शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

दुखियारी को ईश्वर ने भेजे रूपये?                            

एक गरीब दुखियारी बुढ़िया। ईश्वर पर अपार श्रद्धा, विश्वास एवं भक्ति। आवश्यकता पड़ गई 100 रूपये की। कहीं से भी नहीं मिले। अंत में हार कर भगवान से ही मांगने का मन बना लिया, और एक पोस्टकार्ड पर लिखा, मेरे भगवान, मुझे सौ रूपये की सख्त जरूरत है। मुझे कहीं से नहीं मिल रहे हैं। जैसे भी हो आप भिजवाओ। पता लिखा - भगवान, स्वर्ग, और पोस्ट कर दिया।

पोस्टमैन ने देखा तो पोस्टमास्टर को दिखाया। पोस्टमास्टर ने पोस्ट ऑफिस में सब से बात की और रूपये जमा करने शुरू किए। लेकिन सिर्फ ८० रूपये ही जमा हुए। उन्होने सोचा कि यही भेज दिया जाए। 

लौटती डाक से बुढ़िया ने दूसरा खत लिखा, भगवान, तूने तो १०० रूपये ही भेजे थे, लेकिन बीच में २० रूपये इन लोगों ने खा लिए


प्रशासन और जनता दो विपरीत धूरियों पर खड़े हैं। समस्या यह है कि दोनों चाहते हैं कि एक विश्वास का माहौल बने। लेकिन पहल कौन करे? दोनों का कहना है “पहले तुम”। यह आवश्यक है कि प्रशासन जनता में अपनी छवि इतनी सुधारे कि कोई उन पर अविश्वास न करे, और जनता प्रशासन पर इस कदर विश्वास करे के जनता को छलते हुए प्रशासन अपने को दोषी समझे। 

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2018

राजनीति के लिए पात्रता                                  
विधायक द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ता के लिए लिये गए साक्षात्कार का एक अंश:

उन्होने उससे कुछ शुरुआती बातें जानी, जैसे नाम, पिताजी का नाम, निवास वगैरह। फिर बोले, अभी क्या करते हो?”
“जी, कुछ नहीं करता उसने कहा।
“पढ़े कितना हो”?
“जी, एम.ए. किया है”।
“फिर कुछ क्यों नहीं करते”?
“क्या करूँ सर, बहुत कुछ ट्राइ किया लेकिन कहीं सक्सेस नहीं मिली....”
“तो अब राजनीति में आना चाहते हो”? दादा ने बीच में ही कहा।
“जी....”
“क्यों? राजनीति में आकार क्या करोगे”? दादा पूछ रहे थे।
एकबारगी यह प्रश्न चक्कर में डाल गया। फिर उसने कह दिया, “जी, जैसा आपलोगों का आदेश मिलेगा, और फिर.....”
“ठीक है,” बीच में ही दादा ने कहा, “अब मुझे एक-दो बात और जाननी है.”
ठीक है सर”
“सबसे पहले तो यह बताओ कि मुहल्ले के लोगों से तुम्हारे संबंध कैसे हैं? उनसे कोई सम्पर्क  है तुम्हारा? या नहीं है”? दादा ने जानना चाहा।
“जी, बहुत अच्छे सम्बंध हैं, सभी से...... किसी से भी कभी मन मुटाव या लड़ाई झगड़ा नहीं हुआ.....सभी मेरी इज्जत करते हैं......”
और उनमें से तुमसे डरते कितने लोग हैं”? दादा ने आगे पूछा।
“जी....?” वह हकला गया, “जी, डरने की तो कोई बात ही नहीं है उसके मुंह से निकला।
“ठीक है अब तुम जाओ” यह कह कर दादा ने रमेन्द्र की तरफ देखा।
वह अपात्र था।

लोकलीला, राजेंद्र लहरिया, पृ. ८७

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018


शोर, अच्छा लगता है!                                    

पटाखों के शोर पर प्रतिबंध लगाना संभव हुआ है।
माइक का शोर भी नियंत्रत किया गया है।
शायद वाहनों के हॉर्न के शोर पर एतराज नहीं, अत: बदस्तूर चल रहा है।
अगर खेल के मैदान में दर्शकों के शोर को नियंत्रित क्या जाय तो?
जन्म जात बच्चा अगर शोर न मचाए तो?
बच्चे अगर शोर न मचाएँ, बिना वजह ही सही, तो क्या अच्छा लगेगा?
बच्चे अगर कुछ कह रहे हैं, बोल रहे हैं तो उन्हे बोलने दें। वे क्या बोल रहे हैं? उसे चुप रहने के लिए कहने के बजाय यह समझने की कोशिश करें कि वह क्या बोल या पूछ रहा है। अगर हम चाहते हैं कि बच्चे के व्यक्तित्व का विकास हो, वह विचारशील हो, तो उसे बोलने दें।

