शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

कुछ तो सुनिए अपनों की

 कुछ तो सुनिए अपनों की,

       कुछ तो सुनाइये अपनों को,

             कुछ तो सरल बनिये

(जीवन-यात्रा में मानव ने हर वह वस्तु प्राप्त कर ली है, जो जीवन को आसान बना रही है। मनुष्य इस आराम को दिन-ब-दिन बढ़ाने की तरफ़ ही बढ़ रहा है... इतनी सुचिता, इतने आराम के बावजूद मनुष्य अपनी सरलता छोड़ नहीं सका है... वह तलाशता रहा है किसी ऐसे को, जिससे वह निर्भय हो कह सके अपने मन की बात और आज यह तलाश बेचैनी में बदलती दिख रही है।)

कुछ समय पहले एक समाचार पढ़ा – जापान में लोग अब श्रोता किराए पर लेने लगे हैं। समाचार विचित्र लगता है, पर यह इस नए युग की विडम्बना भी है। जापान में इस ऑनलाइन सेवा का आरंभ टाकानोबू ही निशीमोटो ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर किया है। निशीमोटो की उम्र लगभग पचास वर्ष है और उनके सभी साथी क़रीब 45 से 50 वर्ष की उम्र के ही हैं, इन्हें ओसान (OSSAN) कहा जाता है। ये सभी कार्यकर्ता करीब 1000 येन प्रति घंटे के हिसाब से उपलब्ध हैं।

          क़रीब चार वर्ष पूर्व आरंभ हुई इस सेवा के सदस्यों का है काम है 'सुनना', ये सभी सदस्य समझदार और पढ़े-लिखे हैं। अजीब बात यह है कि निशीमोटो हर महीने अकेले ही क़रीब 30-40 ग्राहकों को सुनते हैं। विडम्बना यह है कि लोग इन ओसान को सिर्फ़ इसलिए लेते हैं कि वे किसी से अपनी बात कह सकें। इस ग्रुप के ये लोग सदस्य की मांग के अनुसार निश्चित जगह या घर पर जाते हैं, जहाँ वे सामने वाले की पीड़ा, अकेलेपन के दर्द या व्यथा कथा या अनुभवों को गंभीर श्रोता की तरह सुनते हैं और उनकी भावनाओं के सहभागी होते हैं। यह कोई मनोवैज्ञानिक उपचार पद्धति नहीं है पर 'मेरी कोई सुनता नहीं' या 'किससे कहूँ' की छटपटाहट से निकलने का एक जरिया अवश्य है। किससे कहूँ' एक ऐसी व्यथा है जो इसे झेल रहा है वही इसकी वेदना या पीड़ा जानता है। ये सोशल आइसोलेशन या अकेलापन सामाजिक होने पर भी सामाजिक नहीं है। अनेक रिश्ते हैं, मित्र हैं, पर एक भी अपना-सा नहीं लगता। एक भी कंधा ऐसा नहीं लगता जिस पर सिर रख कर रो लें। जिससे अपनी पीड़ा कही,  कभी सुननेवाला जिसे अपना समझते थे,  अब ईर्ष्या से दग्ध-सा लगता है। कभी उपहास करता-सा, कभी अनसुनी करता-सा, कभी बातों को इधर-उधर फैलाकर चर्चा का विषय बनाता-सा, डर लगता है, किससे कहें कि दर्द उपहास का विषय न बने।  पीड़ा या वेदना जो अपनों से ही मिली है, कहीं उन्हीं तक न पहुँच जाए और बात सुलझने के बजाय इतनी बिगड़ जाए कि सुलझने की उम्मीद ही खत्म हो जाए। इस भय ने ही मानसिक अकेलेपन को जन्म दिया है और खो गई है सरल सहज रिश्तों की मिठास, हर रिश्ते में कुछ अनजाना-सा भय हो गया है कि कहीं कुछ गलत न कह दें, कहीं किसी गलत को न कह दें। यही भय अकेलेपन की त्रासदी को जन्म देता है और ओसान' उसी अकेलेपन के साझीदार होते हैं।

          कभी-कभी हम अपने विषाद - समस्याओं में इतने व्यथित हो जाते हैं या अपनी खुशी से इतने आह्लादित कि लगता है किसी से कह दें तो मन हल्का हो जाए, कोई तो सुने, समझे। बिना किसी पूर्वाग्रह या आलोचना के बस सुन भर ले। मन में घुटन होती है। कभी बात बिगड़ने का डर, कभी रिश्ते टूटने का, कभी अपनी छवि बिगड़ने का डर, कभी दूसरों की और भी न जाने क्या-क्या? वर्जनाएँ, प्रवंचनाएँ, कभी उपहास का डर, कभी ठगे जाने का, कभी अपनी कमियाँ, कभी मजबूरियाँ और इन सबसे जूझता मन। पर कहें तो किससे...? रिश्तों की डोर अपनेपन और सहजता से बनती है। जब संयुक्त परिवार थे तब कहासुनी थी, गीत थे, त्यौहार थे, मान-मनौवल थी, साथी थे, संवाद थे तो अकेलापन भी नहीं था। अब अनगिनत साधन होने पर भी अकेलापन है। जीवन सरल-सहज था। शान-शौकत-दिखावा-आडंबर नहीं था। जैसे हैं, वैसे ही थे। हम तो ऐसे हैं भैया  पुरुष, स्त्री, बच्चे, बड़े, अमीर, (गरीब कम) इस अकेलेपन का शिकार होते जा रहे हैं।

          कुछ थोड़ा-सा समय अपनों को दें, सहज-सरल बन कर। जीवन की आपाधापी तो चलती ही रहेगी, पर कुछ तो कहिए, कुछ तो सुनिए अपनों की बस ध्यान रखना चाहिए कि कोई अगर अपनी व्यथा कह रहा है तो उसका उपहास न करें, न आलोचना करें। गम्भीर श्रोता बन कर सुन भर लें। न आदर्शवादी सुझाव दें, न ज्ञान बघारें, न अहं आड़े आने दें। अगर आप सुनना सीख गए तो सुनने वाले भी आपके इर्द-गिर्द जमा हो जाएंगे।

          हमारे यहाँ की चौपाल, संयुक्त परिवार, परंपराओं, साझे-चूल्हे, दादी-नानियों का संरक्षण, कथा कहानियाँ, उत्सव, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और संस्कारों, संस्कृति ने इस अकेलेपन से बचा रखा था। पर अब दिखावे, आडंबरपूर्ण व्यवहार और बढ़ते हुए आधुनिकता के झूठे प्रभाव ने व्यक्तियों को चंगुल में लेना शुरू कर दिया है। और अब अकेलापन हमें भी जकड़ने लगा है। घुटन, संवादहीनता जिंदगी का हिस्सा बनने लगी है। पहले अपनापन था अब अकेलापन है, इसके पहले कि हवा आँधी बने, तूफ़ान बने, कुछ तो थमिए, कुछ तो रुकिए, कुछ तो सोचिए। रिश्ते बनाइए, रिश्तों की डोर मजबूत कीजिए।

          सहज बनिए, सरल बनिए, पहले अपने प्रति फिर दूसरों के प्रति। अपनी सुनाने की जल्दी न करें, दूसरों की सुनें। सुनने लगेंगे तो सुनने वाले भी मिल जाएंगे।

(डॉ. अलका चौबे)

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