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शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

क्या है महान लक्ष्य?


          किसे कहेंगे महान लक्ष्य? क्या अकूत संपत्ति का मालिक होना महानता है? देश-विदेश में कारोबार का होना महानता है। ऐश्वर्य-वैभव का होना महानता है? कैलिफोर्निया की बे-एरिया में कंपनी का मुख्यालय होना महानता है। हजारों इंजीनियर-टेकनिशियनों को रोजगार देना महानता है। महानता क्या है? कोई ऊंचा पद हासिल करना, कोई बड़ा पुरस्कार प्राप्त करना, आज की तकनीकी दुनिया में करोड़ों लाइक बटोरना-फ़ौलोअर्स का होना? – क्या है महानता लेना या देना!  मैं या हम। सब-कुछ अपनी मुट्ठी में होते हुए भी मुट्ठी को खुली रखना ही महानता है। सब कुछ स्वयं करते हुए भी करनहार को ही करने वाला मानना महानता है। मैं नहीं तू ही महानता है।  

          किसी की कुल सम्पति अगर 18 हजार करोड़ रूपये की हो तो 300 करोड़ रूपये के प्राइवेट जेट विमान खरीदने पर ऑडिटर भी एतराज नहीं करेगा, और जब अथाह पैसा हो तो फिर मुश्किल ही क्या है? यूँ भी, लक्ष्मी जब छप्पर फाड़कर धन बरसाती है तो ऐसे फैसले किसी को ख़र्चीले नहीं लगते। शायद इसलिए एक खरबपति के लिए जेट विमान खरीदना ऐसा ही है जैसे किसी मैनेजर के लिए मारुति कार खरीदना। लेकिन जोहो कारपोरेशन (Zoho Corporation) के चेयरमैन श्रीधर पर लक्ष्मी के साथ-साथ सरस्वती भी मेहरबान थीं। इसलिए उनके इरादे औरों से बिलकुल अलग थे। उनका अगला लक्ष्य प्राइवेट जेट खरीदना होना चाहिए था। लेकिन प्राइवेट जेट खरीदना तो दूर उन्होंने अपनी कम्पनी के बोर्ड के निर्देशकों से कहा कि वे अब कैलिफोर्निया (अमेरिका) से जोहो कारपोरेशन का मुख्यालय कहीं और ले जाना चाहते हैं। कहाँ?

          श्रीधर के इस विचार से कम्पनी के अधिकारी हतप्रभ थे क्यूंकि सॉफ्टवेरी के लिये कैलिफोर्निया की बे-एरिया से मुफीद जगह दुनिया में और कोई है ही नहीं। गूगल, एप्पल, फेसबुक, ट्विटर या सिस्को सब-के-सब इस इलाके में बसे, फले-फूलेपर श्रीधर तो कोई बड़ा अप्रत्याशित फैसला लेने जा रहे थे। वे कैलिफोर्निया से शिफ्ट होकर सीएटल या हूस्टन नहीं जा रहे थे। वे अमेरिका से लगभग 13000 किलोमीटर दूर चेन्नई वापस आना चाहते थे।

          उन्होंने बोर्ड मीटिंग में कहा कि अगर डेल, सिस्को, एप्पल या माइक्रोसॉट अपने दफ्तर और रिसर्च सेंटर भारत में स्थापित कर सकते हैं तो जोहो कारपोरेशन को स्वदेश लौटने पर परहेज क्यों है?

श्रीधर के तर्क और प्रश्नों के आगे बोर्ड में मौन छा गयाफैसला हो चुका था। आई आई टी मद्रास के इंजीनियर श्रीर वापस मद्रास जाने का संकल्प ले चुके थे। उन्होंने कम्पनी के नए मुख्यालय को तमिलनाडु के एक गाँव  में स्थापित करने का फैसला ले लिया था और एलान के मुताबिक, अक्टूबर 2019 में श्रीधर ने टेंकसी जिले के मथलामपराई गाँव में जोहो कारपोरेशन का हेडक्वार्टर शुरू कर दिया।

 

स्वदेश क्यों लौटना चाहते थे श्रीधर?

