शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

हम कब स्वतंत्र होंगे?                                          

कल मेरे फोन में  एक व्हाट्स ऐप आया। अरे! आप हंसने क्यों लगे? इसमें हंसने की क्या बात हो गई? ओ अच्छा! आप ठीक ही हँस रहे हैं। मैं अपनी गलती सुधार लेता हूँ। रोज की तरह मेरे पास कल भी अनेक व्हाट्स ऐप आए। उनमें से एक ऐप प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन से संबन्धित है। एक विडियो के माध्यम से बताया गया है कि आइन्स्टाइन ने जापान में १९२२ में होटल में सामान उठानेवाले एक कर्मचारी को, पास में पैसे न होने के कारण, टिप में एक कागज पर एक नोट लिखा और उसे पकड़ा दिया। अभी हाल में उनका लिखा वह लिखा हुआ नोट $१.५ मिलियन यानि १५ लाख अमेरिकन डॉलर तदनुसार आज के मुल्यानुसार लगभग १० करोड़ रुपयों में बिका। कागज पर लिखा है, ‘a calm and modest life brings more happiness than the constant pursuit of success combined with constant restlessness’। उस विडियो में उसके बाद आज की बेहाल और भाग-दौड़ में व्यस्त भीड़ का दृश्य है। हमें बार बार बताया जाता है कि आनंद के लिए निरंतर मेहनत करो, भाग दौड़ करते रहो - ये लाओ, वो करो – ऐसे करो, तब आनंद मिलेगा वगैरह-वगैरह। और तब अंत में शांतचित्त बैठ कर एक सुखी और आनंद दायक जीवन जीने की सलाह दी गई थी।आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही नि:शेष हो गयी है। तेज़ और तेज़ और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचाना चाहते हैं? जब मैं इस ऐप को देख रहा था, किसी भी प्रकार उस नोट की कीमत से आगे बढ़ ही नहीं पाया। वह तो जब मैं अपने विचार लिखने बैठा तब पूरा देखा और गंभीर विचार तथा सोच में डूब गया। 

खरीदने वाले ने इतनी कीमत किस की लगाई? उस पर लिखे गए आनंद की परिभाषा की या यह जानने की, कि आनंद कहाँ और कैसे मिलेगा? क्या जिसने खरीदा उसने सुख को वहाँ खोजा और उसे पाया? या यह कीमत सिर्फ आइन्स्टाइन के हस्ताक्षर की है?

होटल के उस कर्मचारी को उस नोट का कितना मिला होगा? क्या उसे अपनी आशा के अनुसार टिप लायक राशि मिली होगी? हमारे अन्न उपजाने वाले किसान गरीबी में जिंदगी गुजार देते हैं, कर्ज में फंस कर अत्महत्या कर लेते हैं। उन्हे उस अन्न की लागत तक नसीब नहीं हो पाती है। और उसी अन्न को व्यापारी शहर में बेच कर मकान, फ्लैट, गाडियाँ खरीद लेते हैं। यह क्यों और कैसे होता है? १९४७ में जिन्हे स्वतन्त्रता मिली, मिली होगी! हम तो अभी गुलाम ही हैं। हम कब स्वतंत्र होंगे?

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