शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

शपथ – पूर्वजों के पाप के प्रयाश्चित की

शपथ पूर्वजों के पाप के प्रयाश्चित की
  
मैंने अभी अभी यह पढ़ा। मुझे लगा मैं इसे आप सबों के साथ साझा करूँ। कमलेश्वर की कहानी अपने देश में....  से लिए गए दो छोटे छोटे संवाद हैं। इनके आगे पीछे क्या है इसका महत्व नहीं है, महत्व केवल इन संवादों का ही है। लेखक ने पूरी कहानी शायद केवल इन संवादों के लिए ही लिखी होगी।
पहला
“मैं अपने देश में सो नहीं पाता!”,  माइक ने कहा।
मैं उसकी इस दार्शनिक सी बात को समझ नहीं पाया। मतलब’? मैंने पूछा।
यही कि मेरी आत्मा पर एक बोझ है...... क्योंकि मेरे देश ने सारा धन और सम्पदा अफ्रीका के बेल्जियन कांगो और कटांगा से कमाई है ..... कमाई नहीं लूटी है .... वहाँ सोने और ताँबे की खानें  थीं, हमने ही पैट्रिस लुमूम्बा की हत्या की थी, हमने ही कटांगा और कांगो के अफ्रीकी कबीलों को सभ्य बनाने के नाम पर बर्बर यातनाएँ दीं। उनकी बस्तियाँ जलाकर, उन्हे जंगलों और आदिम घाटियों की अंधी गुफाओं में ढकेल दिया। उन्हें गुलाम बना कर यूरोप के बाजार में बेचा। हमने उन्हे अपने यहाँ गुलामों से बदतर हालत में रखा......”

दूसरा
तूफान कुछ थमा तो गाड़ी छोड़कर हम मेन हाल की तरफ चल पड़े। मुख्य दरवाजा उढ़का (ढका) हुआ था। बंद नहीं था।
यहीं हमने शपथ ली थी’, माइक ने कहा।
किस बात की’?
कि हम अपने इतिहास से क्षमा मांगते हैं  और शपथ लेते हैं कि ज़ाम्बिया जाकर हम उस पीढ़ी के लिए घर बनाएँगे, उनके खेतों में बीज बोएँगे, उनकी सड़कें ठीक करेंगे और उन्हे अंधेरी घाटियों से वापस लाकर खुली बस्तियों में बसाएँगे.......उन्ही बस्तियों में, जहां उनके पूर्वजों को हमारे पूर्वजों ने मारा था, यातनाएँ दी थी और वहाँ से खदेड़ दिया था। यही शपथ हमने ली थी’, माइक कह रहा था।

यह पढ़ने के बाद मैं सोचता रहा कि यह पात्र क्या केवल साहित्यिक पात्र है या सामाजिक अस्तित्व भी है इसका? मैंने विचार किया, कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, अगर यह सही है तब यह पात्र जरूर हमारे समाज में कहीं न कहीं रचा बसा होगा। अपने पूर्वजों की सम्पत्ति के लिए लड़ने वाले वारिसों की घटनाओं से तो समाज भरा हुआ है, लेकिन पूर्वजों के पापों का प्रायश्चित करने वाली पीढ़ी भी हैं, यह जान कर सुखद आश्चर्य हुआ, आँखें नम हो गईं


कमलेश्वर

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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

पुस्तकालयों के शहर में

(ऑस्ट्रेलिया से निकलने के ठीक पहले मैंने सिडनी के पुस्तकालयों के सम्बंध में लिखा था। लेकिन भारत पहुँचते पहुँचते विश्व और भारत की अवस्था में अप्रत्याशित बदलाव आ गया; यह लिखा हुआ पड़ा रह गया। अब जब परिस्थिति यह है कि लोग यह मानने लगे हैं कि स्थिति जल्द सामान्य होने वाली नहीं; बल्कि सामान्य की परिभाषा भी बदलने लगी है, मैंने विचार किया अब इसे प्रकाशित किया जा सकता है।)
पुस्तकालयों के शहर में