हमारी हाँ में हाँ मिलाने वाले बच्चे विचार शून्य, हताश, लुंज-पुंज होंगे। हम उनके हर कार्यकलाप में इतना रोका-टोकी करते हैं कि वे असहज अनुभव करते हैं। वे हमारे सामने चुप रहने लगते हैं। उन्हे प्रश्न करने दीजिये। एक बच्चे ने प्रश्न किया, दिवाली रामजी के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाते  हैं लेकिन पूजा लक्ष्मी जी की करते हैं। क्यों’? इस प्रश्न का समुचित उत्तर मैं आज तक नहीं ढूंढ पाया।

सविता प्रथमेश लिखती  हैं, कक्षा में अगर आवाज उठ रही है, प्रश्न आ रहे हैं, जिज्ञासाएँ  जन्म ले रही हैं तो समझिए मस्तिष्क में चिंतन चल रहा है, बच्चा बोल रहा है, आपको समझ व समझा रहा है। हमारे पाठ्यक्रम में इसकी गुंजाइश नहीं है। तयशुदा प्रश्नों के तयशुदा उत्तर ही सिखाते रहे तो विचारशील मस्तिष्क कहाँ से मिलेंगे? जो बनाया नहीं वो मिलेगा कहाँ से? 

अगर बच्चे पूछ रहे हैं, बोल रहे हैं तो समझिए विचार पैदा हो रहे हैं, तर्क तैयार हो रहे हैं, मस्तिष्क काम कर रहा है। और जब यह होगा तो अंदर शोर मचेगा ही, वह बाहर भी आयेगा ही। यह नहीं हुआ तो विस्फोट हो सकता है। हम सब ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं, क्योंकि हम सभी प्रश्नों से भरे हैं लेकिन अभिव्यक्ति से वंचित हैं।

क्या वह कक्षा सर्वश्रेष्ट है जहां से बच्चों का शोर न आए केवल शिक्षक की आवाज आए? एक स्वस्थ्य कक्षा वह है जहां बच्चों की आवाजें आयें। वे कह, सुन और बोल रहे हों। जब अगली बार बच्चों का शोर सुने तो कहें, हाँ, शोर अच्छा लगता है

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

हम कब स्वतंत्र होंगे?                                          

कल मेरे फोन में  एक व्हाट्स ऐप आया। अरे! आप हंसने क्यों लगे? इसमें हंसने की क्या बात हो गई? ओ अच्छा! आप ठीक ही हँस रहे हैं। मैं अपनी गलती सुधार लेता हूँ। रोज की तरह मेरे पास कल भी अनेक व्हाट्स ऐप आए। उनमें से एक ऐप प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन से संबन्धित है। एक विडियो के माध्यम से बताया गया है कि आइन्स्टाइन ने जापान में १९२२ में होटल में सामान उठानेवाले एक कर्मचारी को, पास में पैसे न होने के कारण, टिप में एक कागज पर एक नोट लिखा और उसे पकड़ा दिया। अभी हाल में उनका लिखा वह लिखा हुआ नोट $१.५ मिलियन यानि १५ लाख अमेरिकन डॉलर तदनुसार आज के मुल्यानुसार लगभग १० करोड़ रुपयों में बिका। कागज पर लिखा है, ‘a calm and modest life brings more happiness than the constant pursuit of success combined with constant restlessness’। उस विडियो में उसके बाद आज की बेहाल और भाग-दौड़ में व्यस्त भीड़ का दृश्य है। हमें बार बार बताया जाता है कि आनंद के लिए निरंतर मेहनत करो, भाग दौड़ करते रहो - ये लाओ, वो करो – ऐसे करो, तब आनंद मिलेगा वगैरह-वगैरह। और तब अंत में शांतचित्त बैठ कर एक सुखी और आनंद दायक जीवन जीने की सलाह दी गई थी।आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही नि:शेष हो गयी है। तेज़ और तेज़ और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचाना चाहते हैं? जब मैं इस ऐप को देख रहा था, किसी भी प्रकार उस नोट की कीमत से आगे बढ़ ही नहीं पाया। वह तो जब मैं अपने विचार लिखने बैठा तब पूरा देखा और गंभीर विचार तथा सोच में डूब गया। 

खरीदने वाले ने इतनी कीमत किस की लगाई? उस पर लिखे गए आनंद की परिभाषा की या यह जानने की, कि आनंद कहाँ और कैसे मिलेगा? क्या जिसने खरीदा उसने सुख को वहाँ खोजा और उसे पाया? या यह कीमत सिर्फ आइन्स्टाइन के हस्ताक्षर की है?

