संस्कारित
करने के लिए न पाठ पढ़ाना पड़ता है न ही पुस्तक
और न ही स्कूल भेजना पड़ता है। संस्कार तो
अपने आप वातावरण में, समाज में, घर में उठते-बैठते जो देखते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं उनसे मिलते हैं और इनका प्रभाव
भी चिरस्थाई होता है। बच्चों को संस्कारित करने के लिए जरूरी होता है कि हम खुद
सजग रहें, संस्कार समझें। बच्चे हमारी बातों को बड़ी
सूक्ष्मता से देखते हैं, समझते हैं और ग्रहण करते हैं।
एक संत
अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिए निकले। एक दरवाजे पर पहुँच कर उन्होने आवाज लगाई, भिक्षा दो माई। आवाज सुनकर एक छोटी बच्ची बाहर आई और संत से बोली, “बाबा, हम खुद गरीब हैं, आपको
देने के लिए इस वक्त हमारे पास कुछ नहीं है”। संत ने बच्ची से कहा, “कोई बात नहीं बेटी, इंकार मत करो, अपने आँगन की धूल ही उठाकर इस भिक्षापात्र में डाल दो”। बच्ची ने एक
चुटकी धूल उठाई और भिक्षा पात्र में डाल दी। संत के साथ खड़े उस शिष्य ने पूछा, “गुरुजी, आपने धूल डालने के लिए क्यों कहा, धूल भी कोई भिक्षा होती है क्या”? संत ने उत्तर
दिया, “बेटा, अगर वह बच्ची आज साफ
इंकार कर देती तब फिर भविष्य में भी कभी कुछ नहीं दे पाती। आज उसने धूल दी है तो
क्या हुआ, उसके भीतर देने का संस्कार तो पड़ ही गया। आज धूल
दी है, कल देने की
भावना जागेगी, समर्थ होगी तब फल-फूल भी जरूर देगी”।
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राजेन्द्र केडिया
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