2018 के आंकड़ों के अनुसार राज्य में 369 पुस्तकालय हैं। और 2017-18 में
-      339 लाख लोग इन पुस्तकालयों में गए,
-      402 लाख लोगों ने पुस्तकें लीं,
-      148 लाख लोगों इंटरनेट से जुड़े,
-      103 लाख लोगों ने इंटरनेट से पुस्तकें आरक्षित करवाईं,
-      12,40,512 ई-पुस्तकें पढ़ी गईं।

यह आंकड़ा है ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य की पुस्तकालयों का। ये आंकड़े यह बताते हैं कि यहाँ के लोग शिक्षित हैं और पुस्तकालयों का भरपूर प्रयोग करते हैं। यहीं नहीं, यह  भी सिद्ध होता है कि इन पुस्तकालयों का संचालन और नियम सुरुचिपूर्ण और पाठकों  की सुविधानुसार है। यहाँ आकर बैठना, पढ़ना, आयोजनों में भाग लेना सुविधापूर्ण भी है और उत्साहवर्धक भी। जनता की सुविधा के लिए ये सभी पुस्तकालय रेल स्टेशन के नजदीक हैं, ज्यादा से ज्यादा पैदल 5 मिनट की दूरी पर।  इस कारण नागरिक इन सुविधाओं का भरपूर प्रयोग करते हैं।
 


सिडनी के बारे में बताएं और पुस्तकालय की चर्चा न करें तो इस शहर का परिचय अधूरा ही  रह जाएगा। पुस्तकालय इस शहर की जान है जिसकी शाखाएँ इसके उपनगरों तक फैली हुई हैं। सिडनी के न्यू साउथ वेल्स राष्ट्रीय पुस्तकालय के अलावा मैं पैरामेटा, वेन्टवर्थविल, रिवरस्टोन, ब्लॅक टाउन पुस्तकालयों में घूमा, बैठा, पुस्तकें देखीं और पढ़ीं। हर जगह दोस्ताना व्यवहार, पुस्तकें पढ़ने, छाँटने, ढूँढने और घर ले जाने की सुविधा है। ऑस्ट्रेलिया अप्रवासियों का देश है। अँग्रेजी की पुस्तकें बहुतायत में हैं लेकिन इनके अलावा विश्व की अनेक भाषाओं की पुस्तकें और  डीवीडी उपलब्ध हैं। भारतीय भाषाओं में हिन्दी के अलावा गुजराती, पंजाबी, उर्दू, और कई दक्षिण भारतीय भाषाओं की भी अनेक पुस्तकें यहाँ मिल जाएंगी।  पुस्तकों के अलावा सीडी, डीवीडी और पत्रिकाएँ, फोटोकॉपी और दस्तावेजों को प्रमाणित करवाने की व्यवस्था भी है। साथ ही बच्चों के लिए खिलौने और बुजुर्गों के लिए चेस भी। वातानुकूलित भवन में आरामदेह बैठने की व्यवस्था  और साथ में सटा हुआ समुचित जलपान गृह। जगह और आबादी के अनुसार हर पुस्तकालयों में कमोबेश यह सब कुछ, कम या ज्यादा, उपलब्ध हैं।



भाषा और विषय की विविधता के अलावा पाठकों की रुचि के अनुसार आयोजन होने के कारण लोगों का आना, बैठना, रुचि लेना और पुस्तकें पढ़ना और ले जाना बड़ी संख्या में लगातार चलता रहता है। पुस्तकालय की सदस्यता का कोई शुल्क नहीं लगता। और तो और पुस्तकें घर ले जाना चाहें तो भी कोई पैसा जमा करने की आवश्यकता नहीं है। यही नहीं एक साथ 2 या 3 नहीं, 25 पुस्तकें हम ले जा  सकते हैं, तीन सप्ताहों के लिए। आवश्यकता हो तो घर बैठे ही फिर से तीन सप्ताहों के लिए नवीनीकरण कराया जा सकता है। सदस्यता के लिए हमें केवल अपने स्थानीय पते का एक प्रमाण पत्र देना पड़ता है। यह, यह भी सिद्ध करता है कि जनता आम तौर पर ईमानदार है और नियमों का पालन करती है। लोग पुस्तकें ले जाते  हैं और सही सलामत अवस्था में वापस भी करते हैं। साधन सम्पन्न देश होने के कारण तकनीक का भी बहुलता से प्रयोग है जिसके कारण कई कठिन कार्य आसान हो जाते हैं। पुस्तकों की वापसी और निकासी के लिए स्कैनर और मशीनें लगी है, जिनमें हम खुद दोनों कार्य सम्पन्न कर लेते हैं, किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं। पुस्तकालयों का प्रयोग केवल पुस्तकें जमा करने के लिए नहीं किया जाता है बल्कि उसे सुरुचिपूर्ण बनाने के तरीके भी ईजाद किये जाते हैं। बच्चों के लिए समूहिक कविता – कहानी  का पठन पाठन, चित्रकारी, संगीत और नृत्य आदि कई प्रकार की प्रतियोगिता आदि का आयोजन होता रहता है। बुजुर्गों के लिए अनेक अखबार, पत्रिकाएँ, चेस खेलने की सुविधा भी है। पुस्तकों पर समीक्षा, लेखकों से मुलाक़ात, साहित्य चर्चा, परिचर्चा आदि आम बाते हैं।

