यूनान-ओ-मिश्र-ओ-रुमा, सब मिट गए जहाँ से ,
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा।
सारे जहाँ से अच्छा
हिन्दोस्तान हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
...........
इकबाल ने लिखा
हमने पढ़ा प्रसन्न भी हुए और गौरवान्वित भी। लेकिन विचारणीय तो यह है कि ऐसा हुआ
क्यों? ऐसा क्या है कि इतनी समृद्धशाली संस्कृतियाँ काल के गाल में समा गईं लेकिन हमारी हस्ती अभी भी मौजूद है। यह कोई
अकस्मात नहीं हुआ और न ही दैवयोग से। इसका
कारण है हमारे कुछ मूलभूत सिद्धान्त। इन सिद्धांतों को हमें किसी ने नहीं
पढ़ाया, किसी ने नहीं बताया लेकिन पीढ़ी दर पीढ़ी
हम सब इसे सीखते चले गए और यह अहसास तक नहीं हुआ कि हम कुछ विलक्षण सिद्धांतों को
प्रतिपादित कर रहे हैं। हमारी नसों में समाये ये सिद्धान्त
हमारे प्राचीनतम ग्रंथ, ऋग्वेद की देन हैं। हमने सबके वजूद
को स्वीकार किया, सबको जगह दी। ‘हम और
केवल हम’ ऐसी विचारधारा नहीं है। यह कहना सही नहीं है कि हमारा देश एक सराय जैसा है जहां हर किस्म के
लोग आते रहे, ठहरते रहे और हमें प्रभावित करते रहे और उनके
आने से हमारे अंदर यह विचारधारा उत्पन्न हुई। विपरीत इसके हमारे पास ऐसी विचार
धारा थी इसलिए हमने सबको आत्मसात किया। बस ये कुछ बाते हैं जिसे हम जानते हैं, समझते हैं, मानते हैं। जिसे दूसरे समझ ही नहीं
पाते वे हमारे लिए साधारण सी बात है। क्या हैं वे सिद्धान्त जो हमारे वजूद को
बनाए रख्खा है, हमारी हस्ती को मिटने नहीं देता:-
१। सब एक
हैं, लेकिन स्वरूप अनेक हैं -
जितने भी
पूज्य स्वरूप हैं, दिव्य देव हैं, देवता हैं,
भगवान हैं चाहे वे किसी प्रतिमा के रूप
में हों, प्रतीक के रूप में हों, विचार
के रूप में हों,
वास्तव में ये सब एक ही शक्ति के स्वरूप हैं। ये विचार हमारे सबसे
प्राचीनतम ग्रंथ, संभवत: विश्व के सबसे प्राचीनतम ग्रंथ, ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से मिलता है, बार बार मिलता
है। ‘एकम सत’ एक ही सत है।
इस धारणा
के बनने से इस विचार की उत्पत्ति होती है कि मैं जब किसी के देवता को देखता हूँ तब
मैं कहता हूँ कि मेरे देवता ये हैं और मैं इनका भक्त हूँ, तुम्हारे देवता वो हैं और तुम उनके भक्त हो। मैं इनके सामने नतमस्तक हूँ
तुम उनके सामने नतमस्तक हो लेकिन वास्तव में ये दोनों एक ही हैं। तो
इतना भर मान लेने से यह झगड़ा नहीं रहता कि मेरा देवता सत्य है और तेरा असत्य है। ट्रू
गॉड एंड फाल्स गॉड (True God and false God) का संघर्ष
समाप्त हो जाता है। हम यह मानते हैं कि सबके देवता सत्य हैं। अत: यह स्वीकार करना
पड़ेगा की जब ऋग्वेद की रचना हुई उस समय भिन्न भिन्न स्वरूपों, ईश्वरों के मानने वाले लोग थे। इसीलिए ऋग्वेद के समय यह मंथन और संघर्ष
हो चुका था और यह सिद्धान्त प्रतिपादित हो
चुका था। इस प्रकार हमने दूसरों की आस्था को मान्यता दी,
