शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

नेता बनने का आसान उपाय


कुछ समय पहले मैंने बताया था कि बतौर राजेंद्र लहरिया एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता बनने के लिए यह आवश्यक है कि लोग आप से डरें। राजेन्द्र की कहानी के नायक को राजनीतिक कार्यकर्त्ता का कार्य केवल इसलिए नहीं मिला क्योंकि उसके मुहल्ले वाले भले ही उसकी इज्जत करते हों, उसे एक सज्जन-भला पुरुष  मानते हों लेकिन उससे कोई डरता नहीं था। यही नहीं उसे यह भी समझ नहीं आया कि इस कार्य के लिए जनता में उसका लोकप्रिय होने के बजाय जनता का उससे डरना ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों है?

बहरहाल हम राजेन्द्र को छोड़ कर मुड़ते हैं शिवानी की तरफ। हिन्दी की जानी मानी और बेहद लोकप्रिय  लेखिका। उन्होने अपनी कहानी करिए छिमा में  आनन फानन में नेता बनने का उपाय सुझाया है –
“विद्यार्थियों की हड़ताल हुई तो काला झण्डा लिए, उस (कहानी के नायक) के कुल-दीपक ने ही स्वयं पिता का पुतला जला, विद्यार्थी समाज में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। जहां नेता का पद प्राप्त करने में पिता को सर्वस्व त्यागना पड़ा था, वहाँ पुत्र ने तीन दिन में सात बसें जला, असंख्य सरकारी इमारतों के बेंच तोड़, एक रेलगाड़ी उलट, नेता का सर्वोच्च पद अनायास ही प्राप्त कर लिया था”।

यह है हमारी आज की राजनीति का खेल, और इसके लिए जिम्मेदार हम हैं, दूसरा कोई नहीं। विधायकों और प्रशासकों ने समझ लिया है कि अंग्रेजों की गुलाम सहते सहते भारत की  जनता मानसिक गुलाम बन कर रह गई है। वह हर प्रकार का जुल्म सह लेती है। वह अन्याय बरदास्त करना सीख गई है। सरकार और प्रशासन ने समझ लिया है कि जनता न कुछ कहेगी न कुछ करेगी।  वह केवल एक मूक दर्शक बनी रहेगी। अपार शक्ति होने के बावजूद वह अपने आप को नि:सहाय ही समझती है। सब यही समझते हैं कि मैं अकेला 
क्या कर लूँगा? वह भूल गई है कि एक और एक ग्यारह होता है। प्रतिरोध करने के बजाय मुंह, आँख और कान बंद रखने में ही भलाई मानती है। और ऐसे दर्शकों में प्राण फूंकने वाले गांधी को मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहती है

अभी कुछ समय पहले अन्ना हज़ारे के रूप में एक मजबूर इंसान आया था। न लाठी उठाई, न बंदूक। न बम चलाया, न तोड़ फोड़ की। न आग लगाई न नारेबाजी की। न आरक्षण की बात की, न कर्ज माफी की। लेकिन पूरे देश के युवाओं को जोड़ दिया, इसी शक्तिशाली सरकार और प्रशासन को घुटने के बल बैठा दिया। अब आप ही बताएं वे मजबूर थे या मजबूत?

गांधी तो महान योद्धा था। हर समय, हर युद्ध में स्वयं सबसे आगे खड़ा मिला। गांधी केवल खुद ही नहीं लड़ा बल्कि एक ऐसी विशाल बहादुर योद्धाओं की सेना खड़ी की, एक ऐसी निहत्थी सेना, जैसी इतिहास में कोई नहीं कर पाया। बिना किसी हथियार के हथियारों से लदी सेना के सामने सीना तान कर खड़ी हो गई और उसे मजबूर कर दिया। मजबूर तो हम हैं, हर प्रकार का जुल्म देखते रहते हैं, अन्याय बरदास्त करते हैं, अपमान सहते हैं लेकिन चूँ तक नहीं करते, और दोष दूसरों को देते हैं। अगर गांधी मजबूर था तो देश की इतनी विशाल जनता में एक तो मजबूर बन कर दिखाये? देश बदल जाएगा।



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