इन पुस्तकालयों में अनेक गतिविधियां भी निरंतर होती रहती हैं जिनका कोई खर्च नहीं लिया  जाता है। यथा – अपने पुस्तकालय को जानें, कम्प्युटर पर इंटरनेट, आई-पैड को समझें, साइबर क्राइम से कैसे बचें, आदि।

पुस्तकालय के कर्मचारी भी मुस्तैद हैं। लौटाई गई पुस्तकें लगभग 15 मिनटों में अपने शेल्फ पर पहुंचा दी जाती हैं। प्राय: पुस्तकालयों में सब पुस्तकें खुली शेल्फों पर ही रखी हुई रहती हैं और पाठक स्वयं अपनी पुस्तकों का चयन करते हैं। इससे पुस्तकों का चयन करना आसानी और द्रुत गति से होता है और अलग से कर्मचारी की भी आवश्यकता नहीं होती है।

मैंने जैसा देखा और समझा उसके अनुसार जनता अपने कार्यों के प्रति सजग, समर्पित और ईमानदार है। वह यह मानती है कि नियम हमें नहीं बचातीं बल्कि हम नियमों को बचाते हैं।  तकनीक का प्रयोग एक अलग बात है। विशेष बात है जनता का सहयोग, समर्पण, ईमानदारी और सकारात्मक रुख। यह न सरकार के हाथ में हैं और न कर्मचारी के हाथ में। यह है जनता के हाथ में। सरकार और कर्मचारी भी जनता के ही अंग हैं; एक विभाग का कर्मचारी दूसरे विभाग के लिये जनता ही है। बस हमारी समझ का फर्क है।  

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

कलिकाल में करुणावतार


कलिकाल में करुणावतार
(अनाम के मनोभाव)

(हमारे एक मित्र हैं। हमारे मतलब, हम सब भाइयों के। स्कूल के समय से। एक ही स्कूल में थे हम सब। सहपाठी थे। हम सबों के सहपाठी तो एक साथ हो नहीं सकते थे; हमारे बड़े भाई के सहपाठी थे। लेकिन हम सबों के बीच एक अजीब सा रिश्ता है – मित्रता का और साथ ही बड़े भाई का आदर और छोटे भाई का कर्तव्य, एक साथ निभता था। बात अजीब सी ही है; लेकिन सच्चाई भी यही है। अगर सहपाठी बड़े भाई के हुए तो मित्र भी उन्ही के होने चाहिये थे और हमारे लिए भाई साहब तुल्य रिश्ता। लेकिन हम मित्रवत ही हैं। कैसे निभाते हैं हम यह रिश्ता हमें पता नहीं – मित्र का विश्वास और खुलापन साथ ही बड़े-छोटे  भाई का अदब और उत्तरदायित्व। जब हम सब भाई एक साथ रहते थे अनेकों बार मुलाक़ात हो जाया करती थी। लेकिन फिर अलग अलग रहने लगे और मुलाक़ात तो दूर की बात, बातें भी बंद हो गईं। कई दशकों बाद फिर अचानक मुलाक़ात और बातें होने लगीं। हकीकत तो यही है कि मुलाक़ात तो कभी कभार ही होती है, हाँ बातें – व्हाट्सएप्प पर ज्यादा होती हैं। आप सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों बता रहा हूँ। दरअसल बात यह है कि यह मनोभाव  उन्ही का है; जब उन्होने इसे मेरे पास भेजा तो मैंने उनसे उनके नाम से फ़ेस बुक और ब्लॉग पर डालने की  इज़ाजत माँगी। उन्होने इज़ाजत तो दी, लेकिन अनाम के नाम से लिखने कहा। अब दोस्ती का तकाजा तो यह है कि मैं उनका नाम डाल दूँ, लेकिन शालीनता उसमें बाधा डाल रही है; क्योंकि इस दोस्ती में शालीनता की खुशबू है।  तो प्रस्तुत है उस अनाम के मन के उद्गार।)


