शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

आनंदोत्सव

(दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के मध्य झगड़ा, विवाद होना लाजामी है, बल्कि होना ही चाहिए, अन्यथा जीवन समरस हो जाए। अत: झगड़िये, जरूर झगड़िये मगर ध्यान रहे ...... आगे खुद पढ़िये)  

विश्व के तमाम झगड़ों से एकदम परे होते हैं पति-पत्नी के झगड़े। हलके-फुल्के व्यंग्यों के प्रथम सोपान से आहिस्ता-आहिस्ता विवादों के विभिन्न सोपानों पर चढ़कर आत्मविश्वास के साथ लड़ने को तैयार। अभी-अभी ताजा लड़कपन लिये विवाह-सूत्रों में बंधे युवा दंपती झगड़ों के अभ्यस्त होने लगते हैं। परंतु क्या आप सहमत नहीं हैं कि तमाम पारिवारिक, सामाजिक और मैत्रिक झगड़ों से हटकर पति-पत्नी के झगड़े होते हैं? पता है कि (अधिकांश प्रकरणों में) ताउम्र साथ देना है, सहारा देना है, बच्चों का विवाह करना है, गम बांटना है, आँसू पोंछना है, बुखार में गीली पट्टी भी रखनी है, बुढ़ापे में धुंधली आँखों से ही सही सुई में धागा भी डालना है, बटन टंकवाना है फिर भी झगड़ता है, खूब झगड़ता है। जबान नियंत्रण खोयेगी, आँखें खूब रोएँगी, फिर जबर्दस्ती भूखे पेट ही आँखें बंद कर सोयेगी, लेकिन झगड़े तो होंगे ही। क्या है इन पति-पत्नी के झगड़े का मनोविज्ञान? किसी ख्यातनाम मनोवैज्ञानिकों या मनोचिकित्सकों की भारी-भरकम पुस्तकों या शोधों या सर्वेक्षणों का संदर्भ देना उचित ही नहीं है। क्योंकि जब पति-पत्नी के झगड़े विशाल आकार लेते हैं, तो ख्यातनाम पुस्तकें और मनोचिकित्सक बौने हो जाते हैं। भिन्न-भिन्न मानसिकता के भिन्न-भिन्न दम्पतियों के मध्य जब अस्त्र-शस्त्र चलते हैं, तो अच्छे से अच्छे मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सकीय उपाय धराशायी हो जाते हैं और उत्तरोत्तर स्वयं दंपती ही काफी अनुभवी चिकित्सक हो जाते हैं। अपने दांपत्य जीवन को सुधारने हेतु आजमाये गए उपाय कभी दूसरे के दांपत्य जीवन हेतु आजमाए जाने का जोखिम नहीं उठाना ही हितकर है। पृथ्वी पर जिस प्रकार लोगों के चेहरे एक दूसरे से मेल नहीं खाते, कमोबेश विचारों की स्थिति भी इससे अलग नहीं है।   

प्यार है, दुलार है, फर्माइशों पर इकरार है, दिलों में स्नेह के तार हैं, फिर भी झगड़ों के अंबार हैं। बड़ी अबूझ पहेली है। इसके लिए मानसिक परिभाषाओं के साथ दैनिक परिभाषाओं की सूक्ष्मताओं को भी समझना होगा। केवल और केवल पति-पत्नी के मध्य दैहिक तरंगों का सर्वाधिक स्पंदन होता है। वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुके प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने आभामंडल और तरंग आवृत्त में सर्वाधिक घुसपैठ सिर्फ उसका जीवन साथी ही करता है। दैहिक चेतनाओं, ऊर्जाओं और तरंगों का यही मुक्त आदान-प्रदान पति-पत्नी का प्रेम ही नहीं, झगड़ों का भी मुख्य कारण है। देहों की यह एकात्मकता मानसिक तौर पर पति और पति में इतनी समरसता भर देती है कि आवेग और उत्तेजना के क्षणों में अंतर्द्वंद्व की ओर एकरूपकता की भावना से ही अपने प्रिय जीवन साथी के साथ झगड़ पड़ता है। कहीं-कहीं पति-पत्नी के बीच विचारों के फर्क की गहरी खाई है, लेकिन विवाद शून्य है। क्योंकि पति कितना ही गलत, व्यसनी और शौकीन हो, फिर भी पत्नी को चुप के विशाल पर्वत तले दबे रहने की सख्त हिदायतें बचपन से ही दी गई है, पराकाष्ठा उलांघती सहनशीलता की घुट्टी गले-गले तक पिलाई गई है। उसकी विरोध क्षमता शून्य नहीं, बल्कि माइनस में है और कहीं-कहीं पत्नी का दबदबा प्रभाव और स्टेटस इतना जबर्दस्त है कि पति की विरोध-शक्ति क्षीण है। दोनों ही परिस्थितियाँ ऋणात्मक हैं और ऐसे दम्पतियों की संख्या भी अल्प है। कुछ दंपती ऐसे भी होते हैं, जो झगड़ों के एडवेंचर से वंचित एक सरल रेखा में चलते-चलते बूढ़ा जाते हैं और चले जाते हैं।  

खैर! यहाँ तो मुद्दा अधिकांश दम्पतियों के मध्य पनपने वाले, पकने वाले, पूरे जोशो-खरोश से होने वाले झगड़ों को लेकर चल रहा है। किसी भी विरोधी नेता या राष्ट्र ने आज तक झगड़ों के शक्तिशाली दौर में जितने गड़े मुर्दे उखाड़े हैं, उतने तो एक सामान्य पति-पत्नी अपने झगड़ों के दौरान उखाड़ कर रख देते हैं। पति-पत्नी का रौद्रावतार और पुरुष का पौरुष चरम सीमा पर पहुँच जाता है और महान आश्चर्य तीन-चार दिनों पश्चात दोनों दुपहिया या चार पहिया वाहन पर ऐसे खिलखिलाकर हँसते-घूमते नजर आते हैं गोया कि भगवान ने दोनों की रचना खुश रहने के लिए की हो। यही है दो झगड़ों के बीच का आनंदोत्सव।  पता नहीं फिर किस मुद्दे पर, किस झूठे अहम पर अगला झगड़ा हो जाए। उसमें अनबन की यात्रा कितने दिनों की हो? मानसिक संत्रास के प्रहार कितने तीव्र हों? फिर शनै: शनै: उसकी तपिश ठंडक में तब्दील होगी, खोया हुआ आकर्षण और प्रखर होकर खड़ा होगा। मानसिक और दैहिक दूरियाँ कम हो जाएंगी। वाचा के उग्र बाण फूलों में रूपांतरित हो जाएंगे। एक तन और एक मन। कब तक? अगले विवाद तक और अभी वसंत ऋतु के कामदेव और देवी को लजा देने वाला वसंतोत्सव! आनंदोत्सव! दो झगड़ों के मध्य का आनंदोत्सव।

झगड़िए, फिर झगड़िए और जरूर झगड़िए, लेकिन आनंदोत्सव में प्रण कीजिये कि कोई भी झगड़ा उम्रभर के लिए आपको भीषण पश्चाताप या पछतावे में न धकेल दे। दांपत्य जीवन के झगड़ों को समस्त औजारों के मध्य भी तराशिए, मगर ऐसा दुर्लभ दांपत्य जीवन जलाइए नहीं, लेकिन यह समझाइश एक-दूसरे को दो झगड़ों के बीच अद्भुत आनंदोत्सव में ही दीजिये।

(श्री विवेक हिरदे की रचना, अहा जिंदगी से)

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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

ये जीवन है ......

यह कोई कहानी नहीं, जीवन है। पति-पत्नी के चार सन्तानें थी। तीन पुत्र और एक पुत्री। पति ने बड़ी मेहनत की, चारों संतानों को किसी बात की कोई कमी नहीं होने दी। हैसियत से बढ़ कर चारों बच्चों को विदेशों में भेज उच्च शिक्षा दिलवाई। चारों को विश्व के चार अलग अलग देशों में, अमेरिका-इंग्लैंड-जर्मनी-फ्रांस भेजा। तीनों बेटों ने उच्च शिक्षा पाई, वहीं विवाह किया और वहीं बस गए यानि सेटेल हो गए। बेटी ने विवाह तो स्वदेश आकर किया लेकिन विवाह पश्चात वह भी विदेश ही चली गई और वहीं की होकर रह गई।

