का स्कैन भी संलग्न कर रहा हूँ।

कोविडविडोज़.इन के बारे में इंटरनेट में अनेक सूचनाएँ उपलब्ध हैं, अपने प्रश्नों का उत्तर वहाँ से लें।

 

अगर आपके प्रयास से एक घर भी संभालता है तो  उसके लिए कितना बड़ा सहयोग है। और इस कार्य में आप अकेले भी नहीं है। तब फिर, देर किस बात की। जहां-जहां जिस-जिस भी ग्रुप, फेस बुक या और किसी सोशल मीडिया में इस सूचना को डाल सकते हैं डालिये। जिस किसी ऐसी महिला को जानती हैं उन्हें बताइये और उनका हौसला बढ़ाइये।



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अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको कैसा लगा और क्यों? आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

शुक्रवार, 21 मई 2021

संकल्प गाथा

(इस  उद्धरण के लेखक हैं चंडीदत्त शुक्ल। आज से ८ वर्ष पूर्व यह लेख हिन्दी पत्रिका अहा! ज़िंदगी में प्रकाशित हुई थी। यदि हीन  भावना से ग्रस्त व्यक्ति को प्रोत्साहन दिया जाए तो वह बेहतर परिणाम दे सकता है। इसके विपरीत नकारात्मक, आलोचनात्म्क, तुलनात्मक दृष्टिकोण हीन भावना को जन्म देता है और उसे हतोत्सित करता है।)

गया का गहलौर गाँव। हर दिन प्यास बुझाने, रसोई के खातिर, कपड़े-बर्तन धोने के लिए पानी  लाने फागुनी देवी कई किलोमीटर दूर जातीं। रास्ता भी आसान नहीं। पहाड़ चढ़ कर पार उतरना पड़ता। फिर लंबी दूर का सफर। तब कहीं पानी मिलता। एक दिन पहाड़ लांघते हुए फिसल गई। जान तो बच गई लेकिन घड़ा टूटा और 

डाक टिकट विभाग जारी टिकट 

चोट भी आई। १९६० की बात है ये। फागुनी के पति  दशरथ को बहुत गुस्सा आया। थरथर काँपने लगा। दुख और नाराजगी से बोझिल होकर एकबारगी चिल्ला पड़े दशरथ मांझी। फिर तो ठान ली – पहाड़ का माथा झुकाकर मानेंगे। अकेला इंसान। हाथ में छेनी-हथौड़ी। पहाड़ की छाती चीर देना आसान काम तो है नहीं। पर दशरथ जूटे रहे। रात-दिन। बाईस साल बाद एक लम्हा आया। लोगों ने देखा, दशरथ ने २७ फीट ऊंचा पहाड़ काट डाला। ३६५ फीट लंबा और ३० फीट चौड़ा रास्ता बना दिया। ८० किलोमीटर की दूरी ३ किलोमीटर में सिमट गई। अब दशरथ की दृड़ता, हौसले, जज्बे और संकल्प की कहानी पर मशहूर निर्देशक केतन मेहता फिल्म बना रहे हैं। खैर, दशरथ का नाम मुश्किलों के अंधेरे के खिलाफ, संघर्ष के उजाले की जीती-जागती मिसाल है। पचास साल पुरानी हो गई यह कहानी कितनी ताजा लगती है न। मानवीय प्रेम के उछाह से भरपूर। एक इंसान के हौसले के, उसकी जिद के जादू से लबालब संकल्प-गाथा।   

 

असंभव लगने वाला लक्ष्य हासिल करने का जज्बा ही है – इच्छा और उसके लिए कमर कसकर जुट जाने का प्रण – संकल्प। जोश से हिम्मत मिली। जुनून से राह और फिर संकल्प मजबूत रहा। डगमगाया नहीं, तो मंजिल मिल गई। फिर तो शब्दकोश से असंभव शब्द मिट गया, हमेशा के लिए। कोई राह इतनी लंबी नहीं होती कि तय न की जा सके। कोई सागर इतना गहरा नहीं होता कि  इंसान पार न कर पाए। दृड़ता न हो तो एक खड्डे के आगे भी कोई घुटने टेक देगा। मन में, विचार में मजबूती हो तो मृत्यु पर भी विजय मिल जाती है।  

 