श्रीधर अमेरिका की किसी एजेंसी या बैंक या स्टॉक एक्सचेन्ज के दबाव के कारण स्वदेश नहीं लौटे। उनपर प्रतिस्पर्धा का दबाव भी नहीं था। वे कोई नया व्यवसाय भी नहीं शुरू कर रहे थे। वे किसी नकारात्मक कारण नहीं एक सकारात्मक विचार लेकर वतन लौटे। उन्होंने कई वर्ष पहले संकल्प लिया था कि अगर जोहो ने बिजनेस में कामयाबी पायी तो वे मुनाफे का बड़ा हिस्सा गाँव के बच्चों को आधुनिक शिक्षा देने पर खर्च करेंगे। इसी इरादे से उन्होंने सबसे पहले मथलामपराई गाँव में बच्चों के लिए निःशुल्क आधुनिक स्कूल खोले। फोर्ब्स मैगजीन में दिए एक इंटरव्यू में श्रीधर बताते हैं कि टेक्नोलॉजी को अगर ग्रामीण इलाकों से जोड़ा जाए तो गाँव से पलायन रोका जा सकता है। गाँव में प्रतिभा है, काम करने की इच्छा हैइसीलिए मैं भी बच्चों की क्लास में जाता हूँ, उन्हें पढ़ाता भी हूँ। हम न सिर्फ दूरियां मिटा रहे हैं, न सिर्फ पिछड़ापन दूर कर रहे हैं, बल्कि शहर से बेहतर डेलीवरी गाँव से देने जा रहे है... प्रोडक्ट चाहे सॉफ्टवेयर ही क्यों न हो।

          श्रीधर बेहद सहज और सादगी पसंद इंसान हैं। वे लुंगी और बुशर्ट में ही अक्सर आपको दिखेंगे। गाँव और तहसील में आने जाने के लिए वे साईकिल पर ही चल निकलते हैं। उनकी बातचीत से, हाव-भाव से, ये आभास नहीं होता कि श्रीधर एक खरबपति सॉफ्टवेटर उद्योगपति हैं जिन्होंने 9 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया है जिसमें अधिकाँश इंजीनियर है। उनकी कम्पनी के ऑपरेशन अमेरिका से लेकर जापान और सिंगापुर तक फैले हैं जहाँ 9,300 टेक-कर्मियों को रोजगार मिला है। श्रीधर का कहना है कि आने वाले वर्षों में वे करीब 8 हजार टेक रोजगार भारत के गाँवों में उपलब्ध कराएंगे और ग्लोबल सर्विस को देश के ग्रामीण इलाकों में स्थानांतरित करेंगे। शिक्षा के साथ गाँवों में वे आधुनिक अस्पताल, सीवर सिस्टम, पीने का पानी, सिंचाई, बाजार और स्किल सेंटर स्थापित कर रहे हैं। सरकार ने 2021 में उन्हें पद्मश्री से नवाजा है।

          महान लक्ष्य का कोई एक निश्चित सूत्र नहीं है। जो बात पन्नों में लिखी जाती है विद्वान जन उसे कुछ पंक्तियों में बयाँ कर देते हैं। कोलकाता विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग के आचार्य स्व. विष्णुकान्त जी शास्त्री की ये पंक्तियाँ देखें :

          बड़ा काम करना है मुझको,

                       मैंने पूछा मन से।

                                    बड़ा लक्ष्य हो बड़ी तपस्या

                                           बड़ा हृदय मृदुवाणी।

                                                                      किन्तु अहम छोटा हो जिससे

                                                                                सहज मिले सहयोगी।

                                                                                                    दोष हमारा श्रेय राम का

                                                                                                        यह प्रवृत्ति कल्याणी।

और यही है महानता, सब कुछ करने की क्षमता होने पर भी यह स्वीकार करना कि सब दोष हमारे हैं सब उपलब्धि राम की है। 

(इन पंक्तियों को मुझ तक प्रेषित करने का श्रेय जाता है हमारे एक सुधि पाठक /  सब्सक्राइबर श्री श्री गोपालजी  डागा को जिन्हें यह हठात मिली अपनी पत्नी, सुधा भाभी के संग्रह में। उनका अतिशय आभार।)

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शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

आज की नहीं कल की सोचें


मेरा एक मित्र है, बल्कि सहपाठी। हम दोनों एक ही विद्यालय की एक ही कक्षा के छात्र थे। मेहनती है और लोगों से काम लेना भी आता है और दूसरों की सहायता करने में आगे भी। बागवानी का शौक है। छोटा सा बगीचा है जिसमें भांति-भांति के फल-फूल के पेड़ लगे हैं। एक दिन जब वह शहर के बाहर, किसी नर्सरी में पेड़-पौधे लेने जा रहा था, मैं भी उसके साथ हो लिया। नर्सरी क्या थी पूरा बगीचा था। छोटे-छोटे पौधों से लेकर आदम कद के पेड़ तक थे। पौधे की लंबाई के साथ-साथ उसके मूल्य में भी गुणात्मक वृद्धि। नर्सरी के मालिक ने बताया कि इन छोटे-बड़े पेड़ों को उखाड़कर नयी जगह लगाने तक का काम वे लोग करते हैं। आजकल यही काम ज्यादा हो रहा है। सोच रहा था कि इन्हें कौन और क्यों खरीदता होगा? उसने बताया कि विवाह आदि के अवसर पर कृत्रिमता को वास्तविकता का जामा पहनाने के लिए  ये भाड़े पर दिये जाते है। सत्य और असत्य को पृथक करना अपने आप में एक चुनौती बन गई है। लेकिन मुख्य बात यह थी कि अब शहरी लोग छोटे पौधे के बजाय, पैसों की परवाह किए बिना इन बड़े पेड़ों को ही ज्यादा खरीदते हैं। क्यों? अब न तो किसी के पास धैर्य है न ही दुनिया-समाज की परवाह। और तो और अपने बच्चों तक की भी नहीं। अगर क्यारी लेते हैं तो उसके फल तो अगली पीढ़ी ही खाएगी, खुद को तो चखने भी नहीं मिलेंगे, उसका आनंद तो कोई और ही लेगा, क्या मतलब निकलता है इसका? अगर मैं कर रहा हूँ, तो इसका आनंद भी मुझे मिलना ही चाहिये, नहीं तो क्या फायदा’? इतनी संकीर्ण सोच?   मैं तो बुत बना खड़ा उसकी बातें सुनता रह गया।

 

और इसके विपरीत, ये दो छोटी घटनाएँ:

 

पहला - बालमन

बाल मन एक वैज्ञानिक होता है। बात उन दिनों की है जब चीनी दस रुपए किलो थी। चाय पीने वालों के गुट में मेरा परिवार भी शामिल था। उस समय का तौल भी पक्का, सामान भी अच्छा। आज के जैसे नहीं कि अगर चीनी चालीस रुपए प्रति किलो, तो आधा किलो का इक्कीस रुपया और एक किलो का चालीस। यह जनसाधारण के आर्थिक शोषण का व्यापारियों द्वारा अन्वेषित नई परंपरा है। मुझे रोज सुबह एक रुपए का बड़ा-सा सिक्का मिलता था। मैं वह सिक्का लेकर दुकान पर पहुंचता, एक रुपए की चीनी ले  सीधे घर की तरफ चल पड़ता। जब अपने घर के पीछे, जहां एक बगीची थी, के पास पहुंचता मुट्ठी में चीनी भरकर, जैसे किसान खेतों में गेहूं और सरसों बोते हैं, वैसे ही बो देता था। बाकी चीनी मां को दे देता। चीनी वास्तविक तौल से कम होती थी। अतः शंका होना लाजिमी था। दुकानदार के पास शिकायत हुई। उसने साफ तौर पर मना किया। उसने कहा, 'मेरा तौल पक्का है। आपका बच्चा चीनी खा जाता होगा।' गुप्त रूप से तहकीकात हुई। मैं रंगे हाथों पकड़ा गया। बड़े भाई ने पूछा, 'ये क्या कर रहे हो?' मेरा जवाब था, 'चीनी के पेड़ उगेंगे, परिवार की समस्या ही समाप्त हो जाएगी' सच बालमन किसी वस्तु को कितनी अलग तरह से समझता है। कहाँ से ऐसे विचार उसके मन में पनपे होंगे? परिवार के भविष्य के बारे में सोचना कहाँ से सीखा होगा?

 

दूसरा - हम आजीवन ऋणी हैं 

          सारी जमीन-जायदाद यहीं रह जाएगी, धन-दौलत, गहने, कपड़े सब छूट जाएंगे। मेरे साथ जाएगा केवल वह, जो स्वयं के देह को क्षत-विक्षत करके भी मुझे अपने आगोश में लेगा, समा जाऊंगा उसी की गोद में, जब इस लोक की यात्रा पूर्ण करने के बाद परलोक के लिए जाऊंगा, केवल वही मेरे साथ जाएगा, वह 'वृक्ष' जो अपनी टहनियां देकर मेरी चिता सजाएगा और मेरे साथ-साथ अपना अस्तित्व भी मिटा डालेगा मुझे ईश्वर से 'मिलाने के लिए।'  ये विचार मेरे मन में बस यूं ही अचानक नहीं आ गए, बल्कि ये सच्चाई है हमारे समाज, घर-परिवार के बुजुर्गों की दूर-दृष्टि की, जिसने मुझे इन पेड़-पौधों, वृक्षों के प्रति अलग नजरिये से देखना सिखाया और इसके गवाह हैं हमारे आंगन में लगे हुए पेड़...।

