किस की सुनें
ईश्वर
ने हमें यह जिंदगी दी है?
आध्यात्मिक
दृष्टिकोण से तो ठीक लगता है। लेकिन यह सोच कर कर्मभूमि में हाथ पर हाथ धरे बैठना
बुज़दिली है, अकर्मण्यता है। हम खुद अपनी जिंदगी के
निर्माता हैं। जिंदगी या प्राण देना और लेना, हाँ, ये दोनों ईश्वर के हाथ में है। लेकिन इस
यात्रा के आदि से अंत तक का सफर करने वाले हम खुद हैं। कौन से रास्ते पर चलना है, कैसे चलना है, किस गति से चलना है,
किधर चलना है, कब चलना और रुकना है, मुड़ना या घूमना है, धीरे या तेज चलना है, यह निर्णय हमारा है। यह ताकत भी हमारी है। ईश्वर इसमें
दखलंदाजी करने नहीं आता है। न तो उसके पास इसके लिए समय है और न ही इससे उसका कोई
सारोकार। इसे बनाना और बिगाड़ना हमारे हाथों में, कर्मों में है और सबसे ज्यादा सोच में है। हम करते वही हैं जो हम सोचते हैं।
सोचने औए दिशा देने का कार्य बुद्धि और आत्मा करती है। बुद्धि हमें खड्डे में
धकेलती है और आत्मा हमारे जीवन को सँवारती है। हम किस की सुनें? बुद्धि की या आत्मा की? यह निर्णय हमारा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें