अधिकार!
अधिकार!! अधिकार!!! हक़! हक़!! हक़!!!। कर्तव्य?..........
फर्ज़?...........
अधिकारों
और हक़ के शोर में कर्तव्य और फर्ज़ गूंगे हो गए हैं। बढ़ते अधिकारों की मांग के
सामने कर्तव्य ने चुप चाप पलायन कर लिया। हक़ के सामने फर्ज़ ने घुटने टेक दिये। अधिकारों
और हकों की लड़ाई से परेशान होकर कर्तव्य और फर्ज लोप हो गए।
चारों तरफ ‘अधिकार’ की मांग बुलंद है। अल्पसंख्यकों का अधिकार -
दलितों का अधिकार - वनवासियों का अधिकार - जनजातियों का अधिकार - औरतों का अधिकार -
पत्नियों का अधिकार - धार्मिक संस्थाओं का अधिकार - मनुष्य होने का अधिकार। अब तो
बातें और आगे बढ़ गई हैं जैसे धार्मिक स्थलों में प्रवेश का अधिकार - धार्मिक स्थल
के निर्माण का अधिकार - विवाहेतर संबंध
बनाने का अधिकार - समलैंगिक भोग का अधिकार – तलाक का अधिकार – तलाक न देने का
अधिकार ......... और न जाने कौन-कौन कैसे-कैसे अधिकारों की बात कर रहा है। क्या हमें
यह भान है कि अधिकारों के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं? आज अधिकार की मांग करने वालों में से कितनों को उससे जुड़े कर्तव्य की
जानकारी है? क्या हमें यह बोध है कि हर अधिकार किसी न
किसी कर्तव्य की अदायगी के लिए ही दिया जाता है?
बिना कर्तव्य
का अधिकार दुख लाता है और इसके विपरीत
बिना अधिकार का कर्तव्य सुख लाता है। अधिकार सिवाय दुख के और कुछ नहीं लाता सुख तो
लाता ही नहीं है। क्षणिक आनंद भले ही ले आए लेकिन सुख नहीं। क्योंकि सुख तो
स्वीकार कर लिया गया है कि यह होना ही चाहिए। कितना और कैसा यह भी स्वीकार कर लिया
गया है। वह नहीं हो तो? तो, दुख ही आता है। यह दुख और अधिक अधिकार की चाह
उत्पन्न करता है। अधिकार का तो केवल नशा होता है। थोड़ी देर के नशे में, भूल-भुलईय्या में दुख भूल जाएँ लेकिन वह वहीं रहता है। जस का तस। नशा
उतरते ही दुख वापस चढ़ बैठता है।
अगर क्षण
भर समय निकल कर विचार करें तो तुरंत समझ आ जाता है कि जैसे ही हम श्रेय की मांग
करते हैं तुरंत और दावेदार तथा उसे छीनने वाले आ जाते हैं। जहां हमने कोई दावा किया
वहीं उसका खंडन करने वाले पैदा हो जाते हैं। हम जो भी चाहते हैं उसका विपरीत
तत्काल पैदा हो जाता है। प्रशंसा के साथ निंदा और आदर के साथ निरादर का
चोली दमन का साथ है। सिंहासन पर बैठने वाले धूल में गिरते हैं। सुख के चाह में हम
दुख का झोला भर लेते हैं।
वहीं
कर्तव्य का पालन करें तो सहायक खड़े हो जाते हैं। लोगों की आँखों में प्रशंसा, अधरों पर मुस्कान, हृदय में सम्मान भर जाता है। कर्तव्य
पालन सिवाय सुख के और कुछ नहीं लाता। कर्तव्य पालन में दुख-कष्ट स्वीकार कर लिया जाता है कि कष्ट तो होना ही
है। कब और कितना यह भी स्वीकार कर लिया जाता है। उतना कष्ट-दुख आए-न-आए, सुख तो आता ही है। प्रारम्भ में कुछ दुख-कष्ट की संभावना है लेकिन आसन्न सुख
के समक्ष नगण्य है। यह सुख हमें और कर्तव्य पालन के लिए प्रेरित करता है। सुख के पीछे
पीछे आनंद और शांति स्वत: चले आते हैं।
अगर हम
चेष्टा न करें, कोई प्रयास न करें, कर्ता न बनें, दावे न करें तब हमें वह सब कुछ मिल
जाएगा जिसके लिए हम ये सब कुछ करते हैं - अपरिमित
सुख, प्रसन्नता और शांति।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें