शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

आज की नहीं कल की सोचें


मेरा एक मित्र है, बल्कि सहपाठी। हम दोनों एक ही विद्यालय की एक ही कक्षा के छात्र थे। मेहनती है और लोगों से काम लेना भी आता है और दूसरों की सहायता करने में आगे भी। बागवानी का शौक है। छोटा सा बगीचा है जिसमें भांति-भांति के फल-फूल के पेड़ लगे हैं। एक दिन जब वह शहर के बाहर, किसी नर्सरी में पेड़-पौधे लेने जा रहा था, मैं भी उसके साथ हो लिया। नर्सरी क्या थी पूरा बगीचा था। छोटे-छोटे पौधों से लेकर आदम कद के पेड़ तक थे। पौधे की लंबाई के साथ-साथ उसके मूल्य में भी गुणात्मक वृद्धि। नर्सरी के मालिक ने बताया कि इन छोटे-बड़े पेड़ों को उखाड़कर नयी जगह लगाने तक का काम वे लोग करते हैं। आजकल यही काम ज्यादा हो रहा है। सोच रहा था कि इन्हें कौन और क्यों खरीदता होगा? उसने बताया कि विवाह आदि के अवसर पर कृत्रिमता को वास्तविकता का जामा पहनाने के लिए  ये भाड़े पर दिये जाते है। सत्य और असत्य को पृथक करना अपने आप में एक चुनौती बन गई है। लेकिन मुख्य बात यह थी कि अब शहरी लोग छोटे पौधे के बजाय, पैसों की परवाह किए बिना इन बड़े पेड़ों को ही ज्यादा खरीदते हैं। क्यों? अब न तो किसी के पास धैर्य है न ही दुनिया-समाज की परवाह। और तो और अपने बच्चों तक की भी नहीं। अगर क्यारी लेते हैं तो उसके फल तो अगली पीढ़ी ही खाएगी, खुद को तो चखने भी नहीं मिलेंगे, उसका आनंद तो कोई और ही लेगा, क्या मतलब निकलता है इसका? अगर मैं कर रहा हूँ, तो इसका आनंद भी मुझे मिलना ही चाहिये, नहीं तो क्या फायदा’? इतनी संकीर्ण सोच?   मैं तो बुत बना खड़ा उसकी बातें सुनता रह गया।

 

और इसके विपरीत, ये दो छोटी घटनाएँ:

 

पहला - बालमन

बाल मन एक वैज्ञानिक होता है। बात उन दिनों की है जब चीनी दस रुपए किलो थी। चाय पीने वालों के गुट में मेरा परिवार भी शामिल था। उस समय का तौल भी पक्का, सामान भी अच्छा। आज के जैसे नहीं कि अगर चीनी चालीस रुपए प्रति किलो, तो आधा किलो का इक्कीस रुपया और एक किलो का चालीस। यह जनसाधारण के आर्थिक शोषण का व्यापारियों द्वारा अन्वेषित नई परंपरा है। मुझे रोज सुबह एक रुपए का बड़ा-सा सिक्का मिलता था। मैं वह सिक्का लेकर दुकान पर पहुंचता, एक रुपए की चीनी ले  सीधे घर की तरफ चल पड़ता। जब अपने घर के पीछे, जहां एक बगीची थी, के पास पहुंचता मुट्ठी में चीनी भरकर, जैसे किसान खेतों में गेहूं और सरसों बोते हैं, वैसे ही बो देता था। बाकी चीनी मां को दे देता। चीनी वास्तविक तौल से कम होती थी। अतः शंका होना लाजिमी था। दुकानदार के पास शिकायत हुई। उसने साफ तौर पर मना किया। उसने कहा, 'मेरा तौल पक्का है। आपका बच्चा चीनी खा जाता होगा।' गुप्त रूप से तहकीकात हुई। मैं रंगे हाथों पकड़ा गया। बड़े भाई ने पूछा, 'ये क्या कर रहे हो?' मेरा जवाब था, 'चीनी के पेड़ उगेंगे, परिवार की समस्या ही समाप्त हो जाएगी' सच बालमन किसी वस्तु को कितनी अलग तरह से समझता है। कहाँ से ऐसे विचार उसके मन में पनपे होंगे? परिवार के भविष्य के बारे में सोचना कहाँ से सीखा होगा?

 

दूसरा - हम आजीवन ऋणी हैं 

          सारी जमीन-जायदाद यहीं रह जाएगी, धन-दौलत, गहने, कपड़े सब छूट जाएंगे। मेरे साथ जाएगा केवल वह, जो स्वयं के देह को क्षत-विक्षत करके भी मुझे अपने आगोश में लेगा, समा जाऊंगा उसी की गोद में, जब इस लोक की यात्रा पूर्ण करने के बाद परलोक के लिए जाऊंगा, केवल वही मेरे साथ जाएगा, वह 'वृक्ष' जो अपनी टहनियां देकर मेरी चिता सजाएगा और मेरे साथ-साथ अपना अस्तित्व भी मिटा डालेगा मुझे ईश्वर से 'मिलाने के लिए।'  ये विचार मेरे मन में बस यूं ही अचानक नहीं आ गए, बल्कि ये सच्चाई है हमारे समाज, घर-परिवार के बुजुर्गों की दूर-दृष्टि की, जिसने मुझे इन पेड़-पौधों, वृक्षों के प्रति अलग नजरिये से देखना सिखाया और इसके गवाह हैं हमारे आंगन में लगे हुए पेड़...।

          मेरे पिता द्वारा साठ के दशक में लगाए गए आम के पौधे, जो अब विशालकाय वृक्ष का आकार ले चुके हैं, जो अब हमारे घर के सदस्य, हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं। वे आम के पेड़ आज भी मीठे फल दे रहे हैं, पूरे घर को छाया देकर तन कर खड़े हैं किसी रखवाले की तरह। उस पेड़ के आम का स्वाद हमारे घर की 4थी पीढ़ी उठा रही है। कितनी दूर की सोच थी हमारे पुरखों की, उस समय न तो कोई पर्यावरण दिवस था, न ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द, लेकिन अपनी इस कृति के रूप में वे आज भी जीवित हैं। हम आजीवन ऋणी हैं उनके इस अनमोल धरोहर के, उनके आशीर्वाद के रूप में, जो हमें आज भी उनकी याद दिलाता है। वृक्षों के रूप में मिला उनका अविस्मरणीय आशीर्वाद जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका अस्तित्व जीवित रखेगा।

          अपनी तो सब सोचते हैं। उससे दो कदम आगे चल कर बच्चों के भविष्य की, समाज की, दुनिया की भी सोचिये। हम बदलेंगे, युग बदलेगा।

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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2023

लक्ष्य महान रखें


क्या आप जीवन में उत्कृष्टता प्राप्त करना चाहते हैं? क्या आप सामान्य जीवन से संतुष्ट हैं? यदि आप में पूर्णता प्राप्त करने की इच्छा है, तो  भगवदगीता में सफलता का सूत्र है। हर किसी का बौद्धिक स्तर (IQ) उच्च नहीं होता। हर कोई अत्यंत प्रतिभाशाली नहीं होता। लेकिन हर एक व्यक्ति अत्यधिक प्रेरित हो सकता है। ध्यान बाहरी विषयों से हटाकर आंतरिक विजय की ओर करना होगा। तब, आपको मन की शक्ति का पता चलता है। मन पर विजय प्राप्त करना ही संसार पर विजय प्राप्त करना है।  

          उत्कृष्टता के लिए शांत मन की आवश्यकता होती है। जब मन शांत होता है, तो बुद्धि तीव्र होती है, एकाग्रता होती है और कार्य शानदार होते हैं। जब मन अशांत होता है तो आप अपने ज्ञान तक नहीं पहुंच पाते, अपनी आंतरिक शक्ति तक नहीं पहुँच पाते, सोच भटक जाती है और कार्य दोषपूर्ण हो जाते हैं।

          हम सभी मानसिक अशांति से पीड़ित हैं। मन को क्या परेशान करता है? हमारे स्वयं के, अपने खुद के विचार। जब स्वयं के विचार रास्ते में आते हैं तो एक गायक के स्वर गड़बड़ा जाते हैं, नौकरी पाने का इच्छुक व्यक्ति साक्षात्कार में तब असफल हो जाता है जब उस पर नौकरी पाने का जुनून सवार हो जाता है, एक बावर्ची (शेफ) जब अपने मेहमानों को प्रभावित करना चाहता है तो गल्तियां करता है, एक परीक्षार्थी में जब असफल होने का भय समा जाता है तो उसके उत्तर गलत हो जाते हैं, एक कलाकार जब प्रशंसा पाने के लिए रचना करता है तब उसकी रचना श्रेष्ठ नहीं बनती है। इन सब में एक समानता है – आपकी अपनी इच्छा ही बाधा है, लक्ष्य उच्च नहीं है, लक्ष्य में दोष है। जब अकबर ने तानसेन से पूछा, “तुम्हारे गायन में वह कशिश क्यों नहीं है जो तुम्हारे गुरु हरिदास के गायन में है?” तानसेन ने यही कहा था कि मैं आपके लिए गाता हूँ और मेरे गुरु ब्रह्म के लिए गाते हैंएक उत्कृष्ट निर्माण के लिए लक्ष्य का महान होना अनिवार्य है

          विशिष्टता कुछ चुनिंदा लोगों का विशेषाधिकार नहीं है। सबसे प्रतिभाशाली से लेकर सबसे कम संपन्न तक, हर कोई इसके बारे में जानता है। इसके लिए बस आपकी व्यक्तिगत इच्छाओं से परे एक दृष्टिकोण और एक उच्च लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता की आवश्यकता है। इच्छा ही आपके और सफलता के बीच सबसे बड़ी बाधा है। इच्छा से मुक्त हो जाने पर आप पूर्णता की परिधि में पहुंच जाओगे।

          जीवन का नियम है कि आपको वह मिलता है जिसके आप हकदार हैं, न कि वह जो आप चाहते हैं। इसलिए इच्छा को अलग रखें और अपनी योग्यता पर ध्यान केंद्रित करें।  योग्यता हासिल करने के लिए काम करें, अपने कौशल को निखारें, अपने कार्य को बेहतर ढंग से करने का प्रयास करें, अपने व्यापार को और सुचारु बनाएँ, अपनी कला को और सजाएँ। हड़पने से परोसने की ओर,  मुनाफाखोरी से सेवा की ओर, लेने से देने की ओर बदलाव करें। प्रकृति की शक्तियां आपके सामने झुक जाएंगी, आपका सहयोग करने लगेंगी। प्रकृति का चक्र देने के सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। सागर अपना जल मेघ को, मेघ वर्षा को, वर्षा पर्वतों को, पर्वत नदियों को, और फिर नदी वही जल वापस सागर को दे देती है। 

          आप अपने आप को दुर्भाग्यशाली समझते हैं या भाग्यशाली? यदि आप अपने को दुर्भाग्यशाली समझते हैं तब आप कुछ ऐसी चीज़ें पाने के लिए काम कर रहे हैं जो आपके पास नहीं हैं? तो फिर आप उत्साहहीन हैं। आप केवल अपने काम की गतिविधियों से गुजरते हैं। इससे असफलता और हताशा पैदा होती है।

          इसके विपरीत क्या आप उस प्रचुर मात्र में मिले उपहार से अवगत हैं जो आपको मिला है? तब आप आभारी हो जाते है। जब आप लोगों को देना, उन्हें योगदान देना और उनका मूल्य बढ़ाना चाहते हैं तब आप रचनात्मक, प्रेरित और सफल बनते हैं। प्रचुरता - भौतिक संपत्तियों से असंबद्ध मन की एक स्थिति है। हो सकता है कि आपके पास कुछ भी न हो और आप धन्य महसूस करें। और इसके विपरीत सबसे अमीर व्यक्ति भी वंचित महसूस कर सकता है, दुर्भाग्यशाली महसूस करता है।

          अपने जुनून, प्रतिभा, उपहार को पहचानें।  उस क्षेत्र में एक उच्च आदर्श स्थापित करें। काम, सेवा और त्याग की भावना से, एक बड़े लक्ष्य के लिए करें। स्वार्थी कार्य सामान्यता की ओर ले जाता है। सभी सफल लोगों ने एक महान उद्देश्य के लिए काम किया। डॉन ब्रैडमैन ने स्वार्थ के लिए क्रिकेट नहीं खेला। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान संगीत के प्रति समर्पित थे। आइंस्टीन केवल भौतिकी के बारे में सोचते थे। शास्त्रीय गायक और नृत्यांगनाएँ ईश्वर को आराध्य मान कर कला का प्रदर्शन करती थीं।

          जब आपका ध्यान संसार से परे की ओर चला जाता है, तो आप निःस्वार्थ कर्म करते हैं। आप न तो स्वार्थी लक्ष्य के लिए काम करते हैं और न ही निःस्वार्थ लक्ष्य के लिए। आप जानते हैं कि आपकी प्रतिभा ईश्वर प्रदत्त उपहार है। आप इसे परमेश्वर को धन्यवाद देने के लिये अर्पित करें। फिर, पूर्णता आप में सहजता से प्रवाहित होती है। एथलीट एरिक लिडेल, (फ्लाइंग स्कॉट्स-मैन), अपराजेय था और उसने ओलंपिक रिकॉर्ड बनाए। वह कहता था: "भगवान ने मुझे दौड़ने के लिए बनाया है, और मैं भगवान के लिए दौड़ूंगा।" इसी आदर्श वाक्य के साथ उन्होंने ओलंपिक स्वर्ण पदक जीते।

          आप कितने भी प्रतिभाशाली क्यों न हों, आप अकेले सफलता हासिल नहीं कर सकते। आपको मजबूत दल (टीम) बनाने की जरूरत है। अपने दल के सदस्यों के साथ एकाकार महसूस करें। उन्हें भागीदार के रूप में देखें, विरोधियों के रूप में नहीं। वे आपके सहयोगी हैं, प्रतिस्पर्धी नहीं। जब आपको सफलता मिले तो उनसे दूर न हों। याद रखें, यह क्षणिक और अस्थायी है। यह किसी दिन चला जाएगा। अपने परिश्रम का फल भोगें, लेकिन उस पर निर्भर न रहें। आंतरिक भंडार का निर्माण करें जो विपत्ति के समय आपके साथ खड़ा रहेगा। जब चीजें आती-जाती रहती हैं, जैसा कि उन्हें होना चाहिए, तो आप टूटेंगे नहीं, आपका दिल डूबेगा नहीं। जैसा कि ओलिवर वेंडेल होम्स ने कहा:

“For him, in vain the envious season roll,

Who bears eternal summer in his soul”

जिसकी आत्मा में वसंत का वास हो, उसे दूसरे मौसम कष्ट नहीं दे सकते।

आत्मा से ईर्ष्या का त्याग कर प्रेम की अग्नि प्रज्वलित करें।

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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2023

सूतांजली दिसम्बर 2023

 


अहंकार से प्राप्त ज्ञान अहंकार पैदा करता है,

विनय और नम्रता से प्राप्त ज्ञान नम्रता प्रदान करती है।

स्वामी तेजोमयानंदजी (गीता)

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छुटकारा – पाप से या दुःख से?                                             मैंने पढ़ा

मनुष्य बड़ा विचित्र प्राणी है!

अपराध खुद करता है, लेकिन चाहता है दंड किसी और को मिले!

जीत का सेहरा खुद के सिर पर, लेकिन हार का ठीकरा किसी और के सिर पर।

पुण्य का फल खुद के लिए लेकिन पाप का दंड किसी और के लिए?

है न विचित्रिता!

          हम कोई तरकीब चाहते हैं कि पाप तो कर लिये, लेकिन पाप के फल से बच जाऊँ। कोई मंत्र, कोई चमत्कार, कोई पूजा-पाठ, कोई दर्शन, कोई स्नान, कोई दान हमें छुटकारा दिला दे। कौन छुटकारा दिलायेगा? और ऐसा भी नहीं है कि समझदार पुरुषों ने हमें बार-बार, हजारों बार न कहा हो कि ठहरो, रुक जाओ। यही नहीं, ऐसा भी नहीं है कि आज भी वे ह से कह रहे हैं तो, मैं रुक जाऊंगा, म करते ही रहेंगेपिछले जन्मों में करते रहे हैं, अभी भी कर रहे हैं और आगे के जन्मों में भी करते रहेंगे। और फिर यह विचार करेंगे कि क्या अनंत जन्मों तक किये हुपाप का फल क्या अनंत जन्मों तक भोगने पड़ेंगे? हम निरंतर करते चले  जाते हैं और फिर असंभव की आकांक्षा करते हैं। पाप तो म करें और फल हमें न मिले, फल किसको मिलेगा फिर? अगर दुःमैंने बोया है तो उसकी फसल कौन काटेगा? और यतो सरासर अन्याय होगा कि फसल किसी और को काटनी पड़े। फसल तो मुझे ही काटनी पड़ेगी!

          इस बात की चिंता छोड़ो कि कितना समय बीत चुकाजब जागो तभी सवेरा। ऐसा नहीं है कि जितने समय दुःख बोया है उतने ही समय दुःख भोगना पड़ेगा। लेकिन दुःख भोगने के लिए तैयार तो होना पड़ेगा। इस सोच से तो निकलना पड़ेगा कि दुःख भोगना ही न पड़े। इस तैयारी में ही छुटकारा है। कहना तो यही चाहिए कि ‘चाहे कितना ही समय लगे, जो मैंने किया है उसे भोगने के लिए मैं राजी हूँ, चाहे अनंत काल लगे’। अपनी तरफ से तैयारी तो दिखानी ही होगी और यही हमारा सौमनस्य होगा, सद्भाव होगा, ईमानदारी होगी, प्रमाणिकता होगी। हमें यह कहना ही चाहिए कि जब मैंने फसल बोहै, तो मैं कटूँगा, और जितनी बोहै उतनी काटूंगा। इसमें किसी और पर मैं जिम्मेवारी नहीं देता। और न कोई ऐसा सूक्ष्म रास्ता खोजना चाहता हूँ कि किसी तरह बचाव हो जाए। किसी रिश्वत से नहीं, किसी दबाव से नहीं, किसी की प्रार्थना से नहीं, मेरे किये का फल मुझे मिलना ही चाहिए।

म तैयारी तो दिखाएँ। अगर हमारी तैयारी सच्ची है, निर्मल हृदय से है, तो एक बात समझ लेनी चाहिए, दुःख का संबंध विस्तार से नहीं, गहराई से है। दुःख के दो आयाम हैं - लंबाई और गहराई। बात सरल और सीधी सी है, अगर एक कटोरी जल को एक छोटी-सी शीशी में डाल दें तो जल की गहराई बढ़ जाती है लेकिन अगर उसे फर्श पर फैला दें तो उसकी गहराई समाप्त हो जाती है। लेकिन वह पूरे फर्श पर फैल जाती है और उसकी लंबाई बढ़ जाती है। हमने जो पाप लंबे समय तक किए हैं, कई जन्मों तक किये हैंलेकिन अगर तैयार हैं झेलने को, तब उसका दर्द हम लंबे समय तक न भोग कर गहरा भोग कर,  झेल कर समाप्त कर सकते हैं। साल भर का सिरदर्द एक क्षण में भी झेला जा सकता है। पीड़ा सघन हो सकती है, प्राणांतक हो सकती है।

          यह एक बड़े आश्चर्य की बात देखने-सुनने में आती है कि रामकृष्ण कैंसर से मरे, रमण भी कैंसर से रे, महावीर बड़ी गहन उदर की बीमारी से मरे, बुद्ध शरीर के विषाक्त होने से मरे, ऐसे महापुरुष, ऐसे पूर्णज्ञान को उपलब्ध लोग ऐसी संघातक बीमारियों से मरे? जँचता नहीं। और यहां करोड़ों है, महापापी, जो बिना कैंसर के मरेंगे। तो उनके भाग्य में ऐसा क्या लिखा है? अक्सर ऐसा हुआ है कि जिस व्यक्ति का आखिरी क्षण आ गया, इसके बाद जिसका जन्म नहीं होगा, यउनका शरीर से आखिरी संबंध है। तब उनकी पीड़ा सघन हो जाती है, ताकि एकत्रित सारे पाप का दुःख गहरा हो जाये और फिर जनम न लेना पड़े, अन्यथा सिर्फ उन दुःखों को भोगने के लिए फिर से जनम लेना पड़ेगा। हम वर्षों-वर्षों और जन्मों-जन्मों तक भोगते हैं, वे क्षण में भोग लेते हैं। क्योंकि तीव्र पीड़ा को झेल लेना मुक्त हो जाना है। यह जरूरी नहीं कि हमें उतने ही जन्म लेने पड़ेंगे जितने जन्म तक हमने पाप किए हैं। और अगर हम तटस्थ भाव से इसे भोग सकें तो एक क्षण में जन्मों-जन्मों की कथा समाप्त हो जाती है।

          प्रार्थना मत कीजिये। अगर करनी ही है तो दुःख हरने या कम करने के लिए नहीं बल्कि पाप न करने की कीजिये। दुःख परिणाम है और पाप कारण। अगर कारण मिट गया तो परिणाम स्वतः मिट जायेगा। प्रार्थना में क्षमा मत मांगिये, दंड मांगिए। अगर पाप करते समय उसे नहीं बुलाया तो अब भोगते वक्त किस मुंह से उसे बुलाओगे? पाप करने से रोकने नहीं बुलाया तो अब दंड भोगते समय उसे क्यों बुला रहे हो। उचित यही है कि उसे अब दंड देने बुलाओ।

         

 

 

 

 

 

एक बात और कहूँगा, दंड का विरोध मत करो, उसके आगे समर्पण करो। विरोध में  शक्ति लगेगी; अवसाद, क्रोध, अशांति घेर लेंगी। समर्पण में सहजता आ जाएगी; निश्चिंतता, क्षमा, शांति का निवास होगा। हम सोचते हैं कि एक तो पुनर्जन्म अपने आप में एक कारा-गृह का दंड है और फिर ये दुःख? ये क्या सजा के साथ-साथ जुर्माना है? लेकिन सत्य तो यही है कि किसी ने हमें कारा-गृह में नहीं डाला है। हम खुद बेहोश हैं। मोक्ष कहीं आकाश में, क्षीर सागर में, सात-समुंदर पार नहीं है, हमारे भीतर ही है। बस बेहोश मत होइये, जागृत रहिये। अपने कर्मों को भोगने के लिए तैयार रहिए।  मोक्ष पाने की नहीं, मोक्ष धरा पर अवतरित करने की आकांक्षा रखिये।

(ओशो पर आधारित)

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रचना-कार

आड़े-तिरछे, टेढ़े-मेढ़े, गोल-लंबे आकृतियों को जब एक विशेष क्रम में सजाते हैं तो उससे उत्पन्न होता है अक्षर

अलग-अलग अक्षरों को किसी विशेष क्रम में सजाते हैं तब जो आकृति उभर कर आती है वह कहलाती है शब्द

इन शब्दों को एक अनुशासन में बांधने से बनता है वाक्य

और जब इन वाक्यों को पिरोते हैं खूबसूरती से तब निर्माण होता है एक रचना का।

लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं होती, आगे चलती है।

जब यह रचना लोगों तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं तब रचना का वितरण होता है,

और सही ढंग से वितरित होने से यह रचना पहुँचती है सही पाठकों के हाथों में।

तब वह रचना सार्थक होती है।

मैंने अपने एक फ्रांसीसी परिचित को एक हिन्दी रचना भिजवाई। मिलने पर उसने भी मुझे एक फ्रांसीसी रचना  भिजवाई साथ में बताया कि आड़ी-तिरछी महीन रेखाओं से बनाई हुई कलाकृतियों की पुस्तक उसे मिली और पसंद आई लेकिन उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें कला कृतियों की  बार-बार आवृति की गई है यह समझ नहीं पाया कि ऐसा क्यों है?’

