शुक्रवार, 31 अगस्त 2018

संस्कार – कब?किसे?क्यों? कैसे?

संस्कारित करने  के लिए न पाठ पढ़ाना पड़ता है न ही पुस्तक और न ही स्कूल भेजना  पड़ता है। संस्कार तो अपने आप वातावरण में, समाज में, घर में उठते-बैठते जो देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं उनसे मिलते हैं और इनका प्रभाव भी चिरस्थाई होता है। बच्चों को संस्कारित करने के लिए जरूरी होता है कि हम खुद सजग रहें, संस्कार समझें। बच्चे हमारी बातों को बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं, समझते हैं और ग्रहण करते हैं।   

एक संत अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिए निकले। एक दरवाजे पर पहुँच कर उन्होने आवाज लगाई, भिक्षा दो माई। आवाज सुनकर एक छोटी बच्ची बाहर आई और संत से बोली, “बाबा, हम खुद गरीब हैं, आपको देने के लिए इस वक्त हमारे पास कुछ नहीं है”। संत ने बच्ची से कहा, “कोई बात नहीं बेटी, इंकार मत करो, अपने आँगन की धूल ही उठाकर इस भिक्षापात्र में डाल दो”। बच्ची ने एक चुटकी धूल उठाई और भिक्षा पात्र में डाल दी। संत के साथ खड़े उस शिष्य ने पूछा, “गुरुजी, आपने धूल डालने के लिए क्यों कहा, धूल भी कोई भिक्षा होती है क्या”? संत ने उत्तर दिया, “बेटा, अगर वह बच्ची आज साफ इंकार कर देती तब फिर भविष्य में भी कभी कुछ नहीं दे पाती। आज उसने धूल दी है तो क्या हुआ, उसके भीतर देने का संस्कार तो पड़ ही गया। आज धूल दी है, कल देने की  भावना जागेगी, समर्थ होगी तब फल-फूल भी जरूर देगी”।

- राजेन्द्र केडिया 

शुक्रवार, 24 अगस्त 2018

अटलजी की अनुभूतियां

अटलजी केवल राजनीतिज्ञ और भारत के प्रधान मंत्री ही नहीं थे, बल्कि एक सशक्त व्यक्तित्व एवं  कवि भी थे। कवि सम्मेलनों में उनकी धूम रहती और उन्होने कोलकाता में एकल कवि सम्मेलन भी  सफलता पूर्वक किया। राष्ट्रियता और चुनौती के अलावा अनुभूति के स्वर भी उनकी कलम से मुखरित हुए हैं। प्रस्तुत है उनकी दो अनुभूति की कविताओं की कुछ बानगी:

हरी हरी दूब पर
ओस की बूँदें
अभी थीं
अब नहीं है।
ऐसी खुशियाँ
जो हमेशा हमारा साथ दें
कभी नहीं थीं,
कहीं नहीं हैं।
                        सूर्य एक सत्य है
                        जिसे झुठलाया नहीं जा सकता
                        मगर ओस भी तो एक सच्चाई है
                        यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है
                        क्यों न मैं क्षण-क्षण को जीऊँ?
                        कण-कण में बिखरे सौंदर्य को पीऊँ?
                                    सूर्य तो फिर भी उगेगा,
                                    धूप तो फिर भी खिलेगी,
                                    लेकिन मेरी बगिची की
                                    हरी हरी दूब पर,
                                    ओस की बूंद
                                    हर मौसम में नहीं मिलेगी।

                                                ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जो कल थे
वे आज नहीं हैं।
जो आज हैं,
वो कल नहीं होंगे।
                        होने, न होने का क्रम
                        इसी तरह चलता रहेगा,
                        हम हैं, हम रहेंगे,
                        यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।
सत्य क्या है?
                        होना या
                        न होना?
                        या दोनों ही सत्य हैं?
जो है, उसका होना सत्य है,
जो नहीं है, उसका न होना सत्य है।
                        मुझे लगता है कि
                        होना-न-होना एक ही सत्य के
                        दो आयाम हैं,
                        शेष सब समझ का फेर है,
                        बुद्धि के व्यायाम हैं।
किन्तु न होने के बाद क्या होता है,

यह प्रश्न अनुत्तरित है।

शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

अहिंसा का पराक्रम और शौर्य

आप पहचानते हैं चंद्रशेखर आजाद को, भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, राजगुरु और इन जैसे अनके स्वतन्त्रता संग्रामियों को। उनके बलिदान को याद करते हैं और उनके स्मारकों पर फूलों की माला भी चढ़ाते हैं। लेकिन हमने, विद्यालय के छात्र, जिनकी अभी तक मूंछे भी नहीं आई हैं, बापू के आवाहन पर अहिंसा पर डटे रह कर अपना बलिदान दिया उसे भूल गए? मैं, उमाकांत प्रसाद सिन्हा, राम मोहन रॉय सेमीनरी कक्षा ९ का छात्र। मुझे उस दिन का एक एक क्षण याद है। ८ अगस्त को बापू ने भारत छोड़ो का नारा दिया। करेंगे या मरेंगे के संकल्प के साथ अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के आवाहन पर १४ अगस्त १९४२ के दिन, हम पटना में विद्यालय के ६००० छात्र, सुबह सुबह पटना सचिवालय के सामने खड़े थे। हमारा एक ही उद्देश्य था, सचिवालय पर तिरंगा फहराना, बिना किसी जान व माल की हानि के। जिलाधीश आरचर के नेतृत्व में ब्रिटिश इंडियन मिलिट्री पुलिस हमें रोकने खड़ी थी और उनके सामने हम निहत्थे विद्यार्थी तिरंगा फहराने के लिए कटिबद्ध। इस जद्दोजहद में दोपहर के दो बज गए। लेकिन हम टस से मस नहीं हुए। आरचर परेशान। छात्रों ने न पुलिस पर हमला किया न किसी भी प्रकार की हिंसात्मक कार्यवाही। आखिर आरचर से रहा नहीं गया। तंग आकर उसने गोली चलाने का हुक्म दिया। लेकिन यह क्या? बिहार और राजपूत पुलिस ने अहिंसा पर अडिग निहत्थे विद्यार्थियों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया।  आरचर ने विवश हो कर उन्हे हटा कर गोरखा सैनिकों को खड़ा किया।