होटल के उस कर्मचारी को उस नोट का कितना मिला होगा? क्या उसे अपनी आशा के अनुसार टिप लायक राशि मिली होगी? हमारे अन्न उपजाने वाले किसान गरीबी में जिंदगी गुजार देते हैं, कर्ज में फंस कर अत्महत्या कर लेते हैं। उन्हे उस अन्न की लागत तक नसीब नहीं हो पाती है। और उसी अन्न को व्यापारी शहर में बेच कर मकान, फ्लैट, गाडियाँ खरीद लेते हैं। यह क्यों और कैसे होता है? १९४७ में जिन्हे स्वतन्त्रता मिली, मिली होगी! हम तो अभी गुलाम ही हैं। हम कब स्वतंत्र होंगे?

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

सूतांजली, अप्रैल २०१८


 सूतांजली                       ०१/०९                                                 ०१.०४.२०१८

पैड मैन
जी हाँ, मैं अक्षय कुमार की फिल्म पैड मैन की ही बात कर रहा हूँ। पिछले कुछ समय से देश प्रेमी, सुरक्षा कर्मी, ईमानदार नागरिक के   अभिनय की भूमिका में ही दिखा है। ऐसी ही कोई कहानी होगी, यही सोचकर गया था पैड मैन देखने। लेकिन यह फिल्म औरतों से जुड़ी उनकी निजी-व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्या पर आधारित है। पैड यानि सैनिटरी पैड। जानकारी के अभाव एवं रूढ़ियों के चलते खुल कर न बोल पाने के कारण देश की करोड़ों महिलाएं अपने मासिक रक्त स्त्राव के संबंध में चर्चा करने से कतराती हैं। अत: अनेक कष्टों को सहती हैं और रोगों से ग्रसित होती हैं  फिर भी मौन रहती हैं। कुछ समय पहले अमिताभ जी द्वारा संचालित टीवी सीरियल कौन बनेगा करोड़पति में एक सामाजिक संस्था  गूंज ने भी इस समस्या का जिक्र किया था और देश के नगरिकों को औरतों की इस दयनीय दशा से अवगत कराया। खैर, यह तो वह मुद्दा है जिस पर यह  फिल्म आधारित है।  लेकिन इसके साथ साथ कई अन्य मुद्दे भी कहानी में पिरोये गए  गए हैं।

१।  आर्थिक परिस्थिति  - देश की अधिकतर जनता गांवों में रहती है और गरीबी में किसी प्रकार अपने परिवार को चलाती है। समुचित कमाई के अभाव में उपलब्ध महंगे उपाय अधिकतर औरतें अपनाने में असमर्थ हैं। उस अतिरिक्त खर्च से उनकी अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शहर-विद्यालय-कॉलेज  की पढ़ी लिखी  औरतों को विश्वसनीय उपाय चाहिए और उसके लिए कुछ भी खर्च करने में वे जरा भी नहीं  हिचकती  हैं। लेकिन जितने रुपयों का उनके लिए कोई महत्व नहीं, उतने रुपए हमारे देश की अधिकतर औरतों के लिए परिवार के आर्थिक अस्तित्व का सवाल खड़ा कर देती हैं। उन्हे स्वदेशी सस्ता उपाय चाहिए  जो उनकी जेब के अनुरूप हो।

२।  हमारी साखदेश की राजधानी, दिल्ली में नायक को सम्मान और पुरस्कार मिलने पर गाँव  वाले नायक का स्वागत करते हैं, खुशी मनाते हैं, सम्मान देते हैं। लेकिन फिर जब उस सम्मान और पुरस्कार का कारण पता चलता है तब वापस वही पुराना तिरस्कार झेलना पड़ता है। फिर कुछ  समय बाद हमारा वह  नायक उन्हीं कारणों से विश्व मंच पर सम्मानित होता है। तब वही गाँव वाले उसे सिर आँखों पर बैठा लेते हैं।  ऐसा क्यों? हमारी जनता अपने देश द्वारा दिये गए सम्मान को उतना महत्व  क्यों नहीं देती! उसमें नुक्ताचीनी करती है! लेकिन जब वही सम्मान पश्चिम से घूम कर आता  है तब उसे स्वीकार कर लेती है! हमारी जनता को  पश्चिमी पर ज्यादा भरोसा क्यों है? या फिर हमारी सस्थाओं ने अपनी ही जनता का विश्वास खो दिया है?  हमें अपनी जनता का विश्वास हासिल करना होगा।