राम के पास कौन था? कुछ वनवासी साथी। बंदर -भालुओं की सेना। वनवास का बोझ। पत्नी से बिछुड़ने की पीड़ा, पर राम क्या थके, कभी रुके? नहीं, उन्होंने व्यूह रचना की। योजना बनाई और रावण से भिड़ गए। संकल्प था कि खल-कामी-दुष्ट लंकापति की प्रभुता नष्ट करनी है, तो जुट गए। मुश्किलें आईं पर आखिरकार जीते। और न सिर्फ जीते, ज़ोर-शोर से जीते। सावित्री-सत्यवान की कथा क्या है?  सती स्त्री के मन का संकल्प ही तो कि कैसे भी, पति के प्राण मृत्यु के हाथों से छीन लेने हैं। वह डगमगाई नहीं और सुहाग बचा लिया। 

 

हर बार संकल्प पूरे हों, यह बिलकुल जरूरी नहीं, क्योंकि जज्बा तब तक लोहा भर है, जब तक मन में दृड़ता का बसेरा न हो। दृड़ता आए तो यही इंसान इस्पात बन जाता है। ऐसा न होने तक द्वंद्व किसी खलनायक की तरह इच्छा को पहले संकल्प नहीं बनने देता और फिर नकारात्मक सोच के सहारे उसे भटकाने में लगा रहता है। द्वंद्व, यानि यह विचार – जो मैं करना चाहता हूँ, वह पूरा होगा या नहीं। हो भी गया तो हाथ क्या आयेगा..... आदि-इत्यादि। हाँ, एक बार कुछ पा लेने का विचार मन में गहरे बैठ गया और इस हद तक मजबूत हो गया कि उसके सिवा कुछ और दिखे ही नहीं तो फिर उस संकल्प का पूर्ण होना आदि सत्य हो जाता है। दृड़ इच्छाशक्ति और उसके लिए जरूरी मेहनत – इनका संयोग ही अपराजेय बनाता है, अमिताभ बनाता है

 

आधे बदन पर धोती का एक टुकड़ा लपेटे आत्मबल और वैचारिक मजबूती से अगर गांधी ब्रिटिश साम्राज्य का कभी न अस्त होने वाला सूर्य ढक सकते हैं, विजय अभियान पर निकला नेपोलियन बोनापार्ट दुर्जेय आलप्स पर्वत को लांघ सकता है, दशरथ मांझी पहाड़ का सीना चीर सकता है तो आप क्यों नहीं, हर चुनौती लांघ सकते है। आखिरकार जीवन का अर्थ यही है – कभी न झुकना कभी न थमना।

(संकल्प शक्ति एक ऐसी शक्ति है जिसे अगर आप मजबूत कर लेते हैं तो दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं जिसे पूरा न कर सकें। निरंतर अभ्यास और नए-नए प्रयोग द्वारा अपनी कार्य कुशलता बढ़ाकर वचनबद्धता को प्राप्त कर सकते हैं। देखा जाए तो अधिक से अधिक कर्म करना ही संकल्प बढ़ाने का असली रहस्य है।)

 

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

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शुक्रवार, 14 मई 2021

फ्रेंच बनाम इंगलिश बनाम हिन्दी – द्वितीय

 (पिछले सप्ताह आपने पढ़ा फ्रेंच बनाम इंगलिश । इस सप्ताह पढ़िये इंगलिश बनाम हिन्दी।

आज जो हाल हमारी भारतीय भाषाओं का हो रहा है, किसी समय वही हाल अँग्रेजी का भी था। जिस प्रकार हमारी भारतीय भाषाओं और संस्कृति पर अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य संस्कृति का दब-दबा और रोब है किसी समय अँग्रेजी पर फ्रेंच भाषा और संस्कृति का दब-दबा था। कालांतर में वहीं के निवासियों, विद्वानों, साहित्यकारों और देश भक्तों ने उस परिस्थिति को पलट दिया और फिर से अँग्रेजी को अँग्रेजी का सम्मान प्रदान कराया। देखना यह है कि क्या हम भी अंग्रेजी को उखाड़ फेंकने में कामयाब होंगे?  २०१४ में स्व.गिरिराज किशोर का एक लेख  एक हिन्दी पत्रिका में छापा था। प्रस्तुत दूसरा उद्धरण उसी लेख से लिया गया है।)

पंजाब में स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व पुरुष वर्ग की भाषा प्राय: उर्दू थी, जबकि महिलाओं की शिक्षा-दीक्षा हिन्दी में होती थी, इसलिए कहा जाता है कि पुरुष वर्ग को हिन्दी केवल इसलिए पढ़नी पड़ती थी कि वे अपनी पत्नियों, माताओं और बहनों के साथ पत्राचार कर सकें, इसलिए पंजाब में हिन्दी परंपरा को जीवित रखने का श्रेय वहाँ की महिलाओं को दिया जाता है।

