शुक्रवार, 23 सितंबर 2016


क्यों और क्या? – हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया 

अंग्रेजों का भारत आने का एकमात्र उद्देश्य अपने व्यापार को बढ़ाना था। केवल अंग्रेज़ ही नहीं विश्व के अनेक देशों के व्यापारी, जिनमें यूरोपीय देश भी शामिल थे, भारत तिजारत करने के लिए आते रहते थे।  इतनी बड़ी संख्या में विदेशियों का भारत आने का एक विशेष कारण था? भारत सम्पन्न था, लोग भले, सीधे-सादे, भोले-भाले, ईमानदार  एवं धनी थे। सोने, चाँदी, हीरे, एवं बहुमूल्य रत्नों का बाहुल्य था।  भारत में प्रचुर मात्र में अनेकों प्रकार की वनस्पतियां एवं खनिज उपलब्ध थीं। यहाँ के कारिगर अपने पेशे में निपुण और उत्कृष्ट कोटि की वस्तुओं का निर्माण करने में दक्ष थे। भारत में आए हुए पर्यटकों, व्यापारियों, छात्रों, धर्म प्रचारकों की डायरी, लेख, यात्रा विवरण को अगर खंगाले तो उन सबों ने एक स्वर में भारत के बारे में यही सकारात्मक बात लिखी है। इन विदेशियों ने ही भारत को “सोने की चिड़िया” के विशेषण का जामा पहनाया। आज से लगभग सिर्फ दो सौ वर्ष पूर्व १८३५ में मैकाले ने ब्रिटिश संसद में यह स्वीकार किया कि उसे पूरे भारत में एक भी भिखारी और चोर नहीं मिला। उसने कहा कि भारत एक धनी देश है, भारतियों का मनोबल बहुत ऊंचा और दृड़ है, वे अपने कार्यों में नपुण हैं। 

व्यापार के लिए आए दलों में सबसे बड़ा दल ब्रिटेन से था। यहाँ की सम्पन्नता, कारीगरी, धन, वैभव और ईमानदारी देख कर ही वे शीघ्रता से अपने पैर पसारने लगे थे। उन्हे अपना भविष्य बहुत सुनहरा दिखा और अपने व्यापार को छल-कपट से बढ़ाना प्रारम्भ किया। देखते देखते ईस्ट इंडिया कंपनी ने, जो कि सिर्फ एक व्यावसायिक कंपनी थी, करीब करीब पूरे भारत को अपने कब्जे में कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने तो बहुत बाद में, २ अगस्त १९५८ को गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट १८५८ के तहत, ईस्ट इंडिया कंपनी से भारत का प्रशासन सीधे अपने हाथ में लिया।  अगर इस पूरे प्रकरण की सूक्ष्मता से जांच करें तो महात्मा गांधी का कथन सत्य साबित होता है – “हिंदुस्तान हमारे हाथ से चला गया, कहने के बजाय यह कहना ज्यादा सही है कि खुद हमी ने उसे अंग्रेजों के हाथ सौंप दिया”।  हम भारतीयों ने ही भारतीयों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया। विश्व इतिहास में  ऐसा उदाहरण  कहीं नहीं है जहाँ एक व्यावसायिक कंपनी के कुछ हजार लोगों ने, जो स्थानीय व्यक्तियों की तुलना में कमजोर भी थे और अपने वतन से हजारों मील दूर भी, करोड़ों की आबादी वाले अपने से बलिष्ठ, शक्तिशाली और  बुद्धिमान राष्ट्र को गुलाम बना लिया। 

जैसे जैसे अंग्रेजों का व्यापार भारत में बढ़ने लगा उन्हें दो चिंताएँ सताने लगीं:
१.      अन्य देशों का आगमन:- उस समय यूरोपीय देश विश्व भर में उपनिवेश खोजने में लगे थे। इस खोज में उनका भी भारत पहुंचना स्वाभाविक था। उनके आगमन से या तो भारत का व्यापार उन सब देशों में बाँट जाता, इससे उनकी आपसी प्रतिस्पर्द्धा में भारत का फायदा और विदेशियों का नुकसान होता।  या फिर अंग्रेजों का अन्य देशों से युद्ध की स्थिति बन सकती थी। दोनों ही अवस्थाओं में अंग्रेजों का नुकसान तो होता ही। इस कारण अंग्रेजों ने भारत के बारे में भ्रामक नकारात्मक प्रचार प्रारम्भ कर दिया कि भारत केवल जंगलों, सपेरों, ठगों और जानवरों का प्रदेश है। लोग अंधविशवासी, असभ्य एवं अशिक्षित हैं। निर्धनता है। उनके इस प्रभावशाली प्रचार तंत्र का बहुत व्यापक असर हुवा। विश्व ने अंग्रेजों द्वारा भारत के बारे में प्रसारित  इस नकारात्मक अभियान को सच मान लिया और बड़ी संख्या में भारत नहीं आए। हाल के वर्षो में कम्प्युटर, सूचना और दूर संचार तकनीक में अपनी पहचान बनाने के बाद ही दुनिया का यह भ्रम टूटा और हम अपनी सकारात्मक छवि बनाने में सफल हुवे।