          मेरे पिता द्वारा साठ के दशक में लगाए गए आम के पौधे, जो अब विशालकाय वृक्ष का आकार ले चुके हैं, जो अब हमारे घर के सदस्य, हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा हैं। वे आम के पेड़ आज भी मीठे फल दे रहे हैं, पूरे घर को छाया देकर तन कर खड़े हैं किसी रखवाले की तरह। उस पेड़ के आम का स्वाद हमारे घर की 4थी पीढ़ी उठा रही है। कितनी दूर की सोच थी हमारे पुरखों की, उस समय न तो कोई पर्यावरण दिवस था, न ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द, लेकिन अपनी इस कृति के रूप में वे आज भी जीवित हैं। हम आजीवन ऋणी हैं उनके इस अनमोल धरोहर के, उनके आशीर्वाद के रूप में, जो हमें आज भी उनकी याद दिलाता है। वृक्षों के रूप में मिला उनका अविस्मरणीय आशीर्वाद जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका अस्तित्व जीवित रखेगा।

          अपनी तो सब सोचते हैं। उससे दो कदम आगे चल कर बच्चों के भविष्य की, समाज की, दुनिया की भी सोचिये। हम बदलेंगे, युग बदलेगा।

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शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

पारिवारिक त्यौहार



 वार्षिक त्यौहार दीवाली ने हमारे घर पर दस्तक दे दी है। दीवाली के आगमन की तैयारी अब अपने अंतिम चरण में है। दीवाली, जो पहले भारत का त्यौहार था अब धीरे-धीरे इसे वैश्विक दर्जा भी मिलने लगा है। अनेक देशों ने इस दिन सार्वजनिक छुट्टी की घोषणा कर दी है, तो कई देशों ने इस दिन आंशिक-धार्मिक-सामुदायिक छुट्टी की घोषणा की है। कई विदेशी शहरों में भी सरकारी भवनों और पर्यटक इमारतों को रोशनी से सजाया जाता है, जिनमें मुस्लिम मुल्क भी शामिल हैं। प्रतिबंधित होने के बावजूद भी गाहे-बगाहे पटाखों की आवाज सुनने लगी है, पटाखों की रोशनी दिख रही है।  आकाश दीप के गुब्बारे और छतों पर जली आकाश दीप भी दिख रही हैं। लेकिन सबसे खास बात यह है कि दीवाली हमारा पारिवारिक त्यौहार है। इसे हम अपने घर-परिवार में एक साथ मानते हैं। पूरा परिवार एक घर में जमा होता है और वहीं इसे सानंद मनाया जाता है। कोई पार्टी नहीं, कोई दोस्तों की जमघट नहीं, कोई केक नहीं। आधुनिकता और कॉर्पोरेट ने इसमें काफी दखल-अंदाजी की है लेकिन इसके बावजूद भी आज भी यह प्रमुखतः पारिवारिक त्यौहार ही है।

          कई परिवारों ने बचत के नाम पर एक साथ जमा होना छोड़ दिया है। बच्चे, भाई-भाई, माँ-बाप अलग-अलग, अपने-अपने शहरों में मनाते हैं। एक दिन के लिए आ कर क्या करेंगे, बहुत खर्च हो जाएगा! नहीं मिलने का रामबाण बहाना है। क्या इतना भी नहीं कमा रहे हो कि एक दिन के लिए नहीं आ सको? पूरा परिवार एक साथ हो सके! नहीं ऐसा नहीं है, बस मानसिकता हो गई है, और इसमें बच्चों का कम माँ-बाप का ही हाथ ज्यादा है। आर्थिक तंगी-दबाव को नजरंदाज नहीं किया जा सकता लेकिन बचपन से ही हमने उन्हें ऐसी समझ डाल दी है – परिवार बाद में अन्य सब कुछ उसके पहले। जब बच्चे छोटे थे आप को उनकी जरूरत नहीं थी, तब आकर क्या करेंगे। अब वे बड़े हो गए तब जाकर क्या करेंगे?

          लेकिन इन सब विषमताओं के विपरीत  ऐसे परिवार हैं जिनके लिए परिवार ही सबसे पहले है, अन्य सब उसके पीछे। देश के एक छोटे से शहर में पला-बड़ा और बढ़ा यह छोटा सा परिवार समय के साथ-साथ बड़ा होता गया। बच्चों को पढ़ने के लिए देश की राजधानी दिल्ली एवं अन्य बड़े शहरों की तरफ मुंह मोड़ना पड़ा। धीरे-धीरे माँ-बाप को छोड़ एक-एक कर सब बच्चे अपने शहर से निकल गए।  लेकिन प्रारम्भ से ही माँ-बाप ने एक कड़े अनुशासन का पालन किया – साल भर कहीं भी रहें दीवाली के दिन पूरे परिवार को अपने शहर में  आना होगा। सबों को बुलाया जाता था और समय के साथ अब सब आते ही नहीं थे बल्कि इस दिन की प्रतीक्षा भी करते रहते थे। सब दीवाली पर जमा होते हैं, पूरा परिवार आपस में मिलता और मिलकर उत्सव मनाता है। समय बीतता गया बच्चे अब शहर ही नहीं देश तक भी सीमित नहीं रहे। लेकिन आज भी सब बच्चे दीवाली पर अपने उसी पैतृक घर में ही होते हैं, दीवाली एक साथ मनाते हैं। यही एक दिन होता है जब पूरा परिवार – पाँच लड़के, पाँच बहुएँ और बड़े-बड़े पोते-पोतियाँ सब – एक साथ होते हैं। बिना किसी शिकन के ही नहीं बल्कि बड़े चाव से।  यही कारण है कि इतना बड़ा परिवार, सब अलग-अलग शहरों और देशों में रहने के बाद भी एक साथ है, सबों में पांडवों जैसा संबंध है, एक दूसरे के लिए खड़े हैं, साल भर एक दूसरे के पास आते-जाते रहते हैं। वह बीज जो पिता ने बोया था आज घना वट वृक्ष हो गया है। और सब मिलकर इस वृक्ष को खाद-पानी देते हैं इसकी रक्षा करते  हैं, फलस्वरूप फल-फूल रहा है।

          और एक दूसरा परिवार है, मुझे हर समय यही लगता रहा कि परिवार आधुनकिता में लिपा-पुता है। लेकिन फिर एक घटना ने मेरे विचार बदल दिये। एक पारिवारिक आयोजन था। परिवार के सदस्यगण – बेटे, बहुएँ, पोते, पोतियाँ – अलग-अलग शहरों में रह रहे थे। परिवार के सब सदस्यों के पहुंचने की बात थी। उनके अलावा अन्य पारिवारिक सदस्य, मित्र, रिश्ते-नातेदार भी पहुँच रहे थे। पोते-पोतियाँ स्कूल में थे, मैंने सोचा सब लोग तो पहुँच ही नहीं सकते। सिर्फ पता लगाने मैंने एक को फोन किया और पूछा कि कौन-कौन जा रहे हैं?

हमलोग सब कोई जा रहे हैं?’

तो बच्चे किसके साथ रहेंगे?’ मेरा अगला प्रश्न था।

नहीं हम सब जा रहे हैं, बच्चे भी जा रहे हैं,’ फिर से वही जवाब मिला।

मैंने फिर कहा, लेकिन छुट्टी तो है नहीं, स्कूल मिस करवाओगे?’

और उपाय भी क्या है भैया,’ जवाब मिला।

स्कूल से अनुमति मिल गई है?’

नहीं, मैंने मांगी ही नहीं। छुट्टी तो तब मांगनी जब विकल्प हो, जाना तो है ही, तब अनुमति क्या मांगना। परिवार पहले है या स्कूल,’ उसने बिना रुके कहा, ‘छुट्टी तो सिर्फ बहाना होता है नहीं आने का, बच्चा हमारा है, परिवार हमारा है, वे कौन होते हैं हमारे परिवार के बीच में आने वाले?’

          जब ऐसे विचार हों तब परिवार चलते हैं। विघटनकारियों के विरुद्ध ऐसे ही आक्रामक होना पड़ता है, तब अस्मिता बचती है। समर्पण करने से हम अपनी सभ्यता, संस्कृति का नाश करते हैं। प्रायः यह देखने में आता है कि दुष्टों के प्रति हम डर कर दया का भाव रखते हैं और सज्जनों के प्रति आक्रामक हो जाते हैं। श्रीअरविंद तो यहाँ तक कहते हैं कि भेड़िये के द्वारा आक्रांत मेमने की तरह अपनी हत्या होने देने से कोई विकास नहीं होता, कोई प्रगति नहीं होती। भेड़िये पर आक्रमण कर अपनी और मेमने की रक्षा करनी होती है। दूसरों की नकल में विघटित मत होइये, संगठित होइये; दुर्जनों के प्रति समर्पित नहीं आक्रामक होना है। सुविधा भोगी नहीं, संरक्षक बनिये। अपने परिवार से प्रारम्भ कीजिये। अपने तीज त्यौहार अपनी संस्कृति के अनुसार मनाइये। समय के अनुसार बदलाव अवश्यंभावी है, जरूर कीजिये लेकिन उन्नति के लिए अवनति के लिए नहीं। हमारे तीज-त्यौहार जुड़ना सिखाते हैं, टूटना नहीं। आज की नहीं कल की सोचिये। दुनिया को बदलने के लिये अपने को बदलने की जरूरत है। पहले खुद बदलिये, फिर दुनिया को बदलिये। कल हमारा होगा।