शास्त्रों, ग्रन्थों, मान्यताओं और आस्थाओं में सृष्टि के संचालक एवं पालनहार को अगोचर तथा  निराकार बताया गया है। साहिर लुधियानवी के शब्दों में –

कोई भी उसका राज़ न जाने, एक हक़ीक़त लाख फ़साने
एक ही जलवा शाम-सवेरे, भेष बदल कर सामने आए।

किसी ने पुरुष रूप में उसकी कल्पना की है तो कुछ ने प्रकृति कहा। विद्वानों का मत है,जो उसे जानता है वह कहता नहीं और जो कहता है वह जानता नहीं”। उस सर्वशक्तिमान संचालक की घोषणा है “संभवामि युगे युगे”। हर युग में पृथ्वी का भार संतुलित करने के लिए उसका अवतरण होता आया है। यह बहुरंगी सृष्टि उसकी प्रिय रचना है, जिसे वह नष्ट नहीं होने देता; समय समय पर इसका शुद्धिकरण (sanitization) कर देता है। इतने महायुद्ध हुए, परमाणु बम गिराए गए, महामारियाँ फैलीं, ज्वालामुखी फटे, सुनामी आई, झंझावातों ने तांडव दिखाया, बड़े बड़े आतंकवादी हमले हुए फिर भी यह सृष्टि कायम रही।
करुणावतार ने लगाई दुनिया की गति पर लगाम 

हर युग में शुद्धिकरण होता आया है। वर्तमान समय में उस परम सत्ता का अवतरण  कोरोनावतार में हुआ है जो वास्तव में करुणावतार है। करुणावतार इसलिए कि उसने मानव जाति को एक विकल्प दिया है – जो बचना चाहे वह बचे। और जो अड़ा रहे कि कर्फ़्यू में उत्सव मनाना है, सैंकड़ों  लोगों को साथ लेकर धार्मिक अनुष्ठान करना है, 2000 लोगों की  भीड़ वाले विवाह समारोह का आनंद लेना है, कई हजार लोगों का जमघट करके अपने उन्मादी विचारों का प्रचार करना है, लौकडाउन (lockdown) के सारे प्रतिबंधों को ताक पर रख कर बड़ी भीड़ के मूवमेंट (movement) को अंजाम देना है – ऐसा करने वाले व्यक्तियों को करुणावतार से कृपा दृष्टि की आशा नहीं करनी चाहिए।
रायगंज से 300 कि.मी. दूर कंचनजंघा 
ध्यान देने लायक बात यह है कि अपने प्राणों को दाँव पर लगाकर जो लोग जनता की सेवा और सुविधाएं मुहैया करने में जुटे हुए हैं, उनमें मृत्यु दर न्यूनतम है तथा वे आतंकित भी नहीं हैं।

प्रकृति अपना काम निरंतर किए जा रही है। सृष्टि का नियम ठीक चल रहा है। पृथ्वी, सूरज, चाँद, तारे, ........, ग्रह, नक्षत्र, .......... – सभी अपने नियम से गति कर रहे हैं।