२.      स्थानीय निवासी: - अंग्रेजों को यह तो समझ आ ही गया था कि भारत के लोग सम्पन्न एवं कुशल हैं। उन्हे लगा कि भारत के पास अपार ज्ञान और धर्म का भंडार है। उन्हे इस बात का डर सताने लगा कि अगर भारतीयों को यह इस बात कि भनक लगी कि वे अंग्रेजों से ज्यादा धनी, ज्ञानी, समझदार, सम्पन्न और मेहनती हैं तो वे उन्हें खदेड़ देंगे। अंग्रेजों को यह बात भी समझ आ गई थी कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति व आध्यात्म के बल पर काफी संगठित है। यही भारत की जड़ तथा रीड़ की हड्डी है। अत: उन्होने हमारी मान्यता, सभ्यता, संस्कृति और भाषा पर सीधे प्रहार करते हुवे जबर्दस्त नकारात्मक प्रचार प्रारम्भ किया। यह स्थापित किया कि हम हर प्रकार से अंग्रेजों से कमजोर, अज्ञानी, असभ्य और अनपढ़ हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति पुरानी और पिछड़ी है। अंग्रेज़ हमसे श्रेष्ठ हैं, हमारी भलाई उनकी बातें सुनने और मानने में ही है। अंग्रेज़ हमारी भलाई और विकास के लिए ही यहाँ हैं।

पूरी दुनिया ने उनकी बात सुनी और मानी, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन हम खुद उनके इस नकारात्मक प्रचार में फंस गए और यह मान बैठे कि पाश्चात्य या अंग्रेज़ियत हमसे श्रेष्ठ है। हमने यह स्वीकार कर लिया कि हमार आचार-विचार-व्यवहार, विवेक-ज्ञान, भाषा-साहित्य, सभ्यता-संस्कृति-धर्म निकृष्ट, पुराना और पिछड़ा है। हमारी तुलना में अंग्रेज़ बेहतर हैं। साधारण जनता ही नहीं पढ़े लिखे समझदार बुद्धिजीवी समुदाय ने भी यह स्वीकार कर लिया और अंग्रेजों की जी हजूरी में लग गई। अंग्रेजों ने एक सोची समझी रण नीति के अंतर्गत हमारी भाषा, सभ्यता, संस्कृति को तहस नहस कर दिया और जड़ से उखाड़ने में लग गई। यही नहीं एक ऐसी व्यवस्था लागू कर दी कि हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी हीन भावना से ग्रस्त रहें। एक ऐसी जमात खड़ी कर दी जो शक्ल और सूरत में तो भारतीय है लेकिन इसके अलावा और हर तरह से अंग्रेज़ है। दुर्भागवश इसी जमात ने अगस्त १९४७ में भारत का प्रशासन सँभाल लिया। सब कुछ वैसा ही रहा केवल चमड़ी का रंग बदल गया। हीरे को फेंक हमने पत्थर को अपना लिया।

विदेशी, जो भारत आए, इनमें दो प्रकार के लोग थे:

एक) चिंतक एवं विचारक – इन्होने भारत से बहुत कुछ सीखा, यहाँ के ज्ञान को समझा और सराहा। इसे पूरी दुनिया में बांटा, प्रचारित और प्रसारित किया। हमारी अमूल्य धरोहरों को खोज खोज कर निकाला और संरक्षित किया। साथ ही हमें भी बहुत कुछ दे गए, जैसे हमारे बहुत से ग्रंथ, जिनमें चारों वेद भी शामिल हैं का पुनरुद्धार किया। अनेक साहित्यिक रचनाएँ तथा धार्मिक ग्रंथ जो लोप होने के कगार पर थीं उनका पुन: प्रकाशन किया एवं संसार की अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद भी किया।  भारत की अंतर्राष्ट्रीय सीमा तय कर इसे पुनर्गठित किया। इसके पहले पूरा भारत छोटे बड़े अनेकों राज्यों एवं  गणपदों में विभाजित था।

दो) शासक वर्ग -  उनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ यहाँ शासन करना और अधिक से अधिक धन इकट्ठा कर अपने देश, ब्रिटेन भेजना था। हम गुलाम थे और वे शासक। इस अवस्था में अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए और अपने शासन को दीर्घकालीन बनाने के लिए उन से जो भी बन पड़ा, साम-दाम-दंड-भेद से, सब किया। हमें बहुत बूरी तरह नोचा-खसोटा-लूटा, अपमानित किया, दुर्दांत हींन भावना से ग्रसित किया। एक पूरी असभ्य और बार्बर जाति की तरह हमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से बर्बाद किया। हमारे साथ वैसा ही व्यवहार किया जैसा एक अत्याचारी शासक अपने  गुलाम से करता है। एक सम्पन्न सभ्यता को भिखारी और जर्जर बना दिया। हमें केवल राजनीतिक ही नहीं मानसिक गुलामी के जंजीरों में भी जकड़ दिया। शासक होने के नाते राजनीतिक दृष्टिकोण से अंग्रेजों के उन कार्यों पर अब  कोई टिप्पणी करना फिजूल है।  


लेकिन, हम आज ७० वर्षों के बाद भी अपने आप को उन्ही जंजीरों में क्यों बांध रखे हैं?  अगस्त १९४७ के बाद भी हम उसी गुलामी के रास्ते पर क्यों चल रहे हैं? हम अपने ही देश में अपने को क्यों पुनर्स्थापित नहीं कर रहे हैं? हम अपने भारत का निर्माण न कर ब्रिटिश इंडिया का ही लालन पालन व पोषण क्यों कर रहे हैं?  इसी क्षोभ की दास्तान है “हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया”। मुद्दे ढेर हैं। सबकी बात एक साथ नहीं हो सकती । अत: समय समय पर एक एक मुद्दे पर एक एक बात।


संदर्भ
१.        हिन्द स्वराज - महात्मा गांधी
२.        ब्रिटिश रूल इन इंडिया - पंडित सुंदरलाल

३.        प्रोसपरस ब्रिटिश इंडिया - विलियम डिग्बी

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