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शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

प्रयास की पराकाष्ठा

                                                              हम बदलेंगे युग बदलेगा

           एक बार जंगल में भीषण आग लगी। सभी जानवर घबरा कर अलग-अलग दिशाओं में भाग रहे थे। चारों ओर भय का आतंक छाया हुआ था। अचानक एक चीते ने एक चिड़िया को अपने सिर के ऊपर से उड़ते देखा; लेकिन वह चिड़िया विपरीत दिशा में, जंगल की तरफ जहां आग लगी थी, उसी तरफ उड़ कर जा रही थी। वह आग की लपटों को देख कर भी बिना रुके उसी दिशा में जा रही थी।



(क्या आपको ऐसा लग रहा है कि यह कहानी अपने सुनी है? आप गलत हैं। अपने नहीं सुनी है। अंत तक सुनें फिर खुद ही निर्णय करें।)

          कुछ क्षण बीते, चीते ने उसे फिर से अपने ऊपर से उड़ते देखा, लेकिन इस बार उस दिशा में जिस दिशा में चीता जा रहा था। कुछ समय तक चीते ने उस चिड़िया की गतिविधि को बहुत ध्यान से देखा और महसूस किया कि वह चिड़िया जंगल की ओर तथा उसके विपरीत दिशा में कई बार आ- जा रही है।

          कुछ समय तक यह सब देखने के बाद चीते से रहा नहीं गया और उसने चिड़िया से पूछने का निश्चय किया; क्योंकि चिड़िया का यह व्यवहार बहुत ही विचित्र लग रहा था। चीते ने उससे पूछा, 'तुम बार-बार इधर-से-उधर क्यों उड़ रही हो ?'

          चिड़िया ने उत्तर दिया, 'मैं पहले झील की तरफ जाती हूँ और अपनी चोंच में पानी भर कर लाती हूँ तथा उसे जंगल में लगी आग को बुझाने के लिए डालती हूँ।"

          यह सुन कर चीता हंसने लगा। उसने चिड़िया से कहा, "क्या तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? क्या तुम सच में सोचती हो कि तुम अपनी इस छोटी-सी चोंच के पानी से उस भयंकर आग को बुझा सकती हो ?"

          नहीं’, चिड़िया ने कहा, 'मुझे पता है कि मैं आग बुझाने में सफल नहीं हो पाऊँगी, लेकिन जंगल मेरा घर है। जंगल मुझे खाने के लिए फल देता है, यह मुझे और मेरे परिवार को आश्रय देता है। इस सब के लिए मैं जंगल की बहुत आभारी हूँ। और जब मैं जंगल के फल-फूल खाकर, उनके बीजों को इधर-उधर गिरा देती हूँ तो ये बीज जंगल को फैलाने और घना करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मैं इस जंगल का एक हिस्सा हूँ और यह जंगल मेरे जीने का एक महत्वपूर्ण भाग है। मुझे पता है कि मैं इस भयंकर आग को नहीं बुझा सकती लेकिन मुझे अपनी तरफ से पूरी कोशिश करनी ही होगी।

          जब चीते और चिड़िया का यह संवाद चल रहा था, उसी समय जंगल में भागने वाले अन्य जीव-जन्तु भी रुक कर उनका संवाद सुनने लगे। बहुतों ने तो चिड़िया को पागल समझा और उसकी हंसी उड़ते हुए यह कहते हुए भाग निकले कि उसके अकेले के करने से क्या होगा। लेकिन कुछ को उसकी बात में सार नजर आया और वे भी अपनी-अपनी समझ और क्षमता के अनुसार जंगल की आग बुझाने में लग गए।

          उस समय वन में रहने वाली दिव्य आत्माएं इसे बहुत गहराई से अनुभव कर रही थीं। वे सब जंगल के प्रति चिड़िया और फिर उसके साथ लगे अन्य प्राणियों की प्यार भरी भावनाओं से बहुत प्रसन्न हुईं और एक चमत्कार हुआ, जंगल में हुई मूसलाधार बारिश ने भीषण आग को शान्त कर दिया।