३। मित्र की आवश्यकताहमें अपने जीवन के हर दुर्गम मोड़ पर एक सच्चे  मित्र की आवश्यकता होती है। कठिन समय में वही हमारी सहायता करता है, सही मार्ग दिखाता है। हमें कठिनाइयों से निकालता है लेकिन उसके बदले कोई चाह नहीं होती।  आध्यात्मिक भाषा में हम उसे  ही गुरु कहते हैं। चेले ने गुरु को नहीं खोजा, गुरु ने ही चेले को खोजा। हम  सत्पथ और सेवा भाव अपनाएं, गुरु अपने आप सहारा देने आ जाएंगे

४। पढ़ें और गुनें  – आज अपनी गति के कारण हमारे पास न तो पूरा पढ़ने का समय है, न सुनने का, न गुनने (समझने) का।  आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही शेष रह गयी है। तेज़, और तेज़, और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचना चाहते हैं? यह हमें पता ही नहीं है। बिना पढ़े, सुने और  गुने करने और बोलने के लिए हम व्याकुल  हैं। नायक के गाँव वालों ने नायक को मिले सम्मान और उसकी फोटो ही देखी। क्यों मिला? यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। हमारा भी यही हाल है। सिर्फ पढ़े  नहीं, बल्कि गुनें

मैंने पढ़ा
सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और धन से चलने वाली संस्था

 .......(नेटाल इंडियन काँग्रेस के) कोष में लगभग 5 हजार पौंड जमा हो गये। मेरे मन में लोभ यह था कि यदि कांग्रेस का स्थाई कोश हो जाए, तो उसके लिए जमीन ले ली जाए और उसका भाड़ा आने लगे तो काँग्रेस निर्भय हो जाये। सार्वजनिक संस्था का यह मेरा पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार साथियों के सामने रखा। उन्होने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गए और भाड़े पर उठा दिये गए। उनके किराये  से काँग्रेस का मासिक खर्च आसानी से चलने लगा। संपत्ति का सुदृड़ ट्रस्ट बन गया। यह संपत्ति आज भी मौजूद है, पर अंदर-अंदर वह आपसी कलह का कारण बन गई है और जायदाद का किराया आज अदालत में जमा होता है।

यह दुखद घटना तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद घटी, पर सार्वजनिक संस्थाओं के लिए स्थाई कोष रखने के संबंध में मेरे विचार दक्षिण अफ्रीका में ही बदल चुके थे। अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं की उत्पत्ति और उनके प्रबंध की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृड़ निर्णय पर पहूंचा हूँ कि किसी भी सार्वजनिक संस्था को स्थाई कोष पर निर्भर रहने  का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा होता है।

सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और लोगों के धन से चलने वाली संस्था।  ऐसी संस्था को जब लोगों कि सहायता नहीं मिले, तो उसे जीवित रहने का अधिकार ही नहीं रहता। देखा यह गया है कि स्थाई संपत्ति के भरोसे चलने वाली संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो जाती है और कितनी ही बार वह उल्टा आचरण भी करती है। हिंदुस्तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक माने जाने वाली  संस्थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक  बन बैठे हैं और वे किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं हैं। जिस तरह प्रकृति स्वयं प्रतिदिन उत्पन्न करती और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्यवस्था सार्वजनिक संस्थाओं की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिस संस्था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हों, उसे सार्वजनिक संस्था के रूप में जीवित रहने का अधिकार नहीं है। प्रतिवर्ष मिलने वाला चंदा ही उन  संस्थाओं की लोकप्रियता और उनके संचालकों की प्रामाणिकता की कसौटी है, और मेरी यह राय है कि हर एक संस्था को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए। .......... सार्वजनिक संस्थाओं के दैनिक खर्च का आधार लोगों से मिलने वाला चंदा ही होना चाहिए
गांधी, आत्मकथा

धर्म का विशेषण
धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूँ। आज तक उसके साथ जितने भी विशेषण लगे हैं, उन्होने मनुष्य को बांटा ही है। आज एक विशेषण रहित धर्म की अवशयकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़, यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते है।
आचार्यतुलसी


ब्लॉग विशेष
आजाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यही दिलेरी खो चुका होता है।
 

प्रख्यात फिल्म अभिनेता बलराज साहनी द्वारा १९७२ में जेएनयू के दीक्षांत समारोह में दिये गए व्याख्यान के संपादित अंश                                                                           गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१७, पृ १२