4th March 2009
This is an autobiography of Verghese Kurien, the man behind bringing White Revolution in India. The original book is in English. This is its hindi translation.
मैं अभी यह किताब पढ़ रहा हूँ। कई खास बातें हैं । गीता पीरामल की पुस्तक Business Maharaja पढ़ा हूँ। लेखिका ने इस पुस्तक में लिखा है कि जीवन में एक ऊंचाई के बाद आसमान छूने के लिए केवल काबिलियत काफी नहीं होती है। यह आवश्यक है कि किसी न किसी का वरद हस्त सर के ऊपर हो जो कठिनाइयों को दूर कर सके तथा छलांग लगवा सके। कुरियन में काबिलियत तो थी ही साथ ही उनके जीवन में ऐसे लोग भी मौजूद थे।
कुरियन ने जो भी अनुभव किया एवं सीखा उसे बहुत ही सहज भाषा में परोस दिया है। पढ़ने में बहुत ही सरल और सुनी सुनाई सी बात लगती है लेकिन शब्दों में अनुभव की ऊष्मा महसूस कर सकते है। यथा :
जब आप स्वयं के लाभ के लिए काम करते हैं तो उससे प्राप्त सुख अल्पकालिक होता है, लेकिन यदि आप दूसरों के लिए काम करते हैं तो संतुष्टि का एक गहरा भाव जाग्रत होता है और जो धन मिलता है, वह आवश्यकता से कहीं अधिक होता है। ( पृ. ४३)।
सरकारी अनुष्ठानों से मिले कटु अनुभवों को बेबाक शब्दों में अभिव्यक्त किया :
जब भी सरकार किसी व्यवसाय में घुसती है तो भारतीय जनता के साथ धोखा किया जाता है। सरकार के किसी भी व्यवसाय में शामिल होने का सबसे अप्रत्यक्ष प्रभाव यह पड़ता है कि सरकार जनता के निहित हितों कों पूरा करने के बजाय स्वयं के स्वार्थों की पूर्ति में लग जाती है। (पृ.४४)
डेयरी की स्थापना करते हुए उनके सामने यह एक बहुत बड़ी चुनौती थी - उत्पादन ऐसे मूल्य पर होना चाहिये कि वस्तु को लाभ के साथ बेचा जा सके :
किसी भी वस्तु का उत्पादन तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि कोई वस्तु उस कीमत से अधिक पर नहीं बिकती, जिस पर उसका उत्पादन हुआ है। अधिक कीमत उत्पादक को और अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित करती है । (पृ.६८)
स्वाधीनता के बाद भी अंग्रेजों के तौर तरीकों से ही कार्य करने की पद्धति से भी वे संतुष्ट नहीं हैं :
ब्रिटिशों के कार्य करने की पद्धति कुछ इस तरह की थी कि कोई भी काम सरकारी नियमों द्वारा स्वीकृति लेने के बाद ही होता था और स्वतंत्रता के बाद भी हम भारतियों ने उसमें सुधार न करते हुए उसी ढर्रे पर चलना जारी रखा।
दुर्भाग्यवश , हम भारत की सबसे बड़ी संपत्ति - यहाँ की जनता - को ही भूल गए। किसी भी अनुभवी सरकार के लिए आवश्यक है कि वह देश की जनता को अपनी सबसे बड़ी संपत्ति माने और किसी भी कार्य को नौकरशाही को देने के बजाय देश की जनता को सौंपने की कोशिश करे। (पृ.७०)
विदेशी धन के निवेश पर टिप्पणी करते हुए, कूरियन लिखते हैं :
कोई भी देश किसी दूसरे देश में तब तक निवेश नहीं कर सकता जब तक उसे निवेशित धन से अधिक प्राप्त होने की आशा न हो। (पृ.७३)