यह पूरा कार्य जब उत्तम एवं सही तरीके से, मेहनत और पूरी लगन के साथ की जाती है तब वह बनती है कालजयी रचना। इनमें से एक में भी गड़बड़ हुई, आलस हुआ, छूट गया, समुचित ढंग से नहीं हुआ तो वह सार्थकता उपलब्ध नहीं होती जो उस रचना के उपयुक्त है।

          यह कोई पुस्तक हो, संगीत हो, कला हो, वार्ता हो, खेल हो, फल हो, पुष्प हो, वस्तु हो, निर्माण हो, प्रकृति कृत हो या मानव कृत सब पर कमोबेश लागू होती है। अंदाज़ लगायें किसी की भी सफलता के लिए कितना कुछ करना पड़ता है, यही नहीं यह सब आदि से अंत तक हमारे हाथ में नहीं है, यह एक संयोग से होता है। यह संयोग क्या होता है, कैसे होता है, क्यों होता है? इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है। विज्ञान और अध्यात्म दोनों इसके उत्तर खोज रहे हैं, अपने-अपने ढंग से, कोई विश्लेषण से कोई संश्लेषण से, कोई जोड़ कर कोई तोड़ कर। अनेक उत्तर हैं, सब के अपने-अपने। किस को सही मानें किसको गलत यह आपकी प्रवृत्ति है। 

          कोई जोड़ किसी तोड़ की तैयारी थी या कोई तोड़ किसी जोड़ की, इसका तो पता चलता है पूर्णाहुति पर ही है। आज अपनी पत्रिका को अंतिम रूप देकर समाप्त करना था। प्रायः इसे सम्पन्न करने में रात 8-9 बज जाते हैं। लेकिन आज कार्य समय के पूर्व ही सम्पन्न हो गया, 6 बजे। इत्तिफ़ाक से! पत्रिका में एक पुस्तक, ‘द ग्रेट अडवेंचर  से एक पन्ना दिया करता हूँ, आज भी दिया लेकिन बंद करते-करते उस पुस्तक के अंतिम पन्ने पर, जिसे नहीं भेजना था, अचानक ध्यान चला गया जिसमें एक छोटा सा एक पन्ने का उद्धरण पढ़ने लगा और मुझे वह बहुत अच्छा लगा। इसके बावजूद भी समय काफी था, अतः सोचा की चलूँ शाम की सैर कर लूँ, थोड़ी लंबी सैर करके वापस आऊँगा। निकलने के पहले एक आवश्यक फोन करना था, सोचा उनसे बात करके ही निकलूँ। लेकिन शायद वे उस समय व्यस्त थे अतः उन्होंने कहा कि वे दस मिनट बाद फोन करेंगे। इत्तिफ़ाक से! मैं 10 मिनट कमरे में नहीं रहना चाहता था अतः छोटा हलका वाला (बेसिक) फोन के बदले बड़ा भारी वाला (स्मार्ट) फोन लेकर निकल पड़ा क्योंकि फोन इसी से किया था तो फोन इसी पर आता। सैर के दौरान बात हो गई। सैर समाप्त होने के बाद साधारणतया मैं कमरे में जाकर थोड़ा आराम कर, पानी वगैरह पीकर आता हूँ। लेकिन आज वैसा कुछ महसूस नहीं हुआ और ध्यान-केंद्र में  जाने की इच्छा हुई तो सीधे उसी तरफ आगे बढ़ गया। मैं रोज वहाँ नहीं जाता और फोन भी लेकर नहीं आता लेकिन आज सीधे आया था अतः फोन जेब में ही था। इत्तिफ़ाक से! सोचा कि प्रवेश करने के पहले फोन बंद कर दूँगा। कक्ष में प्रवेश करने के पहले फोन बंद करने ही वाला था कि फोन कि घंटी बज उठी। कुछ क्षणों का हेर-फेर होने पर फोन बंद होकर जेब में आ चुका होता। आज की भजन गायिका का फोन था, बता रही थी कि वह ट्राफिक में फंसी है अतः आने में देर होगी। आज यह फोन साथ में था और बंद भी नहीं था।  साधारणतया मैं यह भरी फोन साथ में नहीं रखता लेकिन आज संयोग ही कुछ ऐसा बैठा कि यही फोन साथ था। अगर वैसा संयोग नहीं होता तो फोन मेरे पास नहीं होता, बात नहीं हो पाती। खैर कक्ष में प्रवेश करते-करते विचार किया कि आज भजन और वार्ता का क्रम उल्टा कर दूँगा। आज की वार्ताकार से अनुरोध करूंगा कि गायिका को आने में कुछ विलंब होगा अतः वार्ता प्रारम्भ करें तब तक गायिका आ जाएगी।

