गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

मेरे विचार - अच्छे दिन

अच्छे दिन


अप्रैल 2015। एक लंबे अरसे के बाद फिर एक बार फिर यह अहसास हुआ कि मैं बंगाल में हूँ। कोलकाता नगर निगम का चुनाव अभी 18 अप्रैल को हुआ और अब आज के अखबार में पढ़ा - वाम मोर्चा द्वारा 30 अप्रैल को 12 घंटे के बंद का आवाहन। भारतीय जनता पार्टी का समर्थन। हम कोलकाता वासियों के लिए ऐसी  घोषणा कोई नई बात नहीं है। लेकिन समय के साथ  हम इसे भूलने लगे थे। यादें फिर ताजा हो गई। 

कई दशकों से वाम पंथियों का एकछत्र शासन था। जी भर के चुनावों में मनमानी की। जुलूस, धरना, घेराव और बंद की राजनीति की। साल भर में बंद की कई  छुट्टियाँ निशिचित थी। यह एक अलग बात है कि  मैं आज तक यह समझ नहीं पाया कि सरकार / सत्तारूड़ दल बंद क्यों करती है? उद्योग के अलावा घाटा राज्य सरकार और आम जनता को होता है। विशेष कर उस गरीब जनता को जो पीने के पानी के लिए रोज कुआं खोदती है। राज्य सरकार केंद्र सरकार के विरुद्ध ऐसे बंद का आयोजन करती है। क्या इस उद्देश्य की पूर्ति किसी भी  प्रकार से होती है? हाँ, अगर मन में अपनी  शक्ति का प्रदर्शन करना एवं समर्थन को आंकना है, तो वह  जरूर होता होगा।

लेकिन वामपंथियों की यही राजनीति धीरे धीरे उन्हें ले डूबी। किसी समय एक शक्तिशाली एवं समृद्ध बंगाल  पिछड़ता गया। आज यह परिस्थिति है की  यहाँ की मुख्यमंत्री यह स्वीकार करने के लिए विवश है कि हमारा राज्य एक गरीब राज्य है। वामपंथी अपने ही चक्रव्यूह में फंस गए। उनकी जनता पर पकड़ ढीली होती गई। ममता ने अपना डंडा चलना शुरू कर दिया। एक के बाद एक सफल बंद का आयोजन किया। सरकार कि स्थिति और राज्य की  आर्थिक परिस्थिति डांवाडोल होती चली गई। चुनाव में ममता की “रखवाली” के सामने वामपंथी कुछ कर नहीं सके। परिणाम? वाममोर्चा बूरी तरह परास्त हुआ और ममता भारी समर्थन के साथ सत्ता में आ गई।

वाममोर्चा से ली हुई सीख को ध्यान में रखते हुए उसने बंद, जुलूस, धरना एवं घेराव की राजनीति का समर्थन बंद कर दिया। हम धीरे धीरे इसे भूलने लगे। कई उपचुनाव, कस्बों एवं शहरों के चुनाव शांति से हुए।  ममता अपनी जीत के प्रति आश्वशत थी और उस की पार्टी को हर जगह जीत मिलती भी गई।

लेकिन तभी केंद्र में भगवा के तेज आँधी आई। ममता की उनसे नहीं पटी। दोनों के बीच की खाई गहराने लगी। दोनों ने एक दूसरे के विरुद्ध मोर्चा खोल लिया। बीजेपी राज्य में कोई भी  चुनाव जीत तो नहीं पाई लेकिन उसका बड़ता समर्थन साफ दिखने लगा। और इसी समय आ गया कोलकाता नगर निगम का चुनाव। ममता के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती का समय था।  वह किसी भी प्रकार का जोखिम नहीं ले सकती थी। विकल्प? वही पुरानी रणनीति, जिसे वाममोर्चा अपनाता रहा। जम कर धांधली करना , फर्जी वोट डलवाना, बम बाजी से  डराना, धामकाना और येन तेन प्रकारेण चुनाव जीतना। उधर कोलकाता के वामपंथियो को विशाखापत्तनम में आयोजित राष्ट्रीय अधिवेशन  में  मिली नई ताकत के प्रदर्शन का मौका मिल गया । नतीजा? फिर बहुत दिनो बाद एक बंद। बीजेपी ने भी मौके का फायदा उठाते हुए करदी समर्थन की घोषणा।

फिर वही पुराने “अच्छे दिन। 

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कविता - हमारी स्थिति

नियति

जो हम हैं
वो हम होना नहीं चाहते
और जो हम नहीं हैं
वो होना चाहते हैं।

तुम्हें कैसे समझाऊँ मेरे दोस्त !
की इस होने-न-होने के बीच
जिंदगी का सबसे सुनहरा
दौर गुजर जाता है
-    प्रताप सहगल
   ~~~~~
घर से निकलता हूँ तो
     घर शुरू होता है
          घर लौटता हूँ
              तो घर छूटता है
एक घर पेड़ पर
     एक घर आसमान पर
          एक घर मेरे पास
              एक घर तुम्हारे पास
चलूँ तो घर
     बैठूँ तो घर
          रुकूँ तो घर
              देखूँ तो घर
                        अद्भुत !
                        सिर्फ
                        घर में घर नहीं।
-    गौतम चैटर्जी

  

रविवार, 12 अप्रैल 2015

बूंद-बूंद विचार - प्रथम


समाचार पत्रों की कहें या  टेलीविज़न की, कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन किसी बलात्कार का समाचार पढ़ने या सुनने को नहीं मिलता।
  •         साधारणतया एक ही समाचार होता है।
  •         तो क्या वर्ष में ३६५ घटनाएँ ही होती हैं।
  •         नहीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सूचित अपराधों की संख्या इससे कई गुना    ज्यादा है और असूचित की तो और भी ज्यादा।
  •       अच्छा! तो मीडिया ने शायद कोटा निर्धारित कर रखा है। एक दिन में एक।
  •     लेकिन फिर इस प्रकार के वारदातों पर हमारी अदालतों से भी तो रोज कम से  कम एक फैसला आता ही होगा?
  • शायद इन फैसलों का समाचार बिकाऊ नहीं होगा!
  •         यह भी हो सकता है कि ज़्यादातर फैसले अपराधी के पक्ष मे हों !
  •         या फिर अपराधी “इज्जतदार” या “पहुँच” वाला हो?
  •         ऐसा कुछ नहीं है, ऐसे मामलों में फैसले आते ही नहीं।
  •         क्यों नहीं आते?
  •         या तो “तारीख” पर “तारीख” पड़ती रहती है या पीड़ित पक्ष से बलात समझौता  करवा लिया जाता है।
  •         मतलब?
  •  अभिभावक या पीड़िता को डरा-धमका  कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है या “नगद” भुगतान कर दिया जाता है।
  •         लेकिन यह दोनों ही तो गैर कानूनी है और इससे तो अपराधी और अपराध को दोनों बढ़ावा ही मिलेगा।
  •         तब भी दो दिन में एक फैसला तो आना ही चाहिए।
  •         अगर फैसले नहीं आते तो दोष प्रशासन का है या न्याय व्यवस्था का।
  •         अगर फैसले आते हैं तो दोषी मीडिया है।
  •         मीडिया दोषी क्यों?
  •         अगर आप वारदात की खबर देते हैं लेकिन अंतिम अंजाम की नहीं तो आप वारदात को बढ़ावा देते हैं।
  •         वारदात के साथ-साथ एक फैसले का समाचार भी क्या मीडिया नहीं बता सकती?