आज जब हर राजनीतिज्ञ किसी भी तरीके से पैसे बनाने के चक्कर में है, टी.टी.कृष्णामचारी की एक घटना का उल्लेख सुकून पहुंचाती है। टी.टी.कृष्णामचारी की संस्था टी.टी.के.एंड सन्स को अमूल मख्खन का वितरक बनाया गया था। टी.टी.कृष्णामचारी जो उस समय वित्तमंत्री थे इस कंपनी के मालिक थे। टी.टी.के. को लगा कि यह उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं होगा। अत: , उन्होंने २४ घंटों में वितरक को बदलने का आदेश दिया। आज के राजनीतिज्ञों के लिए यह एक सबक है।
11th March 2009
प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी आणन्द का दौरा किया था। उनकी जिद थी के वे एक गांव में किसी किसान के घर पर ही निवास करेंगें। सुरक्षा के इंतजाम एवं वास्तविक गाँव में असली किसान के घर पर ठहराने का काम आसान नहीं था। लेकिन इसे सफलता पूर्वक किया गया। शास्त्रीजी ने आणन्द में किसानों से काफी बातें कीं, वहां कि जलवायु, मिटटी एवं हर प्राकृतिक परिस्थिति का जायजा लिया। फ़िर कुरियन से पुछा कि आणन्द में ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिसके कारण यहाँ के डेयरी सफल हो और दूसरी जगह असफल। फिर उनकी हर सरकारी डेयरी जो पूरे देश में फैली हुई हैं वे क्यों नहीं चल रही हैं? कूरियन ने बताया कि इसका केवल एक कारण है - बाकि सब डेयरियाँ सरकारी हैं जबकि उनकी डेयरी किसानों कि ख़ुद कि हैं।
शास्त्रीजी ने उसी समय देश कि सब डेयरी का संचालन कुरियन के हाथों में देने का निर्णय ले लिया लेकिन दिल्ली लौटने के बाद उनका निर्णय नौकरशाही के बीच फँस गया। कुरियन कि पहुँच प्रधानमंत्री एवं अन्य सत्ताधारी राजनीतिज्ञों तक भी थी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा । जगह जगह उनकी यह खीज उजागर होती है :-
दिल्ली के लोग बहुत सी चीजों के बारे में तो सोचते हैं, सिर्फ किसानों के बार में नहीं सोचते। (प्र.१०९)
सरकार के साथ संपर्क के दौरान मुझे इस बात का पूरी तरह से अहसास हो गया था कि सरकार का काम सिर्फ शासन करना है। उन्हें व्यवसायों को चलाने का काम नहीं करना चाहिये। सरकार के नियम-कानूनों का उद्देश्य डेयरियाँ चलाना नहों था, बल्कि देश का शासन चलन था। (प्र.११२)
कुरियन सरकार कि उस प्रक्रिया से बहुत कुंठित थे जो एक निरर्थक प्रक्रिया का अंग बन चुकी थी जिसमें समय एवं शक्ति का बहुत व्यय होता था. एन.डी.डी.बी. कि फाइल को ले कर वे कहत परेशान रहे। उन्हीं के शब्दों में:
मैं फाइल ले कर गया और सचिव से मिला, जिसने कुछ चर्चा के बाद मुझसे कहा,"हाँ सरकार इस मुद्दे पर विचार करेगी।" जब मैं ने पूछा सरकार कौन है?" तो उनहोंने मुझे बताया,"यह सरकार मंत्री हैं।" इसलिए मैं फाइल ले कर ,"पहले कृषि मंत्री, फिर वित्त, योजना और पर्यावरण मंत्री के पास गया। वहां एक बार फिर इस मुद्दे पर वही पुरानी चर्चा कि गई और मुझे बताया गया कि,"हाँ, सरकार इसपर विचार करेगी।" (प्र.१४०)