इधर अपने देश में पति-पत्नी सुख चैन से थे और अपनी सूझ-बूझ की चर्चा करते और संतानों पर गर्व।  पति के लिए धीरे-धीरे कारोबार का तनाव संभालना भारी पड़ने लगा। बच्चे वापस नहीं आना चाहते थे। पिता को व्यवसाय के तनाव झेलते देख, बच्चों ने व्यवसाय को बंद या कम करने की सलाह दी। लेकिन वैश्विक बाजार इसकी इजाजत नहीं देता। बंद करना ही एकमात्र विकल्प है। बच्चों की सलाह और व्यापार के तनाव के मद्देनजर पिता ने धीरे धीरे व्यवसाय समेट लिया। एक-एक कर वे सब बच्चों के पास रह आए। लेकिन कहीं टिक न सके। बच्चे चाहते थे कि पिता घर पर शांति से बैठे रहें और घर के काम संभाले। जिंदगी भर कर्मठ रहे पिता के लिए यह संभव नहीं था। घर के छुट-पुट काम करने में उन्हें असुविधा नहीं थी। लेकिन उसके बाद दिन भर चुप-चाप बैठे रहना, उद्देश्यहीन घूमना, टीवी देखना उन्हें रास नहीं आया। वे वापस लौट आये, अपने कर्म क्षेत्र में। लेकिन उनका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। अकेलापन, उन्हें बार-बार अवसाद की तरफ धकेल देता था।

इसी बीच, एक रात, अचानक पत्नी को दिल का दौरा पड़ा और उसे तुरंत अस्पताल में भरती करना पड़ा। बाप ने एक-एक कर तीनों बेटों को फोन किया और तुरंत आने का अनुरोध किया। लेकिन तीनों ने मना कर दिया। एक को छुट्टी नहीं मिली, दूसरा कुछ समय पहले ही आ कर गया था, तीसरे की पत्नी गर्भवती थी। सभी के कारण अलग-अलग थे लेकिन बात एक ही थी, “प्लीज, किसी तरह आप संभाल लीजिये या बड़े-मँझले-छोटे को बुलवा लीजिये, मैं नहीं आ पाऊँगा”।  टूटे दिल से उसने बेटी को भी खबर की। खबर सुनते ही, पिता के मना करने पर भी बेटी-जवाँई दोनो तुरंत आ गये और जब तक पत्नी स्वास्थ्य लाभ कर वापस घर न आई वहीं साथ ही रहे। उन्हों ने सोचा,  बेटियाँ ही काम आती हैं? बेटियाँ ही प्यारी होती हैं? वाह रे बेटियाँ? लेकिन बात अभी समाप्त नहीं हुई है।

कुछ समय के अंतराल के बाद इसी घटना का पुनरावर्तन हुआ, पात्रों में थोड़े से उलट-फेर के साथ। इस बार बेटी के ससुराल से उसकी सास की तबीयत खराब होने की खबर गई, और एक बार आने की गुजारिश की गई। बेटे ने जाने का मन बनाया, और आने की बात भी कही। लेकिन पत्नी ने उसे तैयार कर लिया  व्यस्तता के कारण नहीं आ सकेंगे कहने के लिए और माता-पिता को खुद परिस्थिति संभालने के सलाह दे दी गई।  अपनी ही जिस बेटी पर साल भर पहले गर्व हुआ था, उसी बेटी का ही यह दूसरा रूप भी है।

(बेटों के इस व्यवहार के लिए कौन जिम्मेदार है? अगर हम अपनी संतान को विदेशों में भेज रहे हैं तो उसके पहले हमें खुद अपनी मानसिकता उस प्रदेश के जैसी बनानी चाहिए। इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं है। हमने बच्चों को तो बदल दिया लेकिन खुद को बदल नहीं सके। यह भी नहीं समझ सके कि देश और विदेश की परिस्थितियों, मान्यताओं, संसाधनों में फर्क है।  हम यह मान कर चलते हैं कि भविष्य विदेशों में ही बनता है अपने देश में नहीं! यही नहीं हमने अपने माता, पिता, चाचा, ताउ, भुआ, भाई, बहन के बजाय सास, ससुर, साले, साली, मामा, मामी, दोस्तों को ज्यादा महत्व दिया। बच्चों ने जो देखा वही सीखा। फल मीठा होगा या कडुआ, वह तो बीज पर निर्भर करता है। जैसा बोया वैसा काटा। विचार बीज बोते समय करना है, फसल काटने के समय नहीं।)

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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

संस्कार

 प्रिय ......,

इतना स्नेह भरा पत्र पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। तुम दोनों ने याद किया, यही मेरी पूंजी है। दोनों के स्वर्णिम भविष्य के लिए हम सब की मंगल कामनाएँ।

 यह सच है कि स्मृतियाँ मीठी होती हैं। यह भी सच है कि ये मेरे वर्तमान को खाती हैं। ध्यान  रखना, जो कुछ भी करो, उसमें स्वयं को उपस्थित अनुभव करके करना। खाने की टेबल पर अनेक विचार दिमाग में चलते रहें और हमें पता नहीं चले कि खाना किसने खाया, हम तो वहाँ थे ही नहीं।

 आने वाले समय में तुम मानव शरीर का निर्माण भी करोगी। इसमें भी न मरने वाली आत्मा आकर रहने लगेगी। यह तुम्हारा दायित्व है कि तुम उस आत्मा को शरीर के साथ एकाकार कर दो। तभी उसके जन्म-जन्मांतर के अनुभव शरीर में प्रकट हो सकेंगे। वह महापुरुष बन सकेगा। उसके बिना केवल स्थूल शरीर का भोग करके चला जाएगा। तुम उसे जो चाहे बना सकती हो। अभिमन्यु की  तरह सीखकर, तैयार होकर, संस्कार पाकर ही बाहर आना चाहिए। माँ की फिर से विश्व में पूजा होने लगेगी। कहानियाँ, लोरियाँ सुनना, मीठी बातों से उसमें मिठास भर देना, ताकि बाँट सके।

 प्रसन्नता की बात है कि विशाल के विचार और उसका व्यवसाय तुम्हारे अनुकूल है। शुरुआत अच्छी है। आगे पति-पत्नी के रूप में तो तुम्हारा संकल्प ही काम आयेगा। इसे कमजोर मत पड़ने देना। नहीं तो केवल स्त्री-पुरुष रह जाओगे। दिल के बजाय दिमाग से व्यवहार करने लगोगे। यह गलती कभी मत करना। जीवन का मिठास दिल में होता है, दिमाग में नहीं।

 तुमलोग जब भी आओ, स्वागत है। तुम्हारे भाई-बहन-भाभियाँ सब तुमसे मिलकर प्रसन्न होंगे। सब कुशल है। आनंद से रहना। विशाल हृदय को मेरा स्नेह। ........

   (श्री गुलाब कोठारी की स्पंदन से)

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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

सूतांजली दिसंबर, 2020

 सूतांजली के दिसंबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है।

इस अंक में एक प्रश्न पर चर्चा है:

“मैं कौन हूँ?”

मैं कौन हूँ? यह एक शाश्वत प्रश्न है। अनादि काल से यह प्रश्न ऋषियों, मुनियों, संतों, चिंतकों, दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों को मथता रहा है, भारत में ही नहीं पूरे विश्व में। अलग-अलग देश-काल में अलग-अलग लोगों ने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर अपने अपने ढंग से इसका उत्तर दिया भी है। लेकिन  इनमें एक्य तो है ही नहीं विरोधाभास भी है। और यह प्रश्न आज भी जस-का-तस-खड़ा है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई भी इसका उत्तर ढूंढ नहीं पाया। अनेकों ने अपने अपने ढंग से इसे व्याख्यायित किया है। किसी एक की सुनें तो वही सटीक लगता है; लेकिन दो विरोधाभासी व्याख्या सुनें तो असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है। लेकिन दोनों ही अपनी अपनी जगह पर सही हैं; जब तक एक सर्वमान्य व्याख्या ढूंढ न ली जाये। आज हम इसी विषय पर कुछ विरोधी व्याख्याओं की चर्चा करेंगे।  

इस प्रश्न पर निम्नलिखित मनीषियों के विचार उद्धृत हैं: -

श्री अरविंद,

डॉ वेन डायर,

श्री जे.कृष्णमूर्ति, और

श्री सद्गुरु

 

संपर्क सूत्र (लिंक): -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/12/2020.html