झण्डा मेरे, उमाकांत प्रसाद सिन्हा के  ही हाथ में था। ठाँय ..... बंदूक की गोली सनसनाती हुई मेरे सीने को चीरती हुई चली गई। मैं लड़खड़ा गया।  भारत माता की जय...देखो झण्डा गिरने न पाये।   मैं गिर पड़ा लेकिन हमारा झण्डा नहीं गिरा मेरी ही सहपाठी रमानन्द सिंह ने उसे थाम लिया। और एक गोली चली – ठाँय। जय हिन्द। रमानन्द गिर पड़ा और इस बार झंडे को पकड़ा कक्षा १०  पटना कोलेजियट विद्यालय के छात्र सतीश प्रसाद झा ने।  फिर एक गोली ........सतीश गिर पड़ा लेकिन गिरते गिरते झण्डा थमा दिया बिहार राष्ट्रीय कॉलेज के २रे वर्ष के विद्यार्थी जगतपति कुमार को। जगतपति के चेहरे पर जरा भी भय नहीं, दृड़ निश्चय के साथ झण्डा हाथ में लिए आगे बढ़ा। और तभी ढिशूम ....... अब झंडे को थामा देवीपद चौधुरी, मिल्लर हाइ इंग्लिश स्कूल के कक्षा ९ के छात्र ने। गोली भी खाएँगे, झण्डा हम लहराएँगे।  और हाँ, ठाँय ..... उसके सीने को भी एक गोली भेदती हुई चली गई। उसके पीछे खड़ा राजेंद्र सिंह जरा भी नहीं घबराया और झंडे को पकड़  लिया। महात्मा गांधी की जय..... ठाँय, और राजेंद्र भी शहीद हो गया। अब बारी थी पुनपुन इंग्लिश हाइ स्कूल के कक्षा ९ के छात्र राम गोविंद सिंह की। उस झंडे को हाथ में उठाए दौड़ पड़ा अपने लक्ष्य की तरफ। ठाँय.... अगली गोली ने उसे भी नहीं छोड़ा। देखते ही देखते ७ छात्र शहीद हो गए। लेकिन छात्रों ने हार नहीं मानी। देश और गांधी की लाज रखते हुए,  अहिंसा पर डटे, छात्रों ने आखिरकार सचिवालय पर झण्डा फहरा ही दिया। यह है दास्तान विद्यालय के ७ छात्रों की जिन्होने कुर्बानियाँ दी और अमर हो गए।


जहां स्वतन्त्रता के लिए अनेक क्रांतिकारियों ने अपना बलिदान दिया वहीं बापू के आवाहन पर, अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए, अपने सर्वस्व – जान, माल एवं ज्ञान को लुटाने वाले लाखों में हैं। उनके बारे में केवल उनके परिवार, गाँव वाले ही जानते हैं। उनका नाम इतिहास में कहीं दर्ज नहीं है। न कवियों ने उनके गीत गए, न कहानिकारों ने उनकी कहानी लिखी, न उनका स्मारक बना, न सभाएं हुईं, न तमगे मिले, न पेंशन, न स्वतन्त्रता संग्रामी का खिताब। एक व्यक्ति के आवाहन पर लाखों की संख्या में अहिंसात्मक तरीके से अपना सर्वस्व लुटाने की ऐसी मिसाल विश्व इतिहास में कहीं नहीं है।

शहीद स्मारक, पटना

शुक्रवार, 10 अगस्त 2018

एक बार आजमाइए

एक बार आजमाइए                                                                      

कहीं आप भी अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए ऐसा ही कोई रास्ता तो नहीं अपना रहे?

इसके बावजूद कभी न कभी तो यह हो ही जाता कि एकाध फ़ाइल उन्हे निपटानी पड़ ही जाती। तब वे अपने नोट में इतने सारे
·        यदि,
·        परन्तु,
·        लेकिन,
·        अर्थात,
·        जैसा कि चाहा गया है,
·        गो कि,
·        जहां तक इसका प्रश्न है तो,
·        अनुमान है,
·        जैसा प्रतीत होता है,
·        सम्भव है,
·        विवेचना के बाद ही
जैसे वाक्य डाल देते कि उस नोट के आधार पर कोई निर्णय लिया जाना असम्भव होता या जो लेता वही फंस सकता था।                                                       (ज्ञान चतुर्वेदी से प्रेरित)


जिम्मेदारियों से घबराएँ नहीं। उन्हे टालने के बदले आगे बढ़ कर लें। ज़िम्मेदारी ले नहीं सकते तो कम से कम उनका साथ दीजिये, जो जिम्मेदारियाँ लेते हैं। टांग खींचना बहुत आसान है, लेकिन बोझ उठाना बहुत कठिन। टांग खींचना अशान्ति उत्पन्न करता है और बोझ उठाना शांति। एक बार आजमाइए।