इस बार सरकार प्रधानमंत्री थे। और प्रधानमंत्री ने सरकार कैबिनेट को बताया। पुरा साल बीत गया था। मेरे मन में यह कलुषित विचार घर कर गया था कि जिस व्यक्ति से भी मिलूं और वह मुझे बताये कि "सरकार इस विषय पर विचार करेगी" तो इसका अर्थ होगा कि इसपर कोई भी विचार करने नहीं जा रहा है। (प्र.१४०)
26th March 2009
प्रधान मंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी आणन्द का दौरा किया था। उनकी जिद थी के वे एक गांव में किसी किसान के घर पर ही निवास करेंगें। सुरक्षा के इंतजाम एवं वास्तविक गाँव में असली किसान के घर पर ठहराने का काम आसान नहीं था। लेकिन इसे सफलता पूर्वक किया गया। शास्त्रीजी ने आणन्द में किसानों से काफी बातें कीं, वहां कि जलवायु, मिटटी एवं हर प्राकृतिक परिस्थिति का जायजा लिया। फ़िर कुरियन से पुछा कि आणन्द में ऐसी कोई विशेषता नहीं है जिसके कारण यहाँ के डेयरी सफल हो और दूसरी जगह असफल। फिर उनकी हर सरकारी डेयरी जो पूरे देश में फैली हुई हैं वे क्यों नहीं चल रही हैं? कूरियन ने बताया कि इसका केवल एक कारण है - बाकि सब डेयरियाँ सरकारी हैं जबकि उनकी डेयरी किसानों कि ख़ुद कि हैं।
शास्त्रीजी ने उसी समय देश कि सब डेयरी का संचालन कुरियन के हाथों में देने का निर्णय ले लिया लेकिन दिल्ली लौटने के बाद उनका निर्णय नौकरशाही के बीच फँस गया। कुरियन कि पहुँच प्रधानमंत्री एवं अन्य सत्ताधारी राजनीतिज्ञों तक भी थी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा । जगह जगह उनकी यह खीज उजागर होती है :-
दिल्ली के लोग बहुत सी चीजों के बारे में तो सोचते हैं, सिर्फ किसानों के बार में नहीं सोचते। (प्र.१०९)
सरकार के साथ संपर्क के दौरान मुझे इस बात का पूरी तरह से अहसास हो गया था कि सरकार का काम सिर्फ शासन करना है। उन्हें व्यवसायों को चलाने का काम नहीं करना चाहिये। सरकार के नियम-कानूनों का उद्देश्य डेयरियाँ चलाना नहों था, बल्कि देश का शासन चलन था। (प्र.११२)
कुरियन सरकार कि उस प्रक्रिया से बहुत कुंठित थे जो एक निरर्थक प्रक्रिया का अंग बन चुकी थी जिसमें समय एवं शक्ति का बहुत व्यय होता था. एन.डी.डी.बी. कि फाइल को ले कर वे कहत परेशान रहे। उन्हीं के शब्दों में:
मैं फाइल ले कर गया और सचिव से मिला, जिसने कुछ चर्चा के बाद मुझसे कहा,"हाँ सरकार इस मुद्दे पर विचार करेगी।" जब मैं ने पूछा सरकार कौन है?" तो उनहोंने मुझे बताया,"यह सरकार मंत्री हैं।" इसलिए मैं फाइल ले कर ,"पहले कृषि मंत्री, फिर वित्त, योजना और पर्यावरण मंत्री के पास गया। वहां एक बार फिर इस मुद्दे पर वही पुरानी चर्चा कि गई और मुझे बताया गया कि,"हाँ, सरकार इसपर विचार करेगी।" (प्र.१४०)
इस बार सरकार प्रधानमंत्री थे। और प्रधानमंत्री ने सरकार कैबिनेट को बताया। पुरा साल बीत गया था। मेरे मन में यह कलुषित विचार घर कर गया था कि जिस व्यक्ति से भी मिलूं और वह मुझे बताये कि "सरकार इस विषय पर विचार करेगी" तो इसका अर्थ होगा कि इसपर कोई भी विचार करने नहीं जा रहा है। (प्र.१४०)
26th March 2009
