शनिवार, 20 मई 2017

रोमै रोला का भारत


बोलते पन्ने
(रोमैं रोलां, फ्रांस के साहित्यकार, नाट्यकार, निबंध लेखक एवं कला-इतिहासकार, से शायद हम सभी परिचित हैं। उन्हे साहित्य के नोबल पुरस्कार से भी 1915 में सम्मानित किया गया था। वे भारतीयों के काफी संपर्क में रहे और भारत से बहुत प्रभावित भी रहे। अंग्रेज़ अपनी पूरी ताकत से भारत के दुष्प्रचार में लगे हुवे थे। अंग्रेजों का यह प्रचार तंत्र इतना मजबूत था कि पूरी दुनिया इसे ही सही मानती रही, दूसरी कोई सही तस्वीर सामने थी भी नहीं। उसी समय रोमैं रोलां ने हमारा और हमारे ज्ञान का आकलन किया और उसे विश्व के मंच पर रखा। इनकी पुस्तकों से ही यूरोपियन और अमेरीकन को हमारी वास्तविक छवि दिखी और उनके विचारों में हमारे प्रति सकारात्मक बदलाव आया। रोमैं  रोलां ने भारत और अनेक भारतीय मनीषियों पर पुस्तकें लिखीं। फ्रांसीसी में छपी उनकी मूल फ्रेंच डायरी “INDE” का हिन्दी में अनुवाद श्री सत्यनाराण शर्मा  ने किया जो “रोमैं रोलां का भारत” के नाम से 1984 में प्रथम बार प्रकाशित हुई। यह बहुचर्चित पुस्तक,  दरअसल पुस्तक नहीं बल्कि उनकी रोज की डायरी के वे पन्ने हैं जिनका भारत या भारत कि विभिन्न समस्याओं, व्यक्तियों से सीधा या परोक्ष संबंध रहा। उन छँटे हुवे पन्नों में से भी कुछ और छाँटे हुवे पन्ने मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

रोमै रोला
स्वाभाविक प्रश्न है, मेरी इस पुनरावृत्ति करने का उद्देश्य क्या है?
झूठ का भस्मासुर अट्टालिकाओं पर चढ़, गला फाड़ फाड़ कर जिस प्रकार से बार बार झूठ बोल रहा है, झूठ ही सच प्रतीत होता है। सत्य को इस का गुमान है कि वह खुद अपने प्रकाश और बल से सामने आ ही जाएगा, लेकिन वह दो गज जमीन के अंदर तड़ फड़ा रहा है। न तो कहीं दिखाता है न सुनता है। भूले बिसरे और कहीं सामने पड़ भी जाए तो उसपर तुरंत कोई रंग पोत कर झूठ का बिल्ला लग दिया जाता है। इस अवस्था में भले ही गला न फाड़ें लेकिन सत्य को भी बार बार कहने की आवश्यकता है, ताकि सत्य की सुगंध फैल सके। हाँ, गांधी वचनानुसार ध्यान रखना होगा कि सत्य वचन कहते समय कोई आतिशयोक्ति नहीं, कोई घटाव बढ़ाव नहीं। तो, पेश है उस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद के कुछ पृष्ठ, आपकी जानकारी के लिए।)

अक्तूबर 1916जैसा की उम्मीद की जा सकती थी, एशियाई लोग योरोप की हीनता को समझने लगे हैं। पिछले 18 जून को रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने टोकियो के इंपीरियाल (शाही) विश्वविद्यालय में जो भाषण दिया है उसमें जापान को यूरोपीय सभ्यता से अपने आपको बचाने की चेतावनी दी है।
रविन्द्र नाथ टैगोर

“...... जापान एशिया का अग्रदूत बन गया है। वह नये-नये रास्तों पर एशिया को अपने पीछे आने का आवाहन कर रहा है। लेकिन ओ जापानियों! तुम आधुनिक सभ्यताओं को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं कर सकते। तुम्हारी प्राच्य प्रतिभा तुम पर यह एक ज़िम्मेदारी सौंपती है कि तुम उसमें समुचित परिवर्तन करो। तुम्हारी जिम्मेदार बहुत बड़ी है। यह तुम्हारा ही काम है कि जहां खोखली यांत्रिकता है वहाँ जीवन का भी सन्निवेश हो, जहां केवल स्वार्थ का बोलबाला है, वहाँ मानवीय हृदय का स्पंदन हो, जहां पाशविक बल और सफलता का ही एक छात्र राज्य है, वहाँ प्राणमय और समरस जीवन का संचार हो। इतना ही नहीं, वहाँ सत्य और सौंदर्य की भी स्थापना हो। जो सभ्यता यूरोप से हम तक पहूंची  है वह सर्वभक्षणी और प्रभुत्वशाली सभ्यता है। जिन समुदायों पर यह आक्रमण करती है,  उन्हे यह चूस डालती है। जो जातियाँ उसकी इस दिग्विजय यात्रा में बाधा डालती है, उन्हे यह  नष्ट-भ्रष्ट कर देती हैं। यह आदमखोर प्रवृत्तियों वाली राजनीतिक सभ्यता है। यह दुर्बलों को सताती है और उनका शोषण करके खुद समृद्ध होती है। यह एक जतवे (grinder) की तरह है। यह चारों तरफ ईर्ष्या, द्वेष और कलह के बीज बिखेरती है और अपने सामने पड़ जाने वाली हर वस्तु को नष्ट करती हुई आगे बढ़ती है। यह एक मानवीयता विहीन वैज्ञानिक सभ्यता है। उसका एकमात्र मूल लक्ष्य स्वयं को ही सम्पन्न करना है। इसी लक्ष्य पर अपनी समूची शक्ति को केन्द्रित किया हुआ है, इसी पर ही इसकी मूल शक्ति टिकी हुई है। किसी लखपति की तरह यह अपनी आत्मा को मार कर सम्पति का जखीरा इकट्ठा करती है। यूरोपियन सभ्यता देश-भक्ति के नाम पर अपने दिये गए वचनों-प्रतिज्ञाओं को तोड़ती है और बेशर्मी के साथ अपने झूठ के जाल फैलती है। “लाभ” के मंदिर में, देवता मानकर जिसकी पूजा करती है, उसकी यह विराट दानवी मूर्तियाँ खड़ी करती है। बिना किसी हिचक के हम यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि यह सब सदा के लिए नहीं टिक सकता। क्योंकि संसार में सब पर शासन करनेवाला एक सार्वभौमिक नैतिक नियम व्यक्तियों की तरह समूहों पर भी लागू होता है। आप किसी राष्ट्र के नाम पर इस नियम की अवहेलना नहीं कर सकते। इसके साथ ही व्यक्तिगत रूप से भी आप इसके द्वारा मिले उन लाभों को अर्जित नहीं कर सकते जो यह उन लोगों को प्रदान करता है, जो इसका सम्मान करता है। नैतिकता के समस्त आदर्शों को नष्ट कर डालने का असर समाज के प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है। वह दुर्बलता और जर्जरता विक्षिप्तता और आत्म अनास्था के चक्रव्यूह में फंस जाता है। मनुष्य में जो कुछ भी पवित्र है, वह सब नष्ट हो जाता है ....... वह मानो अपने प्राण खो बैठता है। ......यह ईश्वरीय नियमों के प्रति बगावत है जिसका अंत अराजकता में ही हो सकता है।”

(इस भाषण का उल्लेख तक किसी भी प्रसिद्ध यूरोपीय समाचार पत्र ने नहीं किया। यह 9 अगस्त 1966 में “दि आउट लुक – न्यूयॉर्क में प्रकाशित हुआ।)