शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

पिता का पत्र, बेटे के नाम

(श्रीअजय कुमार पांडेय की रचना पर आधारित। अनाम पिता का, वतन से दूर अपने बेटे को लिखा एक गुमनाम पत्र)

प्रिय बेटा,                                                                                                                👂🔉

मोबाइल युग में चिट्ठी? देखो बुरा न मानना। पुरानी लत है, आज बड़ी ज़ोर की तलब लगी, सो लिखने बैठ गया। एक समय था, जब मैं खूब चिट्ठी लिखा करता था। मेरे पास भी चिट्ठियाँ आती थीं। जब छोटा था, हम भाइयों में होड़ रहती थी, किसके नाम से सबसे ज्यादा डाक आती है। मैं हर समय अव्वल आता था। अत: अंत में भाइयों ने होड़ ही समाप्त कर दी। लेकिन आज मोबाइल और कम्प्युटर के चंद बटनों तक सिमट कर रह गई है सारी दुनिया। सारे रिश्ते-नाते के मतलब, तो बस,  रिंग-टोन हो गये हैं।

तुमने डाकिये के बारे में तो सुना ही होगा। पोस्टमैन कहने पर तुम्हें शायद ज्यादा सहूलियत होगी। पहले जब चिट्ठियाँ लिखा करते थे तो डाकिया कंधे पर थैला लटकाये, साइकिल की घंटी बजाते घर-घर चिट्ठियाँ पहुंचाया करता था। पता नहीं तुमने कभी इस विलुप्त होती प्रजाति को देखा है या नहीं। तुम शायद सोच रहे होगे कि मुझे क्या सूझा कि  मैं बैठ गया इतना समय जाया करने। लिखने और पढ़ने वाले दोनों के समय की बरबादी करने। लेकिन बेटा, ऐसा मत सोचना। क्या यह संभव है कि इतनी लंबी और निश्चिंत बात मोबाइल पर की जा सके? ठीक है, तो फिर रखता हूँ’, कह कर टेलीफोन का गला दबा दिया जाता है; या फिर ऐसा लगता है कि बातें एक दूसरे से नहीं कइयों से एक साथ हो रही है, कई काम एक साथ चल रहे हैं, ध्यान कहीं और है, कान कहीं और, फोन कहीं और। मोबाइल पर भी कभी हम सब एक साथ बैठ कर बातें किया करते थे लेकिन अब तो हम सब भी अलग-अलग हो गये हैं। आजकल जो ज्यादा लोग ब्लड प्रैशर, अवसाद के शिकार हो रहे हैं, यह इन्हीं मन में कैद गुबारों की वजह से ही होता है। जब हम खुल कर बतिया ही नहीं पाएंगे तो तनाव तो बढ़ेगा ही न?

चिट्ठियों की यह खूबी थी बेटा कि मिल जाने पर लोग इसे खोल कर पढ़ ही लिया करते थे, तह कर पॉकेट या दराज़ में रख लिया करते थे। एक बार नहीं कई-कई बार पढ़ लिया करते थे। मोबाइल में आए संदेशों की तरह इग्नोर या डिलीट नहीं करते थे। और चिट्ठियों में क्या नहीं होता था – माँ का प्यार!, बाबूजी का आशीर्वाद!, भैया की नसीहतें!, और दीदी का दुलार। जीजाजी की चिट्ठी आने पर दीदी का चेहरा कैसे हजार वॉट के बल्ब की तरह चमक उठता था। मैं सभा-संस्थाओं की  सदस्यता तथा कार्यों का बौरा, पत्र-पत्रिकाएँ तथा उनकी पुस्तक सुची, सदस्यता का ब्योरा आदि भेजने के लिए चिट्ठी लिखता रहता था। बस केवल इसलिए कि हमारे पोस्ट बॉक्स में मेरे नाम की डाक हो। अपने व्यस्त क्षणों में से चंद लम्हे निकाल सको और एक चिट्ठी लिख दो, तो मेरे लिये बड़ी खुशी की बात होगी। एक बार फिर डाकिया दरवाजे पर आयेगा और मेरे नाम एक चिट्ठी थमा जाएगा।

मैं जब भी तुमसे फोन पर बात करता हूँ, लगता है जल्दी मची है। मैं तो अतृप्त होकर रह जाता हूँ। बहुत सी बातें करने का मन करता है। सप्ताह भर सोचता रहता हूँ कि इस बार यह बोलूँगा, वह पूछूंगा; यह बताऊंगा – वह पूछूंगा लेकिन जब फोन आता है सब बातें गुम हो जाती है। और फोन रखते ही सब याद आ जाती हैं। कुछ बातें तो समझ ही नहीं पड़ती कि कैसे कहूँ, कैसे पूछूं? तुम कब आओगे, एक बार देखने का मन हो रहा है, एक बार आ कर मिल लो।  नहीं, कुछ कहना नहीं है, कुछ चाहिए भी नहीं बस कुछ दिन साथ साथ रह लेते, बिना कुछ किए। अब जिंदगी का क्या भरोसा? अब रोज-रोज का बाज़ार नहीं होता। रिश्ते-नाते अब नहीं सँभलते। हम, मैं और तुम्हारी माँ, अब एक दूसरे को नहीं सँभाल पाते? आँखें किसी को ढूंढती रहती हैं। अब इस शहर का शोर-बर्दास्त नहीं होता। यहाँ की चहल-पहल, रेलम-पेल, भाग दौड़, समझ के परे हो गई है। रिश्ते-नातों को संभालना भारी लगने लगा है। किसी छोटी जगह, तीर्थस्थल पर जा कर रहूँ, व्यवस्था कैसे करूँ? किस को कहूँ ये सब?

तुम्हारे लिए जो भेजा था, मिला? खाया, पहना? कैसा लगा? अपने दोस्तों को भी दिया? दूध पीते हो? रात को नींद ठीक से आती है? देर तक तो नहीं जागते? बार बार नींद तो नहीं टूटती? ...... कैसे पूछूं ये सब? बैठे बैठे अनेक प्रश्न आते-जाते रहते हैं, लेकिन पूछ नहीं पाता।

ये सारी बातें मन में रह जाती हैं। आज चिट्ठी के बहाने खुल कर बतियाने का मौका मिला, मन में जो बातें घुमड़ती रहती थीं, तुमसे कह कर बड़ा हल्का महसूस कर रहा हूँ। पता नहीं, फिर कभी इतनी बातें करने का मौका मिलेगा या नहीं। अच्छे से रहना। अपना ख्याल रखना। दोस्तों को मेरा आशीर्वाद कहना। अच्छे और नियमत जीवन का पालन करना। ईश्वर तुम्हें सुखी रखे और तुम्हें जीवन में अपार सफलता और उन्नति मिले, मेरी यही कामना है।

शुभकामनाओं सहित,

तुम्हारा पापा

पुन:श्च :

वैसे बेटा तुम्हारी भी अपनी विवशता होगी। अनजाने लोग, पराई भाषा, अनबूझ सभ्यता को तो तुम भी झेल रहे होगे। बेतहाशा भाग  रही जिंदगी से तुम भी परेशान तो होगे, लेकिन क्या इतने विवश हो? सुख-दुख, धूप-छाँव, वसंत-पतझड़, प्रकाश-अंधेरा तो साथ साथ ही हैं। लेकिन क्या इंसान इतना लाचार हो गया है?)

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