शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

प्रगति का अर्थ

हिमाचल प्रदेश के कुमायूँ अंचल से हैं हिन्दी लेखिका शिवानी। उन्होने कुमायूँ देखा नहीं, जीया है। उन्नति, प्रगति, आधुनिकीकरण क्या होता है उनसे ज्यादा कौन समझ सकता है। इसकी क्या कीमत चुकनी पड़ती है? इसका अंदाज और उससे ज्यादा अहसास शिवानी की लेखनी में पढ़ा नहीं महसूस किया जा सकता है। उनकी कहानी पुष्पहार के अंश-
“.... ग्राम को डिजनीलैंड ही बनाकर छोड़ेगा, देखते ही देखते कच्ची सड़क ने केंचुली उतार दी। फक-फक करता बुलडोजर, निरीह पहाड़ी-घाटियों का कलेजा रौंदने लगा। पीपे के पीपे कोलतार की मोटी  तहों ने पीली धूप-भरी सड़कों पर शहरी व्याधि की स्याही फेर दी। डाइनामाइट की दिल दहलाने वाली गर्जना से आए दिन त्रस्त गिरि-कन्दरायें गूंजने लगीं। फिर नई बनी क्षीण कलेवर की सड़क पर अफसरों की जीप-गाडियाँ आईं, मंत्री की झण्डा लगी बनी-ठनी वेश्या सी इठलाती चमकती गाड़ी और फिर आईं देश-विदेश से पर्यटकों से  लदी लग्ज़री बसें।

देखते ही देखते वह ग्राम हवाई द्वीप सा ही प्रसिद्ध हो उठा। जहां का शुद्ध पहाड़ी घृत अपनी पावन सुगंध की सुख्याति कभी दूर-दूर तक फैलता आया था, अब चूर की मिलावट से अपने सुनाम पर कालिख पोतने लगा। पास ही में  मिलिटरी की एक बड़ी टुकड़ी भी आ गई थी। सीमा के प्रहरी शराब की हुड़क लगने पर धेले-टके में ट्रांज़िस्टर बेचने लगे और धीरे-धीरे ग्राम के बंदरों ने भी अदरख का स्वाद लेना सीख लिया। जो सुरम्य घाटियां कभी मधुर झोड़े गीतों से गूँजती थी, अब विवशता से फिल्मी गानों से गूंजने लगी। एक लौंडरी खुल गई। जिस ग्राम में मिश्री की डली ही मिठाई मानी जाती थी, वहीं एक व्यापार कुशल हलवाई ने पहाड़ की प्रसिद्ध बाल्सिंघौड़ियों की ऐसी भव्य दुकान खोल दी की लोग शहरियों की भांति मिठाई का स्वाद लेना भूल गए, रंगीन मनमोहक डिन्नों का ही स्वाद लेने लगे।

प्रगति? क्या इसे ही प्रगति कहते हैं? स्थानीय इंसान को रौंद कर शहरी व्यक्ति के लिए जगह बनाना ही क्या प्रगति है? गाँव के सीधे सादे लोगों में भी शहरी (अव)गुणों को भरना, गाँव की मोहक सुगंध को इंपोर्टेड पर्फ्यूम से बदल देना। गाँवों से विस्थापित कर शहर की झुग्गी झोपड़ियों में बिलबिलाने के लिए छोड़ देना?  ......



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