ऑपरेशन फ्लड की कामयाबी के साथ इसकी देश एवं विदेशों में धूम मच गई तथा अनेक अति विशिष्ट व्यक्तियों कातांता लग गया। इनमें रूस के प्रधानमंत्री कोसिगिन भी थे। डेयरी देखने के बाद उन्होंने कहा कि भारत में दूध केअलावा वनस्पति तेल, जूट एवं कपास में भी ऐसी ही क्रान्ति की आवश्यकता है। दूध वितरण में सुधार कराने में३० वर्ष लगे और इसी प्रकार तेल के लिए ३० वर्ष एवं जूट के लिए ३० वर्ष लगे तो अपना कार्य पूरा करने के पहले हीकुरियन इस दुनिया से विदा हो जायेंगें। अत: महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों को इतना धीरे धीरेनहीं किया जाना चाहिए। इन सभी परिवर्तनों को सभी क्षेत्रों में एक साथ एवं शीघ्रता से लाया जाना चाहिए। यहएक क्रान्ति की तरह होना चाहिए। और इसके साथ ही कोसिगिन ने कुरियन को रूस आने का निमंत्रण दिया।कुरियन रूस गए, वहाँ घूमे और उसके बाद कोसिगिन की टिप्पणी को पूरी तरह नकारते हुए लिखा :
"परिवर्तन में निशिचित रूप से समय लगना चाहिए। बुनियादी सामाजिक और आर्थिक परिवर्थान क्रमिक दंग से लाये जाने की आवश्यकता है। जितनी अधिक सावधानी एवं सोच विचार करके इसे लाया जाएगा उताना ही यह अधिक स्थायी होगा। (पृ.१९१)"
कुरियन को कई देशों से वहाँ के दूध वितरण व्यवस्था को सुधारने के लिए निमंत्रण मिला और वे वहाँ गए भी ।
लेकिन दुर्भाग्यवश कहीं भी सफलता नहीं मिली। इसके प्रमुखत: दो कारण रहे। पहला - दुग्ध वितरण में लगे हुएव्यवसाइयों का विरोध एवं दूसरा उस देश में अपना दूध बेचने वाली MNC। वहाँ की सरकारों ने इन दो शक्तियों केआगे घुटने टेक दिए। उनके अनुभवों से यह साफ़ विदित होता है की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कितनी ताकतवर होतीं हैंतथा उनका उद्देश्य केवल अपनी कमाई होती है, और इस उद्देश्य की पूर्ती में वे उस देश का कितना अहित करतीं हैं।
कूरियन पाकिअस्तान भी गए और वहाँ के लोगों से मिले। उनसे मिलने के बाद वे लिखते हैं:
"मेरी समझ में दोनों देशों के बीच चल रही कटुता बेबुनियाद है। मेरे विचार से, विभाजन के पीछे विकसित देशों का षड्यंत्रकारी दिमाग हमें कमजोर बनाने का रहा है।" (पृ.१९४)
श्री लंका में नेस्ले कंपनी ने लंका के बाजार को आधा आधा बाँट लेने का प्रस्ताव रखा जिसे कूरियन ने ठुकरा दिया। फलस्वरूप अंत में कूरियन को ही वापस आना पडा।
दूध वितरण की सफलता के बाद, सरकार के अनुरोध पर कूरियन ने बिजली, नमक, फल एवं सब्जी के वितरण व्यवस्था का अध्ययन किया। लेकिन अब तक वे सरकार से लड़ते लड़ते काफी थक चुके थे। सरकार का भी पहले जैसा समर्थन प्राप्त नहीं था, भ्रष्टाचार एवं नैतिकता का इतना ज्यादा पतन हो चुका था कि कूरियन क्षुब्ध हो जाते थे।
"वास्तव में यह पता करके मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि हमारे लाइनमैन ही किसानों को बिजली चुराने के गुर सिखा रहे थे।" (पृ.२०१)
इन पीड़ा के क्षणों में उन्हें कोसिगिन की फिर याद आई :
