शुक्रवार, 23 जुलाई 2021

जीवन को मिली एक सीख

(हमारी जिंदगी को तराशने में हमारे समाज, परिवार, वातावरण की अहम भूमिका होती है। यह परिवेश किसी को मंदिरका देवता बना देता है, किसी को नींव का पत्थर तो किसी को राह में ठोकर खाने वाला रोड़ा। लेखिका मेहरुन्निसा परवेज़ के एक संस्मरण का कुछ अंश जो लगभग चार दशक पहले लिखा गया था।)

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लेखिका बताती हैं कि वे एक सम्पन्न परिवार से थीं लेकिन स्कूल में उनकी दोस्ती एक साधारण परिवार की लड़की गंगा से हो गई थी। गंगा जशपुर जेल में, सिपाहियों की नजर बचा कर पेड़ से कूद कर घुस जाती और ढेर सारे नसपाती चुरा कर जमा कर लेती और लेखिका उसका स्लेट पकड़े निगरानी करतीं।

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वह मेरे लिये अपने घर से रोटी लाती थी। हम दोनों टिफिन बदल कर खाते थे। मुझे अपने घर के गेंहू के पराठे पसंद नहीं आते थे और उसकी ज्वार की रोटी और चटनी मुझे बहुत अच्छी लगती थी। ज्वार की रोटी की वह सोंधी सुगंध मुझे बहुत भली लगती थी। ...

 

...  वह लड़की (गंगा) काफी फक्कड़ तबीयत की थी। उसने ही मुझे बाजार जाना सिखाया। अकसर हम दोनों वहाँ लगने वाले छोटे-से हाट पर चली जातीं और लाई-चना, अमरूद, बेर, इमली खरीद कर चोरी से खाया करते थे। मैं उसके साथ ये सारे काम बहुत चोरी से करती थी, हाट भी जाती तो बड़ी सड़क को छोड़कर छोटी-छोटी गलियों से लुकते-छिपते जाते थे।

 

एक दिन हमलोग स्कूल के बाद सीधे हाट चले गये और वहाँ हम दोनों लाई-चना खरीद रहे थे। मेरी और उसकी दोनों की फ्रॉक की ओली में लाई चना था तथा  बस्ता पीछे बंधा था। हम दोनों लाई-चना मुट्ठी-मुट्ठी उठा कर फाँकने लगे। आखिर घर भी तो जल्दी जाना था। शाम हो चली थी। तभी उधर से एक मोटी सी औरत सर पर सब्जी का टोकरा लिये आई और बोरा बिछाकर अपनी दुकान लगाने लगी कि तभी उसकी नजर गंगा पर पड़ी और वहीं से ज़ोर से चिल्लाई, अरी गंगा, तेरा बाप तेरी माँ को कूटे डाल रहा है। कमरा बंद कर लिया है। जा, जल्दी घर जा नहीं तो तेरी माँ को तेरा बाप मार ही डालेगा

 

सुनते ही गंगा का चेहरा फक पड़ गया। मुट्ठी में भरा लाई चना गिर गया, ओली सीधी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू भर गये और वह घर की ओर बेहताशा भागने लगी। मैंने भी सारा लाई-चना फेंक दिया और उसके पीछे भागने लगी। मैं भूल गयी थी कि मेरा घर दूसरा है और अब शाम हो गयी है। मुझे घर जाना चाहिये। मैं उसके पीछे सरपट भाग रही थी, जैसे कोई मेरी माँ को कूटे डाल रहा हो। गंगा माँ माँ चिल्ला रही थी और रो रही थी। उसका घर एक छोटी सी गली में नाले के किनारे था। खोली बंद थी और भीतर से किसी औरत की रोने-चीखने की आवाज ज़ोर-ज़ोर से आ रही थी। आसपास मुहल्ले के कुछ लोग खड़े थे।

 

गंगा दरवाजा पीट रही थी, बापू, दरवाजा खोल, माँ को मत मार, बापू दरवाजा खोल। गंगा के साथ मैं भी दरवाजा पीटने लगी थी और वही शब्द दोहराने  लगी थी, साथ हो रोते भी जा रही   थी।  मैं भूल गयी थी कि गंगा का घर पराया है। मैं उसके दुख में इस तरह खो गयी थी कि अपना अस्तित्व भी भूल गयी थी।