 

खैर, इन सारी स्थितियों होते हुए भी राष्ट्रभाषा-प्रेमी अंग्रेजों ने हिम्मत नहीं हारी, वे स्वीकार करते थे कि फ्रेंच, लैटिन और ग्रीक की तुलना में अँग्रेजी भाषा और साहित्य नगण्य है, तुच्छ है। फिर भी अंतत: वह उनकी अपनी भाषा है, यदि दूसरों की माताएँ अधिक सुंदर और सम्पन्न हों, तो क्या हम अपनी माँ को केवल इसलिए ठुकरा देंगे कि वह उनकी तुलना में असुंदर और अकिंचन है! कुछ ऐसी ही शब्दावली में अँग्रेजी के कट्टर समर्थक रिचर्ड मुल्कास्टर ने १५८२ में लिखा –

रिचर्ड मुलकास्टर 

आइ लव रोम, बट लंदन बेटर

आइ फ़ेवर इटैलिक, बट इंग्लैंड मोर,

आइ ऑनर लैटिन, बट आइ वर्षिप द इंगलिश।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक ओर तो रिचर्ड कैर्यू जैसे विद्वान ने १५९५ में अँग्रेजी भाषा की उच्चता पर लेख लिख कर उसका जोरदार समर्थन किया तो दूसरी ओर सर फिलिप सिडनी जैसे  विद्वान ने घोषित किया – यदि भाषा का लक्ष्य अपने हृदय और मस्तिष्क की कोमल भावनाओं को सुंदर एवं मधुर शब्दावली में व्यक्त करना है, तो निश्चय ही अँग्रेजी भाषा भी इस लक्ष्य की पूर्ति की  दृष्टि से उतनी ही सक्षम है, जितनी की विश्व की अन्य भाषाएँ हैं

 

यदि अँग्रेजी भाषा की प्रतिष्ठा के इतिहास से हिन्दी की तुलना करें, तो दोनों में अनेक समानताएँ दृष्टिगोचर होंगी –

१। यद्यपि दोनों ही अपने-अपने देशों की अत्यंत बहुप्रचलित भाषाएँ थीं, फिर भी विदेशी भाषा-भाषी लोगों के प्रशासन काल में दोनों का ही पराभव होना आरंभ हुआ और वे शीघ्र ही अपने गौरवपूर्ण पद से वंचित हो गईं तथा इनका स्थान शासक वर्ग की विदेशी भाषा ने ले लिया।

२। शासक वर्ग की विदेशी भाषा को अपनाने में  उच्च वर्ग के धनिकों, सामंतों एवं शिक्षितों ने बड़ी तत्परता का परिचय दिया।

 

३। विदेशी भाषा के प्रभाव से दोनों ही देशों (इंग्लैंड और भारत) के लोग इतने अभिभूत हो गए कि वे स्वदेशी भाषा को अत्यंत हेय एवं उपेक्षा योग्य मानते हुए उनमें बात करना भी अपनी शान के खिलाफ समझने लगे।

४। विदेशी शासकों के प्रति  विद्रोह की भावना एवं स्वभाव के प्रति अनुराग की प्रेरणा से ही अँग्रेजी और हिन्दी के पुन: अभ्युथान की प्रक्रिया आरंभ हुई।

५। दोनों ही देशों में पार्लियामेंट द्वारा स्वदेशी भाषाओं को मान्यता मिल जाने के बाद भी उनका प्रयोग बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा।

६। विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो उसकी अभिव्यंजना-शक्ति और साहित्यिक-समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे।

७। जब स्वदेशी भाषाओं को समृद्ध करने के लिए नए शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा, तो उसके विरोधी उस पर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे।

 

इस प्रकार अँग्रेजी और हिन्दी के पराभव एवं पुनरुत्थान की कहानी परस्पर काफी मिलती जुलती है, किन्तु दोनों में थोड़ा अन्तर भी है, जिसके कारण हिन्दी की प्रगति में आज तक बाधाएँ उपस्थित हो रही हैं। एक तो अँग्रेजी जाति में राष्ट्रियता की भावना जितनी दृड़ एवं गंभीर है उतनी स्वतन्त्रता प्राप्ति से पहले तो हममें रही, किन्तु उसके बाद वह बिखरती चली गई। .........