उन्हे दुतकारा नहीं, उन्हे भी जगह दी,
उन्हे भी स्वीकार किया।
2। आकार और
निराकार, सगुण और निर्गुण एक हैं, इनमें भेद नहीं है –
एक देवता
है या अनेक देवता हैं? क्या इनके अनेक स्वरूप हैं? इतने स्वरूप हो सकते
हैं या नहीं? क्या ये साकार है या निराकार? इनकी मूर्ति बनानी चाहिए या नहीं? अगर वह निराकार
है तो साकार हो ही नहीं सकता अत: उसकी प्रतिमा बन ही नहीं सकती। वेद में लिखा भी
है ‘उसकी प्रतिमा नहीं बन सकती’।
मान लिया
कि वैदिक काल में या ऋग्वेद में मूर्ति पूजा है। लेकिन वही वेद देवी देवताओं के
सम्पूर्ण स्वरूप का वर्णन कर उनकी ‘वाक’ प्रतिमा भी तैयार करता है। उनके स्वरूप के वर्णन में उनके प्रिय रंग, वस्त्र, हथियार, मुद्रा, वाहन, रुचि, शक्ति आदि अनेक
वस्तुओं और इच्छाओं का विस्तृत वर्णन भी करता है और उनकी पूजा भी। स्थूल
प्रतिमा हो-या-न-हो वाक प्रतिमा तो थी ही।
तब उसका आकार तैयार हो गया। तब यह निराकार कहाँ रहा। अत: यह कैसे कह सकते
हैं कि वेद में सगुण उपासना नहीं है, भले ही पत्थर की, लकड़ी की, अन्य किसी द्रव्य से बनी प्रतिमा न हो। एक स्वरूप तो हो ही गया। यह ऋग्वेद में ही है।
अत: वेद
में मूर्ति है या नहीं यह विवाद नहीं रहा। इस प्रकार हमने आकार – निराकार दोनों को
स्वीकार ही नहीं किया बल्कि दोनों को एक ही बताया और उसका नामकरण किया ‘ब्रह्म’ । आकार एवं साकार, निर्गुण एवं
सगुण दोनों को मान्यता दी, दोनों को स्वीकार कर सबको अपने में समेट लिया।
3। कर्म
सर्वोच्च है, इससे बड़ा कुछ भी नहीं है –
सबों को
अपने कर्म का ही फल मिलता है। हर कोई अपने कर्म से ही बंधा है और उसी से बना है। वैदिक विचारधारा इस पर
पूर्णतया स्पष्ट है कि दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता, ईश्वर भी
नहीं। सब अपने ही कर्मों का फल है। मैं जो भी करूंगा मुझे उसका फल मिलेगा। मैं
अपने कर्म से बंधा हूँ, उसीसे बना हूँ। कोई दूसरा इसमें
हस्तक्षेप नहीं कर सकता, ईश्वर भी नहीं। इस प्रकार कर्म की
ही प्रधानता है। ईश्वर की कृपा से, गुरु की कृपा से, किसी और की कृपा से शायद छुटकारा मिल जाए, दुख या पाप
का निवारण हो जाए! -
ऐसा नहीं हो सकता है। जब भी इनकी कृपा की बात करते हैं
इसका अर्थ लेवल इतना भर ही है कि मेरे कर्मों के कारण हो सकता है ये हमें रास्ता
दिखा दें, हमारी रक्षा करें, हमारी
सहायता करें। बस इतना ही। लेकिन यह निर्भर है हमारे कर्म पर। इस प्रकार हमने उस
सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे सब सीधे या प्रकारान्तर से स्वीकार करते हैं।
जब तक हम
इन सिद्धांतों पर कायम हैं, इन्हे स्वीकार करते
हैं हमारी सभ्यता बनी रहेगी। हमारी हस्ती मिटेगी नहीं, हमारा
नामों निशां बना रहेगा।
डॉ
भारत गुप्त से प्रेरित
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