लेखिका : उषा प्रियम्वदा
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
संस्करण : 2014
मूल्य
: 350 रुपए
पृष्ट
: 171
पुस्तक को
पढ़ने के पहले लेखिका से थोड़ा परिचय हो तो इसे पढ़ने और समझने में सुविधा रहेगी। लेखिका
भारतीय मूल की अमेरिकन हैं। लेखिका पद्मभूषण डॉ॰ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार
से सम्मानित हैं। यह पुरस्कार भारतीय मूल के विदेशी हिन्दी लेखन पर दिया जाता है, जिसे भारत के राष्ट्रपति प्रदान करते हैं।
उपन्यास का
प्रारम्भ बड़े नाटकीय या जासूसी ढंग से है। नायिका अपने पति और दो बच्चियों को घर
पर छोड़ कर अपनी बहन से मिलने एक सप्ताह के लिए दूसरे शहर गई थी। वहाँ से लौट कर जब
रात घर पहुँचती है तब तक पूरा परिवार सब कुछ समेट कर वापस भारत जा चुका है और तो
और वह मकान भी बेचा जा चुका है। इस परिस्थिति से सामना होता है हमारी नायिका, आकाशगंगा का।
नदी अपने
उद्गम से निकल कर बहना शुरू करती है और लगातार नीचे और नीचे उतरते हुए अपने गंतव्य
की तरफ कभी धीरे कभी तेज निरंतर आगे बढ़ती हुई अंत में सागर या झील में समा जाती है। नदी के अपने हाथ
में ज्यादा कुछ नहीं होता। जहां जैसा रास्ता मिलता जाता है, अपने को उसी ओर मोड़ती चली जाती
है। लेकिन, पूरा मार्ग इतना आसान भी नहीं होता। कहीं चट्टान, कहीं दीवार तो कहीं कच्चे-पक्के बांध भी उसे मिलते हैं। इन सबका सामना भी
उसे करना ही पड़ता है। कभी रौद्र रूप धारण कर
उसे लांघना, तो कभी तटों की मर्यादा को भंग भी करना पड़ता है।
रास्ते में मिले फूल और गंदगी को समान रूप से समेटते हुए अस्तित्वहीन हो जाती है।
नदी चाहे गंगा हो या आकाशगंगा कहानी एक ही है।
नारी जीवन
भी कुछ ऐसा ही है। कहीं समर्पण तो कहीं संघर्ष। लेकिन यह समर्पण और संघर्ष कब, कितना और कहाँ? यही तय करती है उसकी नियति। और इस
हद में उसका भविष्य भी उसके हाथ में ही है। जब लगता है कि अब जीवन समाप्त, तभी किसी का सहारा नवजीवन प्रदान पर जाता है। और कभी लगता है कि जीवन अब
सीधा-साधा रह गया है तभी कोई लहर फिर से संघर्ष के लिए मजबूर कर देती है। “हम
सब अपने परिवेश, अपने संस्कारों और समाज के
द्वारा ही गढ़े जाते हैं”।
“भाग्यवान
होते हैं वो जिन्हे हर मनचाही चीज मिल जाती है, या फिर वे जीवन से समझौता कर लेते हैं”। पढ़िये, शायद आप को भी
अच्छा लगे।
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