(आज हमारे अंदर राष्ट्रीयता की भावना का अभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर है। देश विरोधी हरकतों को देख खून तो खौलता ही नहीं बल्कि बहुत राजनेता और जनता उनके समर्थन में भी खड़े दिखते हैं। ऐसे समर्थनों के कारण देश विरोधी ताकतों का मनोबल बढ़ता है तो दूसरी तरफ देश के प्रति उदासीनता बढ़ती है। अँग्रेजी का यह इतिहास विश्व की एक अकेली घटना नहीं है। हिब्रू भाषा का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ था। २०० वर्षों तक लोप होने के कगार पर पहुँचने के बाद भी देशवासियों की राष्ट्रियता के कारण उनकी भाषा-संस्कृति फिर से खड़ी हो गई।

 

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बांटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

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शुक्रवार, 7 मई 2021

फ्रेंच बनाम इंगलिश बनाम हिन्दी – पहला

 (आज हमारे अपने देश में जो हाल हमारी भारतीय भाषाओं का हो रहा है, किसी समय वही हाल इंग्लैंड में अँग्रेजी भाषा का भी था। जिस प्रकार हमारी भारतीय भाषाओं और संस्कृति पर अँग्रेजी भाषा और पाश्चात्य संस्कृति का दब-दबा और रोब है किसी समय अँग्रेजी पर फ्रेंच भाषा और संस्कृति का दब-दबा था। कालांतर में वहीं के निवासियों, विद्वानों, साहित्यकारों और देश भक्तों ने उस परिस्थित को पलट दिया और फिर से अँग्रेजी को अँग्रेजी का सम्मान प्रदान कराया। देखना यह है कि क्या हम भी अंग्रेजी को उखाड़ फेंकने में कामयाब होंगे?  २०१४ में स्व.गिरिराज किशोर का एक लेख एक हिन्दी पत्रिका में छापा था। प्रस्तुत उद्धरण उसी लेख से लिया गया है)

गिरिराज किशोर
फ्रेंच बनाम इंगलिश

मैं हिन्दी के संकट की बात नहीं करना चाहता, अँग्रेजी के संकट की बात करना चाहता हूँ। अब अँग्रेजी की बात के माध्यम से अपनी बात समझाऊंगा। मैंने डॉ. गणपतीचंद्र गुप्त पूर्व कुलपति का एक लेख पढ़ा था। उसका शीर्षक था इंग्लैंड में अँग्रेजी कैसे लागू की गई। उसके कुछ संदर्भ आपके सामने रखूँगा। अँग्रेजी को, अपने आप को बनाए रखने की जद्दोजहद, हिन्दी से भी बदतर थी।

 

डॉ. गणपती चंद्र गुप्त

इंग्लिश इंग्लैंड की प्राचीन भाषा रही है। वस्तुत: इंग्लिश के कारण ही इंग्लैंड का नाम इंग्लैंड पड़ा। इंग्लैंड के कारण इंग्लिश, इंग्लिश नहीं थी। १०वीं शताब्दी तक यह समूचे राष्ट्र की बहुमूल्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। किन्तु ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में एकाएक ऐसी घटना घटित हुई, जिसके कारण इंग्लैंड में ही अँग्रेजी का सूर्य अस्त होने लगा। बात यह हुई कि १०६६ में फ्रांस के उत्तरी भाग – नौरमैंडी के निवासी नॉर्मन लोगों का इंग्लैंड पर आधिपत्य हो गया। उनका नायक ड्यूक ऑफ विलियम, इंग्लैंड के तत्कालीन शासक हेराल्ड को युद्ध में पराजित करके स्वयं सिंहासनारूड़ हो गया और तभी से इंग्लैंड पर फ्रेंच भाषा और फ्रांसीसी संस्कृति के प्रभाव की अभिवृद्धि होने लगी, क्योंकि स्वयं नोर्मंस की भाषा और संस्कृति पूर्णत: फ्रेंच थी।

 

