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शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

मुश्किल नहीं है जीना


श्रीमतीमहादेवी वर्मा छायावाद युग की प्रतिनिधि कवियित्रि हैं। उनकी कविताओं को बहुत दुरूह बताया जाता है। उनकी लिखी एक भावनात्मक सहज कविता की बानगी आपके लिए:

श्रीमती महादेवी वर्मा


आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ.....
पर तनिक ठहरो...
ड्योड़ी पर पड़े पायदान पर,
अपना अंह झाड़ आना...
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराजगी वहीं उड़ेल आना...
तुलसी की क्यारी में,
मन की चटकन चढ़ा आना...
अपनी व्यस्तताएं,
बाहर खूंटी पर ही टांग आना,
जूतों संग,
हर नकारात्मकता उतार आना...
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत मांग लाना...
वो गुलाब के गमले में, मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना...
प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर,
चाय चढ़ाई है, मैंने
घूंट घूंट पीना,
सुनो,
इतना मुश्किल नहीं है जीना ....


शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

अटलजी की अनुभूतियां

अटलजी केवल राजनीतिज्ञ और भारत के प्रधान मंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सशक्त व्यक्तित्व एवं  कवि भी थे। कवि सम्मेलनों में उनकी धूम रहती और उन्होने कोलकाता में एकल कवि सम्मेलन भी  सफलता पूर्वक किया। राष्ट्रियता और चुनौती के अलावा अनुभूति के स्वर भी उनकी कलम से मुखरित हुए हैं। प्रस्तुत है उनकी दो अनुभूति की कविताओं की कुछ बानगी:

हरी हरी दूब पर
ओस की बूँदें
अभी थीं
अब नहीं है।
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
                        सूर्य एक सत्य है
                        जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
                        मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
                        यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
                        क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ?
                        कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
                                    सूर्य तो फिर भी उगेगा,
                                    धूप तो फिर भी खिलेगी,
                                    लेकिन मेरी बगिची की
                                    हरी हरी दूब पर,
                                    ओस की बूंद
                                    हर मौसम में नहीं मिलेगी।

                                                ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जो कल थे
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वो कल नहीं होंगे।
                        होने, न होने का क्रम
                        इसी तरह चलता रहेगा,
                        हम हैं, हम रहेंगे,
                        यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
                        होना या
                        न होना?
                        या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
                        मुझे लगता है कि
                        होना-न-होना एक ही सत्य के
                        दो आयाम हैं,
                        शेष सब समझ का फेर है,
                        बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,

यह प्रश्न अनुत्तरित है।

शनिवार, 19 नवंबर 2016

       परम्परा

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
                    जो जीवित है,
                  जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

पानी का छिछला होकर
                      समतल में दौड़ना,
                  यह क्रांति का नाम है।
            लेकिन घाट बांधकर
            पानी को गहरा बनाना,
            यह परम्परा का काम है।

परम्परा और क्रांति में
                  संघर्ष चलने दो।
आग लगी है, तो
            सूखी टहनियों को जलने दो।
मगर जो टहनियाँ
                 आज भी कच्ची और हरी हैं,
                     उन पर तो तरस खाओ।
            मेरी एक बात तो तुम मान जाओ।

परम्परा जब लुप्त होती है,
लोगों के आस्था के आधार
                        टूट जाते हैं।
उखड़े हुए पेड़ों के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं।
परम्परा जब लुप्त होती है,
                  लोगों को नींद नहीं आती,
न नशा किये बिना
            चैन या कल पड़ती है।
परम्परा जब लुप्त होती है,
सभ्यता अकेलेपन के
                  दर्द से मरती है।

क़लमें लगाना जानते हो,
                  तो जरूर लगाओ,
मगर ऐसे कि फलों में
                  अपनी मिट्टी का स्वाद रहे।
और यह बात याद रहे
कि परम्परा चीनी नहीं           
                  मधु है।

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
जो जीवित है,       जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

उजागर

हर चीज बिकती है यहाँ,
रहना जरा सँभल के।
बेचने वाले हवा भी बेच देते हैं,
गुब्बारे में डाल के।
~~~~~~~~~~
सच बिकता है,
झूठ बिकता है,
बिकती है हर कहानी,
तीनों लोकों में फैला है,
फिर भी बिकता है
बोतल में पानी।
~~~~~~~~~~
गंगा में डुबकी लगा, तीरथ किए हजार
उससे क्या होगा अगर,  बदले नहीं विचार।
~~~~~~~~~~


मौत से इतनी दहशत, जान क्यों इतनी अजीज?
मौत आने के लिए है,
जान जाने के लिए।
~~~~~~~~~~
दुनिया में जिसे “मैं” की हवा लगी,
उसे फिर न दुआ लगी न दवा लगी।
                                                       ~~~~~~~~~~
लगता है बारिश को कब्ज़ हो गई है
मौसम बनता है लेकिन आती नहीं।
                                                                                                         ~~~~~~~~~~
जो झुकते हैं जिंदगी में,
वे सब
बुज़दिल नहीं होते,
ये हुनर होता है उनका,
हर रिश्ता निभाने का।
~~~~~~~~~~
बहस कभी ऐसी मत करो कि
बहस तो जीत जाओ
मगर रिश्ता हर जाओ।
~~~~~~~~~~

जिंदगी के इम्तिहान में नंबर नहीं मिलते साहब,
लोग अपने  दिल में जगह दे दें
तो समझ लो
कि आप पास हो गए।
                                                                                                         ~~~~~~~~~~
पहले मैं हुशियार था, दुनिया बदलने चला था।
अब मैं समझदार हूँ, खुद को बदल रहा हूँ।
~~~~~~~~~~
भूलना भी ईश्वर का वरदान है,
वरना,
यादें तो इंसान को पागल बना देतीं।
  ~~~~~~~~~~

उम्र भर यही भूल करते रहे,
धूल थी आईने पर
चेहरा साफ करते रहे।
                                                                                                         ~~~~~~~~~~
खुदा पर जो यकीन है,
तो जो तकदीर में है,
वही पाओगे।
और खुद पर यकीन है,
तो खुदा वही लिखेगा,
जो आप चाहोगे।
~~~~~~~~~~

अपनी जबान से किसी के ऐब बयान मत करना,
क्योंकि
ऐब तुम में भी है
और जबान दूसरे के भी।

~~~~~~~~~~

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कविता - हमारी स्थिति

नियति

जो हम हैं
वो हम होना नहीं चाहते
और जो हम नहीं हैं
वो होना चाहते हैं।

तुम्हें कैसे समझाऊँ मेरे दोस्त !
की इस होने-न-होने के बीच
जिंदगी का सबसे सुनहरा
दौर गुजर जाता है
-    प्रताप सहगल
   ~~~~~
घर से निकलता हूँ तो
     घर शुरू होता है
          घर लौटता हूँ
              तो घर छूटता है
एक घर पेड़ पर
     एक घर आसमान पर
          एक घर मेरे पास
              एक घर तुम्हारे पास
चलूँ तो घर
     बैठूँ तो घर
          रुकूँ तो घर
              देखूँ तो घर
                        अद्भुत !
                        सिर्फ
                        घर में घर नहीं।
-    गौतम चैटर्जी

  

रविवार, 22 मार्च 2015

क्या खूब लिखा है किसी ने


बख्श देता है खुदा उनको जिनकी किस्मत खराब होती है
वो हरगिज नहीं बख्शे जाते हैं, जिनकी नियत खराब होती है।

न मेरा एक होगा, न तेरा लाख होगा
न तारीफ तेरी होगी, न मज़ाक मेरा होगा
गुरूर न कर शाहे शरीर का
मेरा भी खाक होगा, तेरा भी खाक होगा।

जिंदगी भर ब्रांडेड ब्रांडेड करने वालों
याद रखना कफन का कोई ब्रांड नहीं होता
कोई रो कर दिल बहलाता है
और कोई हंस कर दर्द छुपाता है।

क्या करामात है कुदरत का
जिंदा इंसान पानी में  डूब जाता है
और मुर्दा तैर कर दिखाता है।

मौत को देखा तो नहीं पर शायद वो बहुत खूबसूरत होगी
कमबख्त,
जो भी उससे मिलता है
जीना छोड़ देता है।

गज़ब की एकता देखी लोगों की जमाने में
ज़िंदों को गिराने में और मुर्दों को उठाने में

जिंदगी में न जाने, कौनसी बात आखरी होगी
न जाने कौनसी रात आखरी होगी
मिलते जुलते, बातें करते रहो यारों
एक दूसरे से न जाने
कौनसी मुलाक़ात

आखरी होगी।

बुधवार, 4 मार्च 2015

निर्मला पुतुल की लेखनी से



कहाँ गया वह परदेशी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में  तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो साल रहकर अचानक गायब हो गया?
उस दिलावर सिंह को मिलकर डूँडो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ने-लिखने का सपना दिखा कर दिल्ली ले भागा
और आनंद भोगियों के हाथ बेच दिया
और हाँ पहचानो!
अपने ही बीच की उस कई – कई ऊंची सैंडल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भोली बहनों की आंखो में
सुनहरी जिंदगी का ख्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनानेवाली फैक्ट्रियों में
कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाइ
उन सपनों की हकीकत को जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती हैं बेतहाशा पश्चिम की ओर।

सोमवार, 2 मार्च 2015

जरा सोचिए

जरा सोचिए !

हम सचमुच कैसे होते हैं?
उजालों में कुछ और
अंधेरे में कुछ और
रात और दिन के साथ
हम कितने बदल जाते हैं?
हम सचमुच कैसे होते हैं?

अच्छाइयों को अभी पूरा
पकड़ भी नहीं पाते हैं
तो बुराइयाँ जकड़ लेती हैं !

अंतर में बसे राम की आवाज
सुनते तो हैं, फिर
रावण के प्रभाव में
कैसे आ जाते हैं?
हम सचमुच कैसे होते हैं?

हमें कुछ बनना होगा
हमें कुछ करना होगा
आत्म-परीक्षण द्वारा
स्वयं को निहारना होगा
अंतर में बसे राम का रूप
और निखारना होगा!

अच्छाइयाँ हममें हैं
उन्हे बनाए रखना होगा
अंधेरे को उजाले की
शरण में लाना होगा
हम, जो दिन में हैं 
रात में भी बने रहना होगा।