          क्या आप अपने जीवन में चमत्कारों को अनुभव करना चाहते हैं, चमत्कार करना चाहते हैं? यदि हां, तो हमेशा अपना शत-प्रतिशत दीजिये। यह विचार मत कीजिये कि अकेले के करने से क्या होगा? अगर हमारे दिल में प्यार, कोमलता, विनम्रता और सहजता की भावना है, अगर हम  इतने रचनात्मक बन सकते हैं तो हम मानवता को अलग स्तर पर ले जाने में सक्षम हो सकते हैं। अगर कुछ होगा तो हमारे अकेले के करने से ही होगा। हम बदलेंगे, युग बदलेगा।

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शुक्रवार, 12 मई 2023

रेल के डब्बे की खुशबू

हम बदलेंगे, युग बदलेगा



यह संस्मरण है एक युवक का। वह चेन्नई में कार्यरत था और पैतृक घर भोपाल में था। एक दिन उसे पिताजी का तुरंत घर आने का समाचार मिला। वह आनन-फानन में रेलवे स्टेशन पहुँचा
, आरक्षण  की कोशिश की, लेकिन आरक्षण नहीं मिला। प्लेटफार्म पर भोपाल की गाड़ी खड़ी थी लेकिन उसमें  बैठने की जगह नहीं थी। मरता क्या नहीं करता, बिना कुछ सोचे-समझे सामने के स्लीपर क्लास के डिब्बे में  घुस गया। डिब्बे के अन्दर भी बुरा हाल था। जैसे-तैसे जगह बनाने हेतु बर्थ पर एक सज्जन को लेटे देखा तो उनसे याचना करते हुए बैठने के लिए जगह मांग ली। सज्जन मुस्कुराये और उठकर बैठ गए और बोले-- "कोई बात नहीं, आप यहाँ बैठ सकते हैं।"

          उन्हें धन्यवाद दे, वहीं कोने में बैठ गया। थोड़ी देर बाद ट्रेन चल पड़ी और सभी लोग व्यवस्थित हो गए और सबों को बैठने की जगह मिल गई। लोग अपने साथ लाया हुआ खाना खाने लगे, पूरे डिब्बे में भोजन की महक भर गयी। मैंने अपने सहयात्री को देखा और सोचा, बातचीत का सिलसिला शुरू किया जाये। मैंने कहा-- "मेरा नाम आलोक है और मैं इसरो में वैज्ञानिक हूँ। आज़ जरुरी काम से अचानक मुझे घर जाना था इसलिए साधारण स्लीपर क्लास में चढ़ गया, वरना मैं वातानुकूलित (एसी) श्रेणी से कम में यात्रा नहीं करता।" वे मुस्कुराये और बोले-- "वाह ! तो मेरे साथ एक वैज्ञानिक यात्रा कर रहे हैं। मेरा नाम जगमोहन राव है। मैं वारंगल जा रहा हूँ। उसी के पास एक गाँव में मेरा घर है।" इतना कह उन्होंने अपना बैग खोला और उसमें से एक डिब्बा निकाला। वे बोले -- “ये मेरे घर का खाना है, आप लेना पसंद करेंगे ?” मैंने संकोचवश मना कर दिया और अपने बैग से सैंडविच निकाल कर खाने लगा। जगमोहन राव! ये नाम कुछ सुना-सुना और जाना-पहचाना सा लग रहा था, परन्तु इस समय याद नहीं आ रहा था।

          कुछ देर बाद सभी जैसे-तैसे सोने की कोशिश करने लगे। आलोक के सामने एक परिवार बैठा था, माता-पिता और दो बड़े बच्चे। वे भी खाना खा कर सोने लगे। मैं बर्थ के पैताने में उकड़ू बैठ कर अपने मोबाइल में गेम खेलने लगा।

          रेलगाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी। अचानक मैंने देखा कि सामने वाली बर्थ पर बच्चों के पिता तड़पने लगे और उनके मुंह से झाग निकलने लगा। उनका परिवार भी घबरा कर उठ गया और उन्हें पानी पिलाने लगा, परन्तु वे कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं थे। मैंने चिल्ला कर पूछा- अरे! कोई डॉक्टर को बुलाओ, इमरजेंसी है।" उनके परिवार के लोग उन्हें असहाय अवस्था में देख रोने लगे। तभी मेरे साथ वाले जगमोहन राव नींद से जाग गए। मैंने उन्हें सब बताया। मेरी बात सुनते ही वे लपक कर बर्थ के नीचे से अपना सूटकेस निकाले, स्टेथेस्कोप निकाला और सामने वाले सज्जन के सीने पर रख कर धड़कने सुनने लगे। एक मिनट बाद उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें दिखने लगीं। उन्होंने कहा कुछ नहीं और सूटकेस में से एक इंजेक्शन निकाला और सज्जन के सीने में लगा दिया और उनका सीना दबा-दबा कर, मुंह पर अपना रूमाल लगा कर अपने मुंह से सांस देने लगे। कुछ मिनट तक सी.पी.आर. तकनीक से कृत्रिम रूप से स्वांस देने के बाद मैंने देखा कि रोगी सहयात्री का तड़पना कम हो गया। जगमोहन राव जी ने अपने सूटकेस में से कुछ और गोलियां निकालीं और परिवार के बेटे से बोले-- “बेटा!  ये बात सुनकर घबराना नहीं। आपके पापा को गंभीर हृदयाघात आया था, पहले उनकी जान को ख़तरा था परन्तु मैंने इंजेक्शन दे दिया है और ये दवाइयां उन्हें दे देना।”

उनका बेटा आश्चर्य से बोला-- “पर आप कौन हो?"

वे बोले-- “मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं इनकी तबीयत के बारे में पूरा विवरण और दवाइयां पर्ची पर लिख देता हूँ, अगले स्टेशन पर उतर कर आप लोग इन्हें अच्छे अस्पताल ले जाइएगा।" 

          उन्होंने अपने बैग से एक लेटरपेड से एक पर्ची निकाली और जैसे ही मैंने उस लेटरपेड पर उनका व्यक्तिगत विवरण पढ़ा, मेरी याददाश्त वापस आ गयी। उस पर छपा था - डॉक्टर जगमोहन राव हृदय रोग विशेषज्ञ, अपोलो अस्पताल, चेन्नई। अब तक मुझे भी याद आ गया कि कुछ दिन पूर्व मैं जब अपने पिता को इलाज के लिए अपोलो हस्पताल ले गया था, वहाँ मैंने डॉक्टर जगमोहन राव के बारे में सुना था। वे अस्पताल के सबसे वरिष्ठ, विशेष प्रतिभाशाली हृदय रोग विशेषज्ञ थे। उनसे मिलने का समय लेने के लिए महीनों लगते थे। मैं आश्चर्य से उन्हें देख रहा था। एक इतना बड़ा डॉक्टर रेल की साधारण श्रेणी में यात्रा कर रहा था और मैं एक छोटा-सा तृतीय श्रेणी वैज्ञानिक घमंड से वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा की बात कर रहा था और ये इतने बड़े आदमी इतने सामान्य ढंग से पेश आ रहे थे। मैंने उत्सुकतावश उनसे पूछा-- “डॉक्टर साहब! आप तो आराम से, वातानुकूलित श्रेणी, में यात्रा कर सकते थे फिर सामान्य श्रेणी में यात्रा क्यूँ?"

          वे मुस्कुराये और बोले-- “मैं जब छोटा था और गाँव में रहता था, तब मैंने देखा था कि रेल में कोई डॉक्टर उपलब्ध नहीं होता, खासकर दूसरे दर्जे में। इसलिए मैं जब भी घर या कहीं जाता हूँ तो साधारण क्लास में ही सफ़र करता हूँ। न जाने कब किसे मेरी जरूरत पड़ जाए! मैंने डॉक्टरी लोगों की सेवा के लिए ही की थी। हमारी पढ़ाई का क्या फ़ायदा यदि हम किसी के काम न आ पाये?"

          इसके बाद सफ़र उनसे यूं ही बात करते बीतने लगा। सुबह के चार बज गए थे। वारंगल आने वाला था। वे  यूं ही मुस्कुरा कर लोगों का दर्द बाँट कर, गुमनाम तरीके से मानव सेवा कर, अपने गाँव की ओर निकल लिए और मैं उनके बैठे हुए स्थान से आती हुई खुशबू का आनंद लेते हुए अपनी बाकी यात्रा पूरी करने लगा।

          अब मेरी समझ में आया था कि इतनी भीड़ के बावजूद डिब्बे में खुशबू कैसे फैली? ये खुशबू उन महान व्यक्तित्व और पुण्य आत्मा की खुशबू थी जिसने मेरा जीवन और मेरी सोच दोनों को महका दिया।

          किसी के भी बदलने से कुछ भी बदलने वाला नहीं है, न सरकार के - न विपक्ष के, न धर्म के - न अध्यात्म के, न प्रशासन के - न विधायक के लेकिन अगर - हम बदलेंगे, युग बदलेगा।



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