मायथोलोजिकल (mythological) राम राज्य कायम है। जल, वायु, आकाश स्वच्छ होने लगे हैं। ध्वनि 
 प्रदूषण गायब है। चोरी चकारी बन्द है। दूध में मिलावट की जरूरत नहीं रही, मेट्रो ट्रेन (metro train) के सामने कूदना संभव नहीं, एक्सिडेंट्स (accidents) से मौतें नहीं हो रही हैं, महिलाओं के प्रति अपराध नहीं हो रहे हैं। अपहरण और गुटों में संघर्ष का बाजार ठंडा है, अखबारों की काया क्षीण हो गई है, जुआघरों और मदिरालयों में ताले जड़े हुए हैं। प्राय: सभी गृहपति गृहस्थी की ज़िम्मेदारियों में जुटे हुए हैं, गृहणियाँ अपनी परिचारिकाओं को कोसने की संतुष्टि से वंचित हैं, नर-नारी लगभग सदाचारी बने हुए हैं। लव-बर्ड्स (love-birds) के घोंसले उजड़े हुए हैं, अधिकांश बच्चों को बाप का संग-साथ मिला हुआ है, नेतागण कुचक्रों से दूर रहकर टीवी सिरियल देख रहे हैं या अंत्याक्षरी खेल रहे हैं। आदत से लाचार कुछ पुलिसिए लाठी भाँज रहे हैं तो उन्ही के अफसर गीत-संगीत की प्रस्तुति से जनता का मनोरंजन कर रहे हैं। न्यायाधीश छुट्टी मना रहे हैं, विलासिता वाले खर्चों पर लगाम लगी हुई है, आतंकवादी हमले बिलकुल कम हो गए हैं क्योंकि उनकी सफलता के लिए भीड़ का होना अनिवार्य है। लोगों को मानसिक रूप से कमजोर करने वाले तांत्रिक – मांत्रिक, रत्न विशेषज्ञ, पंडित, पुजारी, फादर, इमाम, योगिराज – इन सबके धंधे बन्द हैं। जनता के पैसों पर गुलछर्रे उड़ानेवाले बाबा, महाराज, महामंडलेश्वर, योगिराज, प्रवचनकर्ता, मठाधीश, माताजी, महासती (कई तो अपने को भगवान कहलाने से भी परहेज नहीं करते) ऐसी पूरी जमात अपने सामने भीड़ न पाकर अवसाद ग्रस्त (depressed) हैं। निठल्लेपन से इनके दिमागों में जाले लगने लगे हैं। तुलसीकृत रामचरित मानस के उत्तर काण्ड में इनका प्रचुर वर्णन है।

हिरण्यकशिपु जैसी हमारी चातुरी को इस नए और अकल्पनीय अवतार ने मात दे दी है। सृष्टि के उद्भव का रहस्य तथा गॉड पार्टिकल्स (God Particles) की खोज का दावा करने वाले वैज्ञानिक इस सूक्ष्मतम वाइरस (virus) के बनावट (composition) को बता पाने में असमर्थ हैं। विश्व की महाशक्तियों ने घुटने टेक दिये हैं और बेबसी से अपने-अपने संकुचित घेरों में कैद हो रहे हैं।  

हम सब इस भयावह परिस्थिति के संकट की अवधि का सही अंदाजा तक नहीं लगा पा रहे हैं और अंधेरे में टटोलकर  उपाय खोज रहे हैं। कभी चंद घंटों का जनता कर्फ़्यू तो कभी कुछ सप्ताहों का शट डाउन / लॉक डाउन, (कहीं-कहीं कई महीनों का)। क्या क्या अनोखे उपाय किए जा रहे हैं – डरावने 


सन्नाटे के बीच अचानक 5 मिनट का ध्वनि निनाद, कभी घरों में पूरा अंधेरा करके 9 मिनटों के मद्धिम प्रकाश का टोटका, 10 रुपयों में कोरोना का झाड़ा, फेस बुक तथा व्हाट्सएप्प पर 1008 तरह के नुस्खे। दो मुहाविरे हैं – मरता क्या न करता,और डूबते को तिनके का सहारा। अभी विज्ञान और अति विश्वास दोनों लाचार हैं। सृष्टि को चलाने वाला चुपचाप यह सब देख रहा होगा और मुस्कुरा रहा होगा। क्योंकि उसने लीला समेटने की अवधि अपने गणित से तय कर रखी है और कितना परिष्कार करना है यह भी। इस सुनहरे मौके पर वह इतना शोधन कर देगा कि अगली कई सदियों तक उसे विश्राम मिले।

इस बीच कब किसका नम्बर आ जाए यह कोई नहीं जानता। कवि सुरेन्द्र शर्मा अक्सर कहते हैं,क्या पता कल तुम न रहो, क्या पता कल हम न रहें”। अत: हर एक को अपनी भूल-चूक और कहे-सुने की माफी माँग लेनी चाहिए। शुरुआत अपने से करना सबसे अधिक उचित है।

