यह बात आजादी
के पहले की है। अँग्रेजों के शासन के समय एक प्रख्यात विद्यालय था। इसमें प्राय: विद्यार्थी अमीर घरों से आते थे। उनमें ज़्यादातर
विद्यार्थी फैशन परस्त एवं अंग्रेजों का ही लिबास पहने दिखते थे। उस विद्यालय में
एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया। प्रवेश
के समय उसकी पोशाक धोती-कुर्ता व साधारण जैकेट थी। विद्यालय के छात्रों ने उस
नवांगतुक छात्र को देख कर उसका खूब मज़ाक उड़ाया। उस पर कटाक्ष भी किया। इसे सुन छात्र
अप्रभावित रहा और बोला, “यदि पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो कोट पेंट पहनने
वाला हर अंग्रेज़ ‘ऋषितुल्य’ होता। मुझे
तो उनमें ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। इस गरम प्रदेश में आने वाले
अंग्रेज़ अपनी संस्कृति की प्रतीक पोशाक को यहाँ के अनुरूप नहीं बदल सकते तो मैं ही
उनकी देखा देखी अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ? मुझे अपने इस झूठे सम्मान से
अधिक अपनी संस्कृति प्यारी है। जिसे जो कहना है कहे, पर मैं
अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक त्यागना मेरे लिए मरणतुल्य
है”।
वह
विद्यार्थी और कोई नहीं, वरन प्रसिद्ध विचारक व क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी थे, जिन्हे अपनी संस्कृति
से गहरा लगाव रहा।
पढ़ और सुन कर
तो हम नहीं समझते लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि हम यह देख कर भी नहीं समझ सके
कि ठंडे प्रदेश से गरम प्रदेश में आने पर
भी गोरों ने अपनी पोशाक नहीं छोड़ी और हम गरम प्रदेश में रहते हुए भी अपने प्रदेश की पोशाक छोड़ कर उनकी
नकल में ठंडे प्रदेश की पोशाक को अपना लिया। अब तो हमें आजाद हुए सात से ज्यादा दशक हो चुके हैं, हम कब नकल करना छोड़ अकल से काम लेना सीखेंगे।
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