 

मेरी नन्ही सी जान हैरान थी कि ऐसा धक्का, ऐसा दुख गंगा को कैसे मिला? हादसा उसके घर हुआ था, दुख उस पर पड़ा था, पर उसकी नंगी चोट का एहसास मेरे मन पर सीधा पड़ रहा था। तब भी और आज भी मैं हैरान हूँ कि ऐसा क्यों हुआ था? उसके वातावरण और मेरे वातावरण में जमीन आसमान का अंतर था। अमीरी और गरीबी का यह भेद अचानक एक क्षण में समाप्त कैसे हो गया था? बस दु:ख था, जिसकी आँच हम दोनों को बराबर लग रही थी। उस दिन मैं अपनी उम्र से बहुत बड़ी हो गई थी। मैं दूसरे के दर्द की चुभन महसूस कर रही थी। गंगा मेरी पहली पात्र थी, जिसके दर्द में मैंने अपना दर्द देखा और मेरे नन्हें-से मन में अनजाने में एक लेखिका ने जन्म लिया। गंगा के रूप में मेरी पहली कहानी, जो आगे आगे दौड़ रही थी, और मैं उसकी सारी चुभन को अपने भीतर समेटे कहानीकार के रूप में उसके पीछे दौड़ती, उसकी गंदी गली में गयी थी। यह मेरे लेखक मन की  पहली पहचान थी, पहला एहसास था जो मुझे कभी नहीं भूलता। ...

 

गंगा का मेरा साथ कुछ महीनों का था। हमारा ट्रांसफर हुआ और हम दूसरे शहर में चले गये। पर गंगा को, जेल की दीवार को, नसपाती को, उसके घर ज्वार की सोंधी महक से भरी उस रोटी को मैं भूल नहीं पायी।... 

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(एक लंबे अरसे के बाद लेखिका की मुलाक़ात गंगा से हुई, ट्रेन में। दो महिला पुलिस एक अपराधी औरत को लिये जा रही थी। यह अपराधी औरत गंगा थी।)

...उसने आँखें खिड़की से बाहर कर ली, उसकी साँवली मोटी आँखों में आँसू भर गये थे। थोड़ी देर बाद वह फिर से मेरी तरफ देखने लगी थी, मैं गंगा हूँ, पर एकदम अपिवत्र। गंगा इतने वर्षों के बाद मुझे इस हाल में मिलेगी, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। ... मेरा मन इतना कड़वा सत्य देखने को तैयार नहीं था।

 

जब मेरा स्टेशन आनेवाला था, तो उसने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिये, मुझे पता है कि अब हम कभी नहीं मिलेंगे। मुझे १४ साल की सजा तो होगी ही, पर मैं आज जो हूँ, जहाँ हूँ, उसके जिम्मेदार लोग कौन हैं? क्या मेरे माँ-बाप नहीं? मेरी माँ ने मुझे इतनी नन्ही-सी उम्र में मुझे अपने दु:ख का भागीदार क्यों बनाया? मुझे हकीकत का सामना क्यों कराया? उन्हें मेरा बचपन छीनने का क्या हक था? मेरे कच्चे मन पर हथौड़ों से दु:खों की मार क्यों दी? माँ ने अपने दु:खों का गवाह मुझे ही क्यों बनाया? और आज दु:खों का सामना करते-करते मैं खुद एक अपराधीन बन गई हूँ

 

स्टेशन आया, मैं उतर गयी। वह खिड़की के पास बैठी थी। सलाखों के पार उसकी आँखें रो रही थीं और मेरी भी आँखें भरी हुई थीं। मन डूबा हुआ था गंगा के दर्द में। गंगा के दर्द को मैं फिर सह रही थी, एक ही दर्द को हम दोनों फिर से झेल रहे थे। यह मेरे कहानीकार मन पर दूसरी चोट थी। उस दिन मैंने जाना कि लेखक और पात्र का रिश्ता कितना गहरा होता है।

(कवि ने कुछ अनुभव पर ही ये पंक्तियाँ लिखी होगी

                        वियोगी होगा पहला कवि, आह! से उपजा होगा गान,

                                                उमड़कर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।)

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