          लेकिन कक्ष में प्रवेश किया तो पाया कि आज की वार्ताकार अनुपस्थित है। मतलब कि आज का पूरा मोर्चा मुझे ही संभालना पड़ेगा। सोचने लगा कि क्या बोलूँ?  तभी याद आया कि आज ही शाम को जो एक पन्ना पढ़ा हूँ उस पर बोला जा सकता है। और मैंने माईक संभाल लिया। मेरी वार्ता समाप्ति के नजदीक ही थी कि मैंने देखा कि आज की गायिका कक्ष में प्रवेश कर रही है। आज के इस दिन भर की परिचर्या में कई जोड़-तोड़ हुए लेकिन मुझे छोड़ और किसी को पता नहीं चला और सब कार्यक्रम सुचरू रूप से सम्पन्न हो गया।

          कितने तोड़ हुए और कितने जोड़? हर तोड़ पर उद्विग्न हुआ और हर जोड़ पर संतोष। सब जोड़-तोड़ ऐसे हुए कि किसी भी न तोड़ का भान हुआ न जोड़ की प्रतीति। कार्यक्रम बिना व्यवधान के सम्पन्न हो गया।

          कौन जोड़ता है – कौन तोड़ता है हम समझ नहीं पाते। जोड़ पर प्रसन्न और तोड़ पर हताश मत होइये। हम नहीं जानते कि रचनाकार क्या कर रहा है। जो भी है उसे स्वीकार कीजिये और उस रचयिता के अहसानमन्द बने रहिए, वह तोड़ को ठीक से जोड़ सकता है, कुछ जोड़ने के लिए ही तोड़ रहा है। 

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शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

जीवन के दर्द

 (जीवन में अनेक दुख हैं, दर्द है, कष्ट हैं।  हम उनसे बच नहीं सकते। हाँ, अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार इसे हम कम या ज्यादा महसूस कर सकते हैं। लेकिन इसके पहले, ये दर्द क्या हैं? क्या ये हमारे दुष्कर्मों का फल है? क्या यह नर्क की यातना है? क्या यह ईश्वर का दंड विधान है? या उन सब से परे ईश्ववरीय अनुकम्पा है, प्रसाद है, वरदान है?)



एक बुजुर्ग दम्पति दुर्लभ वस्तुओं की दुकानों की खोज में रहता और जहां कहीं ऐसी दुकान का पता चलता वहाँ पहुँच जाता। इसी खोज में एक बार वे इंग्लैंड पहुँच गए। उन दोनों को प्राचीन वस्तुएँ, मिट्टी के बर्तन और विशेष रूप से चाय के अनोखे कप बेहद पसंद थे। देश-विदेश से अनेक अनमोल, विशिष्ट, अद्भुत चाय के कपों का एक विशाल संग्रह उन्होंने तैयार किया था।

 

एक दिन इस ख्याति प्राप्त दुकान में उन्हें एक खूबसूरती से तराशा हुआ कप दिखाई दिया। वे उसे देखते रह गए। उनके मुंह से निकल पड़ा, "अद्भुत, अति-सुंदर! हमने कभी इतना सुंदर कप नहीं देखा। क्या हम इसे हाथ में उठा कर देख सकते हैं?"

जैसे ही दुकान की महिला ने वह कप उन्हें थमाया,  कप अचानक बोल उठा, "आप नहीं समझते, मैं हमेशा से चाय का प्याला नहीं रहा हूं। एक समय था जब मेरा रंग लाल था और मैं मिट्टी का एक लोंदा भर था। मेरे मालिक ने एक दिन मुझे उठा लिया और पूरी ताकत से मसला, मुझ में पानी डाला, मुझे बार-बार थपथपाया। मुझे अच्छा नहीं लगा, पीड़ा हुई और मैंने अनुरोध किया, मुझे छोड़ दो, जैसा हूँ वैसा ही रहने दो, मुझे अकेला रहने दो। लेकिन वह नहीं माना, केवल मुस्कुराया और बोला 'ठहरो, जरा ठहरो, अभी नहीं।”

          कप ने आगे कहा, "फिर उसने मुझे एक गोल घुमावदार चक्की पर बैठा दिया और अचानक मुझे गोल-गोल तेजी से घुमाने लगा। धीरे-धीरे उसकी गति तेज हो गई, मुझे असहनीय हो गई, मुझे लगा मेरे अंग-प्रत्यंग उखड़ जायेंगे, मैं टूट कर बिखर जाऊंगा।  मैं चीख पड़ा, चीखने चिल्लाने लगा – मुझे चक्कर आ रहा है, इसे रोको, मुझे निकालो।” लेकिन मालिक ने केवल सिर हिलाया, मुस्कुराया और कहा, “ठहरो, अभी नहीं'।"