जिन पाठ्यक्रमों को खारिज किया जा रहा है, उनमें बताया करते थे कि “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी 

हाइ वे, घरों के बरामदे और चौड़ी सड़कों पर समाजिक जानवरों का सामाजिक मिलन

है (man is a social animal)” लेकिन अब (जानवर सामाजिक) Animal Socialization कर रहे हैं। और Men (मेन) पिंजरों में  बंद हैं – वह भी एक दूसरे से दूर दूर – सेल्यूलर जेल की तरह। हर व्यक्ति एक दूसरे से यमदूत की तरह आतंकित है। मीरा याद आती है – “तात, मात, बंधु, भ्रात, आपणों न कोई”। अभी के हालात को शायर ज़ौक़ ने ऐसा सोचा था – मरके भी चैन ना पाया तो किधर जाएंगे। देखा जा रहा है कि मुर्दे के अंतिम संस्कार का विरोध करने के लिए 1000 लोगों का हुजूम इकट्ठा हो जा रहा है।

किसको   खबर थी, किसको यकीं था
ऐसे भी दिन आएंगे
जीना भी मुश्किल होगा और मरने भी ना पाएंगे। ------ (साहिर)

वैसे सच ये है कि दिन गुजरने को ये भी गुजर जायेंगे। ढील मिलते ही क्या-क्या  करना है, इसका ताना बाना बुना जा रहा है।

जो बच रहेंगे उन्हे क्षुद्र मानव जाति की स्वरचित गीता से कुछ श्लोक मिटाने पड़ेंगे; जैसे – वही घोड़ा - वही मैदान, वही लूट-खसोट, वही डाकाजनी। पुन: प्रचारित हो रहे महाभारत सीरियल का विषय-वस्तु गीत राह दिखा रहा है,सीख हम बीते युगों से, नए युग का करें स्वागत”।

नए युग के लिए विश्व के सभी राजनेताओं से विनती है कि सादगी को अपनी शौकीनी बनायेँ, अपनी वाणी एवं व्यवहार को बदल कर नफ़रत की आँधी को रोकें। आतंकवादी और राक्षसी वृत्ति वाले स्वयं को बदल कर  जीयें और जीने दें। महापुरुष महावीर की जयंती पर उनके अहिंसा और संयम के संदेश को हम अपनायें – विलासिता के प्रदर्शन से बचें और प्रकृति के अबाधित दोहन पर लगाम लगायें। विश्व की अर्थ व्यवस्था आगामी लंबे समय के लिए चरमरा गई है। यथासम्भव प्रयत्नों के द्वारा पराश्रित जनों की सहायता करें। जावेद और अनवर के लिए लिखे एक फिल्मी गीत से प्रेरणा लें –
“अपने लिए जीए  तो क्या जीए, तू जी ऐ दिल ज़माने के लिये”।

मुझे पूरी आशा एवं विश्वास है कि अति शीघ्र “एक नई सुबह दुनिया में आने को है”।

एक नई सुबह




    

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

सूतांजली अप्रैल 2020


सूतांजली अप्रैल २०२० में केवल एक लेख है ।

कोरोना ने विश्व की नींद हराम कर रखी है।
          लेकिन यह विश्वास रखना चाहिए कि जैसी भी होगी अभी से बेहतर होगी। हमारा यह विश्वास ही हमें एक बेहतर दुनिया दे सकेगा। साकार वही होगा, जो हम देखेंगे। संकट के समय अपना संतुलन न खोएँ, हताश न होएं, दुखी न होएं, चिंता न करें। खुला आसमान देखें, चिड़ियों का चहकना सुनें, परिचितों से दिल खोल  कर बातें.......
          मैंने लोगों से पूछा, “क्या दुनिया बदल जाएगी? कैसी होगी वह नई दुनिया”? लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया .........
        बुरे, अच्छों को देख, बुराई छोड़ अच्छे नहीं बनते। लेकिन अच्छे, बुरों को देख, अच्छाई छोड़ बुरे हो जाते हैं।........
        मुझे श्री अरविंद कि बात याद आ रही है, आज कल से.......
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