शासक वर्ग की भाषा फ्रेंच हो गई, तो स्वाभाविकत: न केवल सारा राज-काज फ्रेंच में होने लगा, वरन शिक्षा, धर्म एवं समाज में भी अँग्रेजी के स्थान पर फ्रेंच प्रतिष्ठित होने लगी। उच्च वर्ग के जो लोग सरकारी पदों के अभिलाषी थे या जो शासक वर्ग से मेल-जोल बढ़ाकर अपने प्रभाव में अभिवृद्धि करना चाहते थे, वे बड़ी तेज गति से फ्रेंच सीखने लगे तथा कुछ ही वर्षों में यह स्थिति आ गई कि धनिकों, सामंतों, शिक्षकों, पादरियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों आदि सबने फ्रेंच को ही अपना लिया और अँग्रेजी केवल निम्न वर्ग के अशिक्षित लोगों, किसान और मजदूर की भाषा रह गई। अपने आपको शिक्षत कहने या कहलाने वाले केवल फ्रेंच का ही प्रयोग करने लगे और अँग्रेजी जानते हुए भी अँग्रेजी बोलना अपनी शान के खिलाफ समझने लगे। यह दूसरी बात है कि कभी-कभी उन्हें अपने अनपढ़ नौकरों या मजदूरों से बात करते समय अँग्रेजी जैसी हेय भाषा में भी बोलने को विवश होना पड़ता था।

 

आगे चलकर इंग्लैंड नॉर्मन के आधिपत्य से तो मुक्त हो गया, किन्तु उनकी भाषा के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाया। इसका कारण यह था कि जिन अंग्रेज राजाओं का अब इंगलैंड में शासन था, वे स्वयं फ्रेंच के प्रभाव से अभिभूत थे। जैसे भारत आजादी के बाद अँग्रेजी का गुलाम था। हमारे देश में भी आजादी के बाद जो शासकों और बुद्धिजीवियों की खेप आई, मंत्रियों से लेकर आई सी एस और कुलपतियों तक, अँग्रेज़ीदाँ थी, जो अपनी भाषा को वर्नाक्युलर से अधिक नहीं समझते थे। आज भी ज्यादा बेहतर स्थिति नहीं है। बंगाल में जगदीश चन्द्र बसु ने जरूर अपनी रिसर्च संबंधी पुस्तक मूल रूप से बांग्ला में लिखी थी। उन्हीं के नाम पर आज बोसॉन पार्टिकल यानि गॉड पार्टिकल की खोज हो रही है। इतना ही नहीं, अंग्रेज़ राजाओं से कुछ का ननिहाल फ्रांस में था, तो किसी का ससुराल पेरिस में थी। अनेक राजकुमारों और सामंतों ने बड़े यत्न से पेरिस में रहकर फ्रेंच भाषा सीखी थी, जिसे बोलकर वे अपने आपको उन लोगों की तुलना में अत्यंत सुपीरियर समझते थे, जो बेचारे केवल अँग्रेजी ही बोल सकते थे। दूसरे, उस समय फ्रेंच भाषा और संस्कृति सारे यूरोप में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी।

 

फिर अँग्रेजी की तुलना में फ्रेंच साहित्य इतना समृद्ध था कि उसे विश्व-ज्ञान की खिड़की  ही नहीं, दरवाजा कहा जाता था। ऐसी स्थिति में भले ही इंग्लैंड स्वतंत्र हो गया हो, पर वहाँ अँग्रेजी की प्रतिष्ठा कैसे संभव थी? हम भी इसी पीड़ा को भोग रहे हैं।

 

धीरे-धीरे  अँग्रेजी के पक्ष में लोकमत जागृत हुआ और १३६२ में पार्लियामेंट में एक अधिनियम स्टेच्यूट ऑफ प्लीडिंग  (अधिवक्ताओं का अधिनियम) पारित हुआ, जिससे इंग्लैंड के न्यायालयों में भी अँग्रेजी का प्रवेश संभव हो गया। हालांकि इस अधिनियम का भी उस समय के बड़े-बड़े न्यायाधीशों तथा अधिवक्ताओं ने भारी विरोध किया, क्योंकि अँग्रेजी में न्याय और कानून संबंधी पुस्तकों का सर्वथा अभाव था, फिर भी तर्क दिया गया कि ऐसी स्थिति में  कैसे बहस की जा सकेगी और कैसे न्याय सुनाया जाएगा। एक देशी भाषा के लिए न्याय की हत्या की जा रही है। (हम भी कुछ ऐसी ही स्थिति में हैं।) अत: वैधानिक दृष्टि से भले ही अँग्रेजी को मान्यता मिल गई, किन्तु कचहरियों का अधिकांश कार्य फ्रेंच भाषा में ही चलता रहा।

 