          फिर कुछ देर बाद उसने उसे रोका, मेरी सांस-में-सांस आई। लेकिन यह क्षणिक ही था क्योंकि इसके तुरंत बाद उसने मुझे उठा कर गरमा-गरम भट्टी में डाल दिया। मेरा तन-बदन जल गया, मुझे लगा आज तो मैं जल कर राख़ ही हो जाऊँगा। मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर वह मुझे क्यों जलाना चाहता था।  मेरी त्वचा का रंग-ढंग ही बदल गया था, मेरी मुलायम त्वचा एकदम कठोर हो गई थी। मैं पूरे ज़ोर चिल्लाया, हाथ-पैर दीवारों पर मारे। मैं उसे देख सकता था उसने अपना सिर हिलाया और फिर वही बात दोहरा दी ठहरो, अभी नहीं।

          मुझे ऐसा लगा की बस अब कुछ नहीं हो सकता, मेरे अंतिम दिन आ गए तभी आखिरकार उसने मुझे उस भट्टी में से निकाला और मेज पर रख दिया। मैं ठंडा होने लगा। अब कुछ ठीक है, मैंने सोचा। उसने फिर मुझे झाड़-पोंछ कर साफ किया और मुझ पर रंग करने लगा। अरे ये क्या है! वीभत्स। मुझे लगा की उसकी गंध और गैस से मैं बेहोश हो जाऊँगा। ठहरो-ठहरो – मैं चिल्लाया, लेकिन उसने फिर वही रटी-रटाई बात दोहरा दी – अभी नहीं। 

          "फिर अचानक उसने मुझे वापस एक दूसरी भट्टी में डाल दिया। यह भट्टी पहली भट्टी से दुगनी गर्म थी, मेरा दम घुटा जा रहा था। लगभग एक घंटे बाद उसने मुझे उसमें से निकाला और ठंडा होने रख दिया। कोई घंटे भर बाद उसने मुझे एक दर्पण के सामने रखा और मुझे देखने कहा। मैंने अपने आप को देखा। मैं चीख पड़ा, “नहीं मैं यह नहीं हो सकता। क्या मैं सचमुच इतना सुंदर हूँ, मेरी कल्पना से बाहर।”

          मालिक ने कहा, "मैं चाहता हूं कि तुम याद रखो। मुझे पता है कि मसलने, थपथपाने, जलाने से दर्द होता है, लेकिन अगर मैंने तुम्हें छोड़ दिया होता, तो तुम सूख गई होती। मैं जानता हूं कि तुम्हें पहिये पर घूमने में चक्कर आया होगा, लेकिन अगर मैं रुक जाता, तो तुम टुकड़े-टुकड़े हो गए होते। मैं जानता था कि यह दुखदायी है और भट्टी की गर्मी असहनीय है, लेकिन अगर मैंने तुम्हें वहां नहीं रखा होता, तो तुम टूट गए होते। मैं जानता हूं कि जब मैंने तुम्हें झाड़ा-पोंछा और तुम्हारे पूरे शरीर पर रंग डाला तो गैस बहुत बुरा था, लेकिन अगर मैंने ऐसा नहीं किया होता, तो तुम कभी भी कठोर नहीं होते; तुम्हारे जीवन में कोई रंग न होता। और अगर मैंने तुम्हें उस दूसरे ओवन में वापस नहीं डाला होता, तो तुम बहुत लंबे समय तक बचे नहीं रहते, क्योंकि तब तुममें आवश्यक कठोरता नहीं रहती। अब तुम पूरी तरह तैयार हो और वैसी ही हो जिसकी मैंने कल्पना की थी, जब मैंने तुम्हें गढ़ना शुरु किया था।" इतनी कहानी सुना कर कप चुप हो गया।

          दंपति जैसे नींद से जागी और कप की बातों पर विचार करने लगी!  यह कप की जीवनी है या हमारी, आप की, सबों की जिंदगी का निचोड़ है!  

          वह माटी का लोंदा हम ही तो हैं। ईश्वर हमें पटकता है, मसलता है, पीटता है, जलाता है, रंगता है, झाड़ता है तब जाकर हम वैसे बनते हैं जैसे दिख रहे हैं। हमें उसका शुक्र-गुजार होना चाहिए उन सब कष्टों के लिए जिसके ताप में जल कर हम निखर उठे।

          दर्द-पीड़ा हम सब भोगते हैं, भोगते ही रहते हैं, इससे छुटकारा नहीं है। प्रकृति, जीवन, देवता हमें क्या दर्द देने के लिए दर्द देते हैं, पीड़ित करने के लिए पीड़ा देते हैं? या फिर हमें तैयार करते हैं हमारी पीड़ा और दर्द को कम करने के लिए या  किसी अन्य महान कार्य के लिए?

दर्द प्रकृति का वह हाथ है जो मनुष्य को

महानता के लिए गढ़ता है,

              एक प्रेरित श्रम क्रूरता के साथ छेनी के प्रहार से 

              कठोर पत्थर को एक अनिच्छुक सुंदर साँचे में ढालता है।

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