"कई बार सरकारी कर्मचारियों ने खुलासा किया कि उनका अस्तित्व उनकी शक्ति और पैसे के कारण है। उनका अस्तित्व देश की भलाई पर टिका नहीं है। अत्यन्त निराशा के इस क्षणों में मुझे वास्तव में आश्चर्य होता है कि कोसिगिन द्वारा दी गई सलाह पर मैंने ध्यान क्यों नहीं दिया। परिवर्तन केवल क्रांति द्वारा और कुछ लोगों का सर काट कर लाया जा सकता है। निस्संदेह यह मेरा ऐसा संघर्ष था, जिससे मैं पीछे हट गया। (पृ.२०४)
वर्त्तमान नेताओं एवं राजनीतिज्ञों पर लिखते हैं:
"यह देख कर पीड़ा होती है कि हमारे पास अब वे महान उद्देश्य अनुसरण के लिए नहीं है और हम घटिया नेता पैदा कर रहें हैं। सरकार से मेरा संबंध पचास वर्षों से अधिक का रहा। मैंने पाया कि सार्वजनिक जीवन में शालीनता दुर्लभ हो गयी है। आज जब शक्ति एवं धन हासिल करने के लिए तीव्र स्पर्धा चल रही है तो अशिष्टता चरम सीमा पर पहुँच गयी है और योग्यता सबसे पीछे रहा हाई है.(पृ.२०७)
लोकतंत्र क्या है :
"नौकरशाहों की सरकार, नौकरशाहों द्वारा तैयार सरकार और नौकरशाहों के लिए सरकार - लोकतंत्र के इस ब्रांड का जनता में कोई स्थान नहीं है। (पृ। २०७)
अन्तिम पृष्ठों में कूरियन दार्शनिक हो जातें हैं :
"बहुत कम पैसे होना कष्टकारी है, क्योंकि तुम्हारे पास खाने तथा अपनी भूख शांत करने के लिए भी पर्याप्त धन होना चाहिए। किंतु अत्यधिक धन होना इससे भी बुरा है, क्योंकि तब तुम निश्चय ही भ्रष्ट हो जाओगे।(पृ.२२४)
"जब भी आपको आपकी योग्यता से कम मिलता तो आप सम्मान पा सकते हैं और यदि आपको योग्यता से अधिक पैसे मिलते हों तो आपको कोई सम्मान नहीं मिलेगा। (पृ.२२५)
पूरी पुस्तक पड़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि
१। गीता पीरामल का यह कथन पूर्णतया सही है कि सफलता के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति का वरदहस्त सर पर होना चाहिए।
२। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बच कर रहना चाहिए।
३। सरकारी कर्मचारी देश एवं जनता की भलाई के लिए नहीं केवल अपनी भलाई ले लिए होते है।
"परिवर्तन में निशिचित रूप से समय लगना चाहिए। बुनियादी सामाजिक और आर्थिक परिवर्थान क्रमिक दंग से लाये जाने की आवश्यकता है। जितनी अधिक सावधानी एवं सोच विचार करके इसे लाया जाएगा उताना ही यह अधिक स्थायी होगा। (पृ.१९१)"
कुरियन को कई देशों से वहाँ के दूध वितरण व्यवस्था को सुधारने के लिए निमंत्रण मिला और वे वहाँ गए भी ।
लेकिन दुर्भाग्यवश कहीं भी सफलता नहीं मिली। इसके प्रमुखत: दो कारण रहे। पहला - दुग्ध वितरण में लगे हुएव्यवसाइयों का विरोध एवं दूसरा उस देश में अपना दूध बेचने वाली MNC। वहाँ की सरकारों ने इन दो शक्तियों केआगे घुटने टेक दिए। उनके अनुभवों से यह साफ़ विदित होता है की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ कितनी ताकतवर होतीं हैंतथा उनका उद्देश्य केवल अपनी कमाई होती है, और इस उद्देश्य की पूर्ती में वे उस देश का कितना अहित करतीं हैं।
कूरियन पाकिअस्तान भी गए और वहाँ के लोगों से मिले। उनसे मिलने के बाद वे लिखते हैं:
"मेरी समझ में दोनों देशों के बीच चल रही कटुता बेबुनियाद है। मेरे विचार से, विभाजन के पीछे विकसित देशों का षड्यंत्रकारी दिमाग हमें कमजोर बनाने का रहा है।" (पृ.१९४)
श्री लंका में नेस्ले कंपनी ने लंका के बाजार को आधा आधा बाँट लेने का प्रस्ताव रखा जिसे कूरियन ने ठुकरा दिया। फलस्वरूप अंत में कूरियन को ही वापस आना पडा।
दूध वितरण की सफलता के बाद, सरकार के अनुरोध पर कूरियन ने बिजली, नमक, फल एवं सब्जी के वितरण व्यवस्था का अध्ययन किया। लेकिन अब तक वे सरकार से लड़ते लड़ते काफी थक चुके थे। सरकार का भी पहले जैसा समर्थन प्राप्त नहीं था, भ्रष्टाचार एवं नैतिकता का इतना ज्यादा पतन हो चुका था कि कूरियन क्षुब्ध हो जाते थे।
"वास्तव में यह पता करके मेरे रोंगटे खड़े हो गए कि हमारे लाइनमैन ही किसानों को बिजली चुराने के गुर सिखा रहे थे।" (पृ.२०१)
इन पीड़ा के क्षणों में उन्हें कोसिगिन की फिर याद आई :
"कई बार सरकारी कर्मचारियों ने खुलासा किया कि उनका अस्तित्व उनकी शक्ति और पैसे के कारण है। उनका अस्तित्व देश की भलाई पर टिका नहीं है। अत्यन्त निराशा के इस क्षणों में मुझे वास्तव में आश्चर्य होता है कि कोसिगिन द्वारा दी गई सलाह पर मैंने ध्यान क्यों नहीं दिया। परिवर्तन केवल क्रांति द्वारा और कुछ लोगों का सर काट कर लाया जा सकता है। निस्संदेह यह मेरा ऐसा संघर्ष था, जिससे मैं पीछे हट गया। (पृ.२०४)
वर्त्तमान नेताओं एवं राजनीतिज्ञों पर लिखते हैं:
"यह देख कर पीड़ा होती है कि हमारे पास अब वे महान उद्देश्य अनुसरण के लिए नहीं है और हम घटिया नेता पैदा कर रहें हैं। सरकार से मेरा संबंध पचास वर्षों से अधिक का रहा। मैंने पाया कि सार्वजनिक जीवन में शालीनता दुर्लभ हो गयी है। आज जब शक्ति एवं धन हासिल करने के लिए तीव्र स्पर्धा चल रही है तो अशिष्टता चरम सीमा पर पहुँच गयी है और योग्यता सबसे पीछे रहा हाई है.(पृ.२०७)
लोकतंत्र क्या है :
"नौकरशाहों की सरकार, नौकरशाहों द्वारा तैयार सरकार और नौकरशाहों के लिए सरकार - लोकतंत्र के इस ब्रांड का जनता में कोई स्थान नहीं है। (पृ। २०७)
अन्तिम पृष्ठों में कूरियन दार्शनिक हो जातें हैं :
"बहुत कम पैसे होना कष्टकारी है, क्योंकि तुम्हारे पास खाने तथा अपनी भूख शांत करने के लिए भी पर्याप्त धन होना चाहिए। किंतु अत्यधिक धन होना इससे भी बुरा है, क्योंकि तब तुम निश्चय ही भ्रष्ट हो जाओगे।(पृ.२२४)
"जब भी आपको आपकी योग्यता से कम मिलता तो आप सम्मान पा सकते हैं और यदि आपको योग्यता से अधिक पैसे मिलते हों तो आपको कोई सम्मान नहीं मिलेगा। (पृ.२२५)
पूरी पुस्तक पड़ने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि
१। गीता पीरामल का यह कथन पूर्णतया सही है कि सफलता के लिए किसी शक्तिशाली व्यक्ति का वरदहस्त सर पर होना चाहिए।
२। हमें बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बच कर रहना चाहिए।
३। सरकारी कर्मचारी देश एवं जनता की भलाई के लिए नहीं केवल अपनी भलाई ले लिए होते है।
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