१४वीं शताब्दी में न्यायालयों के अतिरिक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी अँग्रेजी का पठन-पाठन प्रचलित हुआ। १५वीं-१६वीं शती में अँग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकें लिखना विद्वानों की दृष्टि से हेय समझा जाता था तथा जो ऐसा करने का प्रयास करते थे, वे अपनी सफाई में कोई-न-कोई तर्क देने को विवश होते थे। इसकी तुलना हमारे मध्यकालीन हिन्दी के आचार्य केशवदास की  मन:स्थिति से की जा सकती थी, जिन्होंने अपनी एक रचना में लिखा था –

                   हाय,

                   जिस कुल के दास भी 

                   भाषा (हिन्दी) बोलना नहीं जानते

                   (अर्थात वे भी संस्कृत में बोलते हैं),

                   उसी कुल में मेरे जैसा मतिमंद कवि हुआ,

                   जो भाषा (हिन्दी) में काव्य-रचना करता है”।

वस्तुत: जब कोई राष्ट्र विदेशी संस्कृति एवं भाषा से आक्रांत हो जाता है तो उस स्थिति में स्वदेशी भाषा एवं संस्कृति के उन्नायकों में आत्मलघुता या हीनता की भावना का आ जाना स्वाभाविक है। बड़े विचित्र तर्क हेव्ज की तरफ से फ्रेंच भाषा के पक्ष में दिये जाते थे जैसे इंग्लैंड की सभी सुशिक्षित महिलाएं एवं भद्र्जन अपने प्रेम पत्र का आदान-प्रदान फ्रेंच में करते हैं।

(फिर ऐसा क्या और क्यों हुआ कि अंग्रेज़ इंग्लैंड में से फ्रेंच को हटा कर अँग्रेजी को अपनी प्रतिष्ठा दिलवाने में कामयाब हुए और कालान्तर में विश्व के अनेक देश यह भ्रम पालने लगे कि बिना अँग्रेजी के उनकी गति नहीं। दुर्भाग्य से हमारा देश भी विश्व के उन भ्रमित देशों में से एक है। हम केवल अपनी भाषा ही नहीं सभ्यता और संस्कृति का भी अनवरत ह्वास और लोप होता देख रहे हैं। यह जानने और समझने तथा समझ कर फिर करने की आवश्यकता है। पढ़िये अगले अंक में, अगले सप्ताह, इसके आगे की कड़ी - इंगलिश बनाम हिन्दी ।)

 

आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बांटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

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शनिवार, 1 मई 2021

सूतांजली मई २०२१

 सूतांजली के मई अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में दो विषय, एक लघु कहानी एवं धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी का पाँचवा अंश है:

१। मालिक से गुलाम तक का सफर

जो कौम मालिक हुआ करती थी अब तेजी से गुलाम बनती जा रही है, स्वेच्छा से। है न अद्भुत बात।

... परिवर्तनों को सुविधा के नाम पर ज्यों-का-त्यों स्वीकार कर लिया गया। पीढ़ी को तैयार करना परिवार की जिम्मेदारी थी लेकिन अब स्वतंत्र, एकल और निरंकुश जीवन शैली ही मान्य हो गई है। बच्चा छुटपन से ही पारिवारिक व्यापार से जुड़ कर वयस्क होने तक निपुण हो जाता था। अब अपने पैतृक व्यवसाय से जुड़ ...                 पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

२। जापान – श्री माँ की दृष्टि में

... आमतौर पर जापानियों को गलत समझा गया है और गलत रूप से पेश किया गया है और इस विषय पर कहने लायक कुछ कहा जा सकता है। अधिकतर विदेशी लोग जापानियों के उस भाग के सम्पर्क में आते हैं जो विदेशियों के संसर्ग से बिगड़ चुका है – ये पैसा कमाने वाले, पश्चिम की नकल करने वाले जापानी हैं। वे नकल करने में बहुत चतुर हैं और उनमें ऐसी काफी सारी चीजें हैं जिनसे पश्चिम के लोग घृणा करते हैं। अगर हम केवल राजनेताओं, राजनीतिज्ञों और...

दशकों पहले श्री माँ का जापान में जापान के बारे में दिये गये वक्तव्य की गहराई समझने योग्य है और पठनीय भी। पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

३। छेद

क्रोध का असर क्या और कितना होता है? पिता ने कैसे समझाया अपने लड़के को। पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी

पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इस कड़ी में यहाँ इसका पाँचवा अंश है।

 संपर्क सूत्र (लिंक): ->  https://sootanjali.blogspot.com/2021/05/blog-post.html

 ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है।